शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

''ख़ुशी ढूंढ़ो ख़ुशी मिलेगी -गम में डूब जाओ गम मिलेगा !''

जो लोग निरन्तर सिर्फ कड़वा,तीखा और खट्टा खाने के शौकीन हैं उन्हें सूचनाओं की थोड़ी सी सकारात्मक मिठास भी गृहण करते रहना चाहिए। भारत -पाकिस्तान  रिश्तों की कडुवाहट और रोजमर्रा की वैयक्तिक, सामाजिक ,राजनैतिक ,आर्थिक और राष्ट्रीय समस्याओं की खटास से पीड़ित लोगों को यह जरूर जानना चाहिए कि 'आज मेरे लिए बेहतर क्या है ? यदि किसी की जिंदगी में सकारात्मक कुछ भी नहीं तो वह कोई अच्छी पुस्तक ही पढ़ डाले। यही उसके मानसिक स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त है। कहावत है ''ख़ुशी ढूंढ़ो ख़ुशी मिलेगी -गम में डूब जाओ गम मिलेगा !'' जैसे कि बकौल राहुल गाँधी -'मोदी जी ने पहली बार कुछ अच्छा काम किया ''! धन्यवाद -बधाई !

भारतीय जाबांज कमांडोज ने 'पीओके'में आपरेशन सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम देकर भारत का मान रखा -धन्यवाद ! उसी  रोज  भारत की अंडर १८ हॉकी टीम ने पाकिस्तानी टीम को भी हराया था -धन्यवाद ! और कल फाइनल में भारतीय टीम ने बंगला देश को हराकर एशिया चेम्पियन शिप जीत ली -धन्यवाद ,,,बधाई ! कहने का तातपर्य यह कि सरकार ,पक्ष-विपक्ष ,नेता ,फ़ौज और खिलाडी सभी अपने हिस्से की  सही भूमिका अदा कर रहे हैं। तो बाकी जनता -जनार्दन की भूमिका भी कुछ तो सकारात्मक होनी चहिये ! हम  यह भी देखें कि देश के लिए बेहतर क्या कर सकते हैं ? श्रीराम तिवारी !

कुटम्ब कलह की सनातन परम्परा ही भारतीय गुलामी का मूल कारण है।

भारत सहित  दुनिया के तमाम धर्मांध समाजों और राष्ट्रों को अतीत के परंपरावादी पुरातनपंथी 'कुल कलह' ने  काफी प्रभावित किया है। किन्तु भारत को हमेशा उद्विग्न  ही कियाहै। चीन के हान वंश से लेकर सऊदी कुरेश कबीले तक और ब्रिटिश 'किंगडम' से लेकर इराक के सद्दाम हुसेन परिवार तक तमाम विश्व सभ्यताओं में कुटम्ब कलह के कारण सत्ता परिवर्तन हुए हैं। इसके वावजूद 'राष्ट्रवाद' या राष्ट्रीय चेतना वहाँ सर्वोपरि मानी जाती रही है। किन्तु भारतीय इतिहास में  'कुलीनता ' की नकारात्मक विशेषताएँ रहीं हैं। वेशक इस पुरातन कबीलाई संयुक्त -कुटूम्ब व्यवस्था से कुछ 'समाज' ताकतवर और आक्रामक भी रहे हैं ,वे आज भी हो सकते हैं और इन समाजों को आर्थिक-सामाजिक फायदे भी खूब हुए हैं। किन्तु बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि भारत में अतीतकी यह बर्बर कबीलाई परम्परा -अस्पर्शयता और शोषण का कारण बन गयी। इसलिए यह वंशानुगत कौटुम्बिक व्यवस्था विश्व में अन्यत्र भले ही सार्थक रही हो ,किन्तु भारत में तो यह  'राष्टवाद' के खिलाफ और दलित -शोषित वर्ग के लिए अत्यन्त कष्टदायी साबित हुई है। वैसे तो सभ्यताओं का तमाम  वैश्विक इतिहास ही निर्मम -अमानवीय दुश्वारियों से  भरा पड़ा है,किन्तु भारत में श्रुति ,स्मृति, मिथ , पुराण और सत्यापित इतिहास  में शोषण -उत्पीड़न के अनगिनत प्रमाण देखकर  बेहद पीड़ा होती है। हिन्दू पुराण - महाकव्य सृजन के केंद्र में यह पारंपरिक 'कुटुंब-कलह' और भ्रातृ -द्रोह  हमेशा विमर्श के केंद्र में रहा है।

भारतीय महाद्वीप और दक्षिणपूर्व एशिया में सर्वाधिक लोकप्रिय और सर्वपूज्य 'देव परिवारों 'में 'शिव परिवार' सबसे अधिक पूज्य माना गया है। वैदिक देवता 'रूद्र' की चर्चा भले ही सीमित रही हो ,किन्तु  शैव और सनातन धर्मावलम्बियों ने वैदिक देवता 'रूद्र' के पौरणिक रूप  'शिव परिवार ' को  द्वादस ज्योतिर्लिंग के नाम से चारों दिशाओं में स्थापित कर भारतीय 'राष्ट्रवाद' का सीमांकन बहुत पहले ही कर दिया था। सभी शैव मंदिरों,मठों और ज्योतिर्लिंगों में शंकर-शम्भू के साथ-साथ उनका पूरा कुटम्ब -परिवार  हाजिर है । किन्तु बंगाल ,गुजरात- असम में उनकी अर्धांगनी पार्वतीजी [दुर्गाजी ]विशेष सत्ता के साथ पूज्य हैं। महाराष्ट्र ,मध्यप्रदेश में गणेश जी की विशेष 'जागीरदारी' है। कर्णाटक में कार्तिकेय मुरुगन स्वामी पूज्य हैं। केरल ,तमिलनाडु में सनातन से शिव परिवार की  दादागिरी चली आ रही है। इसके अलावा इस देव  परिवार के अन्य गण वीरभद्र,नंदी और कालभैरव इत्यादि का भी हर जगह बोलवाला है। भारत से बाहर भी नेपाल,तिब्बत, कंबोडिया ,मलेशिया ,मारीशस ,इंडोनेशिया ,फिजी, सूरीनाम में भी 'शिव परिवार' का दबदबा है।

विभाजन से पूर्व सिंध ,पश्चिमी पंजाब , सीमा प्रान्त ,पूर्वी बंगाल [ढाका ]में भी 'शिव परिवार' का ही बोलवाला था। किन्तु आजादीके बाद पाकिस्तान ,बांग्लादेश बन जानेसे शिव -परिवार वहाँ से पूरी तरह बेदखल कर दिया गया। यह विचित्र  बिडम्बना है कि भारत में बाबरी मस्जिद नामक  एक पुराना जर्जर ढाँचा गिराए जाने मात्र से  गोधरा में दर्जनों कारसेवकों को जिन्दा जल दिया गया। और मुबई सहित सारे भारत में आग लगाने की जुर्रत की गई। जबकि बांग्लादेश - पाकिस्तान में हजारों शिव मंदिर, देवी मंदिर ,विष्णु मंदिर ,जैन-बौद्ध और सिख धार्मिकस्थल   ध्वस्त कर दिए गए। लेकिन फिर भी मेरे जैसे धर्मनिर्पेक्षतावादियों ने भारत में अल्पसंख्यकों का ही बचाव किया। क्योंकि भारतीय गंगा-जमुनी तहजीव के लिए यह जरुरी है। मुझे मालूम है कि  मेरी तरह की धर्मनिरपेक्ष  सोच - वाले हर मजहब और धर्म के समाजों में मौजूद हैं। किन्तु जब वे पाकिस्तान और बँगला देश में हिंदुओं पर हुए अत्याचार पर नहीं बोलते तो मुझे बहुत पीड़ा होती है। जब धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील लोग कश्मीरी पंडितों की बदहाली के बजाय केवल 'कश्मीरियत'की चिंता करते हैं तो उनका पाखण्ड छिप नहीं पाता। यही वजह है कि इस दौर में अधिकांस हिन्दू जन-मानस 'संघम शरणम गच्छामि'हो चला है।

चूँकि प्रस्तुत आलेख की विषयवस्तु न तो 'शिव अपरिवार' की महिमा का बखान करना है और न ही हिन्दू-मुस्लिम धर्मान्धता पर कागज रंगने का ही इरादा है। लेकिन 'अखण्ड भारत' की सनातन परम्परा के नकारात्मक अवयवों और पौराणिक रूपकों की शल्यक्रिया  बहुत जरुरी है, जिनके कारण 'भारत राष्ट्र' सदियों तक घोर अराजकता से गुजरा या सदियों तक गुलाम रहा। मैं  यह समझ पाने में असमर्थ हूँ कि पुराणों में वर्णित शिव -पार्वती के ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय  और गणेश के संघर्ष का औचित्य क्या था ?यदि कार्तिकेय और गणेश में अनबन न दिखाई जाती तो शायद आगे की पीढ़ियाँ भी अपने बंधू -बांधवों का रक्त रंजित इतिहास नहीं लिखती। भाई-भाई में वैमनस्य पैदा कर पुराणकार क्या शिक्षा देना चाहते थे ?

रामायण काल में गृह कलह के कारण ही राम को वन-वन भटकना पड़ा। कौरव-पांडव कुल के पारवारिक संघर्ष की गाथा का निचोड़ ही महाभारत है. तो  द्वारकावासी यादव कुल के आत्मघाती सत्यानाश  का संपूर्ण वृतांत ही श्रीमद भागवत  है। इस्लाम के इतिहास में शिया सुन्नी के झगड़ों  की चर्चा के अलावा  कुरैशों ,उमय्याओं बहावियों और यजीदियों के पारिवारिक संघर्ष  में   खिलाफत की तमाम  करुण कथा  ही दर्ज हैं । इन तथ्यों को भूलकर जो लोग अतीतके सच्चे-झूंठे - काल्पनिक मिथ इतिहास की अंध श्रद्धा में डूबकर  यदि वर्तमान को दूषित करते हैं तो वे महामूर्ख हैं। जिसे वे धर्म-मजहब की स्वर्णिम परम्परा मानते हैं या उसकी दुहाई देकर -जेहाद या धर्मांतरण करते हैं, उसके वैज्ञानिक इतिहास को यदि वे समझ जाएंगे तो बजाय श्रद्धा के वे उसके आलोचक बन जाएंगे।   

जो लोग 'अपने वालों ' के हाथों सताये हुए होते हैं,वे व्यक्तिगत विकास नहीं कर पाते। उनकी प्रतिभा को वंश - 'कुलशीलता' की घुन लग जाती है। प्रत्येक नयी पीढी को उनके वंशानुगत - पारिवारिक ,सामाजिक बड़प्पन के अधोगामी संकल्प तो हमेशा सिखाये जाते रहे  हैं, व्यक्तित्व निर्माण और किंचित चरित्र निर्माण भी किया गया। किन्तु 'बड़े कुलों' में चाणक्य ,समर्थ रामदास या जीजाबाई की तरह 'राष्ट्रवाद' बहुत कम सिखाया गया। इसीलिये इतिहास में राजा-महाराजा और चक्रवर्ती सम्राट तो बहुत हुए किन्तु  चन्द्रगुप्त मौर्य और वीर शिवाजी  कम ही हुए हैं। स्वाधीन भारत में भी शायद ही कोई माँ-बाप अपनी सन्तान को 'राष्ट्रवाद' पढ़ाने में दिलचस्पी रखता हो ! राज्य प्रणीत  तिरंगा यात्राएं ,राष्ट्रवादी पुराने फ़िल्मी गाने और एक आध 'राष्ट्रवादी संगठन ' के पथ संचलन के भरोसे भारत का  राष्ट्रवाद रुग्णावस्था में आ चुका  है। प्रगतिशील बुद्धिजीवी लेखक साहित्यकार इसका संज्ञान नहीं ले रहे यह चिन्तनीय है। इसीलिये वे यह भी नहीं मानेंगे कि कुटुंब विरोध की सनातन परम्परा ही भारतीय गुलामी का मूल कारण रहा है।

अलावा बाकी पूरे मुल्क के परिवार या समाज में केवल धर्मान्धता और अतीत का कूड़ा कचरा ही परोसा जा रहा है।  यह याद ही नहीं रहता कि कुरुक्षेत्र के मैदान में मारने वाले और मारने वाले एक ही परिवार के थे। दुष्ट कंस द्वारा अपनी बहिन देवकीको और बहनोई वसुदेवको जेल में डालकर सताना और बाद में कंस का अपने भानजे कृष्ण- बलराम  के हाथों मारा  जाना पारिवारिक कुल कलंक कथा के अलावा कुछ नहीं है। अपने 'मामाश्री'का 'भव्य' बध किया था।

अक्सर यह देखा गया है कि अतीत की सामंतकालीन संयुक्त -परिवार परम्परा पर जिन्हें बड़ा नाज हुआ करता है ,वे खुद ही अपने संयुक्त कुटुंब के  किसी व्यक्ति द्वारा सताये हुए होते हैं। ऐंसा नहीं है की सिर्फ पौराणिक एथिनिक काव्यों में ही  कुल -कलह के उदाहरण मौजूद हैं ,बल्कि ज्ञात इतिहास में भी अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं। जड़ भरत -   बाहुबली द्वंद कथा ,चण्ड अशोक द्वारा अपने भाइयों का मारा जाना ,राणा कुम्भा द्वारा अपने ही भाइयों का मारा जाना, अलाउद्दीन - खिलजी द्वारा अपने 'काका' जलाउद्दीन खिलजी को धोखे से मारना,और कुंवर उदयसिंह ,अपने सगे काका के हाथों मारे जाते यदि स्वामिभक्त 'पन्ना धाय 'अपने बेटे की कुर्बानी नहीं देती।
'मुगलकालीन   परम्परा' और 'मराठा एम्पायर ' की परम्परा में एक अजीब समानता है कि दोनों  ही 'महाकुलों' में भाई-भाई ,बाप-बेटा ,चाचा -भतीजा एक दूसरे को निपटाने में ही जुटे रहे। सलीम ने अपने बाप अकबर को जहर दिया ,शाहजहां को उसके बेटे औरंगजेब ने बंदीगृह में डाल दिया । और भी इसी तरह के सैकड़ों-हजारों कुल - कलंकित अफ़साने इतिहास में भरे पड़े हैं। श्रीराम तिवारी








इतिहास साक्षी है भारत ने हमेशा बचाव में ही हथियार उठाये हैं।

भारत सहित दुनिया के तमाम धर्मांध समाजों और राष्ट्रों को ,उनके अतीत के परंपरावादी पुरातनपंथी कूड़ मगज दिमागों के 'कुल कलह' ने  काफी प्रभावित कियाहै। इस कुल-कलह के कारण ही 'अतीत का यह अखण्ड भारत हमेशा आंतरिक संघर्ष से उद्विग्न रहाहै। सदियों की गुलामीका एक प्रमुख कारण  यह भी रहा है। हमें हमेशा यह याद रखना होगा कि जो साम्राज्यवादी मुल्क सुबह भारतको 'आपरेशन सर्जिकल स्ट्राइक' की शाबाशी देते हैं, वे शाम होते-होते पाकिस्तान की भी पीठ ठोकने लग जातेहैं। ७० साल पहले उन्होंने जिस धरतीका विभाजन किया था ,उसको पुनः अमन का नखलिस्तान बनते वे कैसे देख सकतेहैं ? भारतके खिलाफ पाकिस्तानको खड़ा करके वे ७० साल से लगातार कोशिश में हैं कि दक्षिण एसिया की यह हरीभरी धरती लाल लहू से सनी रहे ,ताकि सावित हो सके कि यह धरती सनातन से गुलामी के लिए ही अभिशप्त है। इसीलिये  साम्राज्यवादी मुल्क अमेरिका ,ब्रिटेन और अन्य राष्ट्र इस धरतीपर निरन्तर कृपा दॄष्टि रखते हैं। पहले तो वे आतंकवाद को शह देंनेवाले देश पाकिस्तान को भरपूर हथियार देतेहैं ,फिर भारतके खिलाफ जब आतंकी कार्यवाही होती है तो झूंठी सदाशयता दिखलाते हैं। पाकिस्तान जैसे आतंकी देशको भारत जैसे महान धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के अपोजिट खड़ा करने वाले बड़े -बड़े लुटेरे साम्राज्यवादी मुल्क  द्विअर्थी भाषा बोलकर भारत-पाकिस्तान की आवाम को भरमा रहे हैं।

