सोमवार, 29 अगस्त 2016

केवल प्रगतिशील गॉसिप या हवाबाजी से क्रांतियाँ नहीं भ्रांतियाँ ही हो सकती हैं।

 अत्यंत खेद की बात है कि जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है ,सामान्य राजनैतिक प्रतिस्पर्धियों की तरह ही तमाम वामपंथी - धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी भी अपने ज्ञान के अजीर्ण का भौंडा प्रदर्शन  किये जा रहे हैं। यदि आये दिन प्रधानमंत्री मोदी जी अपनी अल्पज्ञता दिखलाते हैं ,यदि उनके पक्षधर स्वामी,मुनि -बाबा लोग धुर -सामंत-  युगीन दलित-स्त्री शोषण का  फूहड़ दर्शनशात्र  बघारते रहते हैं ,यदि प्रकाश जावड़ेकर जैसे विद्वान मंत्री गण नेहरू,पटेल और सुभाष चन्द्र बोस को फांसी पर चढ़ना बताते हैं, यदि ऐन चुनाव के वक्त 'संघ प्रमुख' आरक्षण और 'हिन्दू जनसँख्या' क्षरण पर चिंता जताने लग जाते हैं ,तो यह सब उनका अज्ञानजनित 'सहज स्वभाव' है। यह उनका राजनैतिक पाखण्ड भी हो सकता है। लेकिन 'संघ' और मोदी जी के विद्वान आलोचकों को यदि बाकई देश की फ़िक्र है ,जनता की फ़िक्र है, लोकतंत्र और धर्मनिपेक्षता की फ़िक्र है तो अपना विकल्प पेश करें। जनता का मार्गदर्शन करें !अपनी वैचारिक सर्वोच्चता का प्रमाण पेश करें !केवल प्रगतिशील  गॉसिप या हवाबाजी से क्रांतियाँ नहीं भ्रांतियाँ ही हो सकती हैं।

मौजूद शासकों के आलोचक गण यह हमेशा याद रखें कि भारत की जनता ने तो खुल्लमखुल्ला 'अज्ञानियों' और पाखण्डियों को सत्ताके लिए चुना है ! यह मंजर 'परमज्ञानियों' के लिए एक दुष्तर चुनौती है। इसमें कोई शक नहीं कि यह अज्ञानियोंका सौभाग्य नहीं बल्कि उनकी वास्तविक 'विद्वत्ता' ही है.कि विराट जनादेश पाकर वे सत्तामें हैं। भारतके परम विवेकीजन - धर्मनिरपेक्ष ,विज्ञानवादी -समाजवादी नजरिये वाले विद्वतजन  यदि जनता का समुचित जनादेश हासिल नहीं कर पाते हैं ,तो यह उनकी वास्तविक 'अज्ञानता' है। भौतिकवादी- दर्शनशास्त्री- धर्मनिरपेक्ष- बुद्धिजीवी लोग देश की ज्वलन्त समस्याओं पर नीतिगत विकल्प प्रस्तुत करने के बजाय ,आवाम का मार्गदर्शन करने के बजाय , सोशल मीडिया पर सरकार की असफलता का मजा ले रहे हैं। क्या उनका यह गर्दभ आचरण क्रांतिकारी है ?  केवल 'संघ परिवार' या मोदी सरकार के मंत्रियों के ज्ञान का उपहास करते रहने से देश का भला नहीं होने वाला।इससे समाज का कोई कल्याण नहीं होने वाला। यदि इस तरह के बौद्धिक आचरण से कोई महान क्रांति  होने वाली हो तो मुझे इसका इल्म नहीं !
  
 कुछ लोग गाहे- बगाहे आरएसएस की तुलना आईएसआईएस ,अल-कायदा या तालिवान से करते रहते हैं। यह तुलना हास्यापद और भ्रामक है। इस काल्पनिक तुलनात्मकता में वैज्ञानिकता और तार्किकता का घोर अभाव है। वेशक मूलरूप से तत्वतः  सभी साम्प्रदायिक संगठनों में 'धर्मान्धता' ही उनका लाक्षणिक गुण है। RSS[संघ ]और आईएसआईएस में समानता सिर्फ इतनी  है कि दोनों संगठनों में 'अक्ल के दुश्मन' ज्यादा है.इसके अलावा इनमें और कोई समानता नहीं । मजहबी आधार पर इस्लामिक संगठनों के निर्माण ,उत्थान- पतन का इतिहास उतना ही पुराना है,जितना कि इस्लाम का इतिहास पुराना है।जबकि 'हिंदुत्व' का कॉन्सेप्ट ही तब अस्तित्व में आया जब मुस्लिम शासकों ने 'जजिया' कर लगाया। बाद में ज्यों-ज्यों हिंदुओं पर अत्याचार बढ़ते गये और हिंदु-मुस्लिम को एक सा मानने वाले दारा शिकोह जैसे मुगल वलीअहद भी जब औरंगजेब के इस्लामिक कट्टरवाद के शिकार हो गए तब भी हिंदुत्व का विचार तो अस्तित्व में आया किन्तु 'संगठन'बनने का कोई साक्ष्य नहीं है। छत्रपति शिवाजी और अहिल्या बाई होल्कर जैसे हिन्दू जागीरदारों   ने जरूर मरणासन्न हिंदुत्व को 'संजीवनी' दी ! किन्तु  इस्लाम जैसा आक्रामक मजहबी संगठन हिंदुओं का कभी नहीं बना।

