भाववादी दर्शन का सबसे नकारात्मक पक्ष यह है कि वह मानव जीवन की वास्तविकता को सिरे से नजरअंदाज करता रहा है!अन्य पाश्चात़्य मजहबों की तरह भारतीय सनातन परम्परा में भी किसानों-मेहनतकशों की घोर उपेक्षा होती रही है!
मध्ययुग के आदर्शवादी सामंतवादी विचारक-लेखक,साहित्यकार और समाज सुधारक,कवि -रैदास,मलूकदास, कबीरदास कुम्भनदास,सूरदास,नरहरिदास, तुलसीदास, रामदास,अमुकदास,धिमुकदास ने छंद,गीत भजन सवैये,अभंग,दोहे,चौपाई या महाकाव्य का जो भी सृजन किया,उसमें केवल हरि भजन की झंकार सुनाई देती रही है। गुलामी के दिनों में उसमें आतताइयों के अत्याचार का वर्णन भी नहीं है।
तत्कालीन भक्ति साहित्य के सृजनकी केंद्रीय धुरी दैवीय ताकत केवल उनकी जीवन मुक्ति' के लिए ही थी।उनके चिंतन-लेखन में ईश्वर की असीम कृपा और अटूट आस्था का काव्यात्मक उल्लेख भरपूर उपलब्ध रहा है।
किन्तु उसमें खेत,खलिहान हल बैल और जल-जंगल-जमीन बाबत कोई चिंतन नहीं है। क्रूर शासकों द्वारा महिलाओं पर किये गए अत्याचारों की,मजूर-किसानों की बदहाली की बात उस मध्ययुग का कोई कवि,अवतार या पीर पैगम्बर नहीं करता।
अनेकों बलिदानों के फल स्वरूप विदेशी गुलामी से निजात तो मिली! किंतु अब देशी पूंजीपतियों ने राजनीति पर कब्जा कर लिया है! आज राजनीति पर देशी पूंजीपतियों का बर्चस्व है, वे जल जंगल जमीन हथियाने के बाद किसानों की मिल्कियत पर कब्जा करने को आतुर हो रहे हैं! जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधि किसानों का साथ नही दे रहे, बल्कि अंबानी अडानी के दलाल बनकर रह गये हैं!
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