बुधवार, 3 अगस्त 2016

जब तक आरक्षण व्यवस्था जारी है जातिवाद का भूत भी तब तक जिन्दा रहेगा।


 बहिन मायावती ने राज्यसभा  में कहा ''बहुजन समाज को शोषण मुक्त करने के लिए जातिवाद खत्म कर देना चाहिए, जातिवाद खत्म करने के लिए  हरेक नाम के आगे सरनेम लगाना बंद करना होगा !'' यदि सरनेम लगाना बन्द करने से जातीय विद्वेष की समस्या का निवारण होता है तो 'शुभस्य शीघ्रम ' !किन्तु बहिन जी के इस पवित्र सुझावमें विभिन्न समुदायों और व्यक्तियोंके पृथक अभिमत  भी हो सकते हैं। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जबसे भारतीय उपमहाद्वीप में जातीय और वर्ण व्यवस्था जन्मी है, तभी से उसके उन्मूलन की घोषणाएं भी की जाती रहीं हैं। लेकिन 'ज्यों-ज्यों दवा की  त्यों-त्यों मर्ज बढ़ता ही गया '!वेशक जातीगत आधार पर भेदभाव की सबसे अधिक मार 'दलित हरिजन वर्ग' पर ही पड़ती रही है। कल्पना करें कि बदतर गुलामी के दिनों में यह दलित वर्ग  किन नारकीय दुरावस्थाओं से गुजरा होगा !



 जिस तरह  एकजुट संघर्ष और अनेक बलिदानों की कीमत पर भारत से गुलामी हट गयी , जिस तरह एकजुट राष्ट्रीय इच्छशक्ति से भारत से चेचकका खात्मा कर दिया गया,जिस तरह इंदिरा -नेहरूके नेतत्व में श्वेतक्रांति - हरित क्रांति हुई ,जिस तरह राजीव गाँधी -सेम पित्रोदा और मनमोहनसिंह की इच्छाशक्ति से भारत में अति-उन्नत टेक्नोलॉजी आई। उसी  तरह सामूहिक  नेतत्व और एकजुट जन संघर्षों से इस देश के गरीबों की गरीबी भी मिट  सकती है। लेकिन जातिवाद का खात्मा नहीं किया जा सकता।सहस्त्राब्दियों पूर्व इस 'जातिवाद' का सृजन  खुद इंसान ने किया था ,सामंत युगमें यह परवान चढ़ता गया और यह उम्मीद भी धूमिल होती चली गयी कि पूँजीवादी   लोकतांत्रिक व्यवस्था में  जातिवाद कुछ हद तक अपने-आप ही  'द्रवीभूत' हो जाएगा। किन्तु आरक्षण व्यवस्था के कारण इस पूंजीवादी व्यवस्था में तो यह जातिवाद भारत का  भस्मासुर बना हुआ है। अब केवल कोई  'सर्वहारा क्रांति ही इस वैमनस्यता पूर्ण जातिवाद को  कुछ हद तक काल -कवलित  कर सकती है ।

विदेशी आक्रमणों और गुलामी से पूर्व भी हिन्दू समाज के 'निम्न वर्ग' को अपने ही उच्च वर्ग की प्रताड़ना भोगनी  पड़ रही  थी। उन्हें सामन्तों -जमीदारों की बेगार करनी पड़ती थी ,इसके अलावा  जो विदेशी-विधर्मी भारत पर लूटपाट की नियत से आक्रमण करते हुए यहाँ आये , इस धरती को गुलाम बनाया ,राज  किया ,उन्हें भी मजदूरों - 'सेवकों' और सैनिकों की जरूरत पड़ती थी। चूँकि तब दुर्भिक्ष भी अधिक हुआ करते थे  और अधिकांस दलित - वर्ग वेकारी-भुखमरी का शिकार हुआ करता था अतएव उसे  मजबूरन विदेशी आक्रांताओं की भी गुलामी झेलनी पडी। सामंती दौर में जब  चाणक्य जैसे ब्राह्मणों को भी 'नन्द राजाओं' द्वारा लतियाया गया ,मुगलकाल में भी जब राणा प्रताप जैसे  शूरवीर राजाओं  को जंगलों में घास खाकर जीना पड़ा , जब इस्लामिक आक्रान्ताओं द्वारा सिख गुरुओं  के शीस काट दिए गए ,जब विधवा क्षत्राणियों को अपने शील की खातिर 'जौहर' करने पड़े तब उस दौर में दलित और  हरिजन की क्या  दयनीय हालात रही होगी ? आज इसका अंदाज लगाना  मुश्किल है। इस दमित -दलित वर्ग की क्या विसात कि वह दमन-उत्पीड़न का प्रतिरोध कर सके। यदि जातीय भेदभाव न होता तो शायद यह भारत बाकई 'महान ' ही होता और गुलाम भी शायद कभी न होता !  इस दौर के 'हिन्दू' भी अपने पूर्वज आर्यों की तरह श्रेष्ठतम  होते ! लेकिन जातिवाद-आरक्षणवाद और सम्प्रदायवाद  ने भारत का सत्यानाश कर रखा है !

इतिहास के हर दौर में इस भारत भूमि पर 'दैवीय अवतार 'हुए। लेकिन निर्धन -निम्नजातीय वर्ग के संत्रास का उद्धारक कोई नहीं हुआ। हिन्दू 'अवतारों को तो केवल अपने-भक्तों ,अनुयाइयों और चारण -भाटों की फ़िक्र हुआ करती थी।  दैवीय अवतारों ने वाल्मीकि,कबीर ,रैदास ,तुकाराम ,घासीदास,मलूकदास और करहप्पा जैसे कुछ निम्नजातीय भक्त कवियों को जरूर प्रमुदित किया किन्तु 'सर्वहारा वर्ग का उद्धारक 'क्रांतिकारी'योद्धा कोई नहीं हुआ। रूढ़िवादी समाज को बदलने वाला कोई हीगेल,कोई फायरबाख ,कोई रूसो,कोई वाल्तेयर,कोई वर्ड्सवर्थ  कोई गेरी बाल्दी,कोई बर्तोल्ड ब्रेख्त या कोई ऑस्त्रोवस्की भारत में कभी  नहीं हुआ। यहाँ बुद्ध ,नानक और अन्ना दुराई,ज्योतिबा फूले  जैसे समाज सुधारकों ने अवश्य कुछ सार्थक पहल की थी ,किन्तु उनके निधन जाने के बाद सब कुछ यथावत ही है। वेशक बाबा साहिब अम्बेडकर ने  एससी/एसटी के लिए भारतीय संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की है,किन्तु इसमें 'एक अनार सौ बीमार' वाली कहावत चरितार्थ हो रही है।  भारत में ७० साल से जातीय आधार पर आरक्षण  व्यवस्था जारी है ,किन्तु गरीब दलित -हरिजन वर्ग की हालात और ज्यादा बदतर है। वे और ज्यादा गरीब और बेरोजगार हो गए हैं। जबकि इस आरक्षण व्यवस्था से देश के सवर्ण गरीब -बेरोजगार युवा समझते हैं कि  उनका हक छीन लिया गया है। इन हालात में अब  बहिन मायावती जी ने सुझाव दिया है कि जातीयता  से निपटने का एक ही उपाय है कि 'जातीयसूचक सरनेम लगाना बंद किया जाए'।

