13 सितम्बर, 1929 को अनशन का 63वां दिन था। जतीन्द्र के चेहरे पर आबनूसी मुस्कराहट थी। उन्होंने सभी मित्रों को पास बुलाया। छोटे भाई किरणचंद्र दास ने उनका सिर अपनी गोद में रखा । विजय सिन्हा ने जतीन्द्र का प्रिय गीत ' एकला चलो रे ' और फिर ' वंदे मातरम ' गाया। ' इंकलाब जिंदाबाद ' का नारा गूंज गया। मुस्कराहट का आशय था, रवि का रथ उन्हें लेने आ चुका था । एक बार फिर ' इंकलाब जिंदाबाद ' का नारा लगा और जतीन्द्रनाथ दास का सिर एक ओर लुढ़क गया ।
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लाहौर षड्यंत्र में गिरफ्तार जतीन्द्रनाथ दास छठवीं बार जेल पहुंचे थे। भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और दूसरे क्रांतिकारियों के साथ । सभी क्रान्तिकारी जेल अफसरों के दुर्व्यवहार और निहायत खराब खाना दिए के खिलाफ भूख हड़ताल पर थे।
जतीन्द्रनाथ दास ने 63 दिनों तक अनशन किया, अपनी क्रमिक मौत के बीच अपने आत्मबल का परीक्षण करते हुए। उन्होंने कहा था - ' गोली खाकर या फिर फांसी पर झूलकर मरना तो बहुत आसान है। जब आदमी अनशन करके धीरे-धीरे मरता है तो उसके मनोबल का पता चलता है। अगर वह मन से कमजोर है तो उससे ये कभी नहीं हो पाएगा...'
13 सितंबर 1929 को लाहौर सेन्ट्रल जेल में उस समय सन्नाटा पसर गया, जब 25 साल के एक युवा क्रान्तिकारी ने 63 दिनों के अनशन के बाद अपना दम तोड़ दिया था। उसके चाहने वालों की तादाद देखकर ब्रिटिश सम्राज्य के पैरों तले जमीन खिसक गई थी। लाहौर शहर ने कभी इतना लंबा जूलूस नहीं देखा था जो जतीन्द्र नाथ दास के आत्म बलिदान के समर्थन और उनके लिए बेपनाह प्यार में निकला।
उनकी पार्थिव देह लाहौर से कलकत्ता ट्रेन से लायी गयी । इस दौरान जहां - जहां ट्रेन रुकती वहां-वहां लोगों की भीड़ इनके अंतिम दर्शन को उमड़ पड़ती थी। कहा जाता है कि कलकत्ता में जतीन्द्र नाथ दास के अंतिम संस्कार के समय लाखों की भीड़ उमड़ पड़ी थी और इनके अंतिम दर्शन के लिए करीब 3 किलोमीटर तक लोगों की लंबी लाइन लगी थी। पूरा कलकत्ता ( अब कोलकाता ) ' जतिन दास अमर रहे '… ' इंकलाब जिंदाबाद ' के नारों से गूंज गया ।
1928 की ' कोलकाता कांग्रेस ' में जतीन्द्र ' कांग्रेस सेवादल ' में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के सहायक थे। वहीं उनकी भगत सिंह से भेंट हुई और भगत सिंह के अनुरोध पर बम बनाने के लिए आगरा आये । 8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने सेंट्रल एसेंबली में जो बम फेंके, जतीन्द्र के बनाये थे। 14 जून, 1929 को जतीन्द्र गिरफ़्तार कर लिए गए और उन पर 'लाहौर षड़यंत्र केस' में मुकदमा चला।
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पढ़ें यह कविता यतीन्द्र नाथ दास की स्मृति में
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भूख कितनी होती है भयावह,
साथी बताना और सच- सच बताना
डरे हुए लोगों का सवाल है कि
पहले दिन और तिरसठवें दिन के बीच
कब लगा कि और कब- कब लगा
भूख गुलामी से हमेशा कम
तख़लीफदेह होती है।
पानी और रोटी से बड़ी है आजादी।
मैंने कई बार सोचा कि पूछूं कि
इतने दिन भूखे पेट क्या था तुम्हारा सपना,
की क्या क्या सोचते थे भूखे पेट।
सिर्फ यह कि इन्सानियत और इन्सान जीवित रहे और गुलाम न रहे उसके आंखों के सपने।
लोग कहते भूखे आदमी का ईमान नहीं होता
लेकिन ईमान के लिए भूखे मर जाना
है ना शानदार बात।
इतिहास के पन्नों में भूख से लिखी तुम्हारी इबारत हमेशा चमकती रहेगी कि
गुलामी हमेशा हर तख़लीक़ से ज्यादा बड़ी है
और तो और कि भूख और मौत सी भी बड़ी।
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