सर्वविदित है कि केंद्र में मोदी सरकार के सत्तासीन होते ही ततकालीन शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी ने देश के सभी विश्वविद्यालयों को संघ द्वारा निर्देशित आचार संहिता अनुपालन के लिए आदेशित किया था। इस दिशा निर्देश में तथाकथित 'राष्ट्रवाद' के निमित्त 'अंधराष्ट्रवाद' को तरजीह देते हुए भाजपा समर्थक छात्र संगठन -एबीवीपी को भी आक्सीजन दिए जाने का भी मन्तव्य निहित था। चूँकि इन निर्देशों के बहाने संविधान की मूल स्थापनाओं पर भी आक्रमण किया गया इसलिए धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील छात्रों ने इसका अहिंसक प्रतिवाद किया। जो वामपंथी और मेधावी छात्र क्रांतिकारी सोच रखते हैं ,उन्होंने इस जद्दोजहद का कुशल नेतत्व किया।लेकिन केंद्र सरकार समर्थक 'छी न्यूज' मीडिया और उसके पिछलग्गू छात्र संगठन अनावश्यक हो हल्ला मचाते रहे। जो छात्र सत्ता समर्थक और कूप -मण्डूक थे ,जो राजनीति और राष्ट्रवाद का ककहरा भी नहीं जानते थे ,वे इस दूरगामी संघर्ष का औचित्य ही नहीं समझ सके। इसलिए वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हो रहे हमले का प्रतिकार करने में भी असमर्थ रहे।
चूँकि जेएनयू' का चरित्र प्रगतिशील और क्रांतिकारी रहा हैऔर इस विश्वविद्यालय का दुनिया में बहुत सम्मान है। उसके वामपंथी छात्र संघों ने हमेशा संवैधानिक मूल्यों और शहीद भगतसिंह की शिक्षाओं का हृदयगम्य किया है। जेएनयू ने सांस्कृतिक और सामाजिक तौर पर पंडित जवाहरलाल नेहरू वाला प्रगतिशील नजरिया अपनाया है। जेएनयू का मिजाज धर्मनिरपेक्षता ,समाजवाद और लोकतंत्र का हामी रहा है ,इसलिए उसके छात्र खुले दिमाग से सोचते हैं। जेएनयू के इस जुझारूपन से नफरत करने वाले लोग जब सत्ता में आ गए तो यह स्वाभाविक ही है कि उन्होंने उसपर हमले तेज कर दिए। सुब्रमण्यम स्वामी जैसे दक्षिणपंथी पुरोगामी नेताओं ने न केवल जेएनयू छात्रों को अनावश्यक रूप से उकसाया,बल्कि जाधवपुर विश्विद्यालय ,हैदराबाद यूनिवर्सिटी ,एएमयू और बीएचयू जैसे विश्वविद्यालयों को इस कदर देशभक्ति सिखाई कि जगह-जगह छात्रों की मार -कुटाई होने लगी और बेचारे एक दलित छात्र रोहित वेमुला को मजबूर होकर आत्म हत्या भी करनी पडी। लोग प्रश्न करते रहे कि 'देशभक्ति'का फैसला कौन करेगा ? 'संघ' ,भाजपा ,स्मृति ईरानी ,सुब्रमण्यम स्वामी , एबीवीपी या भारत की न्यायपालिका ?
यह महज संयोग नहीं है कि जिस तरह मध्यप्रदेश ,यूपी-बिहार ,आंध्र -तेलंगना और कर्नाटक में सिमी के गुर्गों ने अपनी पैठ बनाई है उसी तरह कुछ कश्मीरी अलगाववादियों ने जेएनयू में भी अपनी घुसपैठ बना ली होगी। इन नालायकों की राष्ट्रविरोधी गतिविधियों पर अंकुश लगाने के बजाय केंद्र सरकार और दक्षिणपंथी राजनीतक लोग जेएनयू को बदनाम करने में जुटे रहे । कश्मीर की समस्या जड़ पाकिस्तान और पीओके में खोजने के बजाय जेएनयू और जाधवपुर में खोजते रहे। धर्मनिरपेक्षता को पलीता लगाने वाले लोग और वोट के लिए साम्प्रदायिक मंसूबा रखने वाले लोग देश की पूरी मुस्लिम कौम को बदनाम करने का नापाक अभियान चलाते रहे। कुछ मूर्खों की समझ इतनी टुच्ची है कि वे खुद को स्वयम्भू राष्ट्रवादी और जेएनयू को 'देशद्रोही' प्रचारित करने में जुटे रहे । लेकिन जेएनयू के समस्त छात्र-छात्राओं ने स्टाफ ने ,प्रोफेसरों ने यह कुत्सित अभियान विफल कर दिया।
जेएनयू छात्रों ने छात्रसंघ के मौजूद चुनाव में वामपंथी छात्र संघों को जिताकर क्या सन्देश दिया है ?एबीवीपी वालों ने विगत दिनों ही अपना छप्पन इंची सीना तानकर कहा था - 'इस बार जेएनयू में राष्ट्रद्रोही हारेंगे '!चूँकि जेएनयू में एबीवीपी वाले बुरी तरह हारे हैं ,इसलिए सवाल उठता है कि इन हारने वालों को क्या कहा जाये ? क्या यह माना जाए कि ये हारने वाले [एबीवीपी वाले ] देश द्रोही हैं ?हालाँकि वामपंथी छात्र तब तक किसी को देशद्रोही नहीं मानते जब तक कि न्यायपालिका और संसद उसे सावित न कर दे। चूँकि स्वयम्भू राष्ट्रवादियों ने खुद ही कहा था कि इस दफे जेएनयू में 'देशद्रोही' हारेंगे। इसलिए सवाल उठता है कि इस बार जेएनयू में जो चुनाव हारे हैं क्या वे देशद्रोही हैं ? यदि बाइचांस जेएनयूके वामपंथी छात्रसंघ यह चुनाव हार जाते तो इन दक्षिणपंथी हर्रलों का राग 'देशद्रोह' अब तक क्या गजब ढा रहा होता ? ढपोरशंख बजता कि नहीं कि 'देशद्रोही हार गए' !