वेशक यदि जातीयता के कारण किसी व्यक्ति अथवा समाजका शोषण होता है ,अपमान होता है और यदि किसी को जातीय सूचक सरनेम नहीं लगाने से कोई लाभ होता है तो वह नाम के आगे सरनेम न लगाये, उसके लिए यह उचित है। किन्तु यदि सरनेम नहीं लगाने के बाद भी किसी दलित-पिछड़े या 'शूद्रवर्ण'के व्यक्ति का शोषण होता है ,उस पर अत्याचार होता है  तो  सरनेम हटाने का क्या फायदा ? अनेक स्वाधीनता सेनानी  कुर्बानी देने ले बाद सम्पूर्ण भारत के 'आइकॉन' हो गए। वे आधुनिक पीढी के सम्माननीय आदर्श हैं ,इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता  की  शहीद भगतसिंह ,सुखदेव ,राजगुरु ,चन्द्रशेखर आजाद ,विरसा मुंडा  टण्टया भील या टीपू सुलतान का सरनेम क्या था ? जिन्होंने कुर्बानी दी उनका उल्लेख एक साथ सम्मान से किया जाता है। कौन ब्राह्मण है ,कौन आदिवासी है ,कौन पिछड़ा है , कौन दलितहै -मुस्लिम या अल्पसंख्यक है इससे देश को कोई फर्क नहीं पड़ता ?
कबीर ने उनसे तो जाति पूँछे जाने पर खुद ही शानदार सर्वकालिक सिद्धांत पेश किया है :-

''जाति न पूँछो साधु की ,पूंछ लीजिये ज्ञान।

मोल करो तलवार का ,पडी रहन दो म्यान।। ''

कुछ परम्परावादी मानते हैं कि जातिप्रथा अकाट्य एवम जीवन्त सत्य है। यह वैश्विक है ,यह वर्तमान पीढीको उस के अपने अतीत के कबीलाई समाजों से सम्बन्धों को दर्शाती है। इसलिए इसे खत्म करना या विलुप्त करना एक किस्म की अवैज्ञानिक अवधारणा है ,नकारात्मक सोच है और पाशविकता प्रवृत्ति है । फ्रांसीसी क्रांति,अमेरिकी क्रांति, सोवियत क्रांति और यहाँ तक की चीन में सम्पन्न दो-दो  क्रांतियों याने लोंगमार्च और सांस्कृतिक क्रांति के वावजूद  किसी एक  शख्स ने भी अपन सरनेम नहीं त्यागा।लेनिन,माओ,कास्त्रो,मार्क्स,एंगेल्स इत्यादि उपनाम -  जातिसूचक सरनेम हैं। फिर भारत में ही क्यों यह  जातिवाद हटाओ या सरनेम मिटाओ का 'लोमड़ सिद्धांत'पेश किया जा रहा है। वेशक कार्य विभाजन आधारित वर्णव्यवस्था और तदनुसार उसकी बदशक्ल दुहिता -जातिप्रथा इस आधुनिक वैज्ञानिक युग में कालातीत हो चुकी है ,किन्तु इन्ही सरनेम और जातिसूचक उप्नामाओं के कारण ही तो संविधान निर्माताओं द्वारा कुछ  विशेष समाजों को सामाजिक उत्थान के लिए चिन्हित किया गया और उन्हें ७० साल से आरक्षण दिया जा रहा है । यह विचित्र विडम्बना है कि ७० साल  तक लगातार आरक्षण सुविधा लेते रहने के वावजूद , किसी एक भी आरक्षणधारी  व्यक्ति या आरक्षण धारी समाज ने अभी तक घोषणा नहीं की कि अब मेरा दलितपन ,हमारा पिछड़ापन या  'शूद्रपन' खत्म हो गया है और मुझे अब आरक्षण नहीं चाहिए ! जो लोग जातिसूचक सरनेम के आधार पर आरक्षण लेकर आईएएस या आईपीएस या अफसर-बाबू बन गए और बाद में सरनेम त्याग रहें हैं , नाम के साथ कोई सवर्ण सरनेम लगाने लगे हैं उन्हें खदु आगे आकर कहना चाहिए कि 'अब मुझे जातीय प्रमाण पत्र नहीं चाहिए ,मुझे आरक्षण की वैशाखी नहीं चाहिए '। जिस दिन यह सिलसिला शुरू हो जाएगा भारत में जातिवाद का विध्वंस शुरू हो जाएगा। वर्ना  जब तक आरक्षण व्यवस्था जारी है जातिवाद का भूत भी तब तक जिन्दा रहेगा।

