मंगलवार, 30 अगस्त 2016

सभी धर्म-मजहब के धर्मगुरु भारत के संविधान पर भी थोड़ा विश्वास करें !

जैसे हँसना और गाल फुलाना -दोनों एक साथ सम्भव नहीं ,उसी तरह वैराग्य और सांसारिकता भी एक साथ सम्भव नहीं। यह सनातन और स्वयंसिद्ध नियम जानते हुए भी कुछ स्वयम्भू स्वामी ,योगी ,सन्यासी ,मुनि अपना 'सन्यास' कर्म त्याग कर सांसारिक पचड़ों में पड़ जाया करते हैं।जब इन मुमुक्षु वीतरागियों का अपनी ही जुबान पर कोई नियन्त्रण नहीं रहैगा ,तो  वे यह उम्मीद कैसे कर सकेते हैं कि दुनिया उनके दकियानूसी भाषणों और आध्यात्मिक लफ्फाजी पर अमल करेगी ? यदि मध्य युगीन सामन्ती सिस्टम होता तब भी गनीमत होती,तब यह सिद्धान्त मान्य हो सकता  था कि ''धर्म तो पति है और राजनीति पत्नी है ,इसलिए 'धर्म' का दायित्व है कि राजनीति रुपी पत्नी पर काबू रखे'' यह खतरनाक और प्रतिगामी सिद्धांत पेश करते हुए प्रातः स्मरणीय पूज्य मुनिवर महान - क्रांतिकारी सन्त श्री तरुणसागरजी महाराज  यह भूल गए कि यह नारी विरोधी पुरुषसत्तात्मक हिंसक दर्शन २१वीं शताब्दी की लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में नहीं चलेगा । केवल जैन सन्त तरुणसागर जी ही नहीं बल्कि अन्य सभी धर्म-मजहब के अलम्बरदार भी समय-समय पर अपना पौरुष प्रदर्शित करते रहते हैं।

चूँकि भारतीय संविधान सहित दुनिया के तमाम लोकतान्त्रिक राष्ट्रों के संविधान में स्त्री -पुरुष दोनों की समानता का उद्घोष विगत शताब्दी में ही हो चुका है। इसलिए अब पति -पत्नी दोनों बराबर हैं। यदि मुनिश्री तरुणसागरजी को या अन्य धर्म-मजहब के स्वामियों ,बाबाओं ,महंतों ,धर्मगुरुओं और उलेमाओं को यह  जानकारी नहीं है तो वे  अपनी जानकारी अपडेट कर लें। सभी धर्म-मजहब के अलम्बरदार भलेही क्रांतिकारी या रेनेसाँवादी न हों किन्तु  भारत के संविधान पर तो  थोड़ा विश्वास करें ! यदि संत-महात्मा ,ऋषि -मुनि और उलेमा अपने आप को संविधान से ऊपर रखना  चाहते हैं ,तो वे राजनीति से दूर रहें। यदि वे संविधान के खिलाफ- स्वेच्छाचारी आचरण करेंगे तो   उन्हें नक्सलवादियों की कतार में शामिल होना पड़ेगा। जो भारतीय संविधान ,न्याय व्यवस्था ,लोकतंत्र और संसद को भी नहीं मानते। दूसरा रास्ता उन कश्मीरी अलगाववादियों वाला है ,जो भारतके खिलाफ युद्ध छेड़े हुए हैं,और भारतीय संविधान से नफरत करते हैं। किसी भी धर्म-मजहब का परम विद्वान रहनुमा यदि अपने देश के संविधान की प्रस्तावना से अनभिज्ञ है ,तो उसे समाजको ज्ञान बांटने का कोई अधिकार नहीं। जिस सन्त ,मुनि या धर्मगुरु के मन में अपने देश के  संविधान के प्रति आदरभाव नहीं उसे 'राष्ट्रसन्त' कहना सरासर बेईमानी और पाखण्ड है।