हालाँकि वामपंथ की नजर में जो छात्र हारे हैं वे देश द्रोही नहीं हैं। गनीमत है कि जेएनयू में वामपंथी छात्र संगठन भारी बहुमत से जीत गए हैं । लेकिन कुछ कुतर्की लोग अपनी हार को स्वीकार करने के बजाय जेनएयू की तुलना डीयू के चुनावों से कर रहे हैं। जबकि वामपंथी छात्र संघों ने कभी दावा ही नही किया कि वे डीयू के चुनावों में किसी को हरा कर देशद्रोही सावित करने जा रहे हैं। वामपंथी छात्रों की सोच चुनाव हराने या जीतने तक सीमित नहीं है बल्कि वे तो उस महान परम्परा के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं जो आजादी की लड़ाई के दौरान स्वाधीनता सेनानियों ने कायम की है। वे तो शहीद भगतसिंह ,सफदर हाशमी ,नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पानसरे , प्रख्यात विचारक प्रोफेसर कलिबुर्गी जैसे शहीदों की क्रांतिकारी विचारकों के संदेशवाहक और उत्तराधिकारी हैं।
यदि मोदी जी के राज में भारत-पाकिस्तान द्वीपक्षीय सम्बन्ध सबसे खराब हैं । यदि इस दौरन दालों से लेकर नमक तक ,स्कूली शिक्षा से लेकर विश्विद्यालायींन शिक्षा तक ,दवा से लेकर कफ़न तक, सब कुछ मेंहगे हो गए हों ,यदि इस बदतर हालात से ध्यान हटाने के लिए सत्ताधारी नेतत्व पाकिस्तान और चीन का हौआ खड़ा करता हो , और सत्ता के समर्थक पाखण्डी चाटुकार 'राष्ट्रवाद' के खोखले नारे लगाने लग जाते हों । तो देश की आवाम की और बुद्धिजीवियों की यह नैतिक जिम्मेदारी है ,राष्ट्रीय दायित्व है कि जेएनयू कल्चर को बचाएं और नकली 'राष्ट्रवादियों' को इसी तरह मजा चखाएं। जैसा कि अभी जेएनयू चुनावों में चखाया है। यह श्रेष्ठ क्रांतिकारी दायित्व एक अंतर्राष्ट्रीयतावादी ही कर सकता है ! अर्थात वास्तविक राष्ट्रवादी होने के लिए पहले एक अंतरराष्ट्रतीयतावादी होना जरुरी है।
खेदकी बात है कि विगत दो सालोंमें केवल साम्प्रदायिक वैमनस्य को बढ़ने वाले खोखले नारों में ही देशप्रेम बढ़ा है। इस फासीवादी षड्यन्त्र को इस दौर की युवा पीढी समझने में असमर्थ है। यही वजह है कि कुछ नादान लोग कामरेड कन्हैयाकुमार ,रोहित वेमुला और जेएनयू पर 'राष्ट्रद्रोह' जैसे गंदे आरोप लगाने लग जाते हैं। जो शिक्षित और आधुनिक युवा एवम विद्यार्थी कन्हैया कुमार को ,रोहित वेमुला को तथा जेएनयू के सांस्कृतिक स्वरूप को जानना चाहते हैं,वे गैरीबाल्डी, बाल्टेयर,गोर्की,देरेंदा बाल्जाक फुरिए ,ओवन ,मार्क्स और रोजा लक्समबर्ग को भले ही न पढ़ें ,किन्तु अपने देश के उन शहीदों को अवश्य पढ़ें जिन्होंने देश की आजादी के लिए कुरबानियाँ दीं और जेल की सजा भुगती है ।
इस विषम और दिग्भर्मित दौर में यह जानने के लिए कि कौन सच बोल रहा है ? सत्ता में बैठे लोग झूंठ परोस रहे हैं या जो विपक्ष में हैं वे देश को गुमराह कर रहे हैं ? कौन देशभक्त है और कौन देशद्रोही है ,कौन सहिष्णु है और कौन असहिष्णु है ,यह तय करने के लिए जिस विवेक बुद्धि की जरूरत है उसकी क्षमता अर्जित करनी हो तो थोड़ा समय निकालकर देश और दुनिया के महानतम नायकों के क्रांतिकारी विचारों को समझने के लिए उनके साहित्य को अवश्य पढ़ना चाहिए। इस दौर में राष्ट्रवाद और नारेबाजी के विमर्श में देशद्रोह शब्द को जबरन घुसेड़ा जा रहा है। दरसल तब तक कोई देशभक्त नहीं हो सकता जब तक वह 'राष्ट्र' की परिभाषा नहीं जान ले। हम जब तक राष्ट्रवाद का तातपर्य नहीं समझ लेते तब तक कोई भी किसी को 'देशद्रोही' बता सकता है। और यह महाझूंठ इस दौर में खूब बोला जा रहा है। कौन देशद्रोही है ,कौन देश भक्त है यह तय करने की विवेक शक्ति अर्जित करने के लिए राष्ट्र के वर्तमान ,अतीत और स्वाधीनता संग्राम के साहित्य का अध्यन बहुत जरुरी है।
श्रीराम तिवारी
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