चीन के हान वंश से लेकर सऊदी कुरेश कबीले तक और ब्रिटिश 'किंगडम' से लेकर इराक के सद्दाम परिवार तक, तमाम विश्व सभ्यताओं में कुटम्ब कलह के कारण ही सत्ता परिवर्तन हुए हैं। इस सब के वावजूद 'राष्ट्रवाद' या राष्ट्रीय चेतना वहाँ सर्वोपरि मानी जाती रहीहै। किन्तु अविभाजित भारतीय इतिहास में  सनातन कुटम्ब विरोध की नकारात्मक विशेषताएँ 'एथनिक राष्ट्रवाद' पर भी हावी रहीं हैं। वेशक इस पुरातन कबीलाई संयुक्त कुटूम्ब समाज व्यवस्था से कुछ 'समाज' ताकतवर और आक्रामक भी रहे हैं ,वे आज भी हो सकते हैं। भारत ,पाकिस्तान, बाँग्ला- देश कश्मीर ,नेपाल या अन्यत्र कहीं भी हो सकते हैं। जिन्हें अपने पड़ोसियों  का लहू देखे बिना चैन नहीं मिलता,  किसी की जान लिए बिना रोटी गले से नहीं उतरती। भारतीय उपमहाद्वीप की इस धरती की यही तासीर हिंसा बनाम अहिंसा,आलस्य ,प्रमाद ,मक्कारी और अंततोगत्वा गुलामी की ओर ले जाती है। मानवीय मूल्यों -उदात्त चरित्रों और धर्म-मजहब की बकवास यहाँ बहुत होती है ,किन्तु इन आदर्शों-मूल्यों  को तिलांजलि देकर, वैज्ञानिक विकास की गाड़ी बीच रास्ते रोककर इस भारतीय उप-महाद्वीप के लोग राह चलते ,उज्जड्ड कबीलाइयों की तरह एक-दूसरे पर झपट पड़ते हैं। कुरुक्षेत्र के 'महाभारत'से लेकर आधुनिक भारत-पाकिस्तान संघर्ष में यह तथ्य एक गृहयुद्ध की मानिंद  दृष्टव्य है। अतीत में बाह्य हमलवार कौन-कौन थे यह तो डीएनए टेस्ट से ही तय होगा किन्तु यह नग्न सत्य सामने है कि जो अहिंसावादी थे वे हमलावर कभी नहीं रहे। और जो हमलावर थे वे अहिंसावादी कभी नहीं रहे। लगातार हिंसक कार्यवाहियों के लिए 'हिंसक 'प्रवृत्ति के लोग  जिम्मेदार हैं।इतिहास साक्षी है कि भारत ने  हमेशा बचाव में ही हथियार उठाये  हैं।

हिंसक हमलावर आक्रांता समाजों को भारत में आने के बाद बेहद आर्थिक-सामाजिक फायदे भी खूब हुए हैं।  किन्तु बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि भारत में अतीत की यह बर्बर कबीलाई परम्परा -अहिंसक समाज में गरीबी अस्पर्शयता और शोषण का कारण बन गयी। इसलिए यह वंशानुगत कौटुम्बिक व्यवस्था विश्व में अन्यत्र भले ही सार्थक रही हो ,किन्तु भारत में तो यह  'राष्टवाद' के खिलाफ और दलित -शोषित वर्ग के लिए अत्यन्त कष्टदायी साबित हुईहै। वैसेतो तमाम सभ्यताओं का वैश्विक इतिहास ही निर्मम -अमानवीय दुश्वारियों से भरा पड़ा है, किन्त भारत में श्रुति ,स्मृति, मिथ , पुराण और सत्यापित इतिहास  में शोषण -उत्पीड़न के अनगिनत प्रमाण देखकर ही दासता का सहज बोध हो जाता है। इस्लामिक और सनातन भारतीय परम्परा में बड़ी विचित्र समानता है ,उधर  खिलाफत की आपसी पारिवारिक जंग और इधर हिन्दूपुराण ,महाकव्य सृजन के केंद्र में पारंपरिक 'कुटुंब-कलह' और भ्रातृ -द्रोह ही  हमेशा विमर्श के केंद्र में रहे हैं । जड़ भरत -बाहुबली युद्ध ,रावण-कुबेर युद्ध ,बाली-सुग्रीव युध्द ,कौरव -पांडव युद्ध ,द्वारका में यादवी युद्ध ,चण्ड अशोक और उसके मौर्य कुलीन भाइयों का रक्तरंजित संघर्ष  ,सल्तनतकाल से लेकर मुगलकाल तक हर दौर में 'भ्रातृद्रोह' के प्रमाण इस धरती पर बिखर पडे हैं।

भारतीय महाद्वीप और दक्षिणपूर्व एशिया में सर्वाधिक लोकप्रिय और सर्वपूज्य 'देव परिवारों 'में 'शिव परिवार' सबसे अधिक पूज्य माना गया है। वैदिक देवता 'रूद्र' की चर्चा भले ही सीमित रही हो ,किन्तु  शैव और सनातन धर्मावलम्बियों ने वैदिक देवता 'रूद्र' के पौरणिक रूप  'शिव परिवार ' को  द्वादस ज्योतिर्लिंग के नाम से चारों दिशाओं में स्थापित कर भारतीय 'राष्ट्रवाद' का सीमांकन बहुत पहले ही कर दिया था। सभी शैव मंदिरों,मठों और ज्योतिर्लिंगों में शंकर-शम्भू के साथ-साथ उनका पूरा कुटम्ब -परिवार  हाजिर है । किन्तु बंगाल ,गुजरात- असम में उनकी अर्धांगनी पार्वतीजी [दुर्गाजी ]विशेष सत्ता के साथ पूज्य हैं। महाराष्ट्र ,मध्यप्रदेश में गणेश जी की विशेष 'जागीरदारी' है। कर्णाटक में कार्तिकेय मुरुगन स्वामी पूज्य हैं। केरल ,तमिलनाडु में सनातन से शिव परिवार की  दादागिरी चली आ रही है। इसके अलावा इस देव  परिवार के अन्य गण वीरभद्र,नंदी और कालभैरव इत्यादि का भी हर जगह बोलवाला है। भारत से बाहर भी नेपाल,तिब्बत, कंबोडिया ,मलेशिया ,मारीशस ,इंडोनेशिया ,फिजी, सूरीनाम में भी 'शिव परिवार' का दबदबा है।

विभाजन से पूर्व सिंध ,पश्चिमी पंजाब , सीमा प्रान्त ,पूर्वी बंगाल [ढाका ]में भी 'शिव परिवार' का ही बोलवाला था। किन्तु आजादीके बाद पाकिस्तान ,बांग्लादेश बन जानेसे शिव -परिवार वहाँ से पूरी तरह बेदखल कर दिया गया। यह विचित्र  बिडम्बना है कि भारत में बाबरी मस्जिद नामक  एक पुराना जर्जर ढाँचा गिराए जाने मात्र से  गोधरा में दर्जनों कारसेवकों को जिन्दा जल दिया गया। और मुबई सहित सारे भारत में आग लगाने की जुर्रत की गई। जबकि बांग्लादेश - पाकिस्तान में हजारों शिव मंदिर, देवी मंदिर ,विष्णु मंदिर ,जैन-बौद्ध और सिख धार्मिकस्थल   ध्वस्त कर दिए गए। लेकिन फिर भी मेरे जैसे धर्मनिर्पेक्षतावादियों ने भारत में अल्पसंख्यकों का ही बचाव किया। क्योंकि भारतीय गंगा-जमुनी तहजीव के लिए यह जरुरी है। मुझे मालूम है कि  मेरी तरह की धर्मनिरपेक्ष  सोच - वाले हर मजहब और धर्म के समाजों में मौजूद हैं। किन्तु जब वे पाकिस्तान और बँगला देश में हिंदुओं पर हुए अत्याचार पर नहीं बोलते तो मुझे बहुत पीड़ा होती है। जब धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील लोग कश्मीरी पंडितों की बदहाली के बजाय केवल 'कश्मीरियत'की चिंता करते हैं तो उनका पाखण्ड छिप नहीं पाता। यही वजह है कि इस दौर में अधिकांस हिन्दू जन-मानस 'संघम शरणम गच्छामि'हो चला है।

चूँकि प्रस्तुत आलेख की विषयवस्तु न तो 'शिव अपरिवार' की महिमा का बखान करना है और न ही हिन्दू-मुस्लिम धर्मान्धता पर कागज रंगने का ही इरादा है। लेकिन 'अखण्ड भारत' की सनातन परम्परा के नकारात्मक अवयवों और पौराणिक रूपकों की शल्यक्रिया  बहुत जरुरी है, जिनके कारण 'भारत राष्ट्र' सदियों तक घोर अराजकता से गुजरा या सदियों तक गुलाम रहा। मैं  यह समझ पाने में असमर्थ हूँ कि पुराणों में वर्णित शिव -पार्वती के ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय  और गणेश के संघर्ष का औचित्य क्या था ?यदि कार्तिकेय और गणेश में अनबन न दिखाई जाती तो शायद आगे की पीढ़ियाँ भी अपने बंधू -बांधवों का रक्त रंजित इतिहास नहीं लिखती। भाई-भाई में वैमनस्य पैदा कर पुराणकार क्या शिक्षा देना चाहते थे ?

रामायण काल में गृह कलह के कारण ही राम को वन-वन भटकना पड़ा। कौरव-पांडव कुल के पारवारिक संघर्ष की गाथा का निचोड़ ही महाभारत है. तो  द्वारकावासी यादव कुल के आत्मघाती सत्यानाश  का संपूर्ण वृतांत ही श्रीमद भागवत  है। इस्लाम के इतिहास में शिया सुन्नी झगड़ों की चर्चा के अलावा  कुरैशों ,उमय्याओं , बहावियों और यजीदियों के पारिवारिक संघर्ष  में   खिलाफत की तमाम  करुण कथा भी  दर्ज हैं । इन तथ्यों को भूलकर जो लोग अतीतके सच्चे-झूंठे - काल्पनिक मिथ इतिहास की अंध श्रद्धा में डूबकर  यदि वर्तमान को दूषित करते हैं तो वे महामूर्ख हैं। जिसे वे धर्म-मजहब की स्वर्णिम परम्परा मानते हैं , उसकी दुहाई देकर -जेहाद या आतंकवाद की बात करते हैं वही लोग  आजके दौर में भारत-पाकिस्तान संघर्ष के लिए जिम्मेदार हैं। जो लोग इस कुल कलह की कूट रचनाको  समझ जाएंगे वे घृणा से मुक्त होकर मानवीय शृद्धा अहिंसा के उपासक और 'जंग'के आलोचक बन जाएंगे।   

जो लोग 'अपने वालों ' के हाथों सताये हुए होते हैं,वे व्यक्तिगत विकास नहीं कर पाते। उनकी प्रतिभा को वंश - 'कुलशीलता' की घुन लग जाती है। प्रत्येक नयी पीढी को उनके वंशानुगत - पारिवारिक ,सामाजिक बड़प्पन के अधोगामी संकल्प तो हमेशा सिखाये जाते रहे  हैं, व्यक्तित्व निर्माण और किंचित चरित्र निर्माण भी किया गया। किन्तु 'बड़े कुलों' में चाणक्य ,समर्थ रामदास या जीजाबाई की तरह 'राष्ट्रवाद' बहुत कम सिखाया गया। इसीलिये इतिहास में राजा-महाराजा और चक्रवर्ती सम्राट तो बहुत हुए किन्तु  चन्द्रगुप्त मौर्य और वीर शिवाजी  कम ही हुए हैं। स्वाधीन भारत में भी शायद ही कोई माँ-बाप अपनी सन्तान को 'राष्ट्रवाद' पढ़ाने में दिलचस्पी रखता हो ! राज्य प्रणीत  तिरंगा यात्राएं ,राष्ट्रवादी पुराने फ़िल्मी गाने और एक आध 'राष्ट्रवादी संगठन ' के पथ संचलन के भरोसे भारत का  राष्ट्रवाद रुग्णावस्था में आ चुका  है। प्रगतिशील बुद्धिजीवी लेखक साहित्यकार इसका संज्ञान नहीं ले रहे यह चिन्तनीय है। इसीलिये वे यह भी नहीं मानेंगे कि कुटुंब विरोध की सनातन परम्परा ही भारतीय गुलामी का मूल  
पूरे मुल्क के परिवार या समाज में केवल धर्मान्धता और अतीत का कूड़ा कचरा ही परोसा जा रहा है।  यह याद ही नहीं रहता कि कुरुक्षेत्र के मैदान में मारने वाले और मारने वाले एक ही परिवार के थे। दुष्ट कंस द्वारा अपनी बहिन देवकीको और बहनोई वसुदेवको जेल में डालकर सताना और बाद में कंस का अपने भानजे कृष्ण- बलराम  के हाथों मारा  जाना पारिवारिक कुल कलंक कथा के अलावा कुछ नहीं है। अपने 'मामाश्री'का 'भव्य' बध किया था।
अक्सर यह देखा गया है कि अतीत की सामंतकालीन संयुक्त -परिवार परम्परा पर जिन्हें बड़ा नाज हुआ करता है ,वे खुद ही अपने संयुक्त कुटुंब के  किसी व्यक्ति द्वारा सताये हुए होते हैं। ऐंसा नहीं है की सिर्फ पौराणिक एथिनिक काव्यों में ही  कुल -कलह के उदाहरण मौजूद हैं ,बल्कि ज्ञात इतिहास में भी अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं। जड़ भरत -   बाहुबली द्वंद कथा ,चण्ड अशोक द्वारा अपने भाइयों का मारा जाना ,राणा कुम्भा द्वारा अपने ही भाइयों का मारा जाना, अलाउद्दीन - खिलजी द्वारा अपने 'काका' जलाउद्दीन खिलजी को धोखे से मारना, कुंवर उदयसिंह भी अपने सगे काका के हाथों मारे जाते यदि 'पन्नाधाय 'अपने बेटेकी कुर्बानी नहीं देती।मध्ययुग की
'मुगलकालीन  परम्परा' और 'मराठा एम्पायर ' की परम्परा में  अजीब समानता रही है कि दोनों  ही 'महाकुलों' में भाई-भाई ,बाप-बेटा ,चाचा -भतीजा एक दूसरे को निपटाने में ही जुटे रहे। सलीम ने अपने बाप अकबर को जहर दिया ,शाहजहां को उसके बेटे औरंगजेब ने बंदीगृह में डाल दिया । पेशवा राघोबा ने नारायणराव और अन्य लोगों को मौत के घाट उतारा।

अपनों द्वारा बार-बार 'ठगे'जाने के वावजूद  संयुक्त परिवार की उपादेयता पर मुझे बड़ा अभिमान है ,पांच हजार साल से जिस कौम में ,जिस कुल में भगवद्गीता के बहाने  'महाभारत' पढ़ाया जाता रहा हो , उस कुल के तमाम कुलदीपक पार्थ या पार्थसारथी भले ही न बन सके हों ,किन्तु 'कौरव-कुलांगार' बनने में कहीं कोई चूक नहीं हुई। धीरोदात्त चरित्र के सत्यव्रतधारी आदर्श नायक भले ही हम न बन सके हों ,किन्तु खलनायक बनने में कभी कोई अड़चन नहीं आयी। इसलिए आज कल के युद्धोन्मादी दौर में भारत-पाकिस्तान की हवा में प्यार-मोहब्बत की बात करने वाले  ,करुणा ,अहिंसा की बात करने वाले  देशद्रोही' कहलाते हैं। श्रीराम तिवारी !



सर्जिकल स्ट्राइक की आंशिक सफलता पर सभी को बधाई,!



