"जड़ चेतन गुन दोषमय विश्व कीन्ह करतार!
संत हंस गुन गहहिं पर, परहरि वारि विकार!! "
:-रामचरितमानस

इसलिए अनेक अनुभवी एवं बुद्धिमान मनोवैज्ञानिकों और दार्शनिकों ने *"निंदक नियरे राखिए"* का उपदेश किया है । क्योंकि वे जानते थे कि ऐसा करने से अपना तो सुधार होगा ही किंतु सकारात्मक संक्रामक रोगों की तरह निंदक ही दोषों का शिकार हो जाएगा, जिससे और आगे चलकर उसकी आँखें खुलेगी और अपनी भूल समझकर स्वभाव में सुधार करने का प्रयत्न करेगा । इस प्रकार अपना और उसका दोनों का हित होगा ।

ऐसा होने से आप "ईर्ष्या-द्वेष", "वाद-विवाद", "लड़ाई-झगड़ा", "कुंठा" एवं "कुढ़न" के विकारों से बच जाएँगे । *अपनी बुराई सुनकर आपको क्रोध न होगा बल्कि आप उसे सचाई समझकर ग्रहण करने का साहस दिखा सकेंगे क्रोध अथवा प्रत्यालोचना न करने से आपकी दोषवृत्ति दबेगी, गुणों का विकास होगा और धीरे-धीरे आपके निंदक भी आपके प्रशंसक बन जाएँगे । *अस्तु,!!!
लोक एवं परलोक के कल्याण के लिए "परगुण" एवं "आत्मदोषदर्शी" बनिए ।* दूसरों के दोष देखना, छिद्र खोजना, निंदा तथा आलोचना करने में अपने अमूल्य समय एवं अनमोल शक्ति का अपव्यय न कीजिये!उन्हें सत्कर्मों में लगाइए ! और संसार में सफलतापूर्वक जीवन गुजारकर परलोक के पावन पथ को प्रशस्त कीजिये!









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