मान लो कहीं बाढ़ आ गयी ,कोई दलित -आदिवासी जंगल से मजदूरी करके अपने घर लौट रहा है ,रास्ते  में उफनती नदी उसके सामने है ,क्या सरनेम त्याग देने से वह नदी पार  कर सकेगा ? नहीं ! अपितु साहस ,बुद्धि और   तैरने की क्षमता से ही उसके प्राण बच पाएंगे ! यदि उस आदिवासी या दलित मजदूर में ये मानवीय गुण नहीं हैं तो  सरनेम हटा देने के बाद भी वह उफनती नदी में बह जाएगा ,और  भूँखा -प्यासा  मर जाएगा। आदिवासी-दलित मजदूर हो या वेदपाठी - ब्राह्मण हो ,उसे जीवन जीने के लिए जिजीविषा से युक्त होना ही होगा ,केवल सरनेम हटाने या धर्म-बदलने या जातीयता की राजनीति करने से कोई सामाजिक -आर्थिक क्रांति नहीं होने वाली। केवल  शिक्षा,पुरषार्थ मनोबल और शोषण के खिलाफ एकजुट संघर्ष  से ही किसी समाज या कौम का कल्याण हो सकता है ।

 ''बिना सरनेम का नाम याने बिना पूँछ का पशु!'' अभिव्यक्ति की आजादी 'के अनुसार वांछित संदर्भ में अपना व्यक्तिगत मत व्यक्त  करने में कोई बुराई नहीं। किन्तु  किसी भी महान क्रांतिकारी उद्देश्य का कार्यान्वन बिना ठोस जन समर्थन के सम्भव नहीं। ब्रिटेन बनाम 'यूरोपीयन संघ' के जनमत संग्रह [रेफरेंडम] याने ब्रेक्जिट पोल 'की तरह  भारत जैसे लोकतान्त्रिक  देश में भी सार्वभौमिक सवालों पर जनमत लिया जाना चाहिए। न केवल जाति सूचक सरनेम हटाने या लगाने के मुद्दे पर ,न केवल जातीयता पर आधारित आरक्षण मुहैया करानेके मुद्दे   पर ,बल्कि विदेश नीति ,एफडीआई , मंदिर-मस्जिद विवाद ,धारा -३७० ,समान कानून ,बीफभक्षण ,सहिष्णुता- विचार अभिव्यक्ति की सीमा और 'आतंकवाद से संघर्ष' जैसे पेंचीदा मसलों पर भारत की जनता के 'जन मत संग्रह' का भारतीय संविधान में प्रावधान किया जाना चाहिए। प्रत्येक जनमत संग्रह के लिए सुनिश्चित नियमावली हो. उसमें यह भी सुनिश्चित हो की वोट कौन कर सकता है ?

यह रिफ्रेंडम या 'जनमतसंग्रह' आम चुनाव की तर्ज पर  सबको सुलभ नहीं हो सकता । संविधान प्रदत्त अधिकार- मतदान और 'जनमत संग्रह' में अंतर है। आम चुनाव में नागरिक अपने मौलिक अधिकारके तहत अपनी भूमिका अदा करता है ,जबकि 'जनमत संग्रह'में वही लोग शामिल होंगे जो उस संदर्भमें स्टेक होल्डर्स होंगे या उस इवेंट्स से कोई नाता रखते होंगे । मसलन  -अयोध्या में मंदिर-मस्जिद विवाद पर यदि जनमत संग्रह करवाया जाये तो उसमें सिर्फ वही लोग शामिल हों ,जो मंदिर जाते हों या मस्जिद जाते हों। जो हिन्दू -मुस्लिम नहीं  हैं , जो किसी अन्य धर्म-मजहब -ईसाई,बौद्ध  जैन या पारसी हैं अथवा नास्तिक हैं उन्हें इस जनमत संग्रह से कोई वास्ता नहीं रखना चाहिए । यदि यह सम्भव न हो तो जनमतसंग्रह में भी आम चुनाव के 'नोटा ' की तरह विकल्प रखा जाए।

 श्रीराम तिवारी

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