गुरुवार, 7 सितंबर 2023

उद्धव की खीज

 "प्रेम प्रेम प्रेम! इस संसार मे प्रेम के अतिरिक्त भी कुछ भाव हैं राधिका, प्रेम ही सबकुछ नहीं! समाज यदि ज्ञान की असभ्य परिभाषाएं रट गया तो सभ्यता मर जाएगी। तनिक ईश्वर का स्मरण भी कर लो, तनिक ज्ञान की चर्चा भी कर लो..." उद्धव अब झल्ला गए थे।

राधिका मुस्कुराईं। कहा, "जब संसार कंस के अत्याचारों से दब कर उसे ही भगवान मानने को विवश हो गया था, तब हमने उस नन्हे से बालक में अपने ईश्वर को देखा था उद्धव जी! हमने उस महाबलशाली दैत्य के समक्ष एक बालक पर भरोसा किया। और देखो, कंस हमें छू भी नहीं सका। कैसे न करें प्रेम उस साँवले से बाबा, कैसे न करें प्रेम...?"
"एक बात बताओ राधिके! कंस जैसे आतताई के युग में, जब सभ्यता पर ग्रहण लगा हुआ था, तब पूरे गाँव का किसी व्यक्ति के प्रेम में पागल हो जाना कहाँ तक सही था? क्या समाज का धर्म नहीं था कि सब प्रतिकार की बात करते? क्रांति के युग में प्रेम क्या भ्रांति नहीं है?" उद्धव की खीज समाप्त नहीं हो रही थी।
"हमारा प्रेम ही हमारा प्रतिरोध है बाबा! किसी आततायी के युग मे प्रेमी बन कर जीना किसी क्रांति से कम नहीं होता। जब वह भय बांट रहा था, तब हमने होली का उत्साह चुना। जब वह बकासुर और कालिया नाग के माध्यम से मृत्यु बांट रहा था, तब हमने आनन्द के खेल रचे। हमारा भयभीत न होना उसके आतंक के मुँह पर थप्पड़ था। हमारा प्रेम ही हमारी विजय का प्रमाण था उद्धव बाबा, वह हारा और हम जीते... कन्हैया हमारी इस विजय का नायक था।" राधिका के स्वरों में गर्व का भाव था। यूँ भी, गर्व करने के लिए कृष्ण के प्रेम का पात्र होने से अधिक महत्वपूर्ण क्या ही होगा...
"पर क्या प्रेम ही सबकुछ है राधिका? उसके अतिरिक्त और कुछ आवश्यक नहीं?" उद्धव भी अडिग थे।
"उनके प्रेम के बिना मेरा तो जीवन ही निष्प्राण है बाबा! वे मेरी नासिकाओं में बहती प्राणवायु हैं उनसे बढ़कर मेरे लिए कोई तीर्थ नहीं! संसार के लिए जीवन में प्रेम के अतिरिक्त भी बहुत कुछ होता होगा, पर मेरे लिए नहीं। मेरे लिए प्रेम ही प्रस्थान बिंदु है और प्रेम ही गंतव्य! मैं उसके अतिरिक्त और कुछ सोच भी नहीं सकती।" राधिका दृढ़ थीं।
"अच्छा चलो मान लिया! पर अब?" उद्धव फिर बोले, "मन तो जहाँ तहाँ अटक जाता है राधिके, पर जीवन का अंतिम लक्ष्य तो उस परमपिता की आराधना कर उसे पा लेना ही है, और तुम अपने इस चंचल मन को बिना जाग्रत किए यह कभी नहीं कर पाओगी।"
"निरर्थक प्रयास कर रहे हो बाबा! काश, कि मन दस-बीस हुए होते! एक था, जो वह बालक ले गया। अब इस जन्म में वह कहीं और न लग सकेगा... मन में वह इस तरह बसा हुआ है कि अब ईश्वर के लिए भी स्थान नहीं बचा! मन में कुछ और बसाने के लिए दूसरा जन्म लेना होगा, और उसके लिए पहले मरना होगा। मरना तो है ही, अब मरने के लिए ही जी भी रहे हैं। यदि वह ईश्वर है तो मर कर उसी के लोक में जायेगें, और कहेंगे कि अगले जन्म में छोड़ देना माधो। मिलना तो पूरा मिलना, अन्यथा न मिलना... तब शायद आपका ज्ञान सीख सकें हम! पर अभी तो कोई संभावना नहीं देवता!" राधिका के मुखड़े पर एक बार फिर उदासी पसर आयी थी।
उद्धव झल्ला उठे। कहा, "मैं कल तुमसे फिर मिलूंगा राधिके! अभी चलता हूँ। पर स्मरण रहे, वह प्रेम के नहीं भक्ति के योग्य है। तुम्हारा प्रेमी कन्हैया वास्तव में जगतपिता कन्हैया है।"
राधिका ने मन ही मन कहा, "प्रेम यदि ईश्वर से जुड़ जाय तो आध्यात्म हो जाता है बाबा! पर तुम नहीं समझोगे... जाओ!"
(पुराना लेख है यह भी। वैसे राधिका के होने/न होने के विवाद पर ज्ञानियों से प्रश्न पूछें, मुझ गंवार से नहीं।)

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