इस संविधानिक अनभिज्ञता की अनदेखी कर, कुछ उत्साही धर्मांध अनुयायी यदि अपने 'कडुवे बोल 'वाले धर्मगुरु के समर्थन में आंदोलन  पर उतारू होने लगजाएँ तो यह नितांत अनैतिक कर्म ही माना जाएगा । प्रकारांतर से यह धार्मिक दबंगई जैसी ही है। यह स्मरणीय है कि तरुणसागरजी के कडुवे बोलबचन से अनेकान्तवाद स्याद्वाद और  'अहिंसावाद' का कोई  वास्ता नहीं। बल्कि नारी जाति का अपमान तो 'मानसिक हिंसा' जैसा कृत्य है ! जैन दर्शन का सर्वोच्च सारतत्व यही है की मनसा -बाचा -कर्मणा से हिंसा का निषेध हो !चूँकि तरुण सागर जी ने राजनीति रुपी पत्नी पर पुरुष रुपी 'धर्म' को खुली छूट दी है। अतः लोक और शास्त्र दोनों का हनन हुआ है। यदि 'आप पार्टी के नेता श्री दादलानी  ने मुनिवर के 'महाकडूबे 'बोल बचन ' पर आपत्ति ली,तो कौनसा गुनाह कर दिया ?गनीमत रही कि  मुनिवर ने भी कोई प्रतिवाद नहीं किया और क्षमा कर दिया। किन्तु उनके अनुयायी - जैन समाजके लोग आंदोलन पर उतारू हैं। वे भूल रहे हैं कि यदि श्री तरुणसागर जी को भारतीय  संविधान की अवज्ञा के वावजूद अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है तो दादलानी को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता क्यों नहीं ?क्या गलत बात का मौखिक विरोध भी सहन नहीं करोगे ? यदि कोई धर्म दर्शन इतना छुई-मुई है कि किसी एक मामूली व्यक्ति की सात्विक आलोचना से मुरझा जाये तो  उसका अस्तित्व  ही संदेहास्पद है।

हालाँकि मैं स्वयम भी  तरुण सागर जी का बहुत सम्मान करता हूँ। जैन दर्शन के वैज्ञानिक स्वरूप को तथा उसके स्याद्वाद ,अनेकान्तवाद दर्शन को बहुत पसन्द करता हूँ। किन्तु मैं मुनिश्री के उस पुरुषत्ववादी दर्शन से कतई सहमत नहीं हूँ,जो उन्होंने हरियाणा - चातुर्मास के दौरान निर्देशित किया। यदि  मुनिवर खुद ही अपनी इस गलती को सुधार लेते तो उनकी महानता में चार चाँद लग जाते । चूँकि वे देशभक्त -राष्ट्रसंत कहलाते हैं इसलिए यह और जरुरी है कि  वे भारतीय संविधान के नीति निर्देशक सिंद्धान्तों का सम्मान करें। संविधान की अवधारणा उसकी प्रस्तावना में निहित है। जो भी सख्श संविधान के खिलाफ जायेगा वह या तो नक्सलवादियों की तरह का हिंसक क्रांतिकारी होगा या अलगाववादियों -अराजकतावादी की तरह देशद्रोही होगा। यदि कोई धर्मगुरु अपने आप को सन्यासी,मुनि या वीतरागी घोषित करता है तो उसे इस सांसरिक ईषनाऔर 'चाहना' से ऊपर उठ जाना चहिये । ''वीतराग भय क्रोध : स्थिर धीर मुनि रुच्यते '' ही उसे शोभा देता है। 

