शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

कुटम्ब कलह की सनातन परम्परा ही भारतीय गुलामी का मूल कारण है।

भारत सहित  दुनिया के तमाम धर्मांध समाजों और राष्ट्रों को अतीत के परंपरावादी पुरातनपंथी 'कुल कलह' ने  काफी प्रभावित किया है। किन्तु भारत को हमेशा उद्विग्न  ही कियाहै। चीन के हान वंश से लेकर सऊदी कुरेश कबीले तक और ब्रिटिश 'किंगडम' से लेकर इराक के सद्दाम हुसेन परिवार तक तमाम विश्व सभ्यताओं में कुटम्ब कलह के कारण सत्ता परिवर्तन हुए हैं। इसके वावजूद 'राष्ट्रवाद' या राष्ट्रीय चेतना वहाँ सर्वोपरि मानी जाती रही है। किन्तु भारतीय इतिहास में  'कुलीनता ' की नकारात्मक विशेषताएँ रहीं हैं। वेशक इस पुरातन कबीलाई संयुक्त -कुटूम्ब व्यवस्था से कुछ 'समाज' ताकतवर और आक्रामक भी रहे हैं ,वे आज भी हो सकते हैं और इन समाजों को आर्थिक-सामाजिक फायदे भी खूब हुए हैं। किन्तु बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि भारत में अतीतकी यह बर्बर कबीलाई परम्परा -अस्पर्शयता और शोषण का कारण बन गयी। इसलिए यह वंशानुगत कौटुम्बिक व्यवस्था विश्व में अन्यत्र भले ही सार्थक रही हो ,किन्तु भारत में तो यह  'राष्टवाद' के खिलाफ और दलित -शोषित वर्ग के लिए अत्यन्त कष्टदायी साबित हुई है। वैसे तो सभ्यताओं का तमाम  वैश्विक इतिहास ही निर्मम -अमानवीय दुश्वारियों से  भरा पड़ा है,किन्तु भारत में श्रुति ,स्मृति, मिथ , पुराण और सत्यापित इतिहास  में शोषण -उत्पीड़न के अनगिनत प्रमाण देखकर  बेहद पीड़ा होती है। हिन्दू पुराण - महाकव्य सृजन के केंद्र में यह पारंपरिक 'कुटुंब-कलह' और भ्रातृ -द्रोह  हमेशा विमर्श के केंद्र में रहा है।

भारतीय महाद्वीप और दक्षिणपूर्व एशिया में सर्वाधिक लोकप्रिय और सर्वपूज्य 'देव परिवारों 'में 'शिव परिवार' सबसे अधिक पूज्य माना गया है। वैदिक देवता 'रूद्र' की चर्चा भले ही सीमित रही हो ,किन्तु  शैव और सनातन धर्मावलम्बियों ने वैदिक देवता 'रूद्र' के पौरणिक रूप  'शिव परिवार ' को  द्वादस ज्योतिर्लिंग के नाम से चारों दिशाओं में स्थापित कर भारतीय 'राष्ट्रवाद' का सीमांकन बहुत पहले ही कर दिया था। सभी शैव मंदिरों,मठों और ज्योतिर्लिंगों में शंकर-शम्भू के साथ-साथ उनका पूरा कुटम्ब -परिवार  हाजिर है । किन्तु बंगाल ,गुजरात- असम में उनकी अर्धांगनी पार्वतीजी [दुर्गाजी ]विशेष सत्ता के साथ पूज्य हैं। महाराष्ट्र ,मध्यप्रदेश में गणेश जी की विशेष 'जागीरदारी' है। कर्णाटक में कार्तिकेय मुरुगन स्वामी पूज्य हैं। केरल ,तमिलनाडु में सनातन से शिव परिवार की  दादागिरी चली आ रही है। इसके अलावा इस देव  परिवार के अन्य गण वीरभद्र,नंदी और कालभैरव इत्यादि का भी हर जगह बोलवाला है। भारत से बाहर भी नेपाल,तिब्बत, कंबोडिया ,मलेशिया ,मारीशस ,इंडोनेशिया ,फिजी, सूरीनाम में भी 'शिव परिवार' का दबदबा है।

विभाजन से पूर्व सिंध ,पश्चिमी पंजाब , सीमा प्रान्त ,पूर्वी बंगाल [ढाका ]में भी 'शिव परिवार' का ही बोलवाला था। किन्तु आजादीके बाद पाकिस्तान ,बांग्लादेश बन जानेसे शिव -परिवार वहाँ से पूरी तरह बेदखल कर दिया गया। यह विचित्र  बिडम्बना है कि भारत में बाबरी मस्जिद नामक  एक पुराना जर्जर ढाँचा गिराए जाने मात्र से  गोधरा में दर्जनों कारसेवकों को जिन्दा जल दिया गया। और मुबई सहित सारे भारत में आग लगाने की जुर्रत की गई। जबकि बांग्लादेश - पाकिस्तान में हजारों शिव मंदिर, देवी मंदिर ,विष्णु मंदिर ,जैन-बौद्ध और सिख धार्मिकस्थल   ध्वस्त कर दिए गए। लेकिन फिर भी मेरे जैसे धर्मनिर्पेक्षतावादियों ने भारत में अल्पसंख्यकों का ही बचाव किया। क्योंकि भारतीय गंगा-जमुनी तहजीव के लिए यह जरुरी है। मुझे मालूम है कि  मेरी तरह की धर्मनिरपेक्ष  सोच - वाले हर मजहब और धर्म के समाजों में मौजूद हैं। किन्तु जब वे पाकिस्तान और बँगला देश में हिंदुओं पर हुए अत्याचार पर नहीं बोलते तो मुझे बहुत पीड़ा होती है। जब धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील लोग कश्मीरी पंडितों की बदहाली के बजाय केवल 'कश्मीरियत'की चिंता करते हैं तो उनका पाखण्ड छिप नहीं पाता। यही वजह है कि इस दौर में अधिकांस हिन्दू जन-मानस 'संघम शरणम गच्छामि'हो चला है।

चूँकि प्रस्तुत आलेख की विषयवस्तु न तो 'शिव अपरिवार' की महिमा का बखान करना है और न ही हिन्दू-मुस्लिम धर्मान्धता पर कागज रंगने का ही इरादा है। लेकिन 'अखण्ड भारत' की सनातन परम्परा के नकारात्मक अवयवों और पौराणिक रूपकों की शल्यक्रिया  बहुत जरुरी है, जिनके कारण 'भारत राष्ट्र' सदियों तक घोर अराजकता से गुजरा या सदियों तक गुलाम रहा। मैं  यह समझ पाने में असमर्थ हूँ कि पुराणों में वर्णित शिव -पार्वती के ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय  और गणेश के संघर्ष का औचित्य क्या था ?यदि कार्तिकेय और गणेश में अनबन न दिखाई जाती तो शायद आगे की पीढ़ियाँ भी अपने बंधू -बांधवों का रक्त रंजित इतिहास नहीं लिखती। भाई-भाई में वैमनस्य पैदा कर पुराणकार क्या शिक्षा देना चाहते थे ?

रामायण काल में गृह कलह के कारण ही राम को वन-वन भटकना पड़ा। कौरव-पांडव कुल के पारवारिक संघर्ष की गाथा का निचोड़ ही महाभारत है. तो  द्वारकावासी यादव कुल के आत्मघाती सत्यानाश  का संपूर्ण वृतांत ही श्रीमद भागवत  है। इस्लाम के इतिहास में शिया सुन्नी के झगड़ों  की चर्चा के अलावा  कुरैशों ,उमय्याओं बहावियों और यजीदियों के पारिवारिक संघर्ष  में   खिलाफत की तमाम  करुण कथा  ही दर्ज हैं । इन तथ्यों को भूलकर जो लोग अतीतके सच्चे-झूंठे - काल्पनिक मिथ इतिहास की अंध श्रद्धा में डूबकर  यदि वर्तमान को दूषित करते हैं तो वे महामूर्ख हैं। जिसे वे धर्म-मजहब की स्वर्णिम परम्परा मानते हैं या उसकी दुहाई देकर -जेहाद या धर्मांतरण करते हैं, उसके वैज्ञानिक इतिहास को यदि वे समझ जाएंगे तो बजाय श्रद्धा के वे उसके आलोचक बन जाएंगे।   

जो लोग 'अपने वालों ' के हाथों सताये हुए होते हैं,वे व्यक्तिगत विकास नहीं कर पाते। उनकी प्रतिभा को वंश - 'कुलशीलता' की घुन लग जाती है। प्रत्येक नयी पीढी को उनके वंशानुगत - पारिवारिक ,सामाजिक बड़प्पन के अधोगामी संकल्प तो हमेशा सिखाये जाते रहे  हैं, व्यक्तित्व निर्माण और किंचित चरित्र निर्माण भी किया गया। किन्तु 'बड़े कुलों' में चाणक्य ,समर्थ रामदास या जीजाबाई की तरह 'राष्ट्रवाद' बहुत कम सिखाया गया। इसीलिये इतिहास में राजा-महाराजा और चक्रवर्ती सम्राट तो बहुत हुए किन्तु  चन्द्रगुप्त मौर्य और वीर शिवाजी  कम ही हुए हैं। स्वाधीन भारत में भी शायद ही कोई माँ-बाप अपनी सन्तान को 'राष्ट्रवाद' पढ़ाने में दिलचस्पी रखता हो ! राज्य प्रणीत  तिरंगा यात्राएं ,राष्ट्रवादी पुराने फ़िल्मी गाने और एक आध 'राष्ट्रवादी संगठन ' के पथ संचलन के भरोसे भारत का  राष्ट्रवाद रुग्णावस्था में आ चुका  है। प्रगतिशील बुद्धिजीवी लेखक साहित्यकार इसका संज्ञान नहीं ले रहे यह चिन्तनीय है। इसीलिये वे यह भी नहीं मानेंगे कि कुटुंब विरोध की सनातन परम्परा ही भारतीय गुलामी का मूल कारण रहा है।

अलावा बाकी पूरे मुल्क के परिवार या समाज में केवल धर्मान्धता और अतीत का कूड़ा कचरा ही परोसा जा रहा है।  यह याद ही नहीं रहता कि कुरुक्षेत्र के मैदान में मारने वाले और मारने वाले एक ही परिवार के थे। दुष्ट कंस द्वारा अपनी बहिन देवकीको और बहनोई वसुदेवको जेल में डालकर सताना और बाद में कंस का अपने भानजे कृष्ण- बलराम  के हाथों मारा  जाना पारिवारिक कुल कलंक कथा के अलावा कुछ नहीं है। अपने 'मामाश्री'का 'भव्य' बध किया था।

अक्सर यह देखा गया है कि अतीत की सामंतकालीन संयुक्त -परिवार परम्परा पर जिन्हें बड़ा नाज हुआ करता है ,वे खुद ही अपने संयुक्त कुटुंब के  किसी व्यक्ति द्वारा सताये हुए होते हैं। ऐंसा नहीं है की सिर्फ पौराणिक एथिनिक काव्यों में ही  कुल -कलह के उदाहरण मौजूद हैं ,बल्कि ज्ञात इतिहास में भी अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं। जड़ भरत -   बाहुबली द्वंद कथा ,चण्ड अशोक द्वारा अपने भाइयों का मारा जाना ,राणा कुम्भा द्वारा अपने ही भाइयों का मारा जाना, अलाउद्दीन - खिलजी द्वारा अपने 'काका' जलाउद्दीन खिलजी को धोखे से मारना,और कुंवर उदयसिंह ,अपने सगे काका के हाथों मारे जाते यदि स्वामिभक्त 'पन्ना धाय 'अपने बेटे की कुर्बानी नहीं देती।
'मुगलकालीन   परम्परा' और 'मराठा एम्पायर ' की परम्परा में एक अजीब समानता है कि दोनों  ही 'महाकुलों' में भाई-भाई ,बाप-बेटा ,चाचा -भतीजा एक दूसरे को निपटाने में ही जुटे रहे। सलीम ने अपने बाप अकबर को जहर दिया ,शाहजहां को उसके बेटे औरंगजेब ने बंदीगृह में डाल दिया । और भी इसी तरह के सैकड़ों-हजारों कुल - कलंकित अफ़साने इतिहास में भरे पड़े हैं। श्रीराम तिवारी








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