रविवार, 10 अप्रैल 2011

मात्र-ज़न-लोकपाल विधेयक से 'भृष्टाचार मुक्त भारत'क्या सम्भव है?

   यह स्मरणीय है कि अपने आपको गांधीवादी कहने वाले कुछ  महापुरुष  पानी  पी-पीकर राजनीतिज्ञों को कोसते हैं ,जबकि गांधीवादी होना क्या  अपने-आप में राजनैतिक नहींहोता ?याने गुड खाने वाला गुलगुलों से परहेज करने को कह रहाहो तो उसके विवेक पर प्रश्न चिन्ह 
लगना स्वाभाविक  नहीं है क्या?दिल्ली के जंतर-मंतर पर अपने ढाई दिनी अनशन को तोड़ते हुए समाज सुधारक और तथाकथित प्रसिद्द गांधीवादी{?}श्री अन्ना हजारे ने भीष्म प्रतिज्ञा की है कि 'निशचर हीन करों मही,भुज उठाय प्रण कीन" हे! दिग्पालो सुनो,हे! शोषित -शापित प्रजाजनों सुनो-अब मैं अवतरित हुआ हूँ {याने इससे पहले जो भी महापुरुष ,अवतार ,पीर, पैगम्बर हुए वे सब नाकारा सावित हो चुके हैं}  सो मैं अन्ना हजारे घोषणा करता हूँ कि ' यह आन्दोलन का अंत नहीं है,यह शुरुआत है.भृष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए पहले लोकपाल विधेयक का मसविदा बनेगा .नवगठित समिति द्वारा तैयार किये जाते समय या केविनेट में विचारार्थ प्रस्तुत करते समय कोई गड़बड़ी हुई तो यह आन्दोलन फिर से चालू हो जायेगा.यदि संसद में पारित होने में कोई बाधा खड़ी होगी तो संसद कि ओर कूच किया जायेगा.भृष्टाचार को जड़ से मिटाने,सत्ता का विकेन्द्रीयकरण करने,निर्वाचित योग्य प्रतिनिधियों को वापिस बुलाने,चुनाव में नाकाबिल उमीदवार खड़ा होनेइत्यादि कि स्थिति में 'नकारात्मक वोट'से पुनः मतदान की व्यवस्था इत्यादि के लिए पूरे देश में आन्दोलन करने पड़ सकते हैं. यह बहुत जरुरी और देश भक्तिपूर्ण कार्य है अतः सर्वप्रथम तो मैं श्री अणा हजारे जी   का शुक्रिया अदा करूँगा और उनकी सफलता की अनेकानेक शुभकामनाएं
            उनके साथ जिन स्वनाम धन्य देशभक्त-ईमानदार और महानतम चरित्रवान लोगों ने -इलिम्वालों -फिलिम्वालों ,बाबाओं ,वकीलों और महानतम देशभक्त मीडिया ने जो कदमताल की उसका भी में क्रांतिकारी अभिनन्दन करता हूँ.दरसल यह पहला प्रयास नहीं है ,इससे पहले भी और भी व्यक्तियों ,समूहों औरदलों ने इस भृष्टाचार की महा विष बेलि को ख़त्म करने का जी जान से प्रयास किया है ,कई हुतात्माओं ने इस दानव से लड़ते हुए वीर गति पाई है ,आजादी के दौरान भी अनेकों ने तत्कालीन हुकूमत और भृष्टाचार दोनों के खिलाफ जंग लड़ी है.आज़ादी के बाद भी  न केवल भृष्टाचार अपितु अन्य तमाम सामाजिक ,आर्थिक ,राजनेतिक बुराइयों के खिलाफ जहां एक ओर विनोबा,जयप्रकाश नारायण ,मामा बालेश्वर दयाल ,नानाजी देशमुख ,लक्ष्मी सहगल,अहिल्या रांगडेकर और वी टी रणदिवे जैसे अनेक गांधीवादियों/क्रांतिकारियों /समाजसेवियों ने ताजिंदगी संघर्ष किया वहीं दूसरी ओर आर एस एस /वामपंथ और संगठित ट्रेड यूनियन आन्दोलन ने लगातार इस दिशा में देशभक्तिपूर्ण संघर्ष किये हैं.यह कोई बहुत पुरानी घटना नहीं है कि दिल्ली के लोग भूल गएँ होंगे!विगत २३ फरवरी को देश भर से लगभग १० लाख किसान -मजदूर लाल झंडा हाथ में लिए संसद  के सामने प्रदर्शन करने पहुंचे थे.वे तो अन्ना हजारे से भी ज्यादा बड़ी मांगें लेकर संघर्ष कर रहे हैं ,उनकी मांग है कि- अमिरिका के आगे घुटने टेकना बंद करो!    देश के ५० करोड़ भूमिहीन गरीब किसानों -मजदूरों को जीवन यापन के संसाधान दो!बढ़ती हुई मंहगाई पर रोक लगाओ !देश कि संपदा को देशी -विदेशी सौदागरों के हाथों ओउने -पौने दामों पर बेचना बंद करो!गरीबी कि रेखा से नीचे के देशवासियों को बेहतर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से गेहूं -चावल -दाल और जरुरी खद्यान्न कि आपूर्ती करो!   पेट्रोल-डीजल-रसोई गैस और केरोसिन के दाम कम करो! जनता के सवालों और देश कि सुरक्षा के सवालों को लगातार उठाने के कारन ही २८ जुलाई -२००८ कि शाम को यु पी ये प्रथम के अंतिम वर्ष में तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री मनमोहनसिंह ने कहा था -हम वाम पंथ के बंधन से आज़ाद होकर अब आर्थिक सुधार कर सकेंगे' याने जो -जो बंटाधार  अभी तक नहीं कर सके वो अब करेंगे.इतिहास साक्षी है ,विक्किलीक्स के खुलासे बता रहे हैं कि किस कदर अमेरिकी लाबिस्टों और पूंजीवादी राजनीतिज्ञों ने किस कदर २-G ,परमाणु समझोता,कामनवेल्थ ,आदर्श सोसायटी काण्ड तो किये ही साथ में लेफ्ट द्वारा जारी रोजगार गारंटी योजना को मनरेगा नाम से विगत लोक सभा चुनाव में भुनाकर पुनः सत्ता हथिया ली.
       लगातार संघर्ष जारी है किन्तु पूंजीवाद और उसकी नाजायज औलाद 'भृष्टाचार' सब पर भारी है.प्रश्न ये है कि क्या अभी तक की सारी मशक्कत वेमानी है?क्या देश की अधिसंख्य ईमानदार जनता के अलग-अलग या एकजुट सकारात्मक संघर्ष को भारत का मीडिया हेय दृष्टी से देखता रहा है?क्या देश की सभी राजनेतिक पार्टियाँ चोर और अन्ना हजारे के दो -चार बगलगीर ही सच्चे देशभक्त हैं?क्या यह ऐसा ही पाखंडपूर्ण कृत्य नहीं कि 'एक में ही खानदानी हूँ'याने बाकि सब हरामी?
    दिल्ली के जंतर -मंतर पर हुए प्रहसन का एक पहलु और भी है'नाचे कुंदे बांदरी खीर खाए फ़कीर'
     वरसों पहले 'झूंठ बोले कौआ कटे'गाने पर ये विवाद खड़ा हुआ था कि ये गाना उसका नहीं जिसका फिलिम में बताया गया ये तो बहुत साल पहले फलां -फलां ने लिखा था.यही हाल हजारे एंड कम्पनी का है.इनके और मजदूरों के संघर्ष में फर्क इतना है कि प्रधान मंत्री जी और सोनिया जी इन पर मेहरवान हैं .क्योंकि हजारे जी वो सवाल नहीं उठाते जिससे पूंजीवादी निजाम को खतरा हो.वे अमेरिका कि थानेदारी,भारतीय पूंजीपतियों कि इजारेदारी ,बड़े जमींदारों कि लंबरदारी पर चुप है ,वे सिर्फ एक लोकपाल विधेयक कि मांग कर मीडिया के केंद्र में है और भारत कि एक अरब सत्ताईस करोड़ जनता के सुख दुःख से इन्हें कोई लेना -देना नह्यीं . दोनों कि एक सी गती एक सी मती.
         अन्ना हजारे के अनशन को मिले तात्कालिक समर्थन ने उनके दिमाग को सातवें आसमान पर बिठा दिया है.मध्य एशिया -टूनिसिया,यमन,बहरीन ,जोर्डन,मिश्र और लीबिया के जनांदोलनो की अनुगूंजको  भारतीय मीडिया ने कुछ इस तरह से पेश किया है की भारत में भी 'एक लहर उधर से आये ,एक लहर इधर से आये,शाशन -प्रशाशन सब उलट-पलट जाये.जब भारतीय मीडिया की इस स्वयम भू क्रांतिकारिता को भारत की जनता ने कोई तवज्जो नहीं दी तो मीडिया ने क्रिकेट के बहाने अपना बाजार जमाया.अब क्रिकेट अकेले से जनता उब सकती है सो जन्तर-मंतर पर  देशभक्ति का बघार लगाया.हालाँकि भृष्टाचार की सडांध से पीड़ित  अवाम को मालूम है की उसके निदान का हर रास्ता राजनीती की गहन गुफा से ही गुज़रता है.किन्तु परेशान जनता को ईमानदार राजनीतिज्ञों की तलाश है,सभी राजनेतिक दल भ्रष्ट नहीं हैं ,सभी में कुछ ईमानदार जरुर होंगे उन सभी को जनता का समर्थन मिले और नई क्रांतिकारी सोच के नौजवान आगे आयें ,देश में -सामाजिक -आर्थिक और हर किस्म की असमानता को दूर करने की समग्र क्रांति का आह्वान करें तो ही भय-भूंख -भृष्टाचार से देश को बचाया जा सकता है .यह एक अकेले के वश की बात नहीं .श्रीराम तिवारी  

 

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