धर्मगुरुओं को याद रखना चाहिए कि वे संविधान से ऊपर नहीं हैं। यदि वे सच्चे सन्त हैं ,राष्ट्र सन्त हैं तो सत्ता के 'अपवित्र' गलियारे उनके लिए नहीं हैं। उन्हें तो हमेशा यही कहना चाहिए कि 'संतन्ह कहुँ का सीकरी सौं काम। हरियाणा के खट्टर बाबा हों ,दिल्ली के आप नेता दादलानी हों ,राजनीती हो ,मुनि श्री तरुणसागरजी को इन सब सांसारिक विषयों से ऊपर दिखना चाहिए। उन्हें गलत फहमी है कि उनके कडूबे  बोल बचन महान जैन दर्शन का मान बढ़ा रहे हैं। बाणी का संयम धारण करना ही होगा। उन्हें यह भी कोशिश करनी चाहिए कि जैन समाज के लोग दिग्भर्मित न हों ! ददलानी की जरासी प्रतिक्रिया पर रुष्ट  होकर जैनबन्धु देशभर में 'मुनिवर' की अभ्यर्थना दिखाने के बहाने दादलानी को गिरफ्तार करने की मांग कर रहे हैं ,उसके लिए उग्र आंदोलन  कर रहे हैं,क्या यह मानसिक हिंसा नही है? जो लोग पर्युषण पर्व पर क्षमा का प्रदर्शन करने के बजाय कटुतापूर्ण भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, वे सभ्रांत वर्ग के लोग जैन धर्म-जैन दर्शन और उसकी महानता को कठघरे में क्यों खड़ा कर रहे हैं ? यदि आंदोलन करना ही है तो श्वेताम्बर मुनियोंकी तरह मुँह पर सफ़ेद पट्टी  बांधकर,अहिंसक और मौन विरोध दर्ज क्यों नहीं कराते ?

सभी धर्म-मजहब के धर्मगुरुओं को ,संतों,मुनियों और साधु-साध्वियों ओं को स्वयम ही कानून के दायरे में आचरण करना चाहिए।  क्योंकि कानून या देश की जनता  उनको नियंत्रित करेगी तो यह अधर्म कहलायेगा।  किसी भी समाज को यह पसन्द नहीं आएगा। आधुनिक उन्नत टेक्नालॉजी के युग में ,प्रगत वैज्ञानिक युग में हर एक व्यक्ति धर्म को वैज्ञानिक कसौटी पर कसना चाहेगा , प्रगतिशील और लोकतंत्र-धर्मनिरपेक्षता का साहचर्य पसन्द करना चाहेगा। चूँकि धार्मिक और मजहबी प्रतिष्ठानों में अच्छी और वैज्ञानिक शिक्षा का घोर अभाव है ,और इसलिए वरिष्ठ सन्त और मुनि भी धर्म-मजहब या दर्शन के सामन्ती स्वरूप को सलीब की तरह अपने कन्धे पर उठाये इधर -उधर भटक रहे हैं । उनकी राजनैतिक सोच सामन्ती और सामाजिक मानसिकता यथावत है ,याने पुरुषसत्तात्मक  ही है। उनसे उम्मीद की जानी चाहिए कि भारत को सीरिया या पाकिस्तान न बनाये। अपने धर्म -दर्शन को अपडेट करते रहें। आईएसआईएस जैसे हावभाव न दर्शाएं। क्योंकि भारत प्रतिगामी और मध्ययुगीन निरंकुश शासन व्यवस्था को बहुत पीछे छोड़ चुका है। चूँकि कुछ पुरातन सामन्ती रीति रिवाज मानव समाज और राजनीती को धकियाते हैं  इसलिए दादलानी ने तरुणसागर के उपदेश पर जो कुछ कहा वो दुरुस्त है। केजरीवाल ने यदि उसे पार्टी से निकाला है तो यह घोर मौकापरस्ती है। मुझे उनलोगों की समझ पर तरस आता है। जो सत्य से असत्य की ओर जा रहे हैं ,जो प्रकाश से अन्धकार की ओर जा रहे हैं ,जो अमृत्व से मृत्यु की ओर बढे चले जा रहे हैं। इससे उनकी हालत आसाराम जैसी भले ही न हो किन्तु त्रिशंकु जैसी तो हो ही जाएगी । श्रीराम तिवारी !




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