ऑपरेशन सर्जिकल स्ट्राइक की आंशिक सफलता पर देशवासियों में आत्मविश्वास जागृत हुआ -सभी को बधाई,! आंशिक सफलता से  तातपर्य है कि पाकपरस्त आतंकवाद का भयानक भूत बहुत शैतानी और अजर-अमर है ।  यह रक्तबीज और सहस्त्रबाहु की तरह पुनर्जीवी और सर्वव्यापी है।पीओके में 'आपरेशन सर्जिकल स्ट्राइक तो महज  एक प्रतीकात्मक कार्यवाही ही है ,लेकिन यह महायुद्ध का शंखनाद भी  सावित हो सकता है। भारतीय नेतत्व को आपरेशन की सफलता से प्रेरणा लेकर आगे की कार्यवाहियों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

भारतीय सीमा के निकट 'पीओके' स्थित आतंकी केम्पों को ध्वस्त कर भारतीय कमांडोज ने दो पाकिस्तानी फौजियों को मार गिराया और सम्भतः ३८ आतंकी भी ढेर कर दिए। यह पठानकोट,उरी पर हुए आतंकवादी हमलों का माकूल जबाब है। आपरेशन सर्जिकल स्ट्राइक की कार्यवाही का सफल संचालन और सम्पूर्ण विपक्ष का विश्वास अर्जित करना - मोदी सरकार की यह पहली कामयाबी है बधाई ,,! लेकिन सरकार समर्थकों को इस चुल्लू भर सफलता पर बोरा जाना उचित नहीं ,बल्कि होशोहवास में रहकर देश की रक्षा के लिए कटिबद्ध होना बहुत जरुरी है। इसके लिए  सेना और सरकार का साथ देना भी बहुत जरुरी है।और  सरकारी तंत्र में बैठे सभी अफसर - नेता लोग वह आचरण भी अमल में लायें  जो युध्दकाल में  वांछित है। जिस त्याग की भावना काऔर नैतिक आचरण का दरोमदार एक विजेता कौम या राष्ट्र पर हुआ करता है,वह हम भारत के लोगों में भी दिखना चहिये। 'नंगू के गड़ई भई ,बेर-बेर हगन गई' की कहावत चरितार्थ नहीं होनी चाहिए। त्याग और अनुशासन की जो उम्मीद जनता से की जाती है, शासकवर्ग के लोग भी उस पर अमल करंगे तो पाकपरस्त आतंकवाद एवम विश्व आतंकवाद  भी फ़ना हो जाएगा। इस आत्नाक्वाद बनाम आपरेशन सर्जिकल स्ट्राइक के विमर्श में उलझकर देश की आवाम  और सरकार को अपने अन्य अभीष्ट सरोकार नहीं भूलने चाहिए। विश्व विरादरी का विश्वास हर हाल में बनाये रखना जरुरी है।  श्रीराम तिवारी !

गुरुवार, 29 सितंबर 2016

युध्द होगा तो पाकिस्तान खत्म हो जाएगा !

भारत के प्रति पाकिस्तानी हुक्मरानों का शत्रुतापूर्ण व्यवहार और वैचारिक दुर्भावना किसी  से छिपी नहीं  है ! दुनिया के तमाम अमनपसन्द लोग पाकिस्तान की इस नापाक नीति नियत से वाकिफ हैं। लेकिन दुनिया में बहुत कम लोग हैं जो पाकिस्तानी दहशतगर्दी के खिलाफ बोलने और भारतकी न्यायप्रियता के पक्ष में खड़े होनेका माद्दा रखते हैं। मुझे लगता है कि पाकिस्तान रुपी पूरे अंधकूप में ही भारत विरोध की भाँग घुली है। पाकिस्तान के साहित्यकार,कलाकार और बुद्धिजीवी  या तो कायर हैं या सब नकली हैं। यदि वे ज़रा भी रोशनख्याल हैं तो अपनी  'नापाक'  फ़ौज द्वारा बलूच लोगों पर किये जा रहे जुल्म के खिलाफ क्यों नहीं बोलते ? पाकिस्तानी कवि,  पत्रकार ,लेखक ,संगीतकार ,कलाकार और गायक सबके सब मुशीका लगाए बैठे हैं। पीओकेमें हो रहे फौजी अत्याचार के खिलाफ,सिंधमें  गिने-चुने शेष बचे हिंदुओं पर  हो रहे अत्याचारके खिलाफ और अल्पसंख्यकों के  खिलाफ पाकिस्तानी  आवाम की चुप्पी भी खतरनाक है।

पाकपरस्त आतंकियों ने  भारतको लहूलुहान कर रखा है ,क्या पाकिस्तान के वुद्धिजीवियोँ  को इतना सहस नहीँ कि  इस अन्याय के खिलाफ आवाज उठायें ?क्या उन्हें यह नहीं मालूम कि पाकिस्तान द्वारा भारत पर थोपे गए यद्ध का नतीजा क्या होगा ? वेशक  भारतीय जन -मानस  और मीडिया भी अविवेकी वातावरण से दिग्भर्मित है। कोरे राष्ट्रवाद की धुन में हर कोई नीरोकी तरह बांसुरी बजा रहा है। मौजूदा भारतीय शासक वर्ग द्वारा पाकिस्तान के खिलाफ बेजा वयानबाजी तो खूब जारी है ,किन्तु अभी तक ये  पाकिस्तान का एक मच्छर भी नहीं मार पाए हैं !

लेकिन इसके वावजूद पाकिस्तानी बुद्धिजीवियों और प्रबुद्ध आवाम [यदि कोई उधर है तो] को यह नहीं भूलना चाहिये कि पाकिस्तानी फ़ौज चाहे  कितनी ही बर्बर क्यों न हो ,चाहे कितनी ही  रक्तपिपासु -अमानवीय  क्यों न हो, चाहे सऊदी अरब अमेरिका और चीन की कितनी ही खैरात क्यों न खा ले ,चाहे चोरीके उपकरणों से परमाणु बमों का कितना ही बड़ा जखीरा क्यों न बनाले, किन्तु इतिहास साक्षी है कि उसे युद्ध में जीत कभी  हासिल नहीं हुई। वह जब -जब भी भारत से भिड़ा है तब-तब उसे केवल शर्मनाक हार ही हासिल हुई है। भारत की अधिसंख्य जनता के पास जब खाने के लिए मेकसिगन गेहूं भी नहीं था, भारतीय फ़ौज केपास सेकिंड वर्ल्डवार की 'भरमार' बंदूकें भी पर्याप्त नहीं थीं, तब १९६५ में और १९७१ में भारत की जनता के सहयोग से भारतीय सेना ने पाकिस्तान को ध्वस्त किया है। वर्तमान में तो भारतीय सेना के पास सब कुछ है ,अतः पाकिस्तान की अमनपसन्द आवाम को समझना चाहिए कि यदि युध्द होगा तो पाकिस्तान खत्म हो जाएगा ? वेशक नुकसान भारत का भी होगा ,और हो सकता है यह नुकसान पाक से ज्यादा हो ! किन्तु भारत के १२८ करोड़ में से  यदि २८ करोड़ भी युद्ध में काम आ गए तो २० करोड़ पाकिस्तानी भी तो मरेँगे। मतलब की पाकिस्तान खत्म ! चूँकि भारत  १०० करोड़ की आबादी के  साथ  युद्ध के बाद भी जिन्दा रहेगा। पाकिस्तानी आवाम,मीडिया, व्यापारी ,किसान-मजदूर,लेखक ,शायर , बुद्धिजीवी और अमनपसन्द लोग अपने नेताओं के ,अपने मजहबी हुक्मरानों के और अपनी पाकिस्तानी फ़ौज के  जनरलों के घटिया मंसूबे नाकाम करें ! खुदा के वास्ते उन्हें  भारत के खिलाफ सनातन  शत्रुता भड़काने वालों पर अंकुश लगाना चाहिए ! जैसेकि भारत की अधिकांस आवाम और नेताओं ने अमन के द्वार कभी बन्द नहीं किये !

 वेशक यदि भारत पर युद्ध थोपा गया  तब 'युद्ध' के बारे में मेरे जैसे अमनपसन्द और अन्तर्राष्टीयतावादी का भी वही सिद्धांत होगा  जो  भगवान् श्रीकृष्ण ने  महाभारत युद्ध के समय पेशअर्जुन के समक्ष पेश किया था। भारत की अमनपसन्द आवाम ने भले ही आचार्य चाणक्य , विक्रमादित्य ,समर्थ रामदास ,छत्रपति शिवाजी ,बाजीराव पेशवा, मेकियावेली, गैरीबॉल्डी ,नेपोलियन आइजनहॉवर , चर्चिल, हिटलर ,मुसोलनी, टालस्टाय ,लेनिन,स्तालिन , माओ होचिमिन्ह की युद्ध नीतिको नजर अंदाज कर दिया हो ,किन्तु  शहीदेआजम भगतसिंह के शब्द अभीभी भारतीय आवाम की  प्राणवाहिनी धमनियों में  प्रतिध्वनित हो रहे हैं कि   ''किसी देश या कौम की  वास्तविक रक्षक जनता-जनार्दन  होती है'' और  ''जब तलक दुनिया में शक्तिशाली लोगों द्वारा निर्बल और सभ्य लोगोंका शोषण-उत्पीड़न होता रहेगा ,जब तलक सबल समाज द्वारा निर्बल गरीब समाज का  शोषण होता रहेगा ,जब तलक दुष्ट- बदमाश शक्तिशाली राष्ट्रों द्वारा 'निर्बल' राष्ट्रों का [अपमान]उत्पीड़न होता रहेगा तब तलक 'अमन के लिए' हमारा संघर्ष -युद्ध जारी रहेगा ! '' श्रीराम तिवारी !

किसी भी देश या कौम की वास्तविक रक्षक जनता-जनार्दन ही होती है !

भारत के प्रति पाकिस्तानी हुक्मरानों का शत्रुतापूर्ण व्यवहार और वैचारिक दुर्भावना किसी  से छिपी नहीं  है ! दुनिया के तमाम अमनपसन्द लोग पाकिस्तान की इस नापाक नीति नियत से वाकिफ हैं। लेकिन दुनिया में बहुत कम लोग हैं जो पाकिस्तानी दहशतगर्दी के खिलाफ बोलने और भारतकी न्यायप्रियता के पक्ष में खड़े होनेका माद्दा रखते हैं। मुझे लगता है कि पाकिस्तान रुपी पूरे अंधकूप में ही भारत विरोध की भाँग घुली है। पाकिस्तान के साहित्यकार,कलाकार और बुद्धिजीवी  या तो कायर हैं या सब नकली हैं। यदि वे ज़रा भी रोशनख्याल हैं तो अपनी  'नापाक'  फ़ौज द्वारा बलूच लोगों पर किये जा रहे जुल्म के खिलाफ क्यों नहीं बोलते ? पाकिस्तानी कवि,  पत्रकार ,लेखक ,संगीतकार ,कलाकार और गायक सबके सब मुशीका लगाए बैठे हैं। पीओकेमें हो रहे फौजी अत्याचार के खिलाफ,सिंधमें  गिने-चुने शेष बचे हिंदुओं पर  हो रहे अत्याचारके खिलाफ और अल्पसंख्यकों के  खिलाफ पाकिस्तानी  आवाम की चुप्पी भी खतरनाक है। पाकपरस्त आतंकियों ने  भारतको लहूलुहान कर रखा है ,क्या पाकिस्तान के वुद्धिजीवियोँ  को इतनी अक्ल नहीँ कि इसका नतीजा क्या होगा ?

 'युद्ध' के बारे में  भगवान् श्रीकृष्ण ,आचार्य  चाणक्य , शकारि विक्रमादित्य ,समर्थ रामदास ,शिवाजी ,बाजीराव पेशवा ,मेकियावेली,गैरीबॉल्डी ,नेपोलियन आइजनहॉवर , चर्चिल, हिटलर ,मुसोलनी, टालस्टाय ,लेनिन,स्तालिन , माओ  होचिमिन्ह इत्यादि ने  जो -जो कहा  उसका सारतत्व शहीद भगतसिंह के इन शब्दों में प्रतिध्वनित हो रहा है ।  ''किसी देश या कौम  वास्तविक रक्षक जनता-जनार्दन  होती है''  ''जब तलक दुनिया में शक्तिशाली  लोगों द्वारा निर्बल और सभ्य लोगों का शोषण-उत्पीड़न होता रहेगा ,जब तलक सबल समाज द्वारा निर्बल गरीब समाज का  शोषण होता रहेगा ,जब तलक दुष्ट- बदमाश शक्तिशाली राष्ट्रों द्वारा 'निर्बल' राष्ट्रों का [अपमान]उत्पीड़न होता रहेगा तब तलक क्रांतिकारी युवाओं द्वारा  क्रांतियुद्ध अर्थात संघर्ष जारी रहेगा ''

क्या मुसर्रफ या शरीफ द्वय भारत के मित्र हैं ?

 आम तौर पर राजनीति की किसी भी  स्थिति में कोई नेता या दल का पूर्णतः परफेक्ट होना सम्भव नहीं। जोकुछ  भी सामने है, वो केवल सापेक्ष सत्य है। अरब ,इजरायल ,फ़्रांस ,जर्मनी, इंग्लैंड जैसे किसी खास कौम वाले या एक - भाषा-एक 'राष्ट्रीयता'वाले  देशभी जब घोर 'मतैक्य' के शिकार हैं ,तब भारत जैसे बहुभाषी,बहुजातीय, बहुधर्मी , बहुसभ्यता -संस्कृति वाले देश  में मतैक्य'का होना कोई अचरज की बात नहीं है।भारतीय संविधान निर्माताओं ने 'अभिव्यक्ति की आजादी' का अधिकार अक्षुण रखा है।  प्रधानमंत्री की आलोचना ,सतारूढ़ दल की आलोचना , और शासन-प्रशासन की आलोचना जब इंग्लैंड ,अमेरिका और रूस में जायज है तब भारत तो विश्व बड़ा लोकतंत्र है  इसलिए स्वाभाविकरूप से यहाँ 'अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता 'पर कोई पहरा सम्भव नहीं । कार्टूनिस्ट हों ,फ़िल्मी कलाकर हों या मिमिक्री वाले हों ,यदि वे अपने देश भारत के प्रति बफादार हैं ,यदि वे अनुशासित हैं , यदि वे भृष्ट नहीं हैं और यदि वे देश की सभ्यता संस्कृति से प्यार करते हैं तो  संवैधानिक दायरे में रहकर वे किसी भी तुर्रमखां की 'स्वस्थ'आलोचना  कर सकते हैं। ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ नागरिक को किसी से भी डरने की जरूरत नहीं। वह  हर उस शख्स की आलोचना कर सकता है ,जो जनता के प्रति उत्तरदाई है।

इस दौर में भारतीय प्रधान मंत्री की देश -विदेश में काफी तारीफ हो रही है। हालाँकि कहीं-कहीं आलोचना और निंदा भी हो रही है। अपने प्रधान मन्त्रित्व  कार्यकाल में मोदी जी ने केवल  'जुमलेबाजी' और 'मन की बातें 'ही कीं हैं। किन्तु पाकिस्तानने भाजपा ,'संघ परिवार' और मोदीजी पर बहुत उपकार किया है कि भारत की सीमाओं पर निरन्तर परोक्ष हमले करते हुए मोदीजी की लोकप्रियता में दुगना इजाफा किया है, उनकी स्वीकार्यता को मजबूत किया है। वैसे तो  मोदीजी जब गुजरातके मुख्यमंत्री थे तब  उन्होंने  दंगाग्रस्त गुजरात में 'अटलजीके 'राजधर्म' का पालन नहीं कियाथा ,तभीसे मोदीजी देश और दुनिया के बुद्धिजीवियों की आलोचना के केंद्रमें रहे हैं। मोदीजी की व्यक्तिगत खामियों और उनकी पार्टी की आर्थिक-सामाजिक और वैदेशिक नीतियों की आलोचना के लिए हमारे भारतीय विपक्षी दल पूर्णतः सक्षम हैं। लेकिन सूप बोले सो बोले छलनी क्यों बोले ? पाकिस्तानके भूतपूर्व और महा - पागल फौजी तानाशाह परवेज मुसर्रफ ने मोदी जी की घटिया आलोचना की है, जो नाकाबिले बर्दास्त है और यहां लिखने लायक नहीं है। भारत के तमाम विपक्षी दलों को ,बुद्धिजीवियों को और प्रगितिशील राजनितिज्ञों को मुसर्रफ की इस हरकत का उचित जबबाब देना चाहिए।

 मुसर्रफ को बताया जाए कि जो लोग भारत के खिलाफ हैं ,जो लोग भारत में आतंकवाद और सम्प्रदायवाद और नकली मुद्रा भेज रहे हैं ,उन्हें भारत के प्रधान मंत्री की आलोचना का अधिकार नहीं है। चूँकि परवेज मुसर्रफ खुद अटलजीके समय भारतके प्रति निरंतर शत्रतापूर्ण कार्यवाहियों के अलम्बरदार हुआ करते थे ,उन्होंने ही आगरा संधि पर तुषारापात भी किया था। अब यदि वे मोदी जी को पाकिस्तान का दुश्मन बता रहे हैं तो क्या मुसर्रफ या शरीफ द्वय  भारत के मित्र हैं ?


