गुरुवार, 7 सितंबर 2023

सम्भवामि युगे युगे.

..अधर्म जैसे अपने चरम पर पहुँच चुका था। मथुरा में बैठा कंस स्वयं को ईश्वर बताता था, तो उधर मगध नरेश जरासंध भी ईश्वरत्व का दर्प लिए जी रहा था। कहीं नरकासुर स्वयं को ईश्वर बता कर मानव जाति की प्रतिष्ठा को अपने पैरों तले रौंद रहा था। अब तो उन्हें ही ईश्वर मान कर पूजने वालों की संख्या अधिक हो गयी थी।

धर्म को अपशब्द बोलने वालों की संख्या रोज ही बढ़ती जाती थी और जो ही शक्तिशाली होता वह स्वयं को ईश्वर घोषित कर लेता था। आर्यावर्त की सीमाओं के पार यवनों का आतंक चरम पर था। भारतवर्ष के भीतर भी ऐसी असँख्य राजनैतिक शक्तियां थीं, जो यवनों से मित्रता रखती थीं, उनकी परम्पराओं का पालन करती थीं, उनका सहयोग करती थीं।
और इन सब के मध्य हृदय में धर्म धारण कर जीने वाले सामान्य जन की क्या दशा थी? तो उनके ऊपर असँख्य कर थोप दिए गए थे। गायें ग्वालों की, पर दूध कंस का। खेत किसानों के, अन्न कंस का। ऋषियों के हवन कुंड में हड्डियां डाल कर खिलखिला उठने वाले दैत्य विधर्मी सत्ता से सम्मान पाते थे। तो कहीं जगत कल्याण की प्रार्थना करते घूमते वैरागी सन्तों को पीट पीट कर मार देने वाले दैत्य क्षत्रप बने बैठे थे। देवस्थलों की गरिमा धूमिल की जाती थी, मन्दिर तोड़ दिए जाते थे, यज्ञ रोक दिए जाते थे, ईश्वर की आराधना करने वालों को दण्ड दिया जाता था
सामान्य जन के जीवन के क्षण क्षण पर आतंकियों का अधिकार था। उग्रसेन या वसुदेव जैसे प्रजा के धर्मनिष्ठ नायक आतंकियों की कैद में पड़े थे। बेड़ियां केवल धर्मिक जन के हाथों में ही नहीं लगीं थीं, अब जैसे समूची सभ्यता ही बेड़ियों में जकड़ गयी थी।
ऐसा केवल कुछ दिनों से ही नहीं हो रहा था, ऐसा सैकड़ों हजारों वर्षों से हो रहा था। प्रजा त्राहि त्राहि कर उठी थी। धर्म के उत्थान का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था। अधिकांश जन अब मान चुके थे कि सभ्यता मर जाएगी, धर्म समाप्त हो जाएगा। वे बस किसी तरह अपना जीवन काट लेना चाहते थे। उनका कोई दोष नहीं था, लम्बे समय की पीड़ा मनुष्य की देह ही नहीं तोड़ती, उसके विश्वास को भी तोड़ देती है।
और एक रात! मध्यरात्रि में एकाएक सारे पक्षी चहचहा उठे। गौवें रम्भाने लगीं, बछड़े उछलने कूदने लगे, नदियों का वेग सौगुना हो गया, अधर्म की आंखों पर निद्रा छा गयी, सारी जंजीरें टूट गईं, किंवाड़ स्वतः खुल गए, और नकारात्मकता से भरे उस क्रूर कालखंड की उस काली अंधेरी रात में, बंदीगृह के सीलन भरे भयावह कमरे में, उस चिर दुखिया स्त्री की गोद में सम्पूर्ण ब्रम्हांड का तेज एकत्र हो कर बालक रूप में प्रकट हुआ।
सारी हवाएं उस बालक के चरण छू लेने को व्यग्र हो गयी थीं। उस बालक के ऊपर बरस कर उसका अभिषेक करने को आतुर मेघों के आपसी टकराव से उत्पन्न विद्युत की गरज में जैसे प्रकृति का उद्घोष था, कि धर्म कभी समाप्त नहीं होता। जब जब अधर्म चरम पर पहुँचता है, ईश्वर तभी आते हैं। परित्राणाय साधूनाम्... साधुओं के त्राण के लिए! विनाशाय च दुष्कृताम... दुष्टों के विनाश के लिए! धर्मसंस्थापनार्थाय... धर्म की स्थापना के लिए... वे आ गए थे। वे ऐसे ही आते हैं।

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