मुगल सल्तनत के अवसान और ब्रिटिश गुलामी के भारत में अंग्रजों ने भी पहले केवल उन्ही मजहबी लोगों को संगठन बनाने के लिए उकसाया जो हिंदुओं के खिलाफ थे ,जो हिंदुस्तान के खिलाफ थे और जो अंग्रेज भक्ति में लीन थे। अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग को उकसाया ,सिख नेताओंको उकसाया ,दलित नेताओं  को उकसाया और इन अंग्रेज शासकोंने देशी राजाओं को भी संगठित होकर पटेल -नेहरूके खिलाफ उकसाया। अंग्रेजों ने उन सभीको भरपूर सहयोग दिया जो आजादी की जंग से बहुत दूर थे। जो डरपोक -स्वार्थी और कायर थे। अंग्रेजों ने इन सभी गद्दारों को कांग्रेस और गाँधी के खिलाफ लामबन्द  किया। सम्भवतः यही एक खास वजह रही कि हिंदुओं के नेता डॉ मुन्जे ,सावरकर , हेडगेवार को जब संगठन बनाने की सूझी तब उन्होंने अंग्रेजों के दुश्मन 'हिटलर' -मुसोलनी  से मदद माँगी। यद्द्पि  यह सही है कि  'संघ परिवार' ने स्वाधीनता संग्राम में कांग्रेस का साथ नहीं दिया ,किन्तु बंगाल के कट्टरपंथी हिंदु-साधु सन्यासियों ने जितनी कुर्बानी दी वो वेमिशल है। हिन्दू स्वामी श्रद्धानन्द और लाला लाजपतराय जैसे महान लोगों के बलिदान ने ही शहीद भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों को प्रेरणा दीथी । यह बात अलग है कि फांसी के फंदे पर झूलने से कुछ दिनों पहले शहीद भगतसिंह बहुत बड़े वामपंथी  'विचारक' और शुध्द वोल्शेविक बन चुके थे।  

किन्तु न केवल सनातन हिन्दू धर्म में ,बल्कि जैन और बौद्ध धर्म  में और उनके पुरातन पैतृक -आर्य वैदिक धर्म  में भी 'अहिंसा' ही हमेशा आस्था का सर्वोच्च सिद्धांत रहा है। संसार के अन्य किसी भी धर्म-मजहब ने 'अहिंसा'को इतना महत्व नहीं दियाहै। सर्वविदित है कि मजहबी दुनिया के इतिहास में भारत के स्थानीय धर्मों के अलावा अन्य किसी भी मजहब में अहिंसाके लिए कोई जगह नहीं है। बल्कि मजहब के नाम पर लूटपाट और अमानवीय  क्रूरता का वीभत्स रूप ही  विद्यमान रहा है।  मुझे याद नहीं आ रहा कि  भारत से बाहर स्थापित हुए किस धर्म मजहब में 'अहिंसा' शब्द का सम्मानजनक उल्लेख कहाँ -कब और किस सन्दर्भ में  किया  गया है ? वेशक आरएसएस वालों पर असत्य कथन का आरोप तो लगाया जा सकता है कि वे मजूरों-किसानों की उद्धारक साम्यवादी और समाजवादी विचार - धारा को विदेशी बताते हैं ,जबकि वे खुद हिटलर-मुसोलनी की  'फासीवादी ' विचारधारा से  इस कदर प्रेरित हैं कि फह्यूरर और सिन्योरा की टोपी भी उन्होंने अपना ली। यदि आरएसएस वाले शिवाजी वाली पगड़ी रखते या चाणक्य और समर्थरामदास जैसे सफाचट खोपड़ी पर खुली चोटी रखते तो माना जाता कि वे शुद्ध देशी हैं ,किन्तु आरएसएस का सम्पूर्ण वैभव ,बिचारऔर दर्शन सुद्ध विदेशी है

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