पाश्चात्य नास्तिकों और भारतीय चार्वाक दर्शन के अनुयायियों का सवाल जायज है कि जब मनुष्य के अलावा हाथी कंगारू, ऊंट,घोडा,गधा,गाय,बैल,भैंस,कुत्ता,बिल्ली, शेर,साँप ,नेवला ,मयूर ,कोयल ,कौआ,तीतर, तोता,गिद्ध-बाज,मगरमच्छ,कछुआ, शार्क- व्हेल मछली जब आस्तिक-नास्तिक नहीं होते तो मनुष्य को आस्तिक-नास्तिक के फेर में क्यों पड़ना चाहिए ?
चूँकि आस्तिक-नास्तिक का वर्गीकरण मनुष्य के अपने सामाजिक और नैतिक सिद्धांतों-नियमों से संचालित है!अतः यह 'ईश्वर' कृत व्यवस्था कदापि नहीं है, यदि यह ईश्वरकृत व्यवस्था होती तो कर्मफल सिद्धांत की अन्यायपूर्ण व्यवस्था ईश्वर कदापि नहीं करता, यह आस्तिकता की सौगात वह सिर्फ मनुष्य योनि के हवाले ही क्यों करता?
अति उन्नत सूचना संचार क्रांति से युक्त इस २१वीं शताब्दी में भी अधिकांस दुनिया स्वाभाविक रूप से नास्तिक ही है। जो लोग अपने आपको आस्तिक मानकर संप्रदायवाद और मजहबी पाखंड से निरीह जनता को ठगते हैं,वे वास्तव में घोर नास्तिक ही हैं!
दक्षिण अफ्रीकी कबीलों में और भारत के सुदूरवर्ती अंदरूनी क्षेत्रों के आदिवासियों को इससे कोई मतलब नहीं कि आप आस्तिक हैं या वे नास्तिक ! चार्वाक बौद्ध जैन दर्शन से भी पहले भारतीय प्राच्य दर्शन श्रंखला में 'नास्तिक दर्शन'का पर्याप्त उल्लेख बाल्मीकि रामायण में मिलता है।चित्रकूट में जब अनुज भरत की याचनाको न मानकर अग्रज श्रीराम ने,गुरु वशिष्ठ और माताओं को खाली हाथ वापिस विदा किया,तब ऋषि 'जाबालि ने श्रीराम को 'नास्तिक'दर्शन का उपदेश दिया था !
अस्तु आस्तिक नास्तिक सब बराबर हैं,किंतु श्रेष्ठ वह है जो गोस्वामी तुलसीदास जी के इस सिद्धांत को मानता है कि:-
"परहित सरिस धरम नहिं भाई"!
पर पीड़ा सम नहि अधमाई!!
और
''परम धर्म श्रुति विदित अहिंसा!
पर निंदा सम अघ न गरीसा!!
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