बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

कार्ल मार्क्स का यह तात्पर्य कदापि नहीं था

 जब रोम जल रहा था, पीट्सबर्ग से लेकर डायमंड हार्वर तक और हिरोशिमा से लेकर नागासाकी तक परमाणुविक आग की लपटें आसमान छू रहीं थीं ,तब यूरोप -अरब के धर्म-मजहब क्या कर रहे थे ?

जब कोरोना वायरस कोविड -19 तूफानी गति से करोड़ों को काल के गाल में धकेल रहा था, तब गॉड,अल्लाह, अहूरमज्द,ईश्वर और आस्तिकता क्या सो रहे थे ? शायद इन जघन्य घटनाओं से प्रेरित होकर ही विज्ञान परस्त प्रगतिशील लेखकों ने मार्क्स के 'धर्म एक अफीम है' वाले सिद्धांत में नास्तिकता का प्रत्यारोपण कर डाला।
जबकि वास्तव में महान दार्शनिक और चिंतक कार्ल मार्क्स का यह तात्पर्य कदापि नहीं था कि,धर्म -मजहब गलत हैं या ईश्वर का अस्तित्व ही नहीं है। दरसल मार्क्स ने धर्म -मजहब के उसी विकृत रूप और विचलन पर कटाक्ष किया था जो आज भी मनुष्यता के हर क्षेत्र में दुनिया को भरमा रहा है। : श्रीराम तिवारी

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