रविवार, 24 अप्रैल 2011

विनायक सेन देशद्रोही नहीं -वे सच्चे राष्ट्रवादी हैं.

   विनायकसेन को सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दे दी है, इस सूचना से न केवल देश और दुनिया के मानव अधिकार कार्यकर्ताओं का मनोवल बढेगा अपितु भारत की न्याय व्यवस्था में आदर्शोन्मुख  आस्था में इजाफा भी होगा.
विनायक से न को देशद्रोह की सजा  देने दिलवाने वालों को भारी निराशा हाथ लगी है. उन्हें इस दिशा में छत्तीसगढ़ के  अंदरूनी आदिवासी  इलाकों में जाकर इस तथ्य का पता 
करना होगा  की आजादी के बाद हम तथाकथित सभी सभ्रांत, भद्र लोगों ने राष्ट्रद्रोह- देशद्रोह -राजद्रोह के ब्रिटिशकालीन उन कानूनों को जो की 'तिलक'' भगतसिंह'सुभाष जैसे स्वाधीनता सेनानियों को कुचलने के लिए 
आयद किये थे. वे आज़ादी के ६५ साल बाद भारत के देशी प्रभुत्व-वर्ग  के हित-साधन का घातक औजार  बने हुए हैं .माननीय उच्च न्यायालय की इस टिप्पणी से निसंदेह न केवल लोकतंत्र मजबूत हुआहै बल्कि अभिव्यक्ति की मर्यादित स्वतंत्रता में निखार आया है की "यदि किसी व्यक्ति के पास गांधीजी का साहित्य है तो यह जरुरी नहीं की वो गांधीवादी हो गया, इसी तरह माओवादी साहित्य रखने का तात्पर्य यह नहीं की वो नक्सलवादी है'
       सत्ता के मद में  चूर होकर जिन लोगों ने भृष्ट अधिकारीयों की शह पर मानव अधिकारों के तरफदार विनायक सेनको घेरघार कर जेल भिजवायाथा  उन्हें तो इस 'राजद्रोह' कानून की पुंगी वनाकर अपने अंग विशेष  में घुसेड लेना चाहिए! जिस आदमी ने अपनी सारी जिन्दगी देशप्रेम और सर्वहारा उत्थान के लिए समर्पित कर दी,उसे पुरस्कृत करने के बजाय सम्पूर्ण राज्य सत्ता ने निरंतर अपमानित ही किया है.दवे-कुचले, बीमार , शोषित आदिवासियों का मुफ्त में इलाज करना, उन्हें अपने हितों के प्रति सचेत करना निसंदेह शोषक शासक वर्ग की ऐयाशी के लिया खतरा तो है;निरक्षर आदिवासियों में स्वाभिमान पैदा करना,अपनी वास्तविक आज़ादी के लिए संगठित संघर्ष हेतु प्रेरणा देना,निर्दोषों पर पुलसिया जुल्म रोकना उस सरकार को कैसे पसंद  आता जो कार्पोरेट लाबी के हाथों सौ-सौ बार बिक चुकी है.
         देश के अनगिनत निर्धन,  सर्वहारा की संगठित शक्ति का परिणाम है कि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने न केवल विनायक सेन को जमानत दे दी बल्कि कुछ वेहद महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ भी कीं हैं. दरसल विनायक सेन को नक्सलवादी होने कि कोई अभिलाषा कभी नहीं रही.यदि वे हो भी जाते तो भी उन पर ये जुर्म आयद नहीं हो सकता. भारत में नक्सलवाद के प्रणेता चारू मजूमदार जेल कि यातनाएं सहते हुए जब शहीद हुए थे तो तत्कालीन संसद में श्रीमान अटलबिहारी वाजपई,वी वी गिरी,हीरेन मुखर्जी तथा सम्पूर्ण संसद ने उन्हें शोक संवेदना व्यक्त कि थी.उनके क्रन्तिकारी विचारों में हिंसा के समावेश से असहमति व्यक्त करते हुए उनके दर्शन की  सराहना कि थी. क्या चारू मजूमदार देशद्रोही थे? यदि थे तो देश के करोड़ों लोग उनकी गद्दार विचारधारा के साथ क्यों होते गए?और विनायक सेन तो चारू मजूमदार नहीं हैं,सेन का मात्र इतना ही था कि उन्होंने नक्सलवाद और आतंकवाद का अंतर समझने कि कोशिश कि थी. आतंक क्यों पनपता है? देश का मेहनतकश  मजदूर भूंखा -नंगा क्यों है?सभी समाज कि लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से देश का बहुल-अंश  अलग-थलग क्यों है?
           दलितों -पिछड़ों के गीत गाने वाली रमण सरकार एक सीधे साधे मानव -अधिकार -कार्यकर्त्ता को जेल भिजवाने या सूली  पर चढ़वाने को इतनी आतुर क्यों है?क्या साधनहीन  गरीवों का इलाज करना ,उनके भाई बंधुओं पर हो रहे व्यवस्था-जन्य कुकृत्यों का पर्दाफाश करना क्या  देश द्रोह में आता है? क्या किसी भटके हुए आदिवासी नौजवान के असहाय माता-पिता कि खैर-खबर उस दिग्भ्रमित बेटे तक पहुँचाना वास्तव में 'राष्ट्रद्रोह' हो सकता है? क्या अपने झोले में किसी कि दी हुई कोई ऐसीं किताब जो श्रमिकों-किसानो और वनवासियों के सरोकारों को उद्घाटित करती हो -रखना, क्या संविधान के खिलाफ है? यदि विनायक सेन देशद्रोही हैं- किसी कि नज़र में तो उसे चाहिए कि अपना गिरेवान गौर से निहारे, यदि उसकी आत्मा जिदा है उसमें सच का एक कतरा भी बाकी है तो उसे या तो इस हिमालयी भूल पर प्रायश्चित करना होगा या पूरे देश को कारागार बना देना होगा.
      श्रीराम तिवारी

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