बुधवार, 3 अगस्त 2016

दलितों पर अत्याचार करने वाले देशद्रोही हैं !


इन दिनों ऊना [गुजरात] ,मंदसौर [मध्यप्रदेश],यूपी,बिहार,हरियाणा ,पंजाब, तेलांगना इत्यादि से दलितों पर हो रहे अत्याचार की खबरें कुछ ज्यादा आ रहीं हैं।  दुखद बिडम्बना है कि इन दुर्भाग्यपूर्ण और दुखद घटनाओं से  'बहिनजी' बहुत खुश हैं। और वे दलित नेता  जो जातीयता की राजनीति त्याग कर सत्ता सुख भोगने एनडीए में जा पहुंचे बहरहाल  पशोपेश में हैं। पासवान ,माझी ,उदितराज,आठवले और थावरचंद गहलोत महा - दुरावस्था को प्राप्त हो रहे हैं। इन भाजपाई दलित नेताओं की लानत-मलानत स्वाभाविक और अपेक्षित ही है। क्योकि अतीत में 'संघ' नेतत्व ने जो बीज बपन किया है उसका प्रतिफल अब प्रकट हो रहा है। अब भले ही मोहन भागवत लंदन में जाकर सभी-धर्मों ,जातियों की समानता पर अपना क्रांतिकारी सिद्धान्त पेश करते रहें ,किन्तु उनके पूर्वसरसंघ -चालक  गुरु गोलवलकर ने 'बंच ऑफ थॉट्स 'में जो घृणास्पद ' सिद्धान्त पेश किये हैं जिसे कु प् सुदर्शन ने और ज्यादा धारदार बनाया है ,उसकी ही परिणीति है कि अब भारतीय समाजमें दलित - सवर्ण , हिन्दू- मुस्लिम का  हिंसक द्वंद परवान चढ़ रहा है।वेशक इस्लामिक उग्रवाद और उसका 'जेहादी'रूप भी इसके लिए कसूरबार है।

भारतीय सबल समाज की कंजरवेटिव सोच का परिणाम है कि दलितों पर हो रहे अत्याचार को देखकर दुनिया में भारत के दुश्मन अत्यंत खुश हो रहे हैं। अभी तक तो आरक्षण की माँग करने वाले या मजहबी उन्मादी-आतंकी व धर्मांध -साम्प्रदायिक  तत्व ही भारत की एकता को ध्वस्त करने में जुटे हुए थे। किन्तु अब तो 'वर्ण संघर्ष' के बहाने भारत राष्ट्र के ह्रदय को विदीर्ण किया जा रहा है। गौबध या बीफ भक्षण निषेधसे उतपन्न हिंसक उपद्रवने समस्या को और जटिल बना दिया है।  शताब्दियों से  जो लोग अपने सिरपर मैला ढोते आरहे हैं ,जो सनातन से मरे हुए पशु  फैंकते आरहे हैं ,जिन्हें अक्सर न केवल पर्याप्त मजदूरीसे महरूम रखा गया ,बल्कि अछूत मानकर घृणाका पात्र भी बनाये रखा गया। उन मृत पशु उठाने वालों को ,चमड़ा निकालने वालों को और मांस बेचने वालों को  'भारतीय संस्कृति' के स्वयम्भू ठेकेदार सत्ता की शह पर परेशान कर रहे हैं ,ऐंसे हालातमें  गरीब दलित नरनारी और मेहनतकश कामगार -चुपचाप इस दमन  को कब तक सहते रहेंगे ?

क्या यह जातीय अत्याचार जायज है ? वेशक दमित-दलित वर्ग की प्रतिक्रिया की लाइन और लेंथ गलत कही जा सकती है ,किन्तु उनका यह आक्रोश जायज है। उन्हें अन्याय शोषण के खिलाफ,शोषक वर्ग के खिलाफ अवश्य लड़ना चाहिए !चूँकि हर किस्मके शोषित-पीड़ित वर्गका 'वर्गशत्रु' एकही है अतएव देश के समस्त शोषित-पीड़ित -सर्वहारा वर्ग को   एकजुट होकर अपने उस सनातन शत्रु से लड़ना चाहिए ,जिसने उत्पादन के साधनों पर ,देश की सकल सम्पदाओं पर और जीवन की तमाम भौतिक -सामाजिक अवसरों और संसाधनों पर बलात कब्ज़ा कर रखा है। गुजरात ,मध्यप्रदेश या शेष भारत में असामाजिक तत्वों द्वारा सताए गए दलित स्त्री-पुरषोंऔर युवाओं को 'गरीब सवर्ण' मजदूरों ,अमनपसन्द निर्दोष आवाम से टकराने के बजाय, सामाजिक-जातीय -संघर्ष' के दल-दल में कूंदने के बजाय ,ठोस 'सर्वहारा क्रांति'की ओर अग्रसर होना चाहिए ! उन्हें शोषण-विहीन ,जाति -वर्ण विहीन और वर्गविहीन  समाज की स्थापना  के निमित्त एकजुट संघर्ष के लिए तैयार होना चाहिए  ! 

देश में  इन दिनों इधर-उधर दलित समाज के कुछ भाई-बहिनों पर हुए हमलों से ऐंसा माहौल बनाया जा रहा है कि मानों यह सवर्ण बनाम दलित संघर्ष हो !और ऐंसा जाहिर किये जाने से दलितवादी नेताओं और सवर्णवादी नेताओं के स्वार्थ किसी से छिपे नहीं हैं। निसन्देह उनके वोट में इजाफा होगा। लेकिन इस जातीय संघर्ष से देश के निर्धन लोगों का और शोषित समाज का  ही  नुकसान होगा। यदि दलित-शोषित और वंचित वर्गों को जातीयता की आग में धकेला जाता है और भारतीय समाज की अंतरंग विकृतियों का निराकरण नहीं किया गया तो भारत की एकता और अखण्डता पर भी आँच अवश्य आ सकती है।  वास्तविकता यह है कि  यह 'दलित बनाम सवर्ण ' संघर्ष नहीं  है। बल्कि यह  पूँजीवादी पतनोन्मुख समाज के 'बुर्जुवा वर्ग ' का सामन्ती फासीवादी चेहरा है ,जिसने  भारत के तमाम मजदूर वर्ग पर आजादी की बाद से ही हल्ला बोल रखा है। यह दलित बनाम सवर्ण संघर्ष भी नहीं है ,बल्कि सत्तारूढ़ पक्ष की शह पर ,नव धनाड्य वर्ग के द्वारा पालित-पोषित अतिवादी साम्प्रदायिक संगठनों का  यह भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर परोक्ष हमला है। सांस्कृतिक संरक्षण के बहाने ,गौ संरक्षण के बहाने ,एक -चालुकानुवर्तित्व के बहाने वे अपने ही देश की जड़ों में मठ्ठा डाल  रहे हैं।

भारत  दुनिया का एक मात्र महान देश है,जहाँ जो लोग गंदगी साफ़ करते हैं ,उन्हें गंदा माना जाता है,साथ नहीं बिठाया जाता। जो लोग गंदगी फैलाते हैं वे बहुत ऊँचे और बड़े बन बैठे हैं। और कुछ तो इनसे भी बहुत बड़े वाले हैं। जो रिश्वतखोरी,जमाखोरी ,कालाबाजारी , हत्या -व्यभिचार में लिप्त हैं ,धार्मिक उन्माद फैलाने में अव्वल हैं,वे  'वर्णव्यवस्था' से परे हैं ,कानून से भी ऊँचे हैं। विभिन्न सूत्रों की सूचनाएं हैं कि आवारा ढोरों से भरे ट्रक को कांजी हॉउस ले जाने या कसाई खाने ले जाने वाले ड्राइवर से 'संस्कृति रक्षक' संगठित  गिरोह बंदी लेते हैं जिसका एक हिस्सा पुलिस को भी जाता है। जो ट्रक वाला या ड्रायवर यह  'शुल्क नहीं दे पाता या जो अपनी 'पहुँच ' का प्रमाण नहीं दे पाता ,उसको 'गौहत्यारा' बीफभक्षक घोषित कर वहीँ 'लुढ़का 'दिया जाता है। ऐंसा नहीं है कि मुख्यमंत्री या प्रधान मंत्री यह नहीं जानते ,लेकिन  लोकतंत्र और देश के दुर्भाग्य से ये हत्यारे ही उनके पोलिंग बूथ एजेंट भी हुआ करते हैं।इसीलिये इस प्रकार के दमन-उत्पीड़न को रोक पाने में वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था असफल हो रही है। इसके लिए  कुछ हद तक दलित -शोषित समाज के लोग भी इस अपराध के भागीदार हैं। क्योंकि बेकारी की हालत में वे दवंग नेताओं और अपराधियों के हाथों 'कुल्हाड़ी का बेंट'बनकर अपने ही सजातीय बंधुओं की हत्या के गुनहगार होते हैं। सबको मालूम है कि यूपी बिहार में जातीय आतंक किसका है।   

एक ग्लास दूषित पानी पीने मात्र से वह 'बैक्टरिया'ग्रस्त हो जाता है,तो रात-दिन सफाई कार्य में जुटे लोग किस हाल में जीते होंगे ? दलितों-वंचितों के इलाज के लिए ,गंदगी फैलाने वालों ने कुछ  इंतजाम तो किया नहीं, अपितु  'गोरक्षा ' और 'बीफ निषेध ' के बहाने  'असंवैधानिक' संगठन खड़े कर दिए हैं। लगता है कि असामाजिक तत्वों को यह अधिकार दे दिया गया है कि वे किसी को भी ,कहीं भी मौत के घाट उतार सकते हैं ।

डिजिटल,एलेक्ट्रॉनिक ,प्रिंट ,श्रव्य और सोसल मीडिया की खबरों से ऐंसा लगता है कि मानों सारे 'सवर्ण ' वर्ग ने दलित समाज पर  हल्ला  बोल दिया हो । जबकि भारतीय समाज और राजनीति में ऐंसा कोई  उदाहरण नहीं जहाँ दलितों को जिम्मेदारी नहीं दी गयी हो। लोकसभा स्पीकर -मीराकुमार भूतपूर्व ग्रह मंत्री सुशील शिंदे से लेकर एनडीए के पासवान और माझी तक सभी यह जानते हैं कि  समस्या सवर्ण बनाम दलित की नहीं बल्कि समस्या निहित स्वार्थों और रोजगार के अवसरों की है। दलित वर्ग के पास आजीविका के जो परम्परागत साधन हैं यदि वह उन्हें छोड़ देगा तो उनके आजीविका के विकल्प क्या होंगे ? इधर आरक्षण के नाम पर जाट,पटेल और गूजर जैसे समाज भी सवर्ण समाज से दूर हो गए हैं। चूँकि धनवान बणिकों ,नेताओं और जाट-पटेल जैसे बड़े -किसानों ने पिछड़ापन माँग लिया है।  इसलिए अब बचा खुचा सवर्ण समाज खुद हासिये पर जा चुका है। अब तो भारत में कोई जाट है ,कोई पटेल है ,कोई पिछड़ा है और कोई अगड़ा है। कोई जैन है ,कोई मराठा है ,कोई सिंधी है,कोई -पँजाबी , कोई तमिल -तेलगु-मलयाली है ,कोई दलित,महादलित ,पिछड़ा,अतिपिछड़ा है और कोई आदिवासी -  अल्पसंख्यक है। ये सभी केवल अधिकारो की बात करते हैं। ऐसे लोग बहुत कम हैं जो देशके प्रति अपने कर्तव्य  की भी बात करते हैं ,जो अपने आपको विशुद्ध भारतीय  समझते हैं!


आजादी के ७० साल बाद भी विकास के तमाम दावों के वावजूद ,नयी-नयी उन्नत टेक्नालॉजी की भरमार के वावजूद ,नयी-नयी उदारवादी-वैश्विक आर्थिक नीतियाँ के वाजूद , यदि भारतीय समाज के दलित वर्ग की क्रूरतम विकृतियों का यह सनातन शूल अभी भी हरा-भरा है ,यदि उसका उच्छेद अभी तक नहीं किया जा सका है ,तो  सिद्ध  होता है  कि इलाज के सारे तरीके गलत रहे हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि न केवल यह पूँजीवादी व्यवस्था बल्कि मौजूद संविधान भी  'दलितोद्धार'में असफल रहा है। संसदीय लोकतंत्र भी असफल सिद्ध हुआ है ! आजाद भारत में मैला -कूड़ा फेंकने ,साफ़ सफाई करने या  मृत पशु उठाने के कार्य का आधुनिकीकरण - तकनीकिकरण  क्यों नहीं किया गया? जापान ,चीन. ,स्विट्जरलैंड में यह काम कौन करता है ? क्या वहाँ 'दलित समस्या है ?कार्य -विभाजन और उसका यक्तियुक्तकरण करने के बजाय भारत के सत्तासीन नेता, केवल वोटों की राजनीति करते रहे । कांग्रेस ,सपा,वसपा ,जदयू, तृणमूल और राजद केवल आरक्षण की वैशाखी बांटते रहते हैं । वर्तमान  सत्तारूढ़ भाजपा नेता अपने हाथों में झाड़ू उठाकर फोटो  खिंचवा रहे हैं,किन्तु 'मैला फेंकने या मृत पशु उठाने के घातक मर्ज के इलाज की कोई योजना या कार्यक्रम प्रस्तुत नहीं कर पाए हैं।  दरसल इस विमर्श में न केवल राजनीति असफल रही है ,न केवल सरकारें असफल रहीं हैं,बल्कि दलितवादी नेता और सभी कवि और साहित्यकार भी असफल रहे हैं। "-: श्रीराम तिवारी:- !

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें