सरसरी तौर पर सामान्य बुद्धि का राजनैतिक प्राणी भी इतनी समझ रखता है कि पूँजीवाद का विकल्प पूँजीवाद नहीं होता । राजनीति का 'ककहरा' जानने वाले भी यह बखूबी जानते हैं कि बिना किसी वैज्ञानिक विचारधारा के या वर्ग चेतना के देश में कोई समग्र क्रांति सम्भव नहीं। और बिना किसी क्रान्ति के कोई 'व्यवस्था परिवर्तन' भी सम्भव नहीं। लेकिन कुछ लोग अपनी उम्र ढल जानेके बाद भी यह सब नहीं जान पाते जो शहीद भगतसिंह मात्र २३ साल की उम्र में जान गए थे। भगतसिंह और उनके साथियों के द्वारा जेलों में लिखे गए छुटपुट आलेखों और उनकी कुछ प्रामाणिक पुस्तकों के अध्यन से देश के अनेक प्रगतिशील -क्रांतिकारी विचार वाले लोगों ने जाना कि 'क्रांति' का वास्तविक अर्थ क्या है? राजनीति की सही समझ रखने वाला हरेक व्यक्ति यह जानता है कि फाँसी पर चढ़ने से पहले भगतसिंह कितना कुछ जान चुके थे? यदि उसका एक चौथाई भी इस दौर की युवा पीढी जानती होती , तो जातीयतावादी, साम्प्रदायिकतावादी और मौकापरस्त -तिकड़मबाज लोग सत्ता में नहीं होते।यदि देश के युवाओं में राजनैतिक चेतना का थोड़ा सा भी अक्स होता तो केंद्र में यूपीए की जगह एनडीए और दिल्ली में शीला दीक्षित की जगह अरविन्द केजरीवाल कदापि नहीं होते !देश की बदहाली के लिए जिम्मेदार तत्व अपना नाम रूप आकार बदलकर ,बार-बार सत्ता हथिया लेते हैं ,और जनता से कहा जाता है कि राजनीति बड़ी कुत्ती चीज है इसलिए उससे दूर रहो ! सिर्फ कांग्रेस,भाजपा और'आप' जैसे स्वार्थी दल ही नहीं बल्कि उन्हें चुनने वाली आवाम भी इस दुरावस्था के लिए जिम्मेदार है।
कुछ नगण्य अपवादों को छोड़कर आजादी के बाद से ही अधिकांस चरित्रहीन और बदमास लोग ही राजनीति पर काबिज रहे हैं। देश के दुर्भाग्य से ऐंसे लोग सत्ता पाते रहे हैं जो 'क्रांति'के बारे में, स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों के बारे में , और शहीद भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों की सोच के बारे में कुछ खास नहीं जानते। यदि जानते होते तो वे आज 'नामक से नमक नहीं खाते'। प्रगत -एंड्रॉइड सेल फोन और अत्याधुनिक इंटरनेट सहज संचार सुविधा सुलभ होनेके वावजूद भी भारतकी युवा पीढी का शैक्षणिक स्तर इसकदर डाउन है कि बीसवीं शताब्दी के इस सोलहवें साल में भी सरकारी स्कूल के मास्टर साहब भी यह नहीं जानते कि इण्डिया 'और भारत में क्या फर्क है ? 'अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता ' का अभिप्राय क्या है ? यदि देश की राजधानी दिल्ली के मध्यमवर्गीय युवावर्ग- बुर्जुवा समाज की सोच 'खाप स्तर' की है। इस हालात में बाकी देश का तो 'ईश्वर ही मालिक'है। सामन्ती दौर में कहावत थी कि ''यथा राजा तथा प्रजा ''! लेकिन पूंजीवादी लोकतंत्र में यह सिद्धांत लागू नहीं होता। बल्कि अब तो ज़माना पब्लिक का है ,इसलिए '' यथा जनता तथा नेता'' वाला सिद्धांत लागू हो रहा है। इस नए सिद्धांतानुसार, जनता की सोच और रूचि के अनुसार ही राजनीतिक नेता और दल सत्ता में होंगे। पूँजीवादी लोकतंत्र की यही रीति है !
आजादी के फौरन बादसे ही भारतमें क्रांतिकारी विचारों से महरूम जनता द्वारा कभी कांग्रेस को, कभी जनसंघ या भाजपा को , कभी नकली समाजवादियों को ,कभी जाति -मजहब और आरक्षण की दुहाई देने वालों को और कभी सरमायेदारों-भूस्वामियों के गठजोड़ को तरजीह दी जाती रही है। केरल जैसे सर्व शिक्षित राज्य में भी जनता कभी कांग्रेस को और कभी 'लेफ्ट' को चुनती रही है, तो इसकी वजह वर्ग चेतना नहीं बल्कि चुनाव जीतने वालों की चुनावी स्ट्रेटजी है। और सत्ताधारी दल की बदनामी ही उसकी पराजय का कारण हुआ करती है। इसी तरह दिल्ली राज्य की जनता भी भारतीय जनता की सोच का ही प्रतिनिधित्व कर रही है। देश की आवाम का बहुमत यदि लोकतंत्र को न समझते हुए ,भेड़ चाल से चलता रहा है ,तो इसमें कोई अनहोनी भी नहीं है। बल्कि यह तो पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी का मूल तत्व है। दिल्ली की जनता कभी कांग्रेस और कभी भाजपा को ही चुनती आ रही है। जब अन्ना हजारे ने भृष्टाचार के खिलाफ अहिंसक संघर्ष छेड़ा तो उसी जनता ने नया प्रयोग किया और अण्णा के चेले केजरीवाल को ईमानदार समझकर उनकी 'आप' पार्टी को सत्ता का मौका दिया। लेकिन अब 'आप' की 'आपबीती से दिल्ली की जनता संकट में है। इस संकट के लिए 'आप' से ज्यादा केंद्र की मोदी सरकार जिम्मेदार है। इसलिए 'आप' और उसके विरोधी लोग दिल्ली में जो कुछ भी कर रहे हैं ,वो 'स्वराज 'नहीं अराजकता है !
दिल्ली असेम्बली के चुनाव में 'आप' को जिताकर, जनता ने सोचा होगा कि उसने महान 'फ़्रांसिसी क्रान्ति' की तरह ,महान अक्टूबर क्रांति की तरह ,दिल्ली में भी कोई महान 'क्रांति' कर डाली है। लेकिन दिल्ली की जनता ने गलत सोचा था। यह उसका गलत निर्णय लिया था,उसने कोई बड़ा तीर नहीं मारा !अण्णा आंदोलन के समय से ही 'आप' नामक पूत के पाँव पालने में दिख रहे थे। चुनाव जीते हुए पूरे दो साल भी नहीं हुए और दिल्ली अब की जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। दिल्ली की जनता ने जिस 'आमआदमी पार्टी' को अपने गले का कंठहार बनाया, उसने मात्र दो साल के अंदर सावित कर दिया कि आप' दिल्ली के गले की फांसी है। उसने बदनामी के दर्जनों कीर्तिमान बना डाले हैं। वेशक 'आप'की कोई विचारधारा नहीं है.लेकिन सिर्फ विचारधारा का प्रश्न होता तब भी गनीमत होती। किन्तु यहाँ प्रश्न अनैतिक आचरण और अराजकता के सिलसिले का है। जिसकी बुनियाद पर अण्णा ने आंदोलन चलाया और अरविन्द केजरीवाल ने 'आप' पार्टी का निर्माण किया ,सत्ता भी प्राप्त की।किन्तु 'आप' की कुख्याति से जाहिर है कि दिल्ली की जनता धोखा खा गयी । दिल्ली का राजनैतिक हश्र देखकर लगता है कि जनता की सोच निहायत ही अपरिपक्व है। 'आप' के आचरण से जाहिर है कि दिल्ली की जनता ने कांग्रेस-भाजपा के नरम -गरम पूँजीवाद की जगह दिशाहीन 'अराजकतावाद' को पसन्द किया था।
जनता की अपरिपक्व सोच बनाये रखने के लिए पूंजीवादी -साम्प्रदायिक राजनीती ने अनवरत षड्यन्त्र रचे हैं। आजादी के बाद से ही देशी-विदेशी दक्षिणपन्थियों ने भारत में भगतसिंह की सोच को हासिये पर धकेलने का पुर जोर प्रयास किया है। कांग्रेसकी दिशाहीन तदर्थवादी आर्थिक नीतियों से मुक्ति के लिए,उसके कुशासन को खत्म करने के लिए और सार्वजनिक जीवन में भृष्टाचार समाप्त करने के लिए लगातार जनांदोलन खड़े किये गए।किन्तु जब-जब किस विराट जन आंदोलन ने जोर पकड़ा ,तब -तब पिछड़ावाद,दलितवाद , नारीवाद,अल्पसंख्यकवाद और साम्प्रदायिकतावाद का भूत खड़ा कर दिया गया । लोहिया ,जेपी ,अन्ना हजारे टाइप के जन आंदोलनों को जानबूझकर यथास्थितिवादी और व्यवस्था का पोषक बनाया जाता रहा है। ताकि सत्ता से यदि नरम पूंजीवादी बाहर हों तो उनकी जगह गर्म पूंजीवादी ले सकें। और व्यवस्था में कोई वास्तविक बदलाव या क्रांति न हो सके !
पता नहीं क्यों मेरी अधिकांस राजनैतिक भविष्यवाणियाँ तीर में तुक्का की तरह सही सावित होती रहती हैं। जो भविष्यवाणियाँ कभी -कभार गलत सावित हुईं उनके उदाहरण बहुत कम ही हैं। मैंने तीन साल पहले डॉ मनमोहनसिंह की यूपीए सरकार का शर्मनाक पराभव घोषित किया था ,और अण्णा के लोकपाल आंदोलन का दुखान्त हश्रभी अनुमानित किया था। सबकुछ वैसा ही हुआ। शायद इसे ही वैज्ञानिक दॄष्टि कहा गया है। दो साल पूर्व मैंने अण्णा के चेले-चपाटों -जनरल बी के सिंह, किरण वेदी ,केजरीवाल ,योंगेंद्र यादव ,प्रशांत भूषण तथा अण्णा के कुछ खास समर्थकों की कुंडली बनाकर ,उनकी निजी अभिलाषाएं और अनुमानित उत्थान-पतन को अपने आलेखों में व्यक्त किया था ,जो मेरे ब्लॉग पर अभी भी मौजूद हैं। एक आलेख में तो मैंने केजरीवाल और 'आम आदमी पार्टी ' के उथले -खोखले आदर्शवाद पर जो कुछ भी लिखा था ,वह सब अक्षरशः सही सिद्ध हो रहा है। हालाँकि इस नकारात्मक राजनीतिक पतन से भी है। क्योंकि भृष्टाचार का मुद्दा अब और अजर-अमर नजर आने लगा है। कांग्रेस -भाजपा से 'आप' की तुलना करने पर साफ़ दीखता है कि वैचारिक धरातल पर अण्णा हजारे और उनके चेले -चपाटे भी कूड़ मगज ही हैं। अन्ना से विद्रोह करने वाले अरविन्द केजरीवाल ,उनकी आम आदमी पार्टी तथा उसके सभी साथी कांग्रेस और भाजपा के नेताओं से भी गए बीते हैं। इन अय्यास 'आप' नेताओं से उत्कृष्ट विचारधारा या आदर्श नैतिकता की उम्मीद करना व्यर्थ है।
यूपीए के दौरमें भारतीय राजनीति का अबाधित भृष्टाचार ,उसके बरक्स अण्णा हजारे ,उनके सहचर -प्रशान्त भूषण ,अरविन्द केजरीवाल ,मनीष सीसोदिया,आसुतोष इत्यादि का खूँटा पकड़ना।गोधरा कांड के बाद संघ के लोगों का एक तरफ 'हर-हर मोदी' का नारा लगाना, लगे हाथ दूसरी तरफ अण्णा हजारे के मंच पर जबरन कब्जा करना और कांग्रेस के खिलाफ तथा भाजपा के पक्ष में चुनावी माहौल बनाना। दिग्गी राजा और अजय माकन जैसे कांग्रेसी नेताओं का अण्णा हजारे को राजनीती में आकर,अपने आप को सावित करने की चुनौती देना। अरविन्द केजरीवाल ,योगेंद्र यादव ,प्रशांत भूषण ,मनीष सीसोदिया और संजयसिंह इत्यादि द्वारा उस चुनौती को स्वीकार करना। इन लोगों द्वारा सक्रिय राजनीती में आकर न केवल दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार को गिराना, बल्कि भाजपा और मोदी जी के शौर्य को भी धूल -धूसरित करना। पहली बार स्पष्ट बहुमत के अभाव में ४९ दिनों बाद इस्तीफा देकर फिर से चुनाव कराना। प्रचण्ड बहुमत पाकर पुनः सत्ता में आना। सत्ता पाकर एलजी नजीब जंग से पंगा लेना और अपनी असफलता छिपाने के लिए मोदीजी को निरन्तर कोसते रहना,यही 'आप'की आद्द्योपांत कहानी है। किन्तु यह अधूरा सच है ,सिर्फ एकांगी आख्यान है. अन्ना हजारे,केजरीवाल और आप पार्टी की अंतर व्यथा-कथा यहीं समाप्त नहीं होती ।
दिल्ली में जिन परिस्थितियों में 'आम आदमी पार्टी'का गठन किया गया ,जिस तरह योगेंद्र यादव ,प्रशांत भूषण के विद्रोह के वावजूद केजरीवाल का 'आप' पर वर्चस्व कायम रहा ,जिस तरह चन्दा लेने की पारदर्शिता पर जोर दिया गया ,जिस तरह दिल्ली प्रशासन की कार्य योजनाओं पर मोहल्ला सभाओं का आयोजन किया गया ,जिस तरह ये ऐलान किया गया कि यदि कोई रिश्वत मांगता है तो उसकी रिकार्डिंग कर सरकार को भेजें,जिस तरह एलजी की अड़ंगेबाजी और दिल्ली पुलिस के असहयोग के बावजूद 'आप' सरकार ने संघर्ष और साहस का दामन नहीं छोड़ा और खुद मुख्यमंत्री केजरीवाल धरने भी धरने पर बैठे ,यह सब 'आप' की सकारात्मक उपलब्धियों में शुमार किया जा सकता है। केजरीवाल सरकार को केंद्र से सहयोग नहीं मिल रहा है ,उदाहरण के लिए 'आप' की सरकार ने दिल्ली राज्य के मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने का प्रस्ताव एलजी को भेजा था ,किन्तु एलजी नजीब जंग ने उसे बिना पास किये ही वापिस कर दिया। जबकि केंद्र की मोदी सरकार अपने केंद्रीय कर्मचारियों , अफसरों -मंत्रियों पर धन की वर्षा कर रही है। जिस तरह केंद्र में हर असफलता के लिए प्रधानमंत्री को कोसना ठीक नहीं ,उसी तरह दिल्ली सरकार की असफलता के लिए सिर्फ 'आप' या केजरीवाल को जिम्मेदार ठहराना लोगोंके गले नहीं उतरेगा। लेकिन 'आप' के नेता ,विधायक,मंत्री जो कदाचरण कर रहे हैं वह कदापि सहन नहीं किया जा सकता !
पिछले डेढ़ साल से 'आप' की दिल्ली सरकारके कई विधायक आरोपों के घेरे में हैं। कुछ तो बहुत गंभीर आरोपों में फंसे हैं। अरविन्द केजरीवाल को इस अवधि में अपने तीन मंत्री मंडलीय साथियों को बाहर का रास्ता दिखाना पड़ा। सर्वश्री -जितेंद्रसिंह तोमर अपनी डिग्री के विवाद में नप गए. असीम अहमद खान भृष्टाचार के आरोप में धरा गए। महिला बाल विकास मंत्री -संदीप कुमार तो एक मामूली राशन कार्ड के लिए ही एक 'अबला' का देह शोषण करते हुए 'वीर गति' को प्राप्त हो गए। इधर 'आप' नेताओं के ये हाल हैं ,उधर दिल्ली की प्रशासनिक शैली में ,अस्पतालों,विद्यालयों,दफ्तरों में व्याप्त भृष्टाचार अपने चरम पर पूर्ववत है। जबसे सुप्रीम कोर्टने दिल्ली पुलिस को एल जी के प्रति जबाबदेह बताया है,जबसे कोर्ट ने 'आप' सरकार को केंद्रीय कर्मचारियों की 'जांच पड़ताल' से वंचित किया है ,जबसे सुप्रीम कोर्ट ने 'आप' की तमाम अपीलों को ठुकराया है ,तब से अरविन्द केजरीवाल बिना पंख के ही फडफडा रहे हैं।वे किसी भी बड़ी योजना पर तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक केंद्र सरकार का सहयोग न हो !जब तक न्याय पालिका का सहयोग न हो और जब तक दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त न हो !
वेशक केजरीवाल पर व्यक्तिगत कोई आरोप नहीं है ,वे अम्बानी,अडानी जैसे पूंजीपतियों के चमचे भी नहीं हैं किन्तु वे शीला दीक्षित से ज्यादा आउट पुट नहीं दे पाएंगे। क्योंकि अव्वल तोदिल्ली की जो संवैधानिक स्थिति है वो शीला जी के ज़माने में भी थी। लेकिन तब केंद्र में कांग्रेसनीत यूपीए की मनमोहनसिंह सरकार थी। अब केंद्र में मोदी सरकार है ,जो 'आप' को सहयोग नहीं कर रही है। लेकिन बक्त का तकाजा था कि 'आप' के नेता और मंत्री कम से कम नैतिक मापदण्ड पर तो खरे उतरते। इसके विपरीत केजरीवाल के संगी साथी धीरे -धीरे उसी भृष्टाचारी माँद में धसते जा रहे हैं,जिसके खिलाफ कभी अण्णा हजारे और केजरीवाल ने दिल्ली में खूब नाटक -नौटंकी की थी। वेशक अरविन्द केजरीवाल के पास कोई राजनैतिक सोच नहीं है ,वे कभी ममता के साथ दीखते हैं ,कभी नीतीश की ओर देखते हैं ,कभी पंजाब की और दौड़ लगाते हैं,कभी सिद्धू की ओर देखते हैं। और जब सिद्धू कोई शर्त के साथ आना चाहते हैं तो केजरीवाल पलटी मार जाते हैं। आरोपों -प्रत्यारोपों से आगे बढ़कर 'आप' ने संगठन स्तर पर भी कुछ खास नहीं किया है। उनकी राजनैतिक गिनती केजरीवाल से शुरूं होती है और उन्ही पर समाप्त हो जाती है। यह लोकतंत्र है या 'व्यक्तिवाद' इसका फैसला आनेवाला इतिहास करेगा।
आजाद भारत के राजनैतिक-सामाजिक विद्वेष की कितनी विचित्र विडम्बना है कि जातीय आरक्षण का वितंडा खड़ा करके :अधिकांस कुख्यात -बदमाश और भृष्ट लोग चुनाव जीतकर सत्ता सुख पा रहे हैं। किन्तु अब तो हद हो गयी ,कि कुछ असामाजिक तत्व तो अब बलात्कार,देशद्रोह और कमीनेपन में भी आरक्षण मांग रहे हैं।'आप' पार्टी की दिल्ली सरकार का बलातकारी- बर्खास्तशुदा मंत्री संदीप कुमार तो अपने बचाव में दलील दे रहा है कि उसे इसलिए फसाया गया कि वह दलित वर्ग से आता है। दिल्ली की 'आप' सरकार का एक केविनेट मंत्री अपने कथित निकृष्ट कुकर्म के लिए जो सिद्धांत पेश कर रहा है। 'आप' नेता आशुतोष उसके बचाव में यों खड़े हो गए मानों इस कुमार्गी मंत्री ने किसी बलिदान का कीर्तिमान बनाया हो !जातीय और सामाजिक आधार पर आरक्षण का सिद्धांत पेश करने वाले नेताओं ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनके द्वारा प्रतिपादित जातीय आरक्षण की व्यवस्था का इस कदर दुरूपयोग होगा। पहले भी अंग्रेजोंके बहकावे में आकर भारतीय समाजके अंदर यह जातीय आरक्षण का मीठा जहर घोला गया । तब शायद उन्होंने इस बाबत सोचा भी नहीं होगा कि आजादी के सत्तर साल बाद ऐंसा भी वक्त आएगा जब उनका कोई भक्त 'बलातकार'के लिए भी आरक्षण मांगेगा ,तर्क देगा कि 'चूँकि वह दलित अर्थात आरक्षित समाज से है ,इसलिए उसे बलात्कार के आरोप मुक्त किया जाए।' यदि शुरूं से ही आर्थिक आधार पर आरक्षण व्यवस्था लागू हो जाती,तो शायद देश के तमाम गरीब अब तक दो वक्त की रोटी के लिए मुँहताज नहीं होते। और अनैतिक आचरण की नोबत इस हद तक नहीं आती कि एक बलात्कारी नेता अपने गुनाह को छिपाने के लिए अपनी जातीय 'निम्नता' की दलील नहीं दे रहा है !
'आप' का निष्काषित नेता और पूर्व मंत्री संदीप कुमार तो उस हांडी का एक चावल मात्र है,जो स्वार्थगत छल-छद्म और सामाजिक विद्वेष सेउफान पर है। इससे बदतर कमीनापन दुनिया में सम्भवतः किसी अन्य देश में या किसी अन्य राजनैतिक व्यवस्था में शायद ही दृष्ट्व्य होगा ! भारतका बुर्जुवा समाज और भृष्ट राजनैतिक जमात सत्ता पाने के लिए दूसरों की कमीज के सापेक्ष अपनी कमीज को सफेद बताने में माहिर है। एक दूजे को बदनाम करने के उन्माद में ये अपने ही देश को दुनिया भर के सामने हास्यापद बनाने में जुटे रहते हैं। मानव समाज में जो लोग नैतिक या संविधानिक रूप से 'बेदाग' होने का दम भरते हैं ,उनमें से कुछ तो इसलिए 'सती 'अथवा 'सता' हैं कि उन्हें कमीनेपन का अवसर ही नहीं मिला। और कुछ यदि बाकई 'धर्मध्वज' या 'नीतिवान' हैं तो वो इसलिए कि उन्हें शहादत या 'आदर्शवाद'की गंभीर बीमारी है। वैसे यह सिद्धांत सार्वभौमिक और शाश्वत है ,किन्तु 'आप' वाले इससे ज्यादा पीड़ित हो रहे हैं।
'आप'नेता संदीपकुमार की सीडी वायरल होने के बाद कुछ लोगों ने इस व्यभिचारी के कदाचार की निंदा करने या 'आप' को नसीहत देने के बजाय ,भाजपा के नेताओं-मंत्रियों की भी सीडी पोस्ट कर डाली । कुछ लोगों ने तो इतिहास में और पीछे जाकर कांग्रेस के कुछ कामुक नेताओं की सीडी दुबारा पोस्ट कर डाली । कुछ फुरसतिये तो और भी पीछे चले गए , जब सीडी का जमाना नहीं था, उससे पहले की 'कनबतियाई' खोज खबर भी ले आये। कहने का लब्बोलुआब यह है कि जो लोग एक दूसरे के हम्माम में झांकने के आदि हैं,वे नेता ,लेखक-साहित्यकार -उत्कृष्ट समाज का निर्माण नहीं कर रहे हैं। वे कमर के नीचे वाले विमर्श में उलझकर किस शुचिता की राजनीती को हवा दे रहे हैं?वे तो अब आवाम के समक्ष लोकतंत्र ,धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे मूल्यों की चर्चा भी नहीं कर रहे हैं। जो लोग सार्वजनिक जीवन में लिप्सापूर्ण सोच रखते हैं ,वे देश का विकास नहीं कर सकते। वे देश की रक्षा भी नहीं कर सकते। बल्कि वे देश को बदनाम करने के लिए ही जिम्मेदार होंगे। 'आप' के नेताओं को अपनी कथनी और करनी पर शर्मिंदा होना चाहिए। उन्हें अपनी ईमानदार -आदर्शवाद की आभासी छवि का पाखण्ड नहीं करना चा
विगत दो-तीन साल पहले जब अण्णा हजारे और उनके सहयोगियों ने लोकपाल के निमित्त और भृष्टाचार के खिलाफ संघर्ष चलाया था ,तब दिल्ली की जनता ने उन्हें हाथो-हाथ लिया था। देश के कुछ मासूम लोग 'उम्मीद' से होने लगे थे। हालाँकि अण्णा आंदोलन के विफल होने की भविष्यवाणी माबदौलत ने भी की थी। लेकिन आवाम का प्रचण्ड समर्थन देखकर देश के परपरागत राजनीतज्ञ हक्के-बक्के थे। यूपीए की तत्तकालीन मनमोहनसिंह सरकार की नाक में दम करने के लिए 'संघ' और भाजपा ने अपने कैडर्स को अण्णा के पीछे लगा दिया था। लेकिन अण्णा को बीच राह में छोड़ कर जब केजरीवाल ,किरणवेदी ,मनीस सिसोदिया और अन्य तमाम लोग सत्ता की ओर लपक लिए तो अण्णाजी भी फ़ना हो गए। केजरीवाल ने घाघ कांग्रेसियों द्वारा उकसाये जाने और राजनीती में आकर कुछ कर दिखाने के चेलेंज को स्वीकार कर 'आप' का गठन कियाथा । लेकिन दो-दो बार जीतने के बाद भी न तो दिल्ली की जनता खुश है और न ही 'आप'के नेता वैसे निकले जैसे कि 'अण्णा आंदोलन'ने दावा किया था ! लेकिन अभी भी वक्त है आप के नेता केवल आलोचना -प्रत्यालोचना में न विंधे रहें बल्कि कुछ तो ऐंसा अनुकरणीय उदाहरण पेश करें ,जो कांग्रेस और भाजपा से रंचमात्र बेहतर हो ! श्रीराम तिवारी !
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें