विगत वीसवीं शताब्दी में चूँकि दुनिया भर में मजदूर आंदोलनों की एतिहासिक विजयों व् उपलब्धियों ने सारे संसार के मेहनतकशों तक ये पैगाम पहुँचाया था कि "इस जद्दोजहद में हार जाने पर सर्वहारा के पास खोने को कुछ भी नहीं,है ;किन्तु यदि जीत गए तो सारा जहां हमारा है"दरसल मजदूर वर्ग को उस दौर में जो लगातार सफलताएँ मिल रहीं थी ,उनसे घबराकर दुनिया भर के धन -लालचियों,सत्ता लोलुपों ने सर्वहारा वर्ग की व्यापक एकता को खंडित करने के लिए
धर्म,जाति ,नस्ल , भाषा,क्षेत्र और अतीत के भग्नावशेषों,के छद्म रूपकों को समाज विखंडन का माध्यम बना डाला.
सोवियत संघ व् पूर्वी यूरोप के तत्कालीन समाजवादी देशों में क्रमशः विकसित समाजवादी क्रांतियों और उर्धगामी घटना क्रम ने मानव समाज विरोधी ताकतों को अपनी प्रभुता समेटने को बाध्य कर दिया था,किन्तु भारतीय समाज व्यवस्था पर प्रतिगामी वर्चस्व तब भी बना रहा;ऐंसा क्यों हुआ?प्राचीन दास प्रथा और अर्वाचीन सामंतशाही ने अपने निहित स्वार्थों के लिए वंशानुगत कार्य विभाजन जनित जातीय व्यवस्था को न केवल अक्षुण रखा बल्कि उसे पल्लवित-पोषितभी किया.सामंतवाद के प्रारंभिक दौर में मानव समाज को हासिल वैज्ञानिक तकनीकी व सांस्कृतिक प्रगति, जो देशज परम्परा में हासिल हुई थी वो विदेशी आक्रमण कारियों के झंझावातों में सिमट कर दफन हो गई.चूँकि श्रम विभाजन में चमत्कारी बदलाव तो आया किन्तु वंशानुगत असमानता की केंचुल समाज को अलगाव में दवोचे रही अतएव विरासत में सिर्फ जातीय चेतना का खतरनाक और घृणित स्मृतिकोष ही शेष बचा रहा.
अंग्रेजों ने पूरे भारतीय समाज को एक बाज़ार बनाने,सस्ता श्रम खरीदने और समस्त भारतीय जनता -सभी जातियों को पूंजीवाद का चाकर बनाने के लिए जातीयवादी रूढ़ियों को तोड़ने का सिर्फ भ्रम पैदा किया था.१८५७ की प्रथम जन-क्रांति और उसके वाद भारतीय जन-मानस की प्रतेक राष्ट्रीय चेतना के उभार को दवाने के लिए उन्होंनेनिरंतर जातीय उन्माद की पुरजोर परवरिश की.हालाँकि मुगलों की तरह अंग्रेजों ने भी हिस्र प्रुवृति के समुदायों को अलग -अलग रेजीमेंटों में बांटकर जाटों के खिलाफ मराठों को,सिखों के खिलाफ गोरखों को,मराठों के खिलाफ राजपूतों को और राजपूतों के खिलाफ पहाड़ियों को लड़ाकर-भारत के मार्शल समुदाय को बुरी तरह विभाजित कर रखा था किन्तु अधिकांस दलित,शोषित अछूत जातियों को उच्च सवर्ण जातियों के द्वारा उत्पीडन को समाप्त करने की दिशा में उनकी कोई रूचि नहीं थी.धार्मिक कूपमंडूकता,व वर्ण व्यवस्था की अमानवीयता को जान -बूझकर ये विदेशी शाशक तथस्थ भाव से निहारते रहे.
राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम केअधिकांस पुरोधाओं की अपनी निजी वैचारिक सीमायें थीं.जातीय उच्छेदन के प्रश्न पर सिर्फ वामपंथ {तत्कालीन बोल्शेविक -शहीद भगत सिंह और उनके ह्म्सोच साथी} का सिद्धांत या बाबा साहिब का रुख ही प्रगतिशील था,बाकी के अधिकांस महानुभाव 'इस या उस'कारन से इस प्रश्न पर ओपचारिकता का निर्वहन करते रहे.गांधीजी,से लेकर तिलक व अन्य सभी लोकतंत्रवादी -सामंतवादी नेताओं का अभिमत इस प्राचीन जातिप्रथा को बनाये रखने के पक्ष में था.
इसीलिये आज़ादी के दौरान हिंदी भाषी क्षेत्रों में दुहरी गुलामी की पीड़ा भोग रही और अपनी दुर्दशा से मुक्त होने की अभिलाषा में इन शोषित -दमित समुदायों ने विदेशी साम्राज्वाद का प्रतिकार करने के संघर्षों से अपने आपको अलग रखा.प्रकारांतर से इन्हें एकजुट करने वालों ने सामंतों और पूंजीपतियों को भी अपनी दुरावस्था का कारण नहीं मानकर उनके खिलाफ कोई संगठित संघर्ष नहीं किया .इस परम्परा का आज भी निर्वाह हो रहा है.
जातिवादी चेतना पिछले कई दशकों में भारतीय समाज के अन्दर और ज्यादा मजबूती से घर कर चुकी है.विशेतः मेहनतकश जनता की एकता पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाले कारकों में से यह एक प्रमुख राष्ट्रघाती चिंतनधारा वन गई है.सभी वर्ग और जातियों के मजदूर-कर्मचारी-अधिकारी चाहे वे सरकारी या सार्वजनिक उपक्रम के कर्मी हों या असंगठित क्षेत्र के मजदूर-कर्मचारी हों,ट्रेड-यूनियन जैसे वर्गीय संगठनो के स्थान पर अक्सर उसके मुकाबले जातीय आधारित संगठन बनाने की स्थितियां भी सामने हाजिर हैं.शाशक वर्ग ने भी फिर चाहे वे अंग्रेज हों,मुग़ल हों,तुर्क हों,आर्य हों या सामंत हों सभी ने अपने-अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर रुढीवादी-जातिवादी प्रवृत्ति का पक्षपोषण ही किया है.वस्तुतः जाति एक ऐंसा सनातन भ्रम है जो सत्य प्रतीत होता है.यह सामाजिक दंभ की अभिव्यक्ति है.यह मानव समाज की पतित मानसिकता दासता का उपमान है.यह एक मिथकीय उपमेय है.यह एक लज्जास्पद रूढ़ी है.
अतः मात्र आर्थिक आरक्षण ही काफी नहीं बल्कि सदियों के दासत्व बोध को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए जातिवादी चेतना के मूल तत्वों पर कुठाराघात जरुरी है.वैश्वीकरण के दौर में यदि इस सामाजिक विभीषिका रुपी विसंगति को जिन्दा रखने के लिए शाशक वर्गों ने अपनी पूरी ताकत लगा रखी है तो दूसरी ओर इस दमनात्मक चेतना को पछाड़ने की प्रक्रिया भी क्या तेज नहीं होनी चाहेये? श्रीराम तिवारी
जब हम बामपंथी साथी धर्म को पाखंडियों के लिए खुला छोड़े हुए हैं तो कैसे जातिवाद और पाखंडी धर्म की काट करेंगे.इसके लिए धर्म की सही व्याख्या बतानी ही होगी. अकेले मैं ही अपने क्रन्तिस्वर पर ऐसा कर रहा हूँ.बाकी बामपंथी साथी ऐसा कहाँ कर रहे हैं फिर सफलता कैसे?
जवाब देंहटाएंधन्यवाद माथुर जी ,आप इस दिशा में वर्गीय चेतना हेतु प्रयास रत हैन.किन्तु आपका यह कथन सही नहीं है की कोई ओर इस सन्दर्भ में सक्रिय नहीं है. आप लोकलहर,नया पथ,पएपुल्स डेमोक्रेसी,उद्भावना इत्यादि पत्र पत्रिकाओं को ज़रूर पढ़ें;आपको यह जानकार खुशी होगी की इस संघर्ष में आप कतई अकेले नहीं हैन.सारि दुनिया के मेहनत कस आपके हमकदम ओर हमराह हैं.
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