गुरुवार, 22 सितंबर 2016

पाकिस्तानी आतंकी बहुत ज्यादा आग मूत रहे हैं।


चारों तरफ से  सीमाओं पर असुरक्षित भारत के लिए संतोषजनक सूचना है कि 'न्यूयार्क' में कुछेक  प्रवासी भारतीयों ने और  पाकिस्तान से जान बचाकर भागे ' बलूच 'कार्यकर्ताओं ने पाकिस्तान के खिलाफ जोरदार प्रदर्शन किया है । उन्होंने पाकिस्तान में मानव अधिकारों की दुर्दशा पर और पाकिस्तानी मिलिट्री के नृशन्स अत्याचार पर तमाम दुनिया का ध्यानाकर्षण किया है। प्रदर्शनकारियों ने पाकिस्तान विरोधी नारे लगाए  और अमेरिका की उस दोगली नीति के खिलाफ भी नारे लगाये ,जिसमें ऊपर-ऊपर तो वह अमन -शांति की बात करता है और पिछले दरवाजे से पाकिस्तान की - हथियारों से ,ऍफ़ -१६ विमानों से और आर्थिक पैकेज से जमकर मदद कर रहा है।इन प्रदर्शनकारियों के प्रति हम भारत के लोग जितनी कृतज्ञता व्यक्त करें कम ही है ! क्या भारतीय जनता पार्टी के नेता, कार्यकर्ता , 'मोदी सरकार' और उनके 'परम मित्र' -अम्बानियों-अडानियों में इतना नैतिक साहस है कि अमेरिका की  दोगली नीति का खुलकर विरोध कर सकें?  जिस अमेरिका का पाकिस्तान के सिर पर हमेशा हाथ रहा है ,उसी अमेरिका को भारतकी मोदी सरकार ने १००% एफडीआई के द्वार खोल दिए हैं, लेकिन इससे भारत को क्या लाभ हुआ ?  इसके विपरीत पाकिस्तान की आर्मी और उसके पालतू दहश्तगर्द और ज्यादा आग मूत रहे हैं। भारत  के अमेरिकापरस्त पूंजीवादी दक्षिणपंथी लोग भी अमेरिकी हथियार विक्रेताओं की धुन पर था-था थैया कर रहे हैं। श्रीराम तिवारी !

रविवार, 18 सितंबर 2016

सीमाओं पर जब भारतीय फ़ौज ही असुरक्षित है तब देश का क्या होगा ?

 इसमें कोई संशय नहीं कि 'पाकिस्तानी शासक' बड़े बदमाश हैं।' पाकिस्तानी शासक' का अभिप्राय मात्र दिखावे की चुनी हुई सरकार नहीं है। बल्कि इसमें पाकपरस्तआतंकी और बर्बर निशाचरी पाकिस्तानी आर्मी भी शामिल है। पाकिस्तानी शासकों की बदमाशियाँ  गिनाई जाएँ तो जिंदगी गुजर जायेगी,किन्तु गिनती कभी पूरी नहीं होगी। लेकिन चार बदमाशियाँ जरूर काबिले गौर हैं। पहली बदमाशी यह कि पाकिस्तान शासकों का पहला उद्देश्य है-कश्मीर हड़पना और भारत को बर्बाद करना। दूसरी बदमाशी है कि भारत और उसके कश्मीर से ही कुछ गद्दार खोजकर ,उन्हें आत्मघाती मजहबी फिदायीन बनाना और भारत में जेहादके बहाने दहशतगर्दी-अशांति फैलाना। तीसरी बदमाशी है,भारतीय अर्थव्यवस्था को चोट पहुँचाना ,उसके लिए बांग्लादेश,नेपाल  श्रीलंका और समुद्र के   रास्ते से नकली मुद्रा - करेंसी भारत में खपाना। चौथी बदमाशी यह है कि इस्लामिक जगत को बेबकूफ बनाने के लिए ,पाकिस्तानी शासक अपने आपको 'जेहादी'- इस्लाम परस्त प्रचारित करते हैं। जबकि व्यवहार में वे हिंदुओं की भगवद्गीता का ही अनुशरण करते हैं !दरअसल भारत पाक सीमाओं पर जो हो रहा है उसमें भारत का रुख उस निराश अर्जुन की तरह है जो सामने खड़े शत्रुओं में 'बंधू -बान्धव' को देखकर अपन गांडीव नीचे रख देता है। जबकि पाकिस्तानका रुख उस अश्वत्थामा की तरह है जो धोखे से रात के अँधेरे में द्रौपदी पुत्रोंको मार डालता है।

यथार्थ के धरातल पर ये पाकिस्तानी शासक अपने आपको जेहादी सावित करने के लिए समय-समय पर सीमाओं पर और खुद पाकिस्तान के अंदर ईसाइयों,शियाओं,हिंदुओं ,बलूचों,सिंधियों ,पख्तूनों और पाकिस्तानी बच्चों को  मरवाते रहते हैं। विचित्र बिडम्बना है कि वे इस उद्देश्य के निमित्त व्यवहार में 'गीता' के सन्देशों पर अमल करते रहते हैं। महाभारत युद्ध के प्रथम दिन जब अर्जुन ने 'अपने ही कुल के लोगों'से लड़ने से मना किया तो भगवान् श्रीकृष्ण ने उसे अठारह अध्याय सुना डाले ! जिनका सारतत्व है ''तस्मातदुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धयाय कृतनिश्चयः '' - [भगवद्गीता -२-३६].इस श्लोक से प्रेरणा लेकर पाकिस्तानी शासक भारत के खिलाफ अनवरत परोक्ष युध्द कर रहे  हैं। जबकि भारत के नेता  इस अनवरत जंग को केवल आतंकी  ही हमला 'बता रहे हैं। भारत के सत्ताधारी शासकों द्वारा पठाकोट की तरह  हर असफलता पर  स्याही फैंकने की शर्मनाक कोशिशें जारी हैं। वे सत्ता प्राप्त करने के लिए 'हिंदुत्व' को  हथियार बनाते हैं ,लेकिन जब सत्ता मिल जाती है तो श्रीकृष्ण के उपदेश भूल जाते हैं।

भले ही पाकिस्तान आज एक अलग देश है, किन्तु जब श्रीकृष्ण ने 'महाभारत युद्ध'से पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को उपदेश दिया था ,तब तो पाकिस्तान वाला भूभाग भी हस्तिनापुर या अखण्ड  भारत में ही आता था। और चूँकि पाकिस्तानी शासकों के लहू में भी उस 'कुरुक्षेत्र'वाली परम्परा का कुछ तो असर है। इसलिए  जिस तरह रात के अँधेरे में द्रोण पुत्र अश्वत्थामा ने द्रौपदी के पाँचों पुत्रों को सोते हुए मार डाला था,ठीक उसी तरह पाकिस्तानी दहशतगर्द और पाकिस्तानी रेंजर्स भी जबतब रात के अँधेरे में भारतीय फौजियों को सोते हुए मार डालते हैं। क्योंकि वे भारत की फ़ौज का जागते हुए सामने से मुकाबला नहीं कर सकते। हालाँकि अश्वत्थामा वाली यह कायराना  हरकत श्रीकृष्णको तो मंजूर नहीं थी ,किन्तु उनके ''युद्धायकृत निश्चयः '' वाले सिद्धांत के अनुपानल में तो पाकिस्तानी शासक वेशक अव्वल हैं।

श्रीकृष्ण के पुरातन अनुयाइयों [पाकिस्तानी हमलावरों ]ने कश्मीर के उड़ी सेक्टर में  १८ सितम्बर रविवार  सुबह पांच बजे , डेढ़ दर्जन सोते हुए  भारतीय सैनिकों को जिन्दा जला दिया। यह पहली घटना नहीं है, कि पाकिस्तान के नापाक हमलावरों ने  छिपकर रातके अँधेरे में हमला किया हो ! अब चाहे कोई माने या ना माने किन्तु उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण के उस  सन्देश ''तस्मात्युध्यस्व भारत' का पालन तो अवश्य  किया  है । उन्होंने यूपीए के दौर में भी डॉ  मनमोहनसिंह के राज में  एक रात को दो भारतीय फौजियों के सर काटकर यही सिद्ध किया था। उससे  पहले अटलजी के राजमें भी  रातोंरात पूराका पूरा कारगिल और द्रास  इन पाकिस्तानियों ने हथिया लिया था।तब सैकड़ों भारतीय जवानों  की कुर्बानी के बाद और अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक दबाव  से  भारत को बमुश्किल उस युद्ध से निजात मिली थी। तब भी भारत हमलावर नहीं बल्कि आत्मरक्षा की भूमिका में ही था। अक्सर यह देखा गया है कि 'संघ परिवार' वाले ,दक्षिणपंथी 'राष्ट्र्वादी' नेता और राजनीतिज्ञ लोग जब विपक्ष में होते हैं, तभी उन्हें 'राष्ट्रवाद'  याद आता है। हमारे ५६ इंच वाले जब विपक्ष में थे तब बार-बार बोला करते थे 'हम होते तो घुसकर मारते' !

हम  भारत के जनगण  पाकिस्तान सरकार  ,पाकपरस्त आतंकियों और पाकिस्तानी आर्मी को चाहे जितना कोसते रहें और गालियाँ देते रहें ,किन्तु यह कटु सत्य है कि पाकिस्तानी शासक 'गीता के संदेशों' का अक्षरशः पालन कर रहे हैं ! जबकि भारत के 'आर्यपुत्र' गीता सहित तमाम आर्ष ग्रन्थों की आरती उतारने में व्यस्त हैं।कुछ तो  भगवान् श्रीकृष्ण के बचनामृत -श्रवण में ही मगन रहते हैं।हमारे धर्मोपदेषक 'बाणी विलास'में मगन हैं। हजारों बाबा-बाबियां ,साधु संत-महात्मा और शँकराचार्य रात दिन 'गीता' पर प्रबचन दे रहे हैं। संघ परिवार और भगवा ब्रिगेड का तो 'जन्मसिद्ध अधिकार' ही इस उद्देश्य के लिए तय हुआ है। भगवान् श्रीराम,श्रीकृष्ण ,गौतम,महावीर , शंकराचार्य और स्वामी दयानन्द सरस्वती के धर्म सम्मत  सिद्धांतानुसार  ही इस 'आर्यभूमि' का शासन -प्रशासन चलाना -सुनिश्चित करने के लिए,अखण्ड भारत निर्माण के लिए डॉ मुंजे,डॉ हेडगेवार ,गुरु गोलवलकर और बाला साहिब देवरस ने अपना जीवन खपाया था ,लेकिन अब उनके आधुनिक उत्तराधिकारी पथभृष्ट होकर सत्तानुरागी हो गए हैं। उधर रोज -रोज पाकिस्तानी दहशतगर्द भारत के सुरक्षा बालों को बुरी तरह मार रहे नहीं इधर हमारे नेता केवल 'स्टेटमेंट' दे रहे हैं कि ''ईंट का जबाब पत्थर से देंगे '' !  खेद है कि इन घटिया बयानों पर ही कुछलोग लुँगाड़े बाग़-बाग़ हो रहे हैं। कुछ राष्ट्र्वादी युवा भी इन बयानों पर बृहनल्लाओं की तरह तालियां पीट रहे हैं।

वेषक आडवाणीजी की रथयात्रा और गोधराकांड के हत्यारों की असीम अनुकम्पा से भाजपा और संघ परिवार के अच्छे दिन आये हैं। लेकिन उनके स्वार्थ के कारण रामलला अबतक  टाट में हैं और भाजपा नेता ठाठ में हैं.इसी तरह मोदीजी की  कारपोरेट सेक्टर समर्थक नीतियों की असीम अनुकम्पा से अब 'संघ परिवार ' के  स्वदेशी मूल्य और राष्ट्रवादी सिद्धांत केवल चुनावी मेनिफेस्टो में ही शेष बचे हैं। इसका 'प्रत्यक्षकिम प्रमाणं'  है कि वर्तमान अच्छे दिनों में भारतीय फौजियों को रात के अंधरे में ज़िंदा  जलाया जा रहा है. हमारे 'देशभक्त 'शासक पाकिस्तान को सबक सिखाने की बजाय अपना चुनाव मकसद साधने के लिए देश के अंदर साम्प्रदायिकता भड़काने में जुटे हैं।  कुछ लोग तो पाकिस्तान को 'नरक' बताकर घर में सो जातेहैं। उनके ऐंसे बयानों से प्रेरित पाकिस्तानी आतंकी भारत को श्मशान बनाने पर तुले हैं। अब तो वे परमाणु बम की धमकी भी दे रहे हैं। इधर हमारे सत्ताधारी नेता मोदी जी के भरोसे बैठे हैं कि वे सुदर्शन चक्र से पाकिस्तान का बलूचिस्तान काटकर साउथब्लाक में टांक देंगे ! भारत का मजदूर -किसान केवल महँगाई को रो रहा है ,उसे तो पाक प्रेरित आतंकवाद कोई खतरा ही नजर नहीं आता। और मध्यमवर्गीय युवा वर्ग केवल फेसबुक पर अपनी सेल्फी-फोटो देखकर ,नेताओं के जन्मदिन का जश्न मनाने में ही खुश है। कुछ लोगों को अपने परिवार की राजनीतिक से फुर्सत नहीं ,कुछ लोगों को आरक्षण और धर्म-मजहब से फुर्सत नहीं। देश केवल फौजी जवानों के भरोसे है। वेशक भारतीय फ़ौज तो दुनिया में बेजोड़ है , किन्तु  पता नहीं क्यों हमारे देश के नेता और फौजी जनरल इस महान  भारतीय फ़ौज का सही मार्ग दर्शन क्यों नहीं कर रहे हैं ! श्रीराम तिवारी !

शनिवार, 17 सितंबर 2016

कृपया 'जन्म' और 'मरण 'को तो राजनीति से दूर रखिये !

प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने अपना ६७ वाँ जन्म दिवस अपनी माताजी के श्रीचरणों में नमन के साथ मनाया।  दुनिया भर के तमाम  राष्ट्रप्रमुखों ने ,मोदीजी के समर्थकों ने  और कतिपय  मोदी विरोधियों ने भी सोशल मीडिया पर उन्हें शुभकामनएं दीं। पूरे भारत में और विश्व में भी मोदी जी के जन्म दिन की धूम रही। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को उनके जन्मदिन पर पाकिस्तान के विद्रोही -बलूचिस्तान के निर्वासित नेताओं ने भी अपनी शुभकामनाएँ व्यक्त कीं ! नाचीज ने भी उनके दीर्घायु होने ,शतायु होने की  कामना की  ! लेकिन आश्चर्य है कि कुछ नामचीन्ह विपक्षी नेताओं ने, राजनैतिक दलों ने भूलवश या व्यस्तता वश मोदीजीको जन्म दिन की शुभकामनाएँ नहीं दीं। ऐंसे लोगों से  निवेदन है कि कम से कम 'जन्मदिन' और 'मरण दिन 'को तो राजनीति से दूर रखिये !  सभी विपक्षी नेताओं व  दलों को सोचना चाहिए  कि क्या मोदी जी उनके प्रधान मंत्री नहीं हैं ? क्या भारत जैसे विराट लोकतांत्रिक देशमें राजनैतिक पक्ष-विपक्षका स्थाई बैरभाव उचित है ? वेशक नीतिगत  मामलों में पक्ष-विपक्ष का मतभेद स्वाभाविक है , वह जायज  भी हैऔर लोकतंत्र के हित में भी है।  किन्तु इसके वावजूद जबकि सभी दल किसी खास विधेयक पर संसद में आम सहमति प्राप्त कर सकते हैं तो किसी पीएम के जन्मदिन पर शुभकामनाओं में कंजूसी क्यों ? 

वेशक जब मोदीजी गुजरात के मुख्यमंत्री रहे ,भाजपा संगठन में काम करते रहे या सिर्फ 'संघ' प्रचारक रहे तब उन्होंने भी शायद  किसी कांग्रेसी प्रधान मंत्री को वो सम्मान नहीं दिया जिसका मैं  इस आलेख में जिक्र  कर रहा हूँ। राहुल गाँधी ,सोनिया गाँधी और डॉ मनमोहनसिंह तो मोदी जी से  बहुत दूर हैं  लेकिन मोदी जी ने तो पंडित नेहरू,इंदिरा जी और जेपी को भी वह सम्मान नहीं दिया जो अटल जी ने दिया है। अपने पूर्वर्ती  प्रधानमंत्रियों की लानत-मलामत तो मोदी जी विदेशी धरतीपर भी कर चुके हैं। यह भी किसीसे नहीं छिपा है कि संजय जोशी जैसे अपने संघी साथियों को और आडवाणी,मुरलीमनोहर तथा यशवंत सिन्हा जैसे दिग्गज  भाजपाई वरिष्ठ नेताओं को  हासिये पर धकेलने  में मोदीजी सिद्धहस्त रहे हैं। यही वजह है कि कांग्रेसी नेताओं की ओर से ,वामपंथी नेताओं की ओर से शुभकामना सन्देश सुनाई नहीं दिए। हद तो तब हो गयी जब 'संघ परिवार' के ही अनेक महारथी जो 'शर शैया' पर अपने उत्तरायण की प्रतीक्षा कर रहे हैं,उन्होंने भी मोदीजी को जन्म दिन की मुबारकवाद नहीं दी।  

 चूँकि अतीत में अपने राजनैतिक विरोधियों को निरन्तर कोसते हुए आदरणीय मोदी जी ने अम्बानी,अडानी,जियो टेलीकॉम ,भाजपा, संघ परिवार ,कारपोरेट कम्पनियोंके मालिकान और जिन-जिनके अच्छे दिन आये हैं उन सभी को खूब सम्मान दिया  और मनसब भेंट किये। सम्भवतः   इसीलिये मोदी जी  सिर्फ इन चन्द लोगों के ही परमप्रिय प्रधानमंत्री रह गए हैं,और जनता-जनार्दन तथा लोकतांत्रिक विपक्ष से बहुत दूर हो गए हैं। मोदी जी वेशक यूएस प्रेजिडेंट ओबामा,जापानी पीएम शिंजो आबे और रुसी राष्ट्रपति पुतिन के करीब तो हो सकते हैं ,किन्तु अपने वतन में, अपने घर गांव वडनगर से लेकर संसद तक वे बहुत से लोगों को जाने-अनजाने निराश भी करते रहे हैं !यह तो सच है कि 'एक व्यक्ति ,हर किसी को संतुष्ट नहीं कर सकता' किन्तु जब कोई व्यक्ति भारत जैसे  विराट लोकतंत्र का ध्वजवाहक हो तो देश समाज का बहुमत  'सर्वाधिक' कुशल नेतत्व की उम्मीद करता है और धीरोदात्त चरित्र की अपेक्षाओं में सुनहरे भविष्य की उम्मीद करता है।

चूँकि भारतीय संविधान के मुताबिक  मोदीजी अब सभी के प्रधान मंत्री हैं ,इसलिए जन्म दिन की शुभकामनाएँ  देने का जितना हक सत्ता सुखवालों को है ,उतना ही हक उन सभी को है  जो  चुनाव हार गए हैं । क्योंकि आम चुनाव में जिसे बहुमत मिलता है  वही पूरे देशका एकमात्र प्रधानमंत्री हुआ करता है। तब जो नेता या दल चुनाव हार जाते हैं ,उनके मतदाता- सपोर्टर  यह नहीं कह सकते कि उनका कोई प्रधानमंत्री नहीं है। दरसल प्रधानमंत्री  जो भी हो ,वह पूरे देश का नेता होता है। और  वैसे भी भारतीय संस्कृति में भी यही रीति  है कि भले ही वह एक बच्चा ही क्यों न हो ? वह हाथी के सिर वाला बैडोल 'एकदन्त' गजबदन ही क्यों न  हो ? लेकिन यदि उसे गणपति या 'गणाधिपति' माना है तो प्रथम पूज्य वही होगा। पाश्चात्य दर्शन के अनुसार  'जो जीता वही सिकन्दर' भी कह सकते हैं। इसलिए यदि कोई  हर-हर मोदी नहीं करता तो  कोई अनीति नहीं ,किन्तु 'हैप्पी बर्थ डे 'कहने में यदि किसी की जुबान लड़खड़ाती है तो कोई बात गले नहीं उतरती ! आप पीएम की नीतियों से सहमत नहीं तो विरोध कीजिए ,यह तो शौर्य और आत्मगौरव का प्रमाण है। किन्तु अपने देश की जनता द्वारा निर्वाचित प्रधानमंत्री को आप प्रधान मंत्री ही ना माने या 'हैप्पी बर्थ डे' कहने में  आगा -पीछा देखें तो यह बड़े  शर्म की बात है। मेरे ख्याल से  सभी भारत वासियों को एक स्वर में तहेदिल से अपने प्रधानमंत्री को 'जन्म दिन 'की मुबारकबाद देनी चाहिए !

सवाल उठ सकता है कि जिनको महँगाई ने मारा  ,जिन्हें सूखा-बाढ़ और व्यापम ने मारा  ,मोदी जी उनके भी प्रधानमंत्री  हैं ,किन्तु राजधर्म नदारद है।  जो अल्पसंख्यक हैं ,जो बीफ भक्षणके नाम पर धिक्कारे जाते हैं , जो दलित हैं और मृत पशु उठाने के नाम पर मोदी जी के राज्य गुजरात में ही मार दिए जाते हैं,क्या मोदी जी उनके  प्रधान मंत्री नहीं  हैं ?उन्हें प्रधानमंत्री का सहयोग क्यों नहीं मिलता ? जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की चिंता करते हैं मोदीजी उनके भी प्रधानमंत्री हैं ,जो सत्ताधारियों की असहिष्णुता के खिलाफ बोलते हैं ,मोदी जी उनके भी सौ फीसदी प्रधानमंत्री हैं.जो साम्प्रदायिक उन्माद और अंधश्रद्धा जनित पाखण्डवाद  का विरोध करते हैं मोदी जी उनके भी प्रधान मंत्री हैं । तो सवाल उठता है कि उनकी हत्या पर मौन क्यों रहते हैं ? चूँकि 'राष्ट्रवाद' का आह्वान है कि  इन सवालों पर कमर कस के रखें , संगठित संघर्ष जारी रखें।

सभी भारतवासियों से अनुरोध है कि जनादेश द्वारा निर्वाचित प्रधानमंत्री को दीर्घायु होने की शुभकामनाएं देंने में कंजूसी नहीं करें । क्योंकि  यही एक आचरण है जो मोदीजी को भी बाध्य कर सकता है कि- वे फासिज्म से दूर रहेंगे । वे भृष्टाचार उन्मूलन के वादे पूरे करेंगे ,वे कालाधन वापिस लाकर गरीबों के खातों में जमा करेंगे ,कश्मीर में धारा ३७० लागू करेंगे । वे चुनाव में किये गए वादों के अनुसार देश में एक 'समान कानून'याने यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करेंगे। वे पाकिस्तान में घुसकर वहाँ से न केवल आतंकी दाऊद ,हाफिज सईद को पकड़कर लाएंगे बल्कि भारत विरोधी केम्पों पर हमले करेंगे । वे बिहार चुनाव में किये गए वादे पूरे करेंगे ,दिल्ली चुनाव में किये गए वादे पूरे करेंगे।  तीन साल पहले देश और दुनिया के सामने अण्णा  हजारे ने ,श्री-श्री ने ,स्वामी बाबा रामदेव ने सुब्रमण्यम स्वामी ने और खुद मोदीजी ने  भी यूपीए सरकार पर  लाखों करोड़ गबन और भृष्टाचार के ढेरों आरोप लगाए थे ,आशा की जा सकती है कि मोदी जी उस धन को वापिस लेकर सरकारी खजाने मेंशीघ्र जमा करेंगे। उम्मीद है कि मोदी जी एक लाख छियत्तर हजार करोड़ रूपये - टेलिकॉम सेक्टर से याने 'स्पेक्ट्रम स्कैम 'के और बाकी कोयला,गैल ,तेल रेल तथा मनरेगा इत्यादि के दर्जनों स्केम  के   हजारों करोड़ वसूल करेगे और दोषियों को दण्डित कराने के लिए  न्यायायिक कारवाही अवश्य करेंगे ! इसलिए भी उन्हें 'हैप्पी बर्थ डे' किया जाना चाहिये !

एक राजनैतिक पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्म में हीरो अनिल कपूर फ़िल्मी 'मुख्यमंत्री' अमरीश पूरी को सिस्टम की अनैतिकता पर बड़ा ओजस्वी भाषण देता है। अमरीशपुरी भी कटाक्ष करते हैं कि 'कहना आसान है ,सत्ता में आकर खुद करके दिखाओ तब पता चलेगा, कि सिस्टम के खिलाफ जानेमें कितना जोखिम है !' इस वार्तालाप के बाद अनिल कपूर याने 'नायक'को 'संवैधानिक विशेषाधिकार'के तहत एक दिन का मुख्यमंत्री बना दिया जाता है। चूँकि अनिल कपूर रुपी 'एक दिन के बादशाह' को ईमानदार न्यायप्रिय जनता एवम परेश रावल रुपी निष्ठावान पीए का समर्थन  हासिल रहता है ,इसलिए फ़िल्मी कहानी का सुखान्त इस सन्देश के साथ होता है कि कितना ही बदनाम और खराब सिस्टम हो यदि  उस सिस्टम के अलमबरदारों को जूते मारो तो वो भी सुधर सकता है। बिना किसी कठोर या रक्तिम क्रांति के २४ घंटे बीतने से कुछ क्षण पहले ही 'नायक' द्वारा तमाम भृष्ट अनैतिक आचरण वाले अफसर - नेता और मुख्यमंत्री भी जेल के सींकचों के अंदर कर दिए जाते हैं । मोदी जी याद रखें कि ढाईवर्ष गुजर चुकें हैं ,अभी तक किसी चोर या भृष्ट नेता -अधिकारी का बाल भी बांका नहीं हुआ है।

विगत लोक सभा चुनावों के दरम्यान मोदी जी ने जो वादे किये या यूपीए -कनग्रेस पर हमले किये वह तो चुनावी प्रक्रिया का हिस्सा है। उन्होंने जनता को जो 'अच्छे दिनों'की उम्मीद बंधाई, स्विस खातों की रट लगाईं वेशक यह सब मात्र आदर्शवादी 'यूटोपिया' ही है।जो केवल फिल्मों में या 'फिक्शन' कहानियों में ही सम्भव है।किन्तु फिर भी कुछ बेहतर करने की चाहत का माद्दा यदि किसी व्यक्ति,समाज या राष्ट्र में हो तो परिकल्पना को सिद्धांत बनते देर नहीं लगती। इतिहास साक्षी है कि  सिद्धांतों के लिए मरने -मिटने वालों की कभी किस दौर में कमी नहीं रही। जिस तरह रास्ते  पर पड़ा गोबर भी अपने साथ धूल को समेट लेता है उसी तरह क्रांतियों और विप्लव का नेतत्व करने वाले लोग असफल होने के वावजूद भी ,व्यक्ति ,समाज और राष्ट्रों का कुछ तो परिमार्जन और पुनरोद्धार अवश्य कर लेते है। याने तत्सम्बन्धी एकल या सामूहिक सकारात्मक प्रयास कभी निरर्थक -अकारथ नहीं जाते।

सम्पूर्ण क्रांति या व्यवस्था परिवर्तन सम्भव न भी हो तब भी न्याय और नीति का पक्ष और ज्यादा मजबूत अवश्य होता जाता है। अतीत में फायरबाख , ओवेन और सैंट साइमन जैसे अर्धवैज्ञनिकवादी  समाजवादी विचारक यूरोप को प्रभावित करने में सफल रहे। और 'सोशल डेमोक्रेसी' के मानने वालों ने भले ही मार्क्स एंगेल्स से , लेनिन और स्तालिन से पृथक 'अहिंसावादी' सिद्धांत लिया हो ,किन्तु प्रकारांतर से उनके विचारोंने सम्पूर्ण यूरोप,अमेरिका को  व अफ्रीकी देशों  को मानवीय मूल्यों से समृद्ध अवश्य किया है। लेनिन के नेतत्व में सम्पन्न महान अक्टूबर क्रान्ति  -वोल्शेविक क्रांति भले ही अब चुक गयी हो किन्तु  'सोवियत संघ'  वाली तासीर का अक्स आज भी 'रूसी संघ ;में विद्यमान है। चीन ,क्यूबा ,वियतनाम भी इस तरह की क्रांतियों के जीवन्त प्रमाण हैं।  चूँकि भारतीय प्रधान मंत्री मोदी जी  को प्रचण्ड जनादेश मिला है ,इसलिए देश की जनता को यकीन है कि वे शीघ्र ही कारपोरेट फोबिया से उबरकर जन कल्याण कारी योजनाओं पर अमल करेंगे। वे क्रांतिकारी जननायक के रूप में भारत की  निर्धन जनता को समृद्धशाली बनाने की  दिशा में  जरूर कुछ   खास करेंगे। इसी उम्मीद के साथ मोदी जी को पुनः उन्हें जन्म दिन की शुभकामनाएं !वे शतायु हों ! श्रीराम तिवारी !

बुधवार, 14 सितंबर 2016

' इस बार जेएनयू में जो चुनाव हारे हैं क्या वे देशद्रोही हैं ?


 सर्वविदित है कि केंद्र में मोदी सरकार के सत्तासीन होते ही ततकालीन शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी ने देश के सभी विश्वविद्यालयों  को  संघ द्वारा निर्देशित आचार संहिता अनुपालन के लिए आदेशित किया था। इस दिशा निर्देश में तथाकथित 'राष्ट्रवाद' के निमित्त 'अंधराष्ट्रवाद' को तरजीह देते हुए भाजपा समर्थक छात्र संगठन -एबीवीपी को भी आक्सीजन दिए जाने का भी मन्तव्य  निहित था। चूँकि इन निर्देशों के बहाने संविधान की मूल  स्थापनाओं पर भी आक्रमण किया गया इसलिए धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील छात्रों ने इसका अहिंसक प्रतिवाद किया। जो वामपंथी और मेधावी छात्र क्रांतिकारी सोच रखते हैं ,उन्होंने इस जद्दोजहद का कुशल नेतत्व किया।लेकिन केंद्र सरकार समर्थक 'छी न्यूज' मीडिया और उसके पिछलग्गू छात्र संगठन अनावश्यक हो हल्ला मचाते रहे। जो छात्र सत्ता समर्थक और कूप -मण्डूक थे ,जो राजनीति और राष्ट्रवाद का ककहरा भी नहीं जानते थे ,वे इस दूरगामी संघर्ष का औचित्य ही नहीं समझ सके। इसलिए वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हो रहे हमले का प्रतिकार करने में भी असमर्थ रहे।

चूँकि जेएनयू' का चरित्र  प्रगतिशील और क्रांतिकारी रहा हैऔर इस विश्वविद्यालय का दुनिया में बहुत सम्मान है। उसके वामपंथी छात्र संघों ने हमेशा संवैधानिक मूल्यों और शहीद भगतसिंह की शिक्षाओं का हृदयगम्य किया है। जेएनयू ने सांस्कृतिक और सामाजिक तौर पर पंडित जवाहरलाल नेहरू वाला  प्रगतिशील नजरिया अपनाया है। जेएनयू  का मिजाज धर्मनिरपेक्षता ,समाजवाद और लोकतंत्र का हामी रहा है ,इसलिए उसके छात्र खुले दिमाग से सोचते हैं। जेएनयू के इस जुझारूपन से नफरत करने वाले लोग जब सत्ता में आ गए तो यह स्वाभाविक ही है कि उन्होंने उसपर हमले तेज कर दिए।  सुब्रमण्यम स्वामी जैसे दक्षिणपंथी पुरोगामी नेताओं ने न केवल जेएनयू छात्रों को अनावश्यक रूप से उकसाया,बल्कि जाधवपुर विश्विद्यालय ,हैदराबाद यूनिवर्सिटी ,एएमयू और  बीएचयू जैसे विश्वविद्यालयों को इस कदर देशभक्ति सिखाई कि जगह-जगह छात्रों की मार -कुटाई होने लगी और बेचारे एक दलित  छात्र रोहित वेमुला को मजबूर होकर आत्म हत्या भी करनी पडी। लोग प्रश्न करते रहे कि 'देशभक्ति'का फैसला कौन करेगा ? 'संघ' ,भाजपा ,स्मृति ईरानी ,सुब्रमण्यम स्वामी , एबीवीपी या भारत की न्यायपालिका ?

यह महज संयोग नहीं है कि जिस तरह मध्यप्रदेश ,यूपी-बिहार ,आंध्र -तेलंगना और कर्नाटक में सिमी के गुर्गों ने अपनी पैठ बनाई है उसी तरह  कुछ कश्मीरी अलगाववादियों ने जेएनयू में भी अपनी घुसपैठ बना ली होगी। इन नालायकों की राष्ट्रविरोधी गतिविधियों  पर अंकुश लगाने के बजाय केंद्र सरकार और दक्षिणपंथी राजनीतक लोग  जेएनयू को बदनाम करने में जुटे रहे । कश्मीर की समस्या जड़ पाकिस्तान और पीओके में खोजने के बजाय जेएनयू और जाधवपुर में खोजते रहे। धर्मनिरपेक्षता को पलीता लगाने वाले लोग और वोट के लिए साम्प्रदायिक मंसूबा रखने वाले लोग देश की पूरी मुस्लिम कौम को बदनाम करने का नापाक अभियान  चलाते रहे। कुछ मूर्खों की समझ  इतनी टुच्ची है कि वे खुद  को स्वयम्भू राष्ट्रवादी और जेएनयू को 'देशद्रोही' प्रचारित करने में जुटे रहे । लेकिन जेएनयू के समस्त छात्र-छात्राओं ने स्टाफ ने ,प्रोफेसरों ने यह कुत्सित अभियान विफल कर दिया।

जेएनयू छात्रों ने छात्रसंघ के मौजूद चुनाव में वामपंथी छात्र संघों को जिताकर क्या सन्देश दिया है ?एबीवीपी वालों ने विगत दिनों ही अपना छप्पन इंची सीना तानकर कहा था - 'इस बार जेएनयू में राष्ट्रद्रोही हारेंगे '!चूँकि जेएनयू में एबीवीपी वाले बुरी तरह हारे हैं ,इसलिए सवाल उठता है कि इन हारने वालों को क्या कहा जाये ? क्या यह माना जाए कि ये हारने वाले [एबीवीपी वाले ] देश द्रोही हैं ?हालाँकि वामपंथी छात्र तब तक किसी को देशद्रोही नहीं मानते जब तक कि न्यायपालिका और संसद उसे सावित न कर दे।  चूँकि स्वयम्भू राष्ट्रवादियों ने खुद ही कहा था कि इस दफे जेएनयू में 'देशद्रोही' हारेंगे। इसलिए सवाल उठता है कि  इस बार जेएनयू में  जो चुनाव हारे हैं क्या वे देशद्रोही  हैं ? यदि बाइचांस जेएनयूके वामपंथी छात्रसंघ यह चुनाव हार जाते तो इन दक्षिणपंथी हर्रलों का राग 'देशद्रोह' अब तक क्या गजब ढा रहा होता ? ढपोरशंख बजता कि नहीं कि 'देशद्रोही हार गए' !

हालाँकि वामपंथ की नजर में जो छात्र हारे हैं वे देश द्रोही नहीं हैं। गनीमत है कि जेएनयू में वामपंथी छात्र संगठन भारी बहुमत से जीत गए हैं । लेकिन कुछ कुतर्की लोग अपनी हार को स्वीकार करने के बजाय जेनएयू की तुलना डीयू के चुनावों से कर रहे हैं। जबकि वामपंथी छात्र संघों ने  कभी दावा  ही नही किया कि वे डीयू के चुनावों में किसी को हरा कर देशद्रोही सावित करने जा रहे हैं।  वामपंथी छात्रों की सोच चुनाव हराने या जीतने तक सीमित नहीं है बल्कि वे तो उस महान परम्परा के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं जो आजादी की लड़ाई के दौरान स्वाधीनता सेनानियों ने कायम की है। वे तो शहीद भगतसिंह ,सफदर हाशमी ,नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पानसरे  , प्रख्यात विचारक प्रोफेसर कलिबुर्गी  जैसे शहीदों की क्रांतिकारी विचारकों के संदेशवाहक और उत्तराधिकारी हैं।

यदि मोदी जी के राज में  भारत-पाकिस्तान द्वीपक्षीय सम्बन्ध सबसे खराब हैं । यदि इस दौरन दालों से लेकर नमक तक ,स्कूली शिक्षा से लेकर विश्विद्यालायींन शिक्षा तक ,दवा से लेकर कफ़न तक, सब कुछ मेंहगे हो गए हों ,यदि इस  बदतर हालात से ध्यान हटाने के लिए सत्ताधारी नेतत्व पाकिस्तान और चीन का हौआ खड़ा करता  हो , और सत्ता के समर्थक पाखण्डी चाटुकार 'राष्ट्रवाद' के खोखले नारे लगाने लग जाते हों । तो देश की आवाम की और बुद्धिजीवियों की यह नैतिक जिम्मेदारी है  ,राष्ट्रीय दायित्व है कि जेएनयू  कल्चर को बचाएं और नकली 'राष्ट्रवादियों' को  इसी तरह मजा चखाएं। जैसा कि अभी जेएनयू चुनावों में चखाया है। यह श्रेष्ठ क्रांतिकारी दायित्व एक अंतर्राष्ट्रीयतावादी ही कर सकता है ! अर्थात वास्तविक राष्ट्रवादी होने के लिए पहले एक अंतरराष्ट्रतीयतावादी होना जरुरी है।

खेदकी बात है कि विगत दो सालोंमें केवल साम्प्रदायिक वैमनस्य को बढ़ने वाले खोखले नारों में ही देशप्रेम बढ़ा है। इस फासीवादी षड्यन्त्र को इस दौर की युवा पीढी समझने में असमर्थ है। यही वजह है कि  कुछ नादान लोग कामरेड कन्हैयाकुमार ,रोहित वेमुला और जेएनयू पर 'राष्ट्रद्रोह' जैसे गंदे आरोप लगाने लग जाते हैं। जो शिक्षित और आधुनिक  युवा एवम  विद्यार्थी  कन्हैया कुमार को ,रोहित वेमुला को तथा जेएनयू के सांस्कृतिक स्वरूप को जानना चाहते  हैं,वे   गैरीबाल्डी,  बाल्टेयर,गोर्की,देरेंदा बाल्जाक फुरिए ,ओवन ,मार्क्स और रोजा लक्समबर्ग  को भले ही न पढ़ें ,किन्तु अपने देश के उन  शहीदों को अवश्य पढ़ें जिन्होंने देश की  आजादी के लिए कुरबानियाँ दीं और जेल की सजा भुगती है ।

इस  विषम और दिग्भर्मित दौर में यह जानने के लिए कि कौन सच बोल रहा है ? सत्ता में बैठे लोग झूंठ परोस रहे हैं या जो विपक्ष में हैं वे  देश को गुमराह कर  रहे हैं ?  कौन देशभक्त है और कौन देशद्रोही है ,कौन सहिष्णु है और कौन असहिष्णु है ,यह तय करने के लिए जिस  विवेक बुद्धि की जरूरत है  उसकी  क्षमता अर्जित करनी  हो तो  थोड़ा समय निकालकर देश और दुनिया के महानतम नायकों के  क्रांतिकारी विचारों को समझने के लिए उनके  साहित्य को  अवश्य  पढ़ना  चाहिए। इस दौर में  राष्ट्रवाद और नारेबाजी के विमर्श में देशद्रोह शब्द को जबरन घुसेड़ा जा  रहा है।  दरसल तब तक कोई देशभक्त नहीं हो सकता जब तक वह 'राष्ट्र'  की परिभाषा नहीं जान ले। हम जब तक राष्ट्रवाद का तातपर्य नहीं समझ  लेते तब तक कोई भी किसी को 'देशद्रोही' बता सकता है। और यह महाझूंठ इस दौर में खूब बोला जा रहा है। कौन देशद्रोही है ,कौन देश भक्त है यह तय करने की  विवेक शक्ति अर्जित करने के लिए राष्ट्र के वर्तमान ,अतीत और स्वाधीनता संग्राम के साहित्य का अध्यन  बहुत जरुरी है।
                                                                                      श्रीराम तिवारी



    
    

शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

राजभाषा हिंदी तो शासितों की जोरू और सत्ता की भौजाई है ! आलेख :-श्रीराम तिवारी

दुनिया के अधिकांस प्राच्य भाषा विशारद ,व्याकरणवेत्ता ,अध्यात्म -दर्शन अध्येता और भाषा रिसर्च- स्कालर समवेत स्वर में उस 'उत्तर वैदिक संस्कृत वांग्मय' के  मुरीद रहे हैं, जिसका वैचारिक चरमोत्कर्ष ' वेदांत दर्शन' में झलकता है। जिस वेदांत दर्शन के प्रतिवाद स्वरूप अनेक 'अवैदिक' भारतीय दर्शन-पंथ  इस भारत भूमि पर फले -फूले।  जिसका भाषाई चरमोत्कर्ष आदि कवि बाल्मीकि से लेकर कविकुल गुरु कालिदास की सृजनात्मकता में  दृष्टिगोचर होता रहा है। ईसा पूर्व की पांचवीं-छठी शताब्दी के आसपास भारत में जिन 'अवैदिक' धर्म-दर्शन-पन्थ  का  प्राकट्य हुआ ,उन तत्कालीन नवपन्थ  संस्थापकों ने  पाली,प्राकृत,अपभृंश और अन्य 'असंस्कृत' भाषाओँ का ही प्रयोग किया। क्योंकि उन्होंने जो दर्शन और सिद्धांत प्रतिपादित किये ,उनके मूल तत्व भले ही संस्कृत भाषा के वैदिक सनातन धर्म से ही लिए गए थे , किन्तु उनके मत-दर्शन का बाह्य रूप और आकार  किंचित अनीश्वरवादी और वेद विरूद्ध था । इसीलिये उन्होंने न केवल  संस्कृत भाषा का मोह त्यागा बल्कि वैदिक बलि और यज्ञ कर्म का भी निषेध किया। उन्होंने 'असंस्कृत' लोकभाषाओं के सहारे देश और दुनिया में अपने विचार -सन्देश स्थापित करने में अप्रत्याशित असफलता पाई।  

चूँकि ये नव धर्म-पंथ प्रकाशक कोई वैदिक ऋषि या कृशकाय वेदवेत्ता  सनातनी ब्राह्मण नहीं थे ,बल्कि राजधर्म-विमुख ,युद्ध से विमुख ,आराम तलब ,अहिंसा प्रिय और कोमल ह्रदय क्षत्रिय राजकुमार थे। इसीलिए इन सामंत- पुत्रों ने मानव जीवन के क्लेशों से मुक्ति के लिए वैदिक कर्मकाण्ड त्यागकर 'अपरिग्रह' [Desire] और 'अहिंसा' [Non voilance]पर ज्यादा जोर दिया। उन्होंने अपने उपदेशों के प्र्चार के लिए  उस भाषा को चुना जिसे 'आम जनता '  समझती थी,और ये नवपन्थ अन्वेषक भी बखूबी जानते थे। सम्भवतः भाषा -साहित्य के ज्ञात इतिहास में संस्कृत और उसके 'वाङ्ग्मय 'को इतनी तगड़ी टक्कर कभी किसी ने नहीं दी होगी ! वास्तव में यह 'अहिंसा' की बात करने वालों का  सबसे 'हिंसक' प्रयास भी था। और जिन लोकभाषाओं में उनके उपदेश लिखे जाते रहे,उन्ही 'भदेस -भाषाओं ' रुपी कृत्तिकाओं के सौजन्य से  'हिंदी' रुपी कार्तिकेय का लालन-पालन हुआ। सदियो उपरान्त 'भदेस भाषा भनित' साहित्य को ही 'हिंदी  भाषा साहित्य' कहा जाने लगा । मुझे मालूम नहीं कि  हिंदी- विषयक मेरी इस ऐतिहासिक स्थापना का आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की हिंदी साहित्य सम्बन्धी  विद्वत्तापूर्ण गवेषणा से या अन्य विद्वान लेखकों से सहमति है या नहीं।  

किन्तु यह विचित्र एव कटु सत्य है कि ईसापूर्व पांचवीं-छठी शताब्दी के 'अवैदिक आंदोलन' युग में भी आचार्य चाणक्य और उसके सौ साल बाद 'बृहद्रथ'के सेनापति पुष्यमित्र शुंग जैसे कुलीन शूरवीर ब्राह्मणों ने क्षत्रियोचित आचरण पेश किया था। उन्होंने रोम,यूनान ,अरब ,मध्यशिया और पर्सिया के हमलों को रोकने में सफलता पाई. और  'राष्ट्रवाद' की परिकल्पना'को अमली जामा भी पहनाया। काल प्रवाह के विपरीत 'अहिंसावाद'के दौर में इन  ब्राह्मण योद्धाओं  ने 'युद्ध' को ही राष्ट्रनिर्माता और बर्बरता का उच्छेदक माना। चूँकि ये योद्धा वैदिक संस्कृत भाषा में ही दक्ष  थे, उनका यह उत्कृष्ट वैदिक संस्कृत भाषा ज्ञान और उनकी  राष्ट्रवादी कार्य योजनाएं तत्कालीन जनता की समझ नहीं आईं। इसके विपरीत जो क्षत्रिय राजकुमार संस्कृत भाषा ज्ञान  में निष्णात नहीं थे ,उन अवैदिकमत के  भिक्षुओं को जनता में अपार लोकप्रियता  मिली। क्योंकि उन्होंने संस्कृत का मोह छोड़कर, लोकभाषाओं में ही अपने नवीन नैतिक और आध्यात्मिक सिद्धांतों-सूत्रों  को जनता के समक्ष  पेश किया। चार्वाक , बुद्ध और महावीर द्वारा  लोकभाषा में  दिए गए  संदेश ही प्रारंभिक हिंदी भाषा की बुनियाद बने !

बुद्ध ,महावीर और उनके अनुयायियों ने जिस भाषा में समाज को सन्देश दिया ,तुलसी ने जिसे ' ग्राम्यगिरा'कहा, कबीर ने साखी -शबद- रमैनी रचा और अनेक गद्यात्मक पौराणिक आख्यानकारों ने देवनागरी में लिखे  अपने सृजन को 'भाषा टीका' कहा ,उसे ही आठवीं-नौवीं सदी के उपरान्त विदेशी यायावरों और आक्रमणकारियों ने 'हिन्दवी' नाम दिया था। इसी दौरान संस्कृत के अतिसय दुरूह शब्द भण्डार से मुक्त, इसके भाषा - व्याकरण से अनभिज्ञ कुछ भक्त कवियों ने 'गीत गोविन्दम' भक्तमाल,और पुराणों की 'भाषा टीका'सहित अपने सिद्धांत-सूत्रों को जिस लोकभाषा  में  जनता के समक्ष पेश किया ,उसे ही 'भाषा' कहा गया । हरेक कुम्भ मेले के लिए,हर एक विराट लोकरंजन के निमित्त ,उत्तर भारत की तमाम 'असंस्कृत' भाषाओँ-बोलियों को 'संस्कृत' से अधिक ख्याति मिलती गयी। 'हिन्दवी' याने 'भाषा' को उत्तरोत्तर  प्रचण्ड  जन समर्थन मिलता गया। इसी के साथ-साथ सामंतकालीन उत्तर भारत की अन्य तमाम 'असंस्कृत' लोकभाषाएँ भी परंपरागत ब्राह्मी लिपि छोड़कर देवनागरी में रूपांतरित होती चलीं गयीं। और परिवर्ती हिंदी भाषा का प्रजनन सम्भव हुआ।

लोकभाषाओं और क्षेत्रीय बोलियों में तदभव शब्दों का आदान-प्रदान स्वाभाविक था। तत्कालीन यायावर  विदेशी आक्रांताओं और व्यापारियों की योगरूढ़ शब्दावली भी इससे संयुत होती चली  गयी। आदिकाल-वीरगाथा काल की प्रारंभिक 'हिन्दवी -भाषा' का 'असंस्कृत' साहित्य- सृजन ,पृथवीराज रासो,वीसलदेवरासो और पद्मावत के रूप में  परवान चढ़ता गया। कालांतर में जब भक्तिकालीन  कवियों ने अपने भावों से ,रस छंद अलंकारों से और अपने काव्यात्मक सौंदर्य से 'हिन्दवी' और भाषा को संजोया -संवारा तब वह 'अखण्ड भारत' की सर्वाधिक बोली जाने वाली 'हिंदी भाषा' बन गयी। स्वाधीनता संग्राम में यही हिंदी लोक भाषा रही है। किन्तु  आजादी के बाद यह गरीब की अर्थात शासितों की जोरू और सत्ता में बैठे शासकों की भौजाई जैसी हो गयी है।

 वेशक पाली,प्राकृत,अपभृंश अब भले ही केवल इतिहास की धरोहर बनकर रह गईं हों ,संस्कृत और उसका वैदिक वाङ्ग्मय  भले ही केवल पूजापाठ और ईश आराधना के साधन मात्र रह गए हों ।लेकिन हिंदी भाषाज्ञान   के बिना केंद्र सरकार की सत्ता में आ पाना मुश्किल है। मध्यप्रदेश,राजस्थान ,यूपी,बिहार,छग,हिमाचल,झारखण्ड और दिल्ली की राजनीती में तो हिंदी भाषा ज्ञान के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता। बिना हिंदी भाषाज्ञान के किसी भी नेता या दल का केंद्रीय राजनीती में  सफल होना भी अब असम्भव है। भारत में हिंदी नहीं जाननेवाला अफसर चल सकता है ,डॉ -वकील चल सकता है ,इंजीनियर भी चल सकता है ,लेकिन नेता -अभिनेता नहीं चल सकता। हिंदीभाषी जनताको तो हिंदी नहीं जानने वाला नेता बिना पूंछ का पशु नजर आता है। जबसे नरेन्द्र मोदीजी भारत के प्रधानमंत्री बने हैं ,तबसे हिंदीकी  दुनिया भर में पूंछ परख  बढ़ी है। यूरोप ,इंग्लैंड,अमेरिका और विश्व के अन्य  देशों के प्रवासी भारतीय और एनआरआई सबके सब 'हर-हर मोदी का नारा लगाकर जता रहे हैं  कि इस दौर में 'हिंदी ' उन सभी के दिलों में बस रही है। कुम्भ के मेले में ,बड़े तीर्थ स्थानों में और दर्शनीय स्थलों पर कुछ विदेशी भी धड़ल्ले से हिंदी बोलते पाए जाते हैं।  कुछ तो संस्कृत भी अछि खासी बोल लेते हैं।

 यह सुविदित है कि 'हिंदी' ,हिन्दू और हिंदुस्तान जैसे शब्दों की जन्म स्थली भारत नहीं है। इन शब्दों का जन्म भी भारत में नहीं हुआ। मध्ययुग में पर्सिया,यूनान ,मध्यशिया और अरब से जो भी विदेशी भारत में घुसे वे समुद्री रास्ते से बहुत कम आये। बल्कि वे खैबर दर्रे से ,हिमालय-हिंदुकुश पार से और सिंधु दरिया को पार करके बहुत ज्यादा मात्रा में भारत आये। उन्होंने अपनी मातृभाषाओं का प्रयोग ,अपने-अपने कबीलों में तो यथावत जारी रखा। किन्तु ततकालीन आर्यावर्त,या भारतवर्ष की आवाम से सम्पर्क रखने के लिए ,व्यापार के लिए ,उन्होंने यहां के 'जुबाँ चढ़े शब्दों' को अपने मनोभावों में व्यक्त करने की कोशिश भी जारी रखी। इसी सीखने -सिखाने की अनवरत प्रक्रिया में  सबसे पहले 'सिंधु' नदी के उस पार वालों ने इस पार वालों को 'हिन्दू' कहा। कुछ आक्रांता - आगन्तुक कबीलों ने आगे चलकर इस भारतीय उपमहाद्वीप में अपना डेरा ही डाल लिया। यहाँ की लोकभाषाओँ  में अपने कबीलाइ शब्दों को मिलाकर एक कामचलाऊ भाषा का निर्माण किया, जिसे उन्होंने  'हिन्दवी' कहा। और जिस धरती पर ये विदेशी लट्टू होकर हमेशा के लिए रम गए उसे उन्होंने 'हिंदुस्तान' कहा।

स्वाधीनता संग्राम के पुरोधाओं ने करोड़ों मानवों द्वारा बोली जाने वाली इस लोक भाषा का नामकरण हिंदी किया। वेशक भाषा का नामकरण 'सिंधु' शब्द से ही किया गया होगा। क्योंकि फ़ारसी वालों की जुबान प्रायः 'स' को 'ह' उच्चरित करने की आदि रही है। शायद उन्होंने ही सिंधु को हिन्दू , सिंधी को हिंदी नाम दे दिया होगा। और जिसे उन्होंने 'हिन्दवी' कहा  उसे तत्सम शब्दावली बहुल क्षेत्र के लोग बाद में हिंदी नाम से पुकारने लगे। अंग्रेजों की कूटनीति से  इस भारतीय धरती की सभ्यताओं की मिली- जुली  गंगा -जमुनी संस्कृति की यह  'हिन्दवी भाषा'ही हिंदी और उर्दू दो धाराओं में बटकर,दो कौमों की जुबान में बटकर , दो राष्ट्रों की पृथक-पृथक भाषाएँ जबरन बना दी गयीं ।सल्तनत काल और मुगलकाल में फारसी 'राजभाषा थी और 'लश्करी'[फौजी] लोग चूँकि फ़ारसी लिपि के हिमायती थे , अतः उन्होंने 'हिन्दवी' के शब्दों को  फ़ारसी में लिखना शुरूं किया और नजाकत ,अदब से पूर्ण समृद्ध भाषा को 'उर्दू' नाम  दिया । इसी तरह  संस्कृत के तत्सम शब्दों से अलंकृत 'भाषा' और 'हिन्दवी'के देशज शब्दों को जब  देवनागरी में प्रस्तुत किया गया ,तब वह दुनिया में 'हिंदी भाषा'के नाम से प्रसिद्ध होती  चली गई।

देश विभाजन के बाद आज़ाद भारत की 'राजभाषा' यही हिंदी  बनी.और  पाकिस्तान ने उर्दू को राष्ट्रभाषा माना। लेकिन पाकिस्तान ने जब  पूर्वी पाकिस्तान की बंगलाभाषी जनता पर पर उर्दू थोपने की कोशिश की ,तो एक ही कौम  के लोग आपस में लड़ -मरे और किस्तान के दो टुकड़े हो गए। बांग्लादेश अलग राष्ट्र बना और जिसकी राष्ट्रभाषा 'बांग्ला' हो गयी। इस प्रकार तथाकथित 'अखण्ड भारत' भाषाओँ के आधार पर कई टुकड़ों में बँट गया।
आजादी के बाद ,इस तरह प्राचीन भारतवर्ष  या आर्यावर्त या जम्बूद्वीप के विशाल भूभाग पर भाषाओँ के आधार पर पृथक-पृथक तीन राष्ट्र बन गए। भारतमें  'हिंदी' समेत संस्कृत परिवार' और 'द्रविड़ परिवार'की सभी भाषाओँ और बोलियों को फलने -फूलने का  समान अवसर मिला। किन्तु हिंदी का जितना विकास आजादी की जंग के दौरान हुआ ,उतना बाद में कभी नहीं हुआ। स्वाधीनता संग्राम के नेता चाहे बंगाल के हों, चाहे पंजाब के हों ,चाहे तमिलनाडु के हों ,चाहे गुजरात के हों या पंजाब के हों सभी को 'हिंदी' का पर्याप्त ज्ञान था और उन्हें हिंदी प्रिय भी थी। भीखाजी कामा ,मादाम कामा और स्वामी दयानंद सरस्वती की मातृभाषा गुजराती थी ,एनी बेसेण्ट भगनी - निवेदिता और मीराबेन की मातृभाषा अंग्रेजी और आइरिश थी,स्वामी विवेकानन्द,महर्षि अरविन्द की मातृभाषा बंगाली थी ,गांधी जी और सरदार पटेल की भाषा गुजराती थी ,महाकवि सुब्रमण्यम  भारती की मातृभाषा तमिल थी ,समर्थ रामदास ,लोकमान्य तिलक ,बी टी रणदिवे की भाषा मराठी थी लाला लाजपतयराय ,उधमसिंह और शहीद भगतसिंह की भाषा पंजाबी थी ,किन्तु ये सभी महानुभाव अपने सार्वजनिक जीवन में अधिकतर हिंदी का ही प्रयोग किया करते थे !

आजादी  मिलने के बाद जब भाषावार राज्यों का गठन किया गया। तब बहुसंख्यकों की भाषा हिंदी को दक्षिण भारत ,पूर्वी भारत और पस्चिमी भारत से पूरी तरह  हकाल दिया गया ! इसीलिये हिंदी केवल उत्तर-मध्य भारत की क्षेत्रीय भाषा बनकर रह गयी। सत्ता प्राप्ति के लिए डीएमके ,शिवसेना ,अकाली दल और नेशनल कांफ्रेंस जैसे क्षेत्रीय दलों ने भाषायी उन्माद को खूब जगाया। भाषाई संकीर्णता की वजह से ही कामराज ,करूणानिधि ,संजीव रेड्डी, देवेगौड़ा और  ज्योति वसु  जैसे नेता  काम चलाऊ हिंदी भी नहीं सीख पाए । यह भारत की बद्क़िस्मती रही है कि कुछ राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति एवम लोकसभा स्पीकर भी हिंदी नहीं सीख सके । देश में अनेक उदाहरण हैं जहाँ बहुसंख्यक हिंदी भाषियों पर अल्पसंख्यक भाषायी लोग शासन कर रह हैं !उनकी नजर में देश को एक करने वाली  हिंदी तो मानों गुलामों -शासितों की भाषा है। अलगाव की आग को हवा देने वाली क्षेत्रीय भाषाएँ और अंग्रेजी भाषा -साहबों,मालिकों तथा शासकों की भाषा है।

वैसे तो केंद्र की विभिन्न सरकारों ने हिंदी के लिए बहुत कुछ किया है। किन्तु फिर भी हिंदी का कोई खास उत्थान नहीं हुआ। बल्कि हिंदीके नामपर हिंदी अधिकारियों और उनके हितग्राहियों का विकास अवश्य हुआ है। दक्षिण भारत से तो हिंदी पूरी तरह बेदखल कर दी गयी है। यूपीएससी तथा अन्य प्रशासनिक सेवाओं में हिंदी भाषियों का प्रतिशत लगभग नगण्य है। अलबत्ता यूपी -बिहार के  कुछ आरक्षणधारी -हिंदी भाषी लोग जरूर सरकारी तन्त्र में घुसकर हिंदी की खीर -मलाई जीम रहे हैं। कुछ लोग स्वयम्भू साहित्यिक मठाधीश और अकादमिक हस्ती बने बैठे हैं।हिंदी का जितना भी विकास हुआ है ,उसमें व्यापारियों,फिल्मकारों और प्रगतिशील -जनवादी लेखकों की परंपरा का और उससे  भी बहुत पहले कबीर,सूर, तुलसी, रहीम, जैसे मध्ययुगीन भक्तिकालीन कवियों का विशेष अवदान रहा है। इसके अलावा हिंदी के विकास में भारतीय हिंदी सिनेमा का और हिंदी फ़िल्मी गानों का योगदान काबिले तारीफ रहा है।  हिंदी फ़िल्मी गानों की वजह से हर दौर की युवा पीढी 'राष्ट्रवाद',देशभक्ति प्रगतिवाद और  धर्मनिरपेक्षता का पाठ सीखती रही है। जबकि 'तनखैया' हिंदी अधिकारियों,सरकारी अनुवादकों ,अकादमिक हस्तियों और  शैक्षणिक संस्थानों में भरे पड़े धंधेबाजों ने 'हिंदी को चिंदी' बनाने की भरपूर कोशिश की है।     

बचपन में कहीं पढ़ा था की अंग्रेजों और अन्य यूरोपियन ने सिर्फ भारत की धन -सम्पदा को ही नहीं लूटा, बल्कि तत्कालीन गुलाम भारत की सभ्यता और संस्कृतिको भी मटियामेट किया है। गुलाम जनता को ,मजदूरों -किसानों को, गिरमिटिया [अग्रीमेंटिया] मजदूरों को  बुरी तरह सताया गया। उन्हें मारीशश ,सूरीनाम ,वेस्ट इंडीज, फिजी , गुयाना और दुनिया के कोने -कोने में भारत के गुलामों के रूप में ले जाया गया । उनसे पानी के जहाज़ों में चप्पु - चलवाकर, भूंखे -प्यासे रखकर उत्तर भारत से ले जाया गया। कई महीनों बाद यदि वे जीवित बच गए तो जबरन गन्ने के खेतोंमें ले जाकर खपा दिया गया। उन आफतके मारे प्रवासी- भारतीय श्रमिकों को ही गुलामीके इतिहास में गिरमिटिया मजदूर  कहा गया है । इन गुलामों की भाषा आम तौर पर पुरानी भोजपुरी, बृज और अवधि मिश्रित खड़ी बोली हुआ करती थी। इसलिए अक्सर गैर हिंदीभाषी साहित्यकार व्यंग किया करतेहैं  कि 'हिंदी' तो गुलामों, मजदूरों -किसानों और गिरमिटियाओं की भाषा है।

मध्ययुग के भक्तिकालीन कवियों की सधुखखड़ी भाषा को संस्कृत की तत्सम शब्दावली से अधिक लोकभाषा का सम्बल अधिक था।  कबीर,अमीर खुसरो,जायसी ,जगनिक ,नानक ,रैदास ,सूर,तुलसी और मीरा इत्यादि ने जो भी काव्य रचना की या पद्माकर ,रहीम ,रसखान, बिहारी और भूषण इत्यादि कवियों ने जो भी छंद बद्ध ललित रचना सृजन किया -उसीका  परिणाम था कि आगे चलकर परनामी सम्प्रदाय के गुरुओं और स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वेदों का सरलतम हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया । इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर , महात्मा गाँधी बिनोबा भावे ,बीवी द्रविड़ ,सुब्रमण्यम भारती ,बंकिमचंद जैसे गैर हिंदी भाषियों ने  हिंदी को आजादी की लड़ाई का हथियार बनाया। तत्कालीन हिंदी  कवियों - साहित्यकारों ने और उत्तर आधुनिक प्रगतिशील रचनाकारों ने भी हिंदी का बहुमान किया। और उसे इतना ऊँचा स्थान दिया कि वह संस्कृत की दुहिता बनने का गौरव हासिल कर सकी। लेकिन आजादी के ७० साल बाद हिंदी केवल चपरासियों और खलासियों की भाषा रह गयी है। आईएएस आईपीएस , एमबीए, एमसीए और साइंसटिस्ट या डाक्टर बनने के लिए 'अंग्रेजी' बहुत जरुरी है। इस दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है ? भारत में किसी उच्च अधिकारी ,जज या वैज्ञानिक को हिंदी में बोलने पर संदेह की नजर से देखा जाता है। जबकि चीन , रूस ,जापान,फ़्रांस ,ब्राजील ,सऊदी  अरब ,इजरायल में अंग्रेजी बोलने वाले को  संदेह की नजर से देखा जाता है  ।

हिंदी में पढ़ने -लिखने वाले , हिंदी को राष्ट्रीय गौरव और एकता का प्रतीक मानने वाले,हिंदी के प्रखर वक्ता-श्रोता  -ज्ञाननिधि बड़ी गलतफहमी में हैं। क्योंकि वे अपने आपको हिंदी का शुभ -चिंतक समझते हैं। वे सरकारी और गैर सरकारी तौरपर हर साल हिंदी पखवाड़ा या हिंदी दिवस मनाते वक्त बार-बार यही रोना रोते रहते हैं कि हिंदी को देश और दुनिया में उचित सम्मान नहीं मिल रहा है।आम तौर पर उनको यह शिकायत भी हुआ करती है कि हिंदी में सृजित -प्रकाशित साहित्य खरीदकर पढ़ने वालों की तादाद  कम हो रही है। आसमान की ओर देखकर   वे पता नहीं किस से सवाल किया करते हैं कि- हिंदी का पटिया उलाल क्यों है ? सारे विश्व में दूसरे नम्बर पर बोली जाने वाली बहुसंख्यक वर्ग की भाषा - हिंदी को संयुक्त राष्ट्रसंघ की भाषा सूची में अभी तक शामिल नहीं किया गया है ?

विगत शताब्दी के अंतिम दशक में सोवियत क्रांति पराभव उपरान्त दुनिया के एक ध्रवीय[अमेरिकन ] हो जाने से भारत सहित सभी पूर्ववर्ती गुलाम राष्ट्रों को मजबूरी में न केवल अपनी आर्थिक नीतियां बदलनी पड़ीं ,न केवल नव् उदारवादी वैश्वीकरण की -खुलेपन की नीतियां अपनानी पड़ीं बल्कि देश में प्रगतिशील आंदोलन और सामाजिक -सांस्कृतिक- साहित्यिक चिन्तन पर भी नव्य -उदारवाद की छाप पडी। प्रिंट ही नहीं बल्कि अब तो श्रव्य साधन भी  अब कालातीत होने लगे हैं। अब तो केवल स्पर्श और आँखों के इशारों से भी सब कुछ वैश्विक स्तर पर ,मनो-मष्तिष्क तक पहुंचाने वाले -सूचना संचार सिस्टम ईजाद हो चुके हैं। इतने सुगम व तात्कालिक संसाधनों के होते हुए अब किस को फुरसत है कि कोई बृहद ग्रन्थ या पुस्तक पढ़ने का दुस्साहस कर सके ?फिर चाहे वो गीता हो या रामायण हो , कुरआन हो या बाइबिल ही क्यों न हों ? चाहे वो हिंदी,इंग्लिश की हो या संस्कृत की ही क्यों न हो ?चाहे वो सरलतम सर्वसुगम हिंदी में हो या किसी अन्य भाषा में आज किसको फुर्सत है कि अधुनातन संचार साधन छोड़कर किताब पढ़ने बैठे ?

रोजमर्रा की भागम-भाग ,तेज रफ़्तार वाली वर्तमान तनावग्रस्त दूषित जीवन शैली में बहुत कम ही सौभागयशाली हैं ,जो बंकिमचंद की 'आनंदमठ', विमल मित्र की 'साहब बीबी और गुलाम ', रांगेय राघव की 'राई और पर्वत', श्री लाल शुक्ल की 'राग दरबारी' ,मेक्सिम गोर्की की 'माँ ', प्रेमचंद की 'गोदान', आश्त्रोवस्की की 'अग्नि दीक्षा ',रवींद्र नाथ टेगोर की 'गोरा' , महात्मा गांधी की 'मेरे सत्य के प्रति प्रयोग ' डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन की 'भारतीय दर्शन ',  पंडित जवाहरलाल नेहरू की 'भारत एक खोज' तथा डॉ बाबा साहिब आंबेडकर की 'बुद्ध और उनका धम्म' पढ़ सके ! जबकि ये सभी बहुत महत्वपूर्ण और कालातीत पुस्तकें हैं ,जो आज भी भारत की हर लाइब्रेरी में उपलब्ध हैं।  इन सभी महापुरुषों की कालजयी रचनाएँ -खास तौर से हिंदी अनुवाद  भी बहुतायत से उपलब्ध हैं। लेकिन
अधिकांस आधुनिक युवाओं को उपरोक्त पुस्तकों के नाम भी याद नहीं हैं। कदाचित वे विजयदान देथा , सलमान रश्दी ,खुशवंतसिंघ ,राजेन्द्र यादव ,महाश्वेता देवी ,अरुंधति रे या चेतन भगत को अवश्य होंगे लेकिन इसलिए नहीं कि इन लेखकों का साहित्य उन्होंने पढ़ा है ,बल्कि इसलिए जानते होंगे कि ये लेखक कभी - किसी विवाद -विमर्श का हिस्सा रहे होंगे !या गूगल सर्च पर या किसी तरह के केरियर कोचिंग में इनकी आंशिक जानकरी उन्हें मिली होगी। सर्वमान्य सत्य है कि गूगल या अन्य माध्यम से आप अधकचरी सूचनाएँ तो पा सकते हैं, किन्तु 'ज्ञान' तो केवल अच्छी पुस्तकों से ही पाया जा सकता है।

आज के आधुनिक युवाओं को पाठ्यक्रम से बाहर की पुस्तकें पढ़ पाना इस दौर में किसी तेरहवें अजूबे से कम नहीं है। उन्हें लगता है कि साहित्य ,विचारधाराएं ,दर्शन या कविता -कहानी का दौर अब नहीं रहा। उनके लिए तो समूचा प्रिंट माध्यम ही अब गुजरे जमाने की चीज हो गया है। यह कटु सत्य है कि चंद रिटायर्ड -टायर्ड, पेंसनशुदा - फुरसतियों के दम पर ही अब सारा छपित साहित्य टिका हुआ है। ऐंसा प्रतीत होता है कि अब हिंदी का पाठक भी इन्ही में कहीं समाया हुआ है। भाषा -साहित्य के इस युगीन धत्ताविधान में मूल्यों का भी क्षेपक है। जो कमोवेश राजनैतिक इच्छाशक्ति से भी इरादतन स्थापित है। इस संदर्भ में यह वैश्विक स्थिति है। भारत में और खास तौर से हिंदी जगत में यह बेहद चिंतनीय अवश्था है। दुनिया में शायद ही कोई मुल्क होगा जो अपनी राष्ट्रभाषा को उचित सम्मान दिलाने या उसे राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने के लिए इतना आकुल-व्याकुल होगा ! इतना मजबूर या अभिशप्त होगा जितना कि हिंदी के लिए भारत की हिंदीभाषी जनता असहाय है ! और दुनिया में शायद ही कोई और राष्ट्र होगा जो अपनी राष्ट्रभाषा के उत्थान के लिए इतना पैसा पानी की तरह बहाता होगा ,जितना की भारत।

भारत में लाखों राजभाषा अधिकारी हैं ,जो राज्य सरकारों के ,केंद्र सरकार के सभी विभागों में और सार्वजनिक उपक्रमों में अंगद के पाँव की तरह जमे हुए हैं। इनसे राजभाषा को या देश को एक धेले का सहयोग नहीं है। ये केवल दफ्तर में बैठे -बैठे ताजिंदगी भारी -भरकम वेतन-भत्ते पाते हैं ,कभी-कभार एक -आध अंग्रेजी सर्कुलर का घटिया हिंदी अनुवाद करते हैं। साल भर में एक बार सितंबर माह में 'हिंदी पखवाड़ा'या 'हिंदी सप्ताह' मनाते हैं। अपने बॉस को पुष्प गुच्छ भेंट करते हैं ,कुछ ऊपरी खर्चा -पानी भी हासिल कर लेते हैं। रिटायरमेंट के बाद पेंसन इनका जन्म सिद्ध अधिकार है ही।

स्कूल ,कालेज ,विश्विद्द्यालयों के हिंदी शिक्षक -प्रोफेसर और कुछ नामजद एनजीओ भी राष्ट्र भाषा -प्रचार -प्रसार के बहाने केवल अपनी आजीविका के लिए ही समर्पित हैं । हिंदी को देश में उचित सम्मान दिलाने या उसे संयुक राष्ट्र में सूचीबद्ध कराने के किसी आंदोलन में उनकी कोई सार्थक भूमिका नहीं है। अपनी खुद की पुस्तकों के प्रकाशन में ही इनकी ज्यादा रूचि हुआ करती है । सोशल मीडिया -डिजिटल -साइबर -संचार क्रांति -फेस बुक और गूगल सर्च इंजन ने न केवल दुनिया छोटी बना दी है बल्कि सूचना -संचार क्रांति ने प्रिंट संसाधनों को -साहित्यिक विमर्श को भी हासिये पर धकेल दिया है। और छपी हुई बेहतरीन पुस्तकों को भी गुजरे जमाने का ' सामंती'शगल बना डाला है.अब यदि एसएमएस है तो टेलीग्राम भेजने की जिद तो केवल पुरातन यादगारों का व्यामोह मात्र ही हुआ न ! वरना दुनिया में जो भी है ,जिसका भी है,जहाँ भी है , सब कुछ अब सभी को सहज ही उपलब्ध है.हाँ शर्त केवल यह है कि एक अदद इंटरनेट कनेक्शन और लेपटाप,एंड्रायड -वॉट्सऐप या ३-जी मोबाइल अवश्य होना चाहिए !

इधर किताब छपने ,उसके लिखने के लिए महीनों की मशक्कत ,सर खपाने और प्रकाशन की मशक्क़त ! यदि साहित्य्कार -लेखक नया- नया हुआ तो प्रकाशक नहीं मिलने की सूरत में अपनी जेब ढीली करने के बाद ही पुस्तक को आकार दे पायेगा। यदि उसे खरीददार नहीं मिल रहे हैं तो मुफ्त में या गिफ्ट में देने की मशक्क़त ! इस दयनीय दुर्दशा के लिए न तो लेखक जिम्मेदार है,न प्रकाशकों का दोष है ,न तो पाठकों या क्रेताओं का अक्षम्य अपराध है , यह न तो हिंदी भाषा का संकट हैऔर न ही साहित्यिक संकट है ! बल्कि ये तो आधुनिक युग की नए ज़माने की ऐतिहासिक आवश्यकता और कारुणिक सच्चाई है। चूँकि समस्त वैज्ञानिक आविष्कारों और सूचना एवं संचार क्रांति का उद्भव गैर हिंदी भाषी देशों में हुआ है तथा हिंदी में अभी इन उपदानों के संसधानों का सही -निर्णायक मॉडल उपलब्ध नहीं है इसलिए किताबें अभी भी प्रासंगिक है बनी हुई हैं।

हिंदी का प्रचार -प्रसार ,हिंदी साहित्य में विचारधारात्मक लेखन ,हिंदी साहित्य सम्मेलनों की धूम-धाम ,पत्र - पत्रिकाओं के प्रकाशनों का दौर अब थमने लगा है। हिंदी इस देश के आम आदमी की भाषा है। हिंदी 'स्लैम डॉग मिलयेनर्स ' जैसी फिल्मों के मार्फ़त पैसा कमाने की भाषा है.हिंदी गरीबों -मजदूरों और शोषित-पीड़ित जनों की भाषा है। चूँकि हिंदी में अब इन वंचित वर्गों और सर्वहाराओं की उनकी मांग के अनुकूल नहीं लिखा जा रहा है , बल्कि बाजार की ताकतों के अनुकूल,मलाईदार क्रीमी लेयर के अनुकूल महज तकनीकी,उबाऊ और कामकाजी साहित्य का तैसे सृजन- प्रकाशन हो रहा है । इसीलिये हिंदी जगत में वांछित पाठकों की संख्या न केवल तेजी से गिरी है अपितु शौकिया किस्म के फ़ालतू लोगों तक ही सीमित रह गई है।

आजादी के बाद संस्कृतनिष्ठ हिंदी की ततसम शब्दावली के चलन पर जोर देने ,अन्य भारतीय भाषाओँ के आवश्यक और वांछित शब्दों से परहेज करने , अनुवाद की काम चलाऊ मशीनी आदत से चिपके रहने , अधुनातन सूचना एवं संचार क्रांति के साधनों के प्रयोग में अंग्रेजी भाषा का सर्व सुलभ होने,हिंदी भाषा के फॉन्ट ,अप्लिकेशन तथा वर्णों का तकनीकी अनुप्रयोग सहज ही उपलब्ध न होने या कठिन होने से न केवल पाठकों की संख्या घटी बल्कि हिंदी में लिखने वालों का सम्मान और स्तर भी घटा है । न केवल तकनीकी कठनाइयों हिंदी में मुँह बाए खड़ी हैं बल्कि आधुनिक युवाओं को आजीविका के संसाधन और अवसर भी हिंदी में उतने सहज नहीं जितने आंग्ल भाषा में उपलब्ध हैं। इसीलिये भी देश में ही नहीं विश्व में भी हिंदी के पाठक कम होते जा रहे हैं।

  देश में हिंदी को सरल बोधगम्य आजीविका- परक और जन-भाषा बनाने की राजनैतिक इच्छा शक्ति के अभाव में और हिंदी की वैश्विक मार्केटिंग नहीं हो पाने से राष्ट्रीय - अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मेगा -साय-साय या बुकर पुरस्कार भी उन्हें ही मिला करते हैं जो हिंदी को हेय दृष्टि से देखते रहे हैं। अंततोगत्वा फिर भी हिंदी ही देश की राजरानी रहेगी । चाहे वालीवुड हो ,चाहे खुदरा व्यापार हो ,चाहे बाबाओं-स्वामियों का भक्ति और साधना का केंद्र हो ,चाहे रामदेव हों ,नरेंद्र मोदी हों ,राहुल गांधी हों ,केजरीवाल हों ,चाहे अण्णा हजारे हों चाहे मुख्य धारा का मीडिया हो ,सभी ने हिंदी के माध्यम से ही भारी सफलताएं अर्जित कीं हैं। सभी के प्राण पखेरू हिंदी में ही वसते हैं। इसलिए यह कोई खास विषय नहीं की हिंदी साहित्य के पाठकों की संख्या घट रही है या बढ़ रही है।

अन्य भाषाओँ के बारे में तो कुछ नहीं कह सकता किन्तु हिंदी भाषा और उसके समग्र साहित्य़ संसार के बारे में यकीन से कह सकता हूँ कि उत्तर-आधुनिक सृजन के उपरान्त -अब यहाँ पब्लिक इंटेलेक्चुअल्स नाम का जंतु वैसे भी इफ़रात में नहीं पाया जाता। हिंदी जगत में कहानी,कविता ,भक्ति काव्य ,रीतिकाव्य , सौन्दर्यकाव्य  ,रस सिंगार ,अश्लीलता के नए - अवतार फ़िल्मी साहित्य और कला का  बोलबाला है , कहीं -कहीं जनवादी राष्ट्रवादी -प्रगतिशील और जनोन्मुखी साहित्यिक सृजन की अनुगूंज भी सुनाई देती है किन्तु समष्टिगत रूप में तात्कालिक दौर की समस्याओं और जीवन मूल्यों के वौद्धिक विमर्श पर हिंदी बेल्ट में सुई पटक सन्नाटा ही है. इस साहित्यिक सूखे में जिज्ञासु या ज्ञान-पिपासु पाठकों की कमी होना स्वाभाविक है।मांग और पूर्ती का सिद्धांत केवल अर्थशाश्त्र का विषय नहीं है। साहित्य के क्षेत्र में भी यह सिद्धांत सर्वकालिक ,सार्वभौमिक और समीचीन है।

लेखकों और जनता के बीच संवादहीनता का दौर है ,अभिव्यक्ति के खतरे उठाकर देश और समाज की वास्तविक आकांक्षाओं के अनुरूप क्रांतिकारी साहित्य अर्थात व्यवस्था परिवर्तन के निमित्त रेडिकल - सृजन शायद आवाम की या सुधी पाठकों की माँग भले ही न हो किन्तु देश और कौम के लिए यह साहित्यिक कड़वी दवा नितांत आवश्यक है. हिंदी के पाठकों की संख्या बढे इस बाबत पठनीय साहित्य की थोड़ी सी जिम्मेदारी यदि साहित्य्कारों की है तो कुछ थोड़ी सी हिंदी के जानकारों की याने -सुधी पाठकों की भी है।  -:श्रीराम तिवारी :-



सोमवार, 5 सितंबर 2016

केजरीवाल जी 'आप' तो दिल्ली के गले की फांसी है !


 सरसरी तौर पर सामान्य बुद्धि का राजनैतिक प्राणी भी इतनी समझ रखता है  कि पूँजीवाद का विकल्प पूँजीवाद नहीं होता । राजनीति का 'ककहरा' जानने वाले भी यह बखूबी जानते हैं कि बिना किसी वैज्ञानिक विचारधारा के या वर्ग चेतना के देश में कोई  समग्र क्रांति सम्भव नहीं। और बिना किसी क्रान्ति के कोई 'व्यवस्था परिवर्तन' भी सम्भव नहीं। लेकिन कुछ लोग अपनी उम्र ढल जानेके बाद भी यह सब नहीं जान पाते जो शहीद भगतसिंह मात्र २३ साल की उम्र में जान गए थे। भगतसिंह और उनके साथियों के द्वारा जेलों में लिखे गए छुटपुट आलेखों और उनकी कुछ प्रामाणिक पुस्तकों के अध्यन से देश के अनेक प्रगतिशील -क्रांतिकारी विचार वाले लोगों ने जाना कि 'क्रांति' का वास्तविक अर्थ क्या है? राजनीति की सही समझ रखने वाला हरेक व्यक्ति यह जानता है कि फाँसी पर चढ़ने से पहले भगतसिंह कितना कुछ जान चुके थे? यदि उसका एक चौथाई भी इस दौर की युवा पीढी जानती होती , तो जातीयतावादी, साम्प्रदायिकतावादी और मौकापरस्त -तिकड़मबाज लोग सत्ता में नहीं होते।यदि देश के युवाओं में राजनैतिक चेतना का थोड़ा सा भी अक्स होता तो  केंद्र में यूपीए की जगह एनडीए और दिल्ली में शीला दीक्षित की जगह अरविन्द केजरीवाल कदापि नहीं होते !देश की बदहाली के लिए  जिम्मेदार तत्व अपना नाम रूप आकार बदलकर ,बार-बार सत्ता हथिया लेते हैं ,और जनता से कहा जाता है कि राजनीति बड़ी कुत्ती चीज है इसलिए उससे दूर रहो ! सिर्फ कांग्रेस,भाजपा और'आप' जैसे स्वार्थी दल ही नहीं बल्कि उन्हें चुनने वाली आवाम भी इस दुरावस्था के लिए जिम्मेदार है। 

कुछ नगण्य अपवादों को छोड़कर आजादी के बाद से ही अधिकांस चरित्रहीन और बदमास लोग ही राजनीति पर काबिज रहे हैं। देश के दुर्भाग्य से ऐंसे लोग सत्ता पाते रहे हैं जो 'क्रांति'के बारे में, स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों के बारे में , और शहीद भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों की सोच के बारे में कुछ खास नहीं जानते। यदि जानते होते तो वे आज 'नामक से नमक नहीं खाते'। प्रगत -एंड्रॉइड सेल फोन और अत्याधुनिक इंटरनेट सहज संचार सुविधा सुलभ  होनेके वावजूद  भी भारतकी युवा पीढी का शैक्षणिक स्तर इसकदर डाउन है कि बीसवीं शताब्दी के इस सोलहवें साल में भी सरकारी स्कूल के मास्टर साहब भी यह नहीं जानते कि इण्डिया 'और भारत में क्या फर्क है ? 'अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता ' का अभिप्राय क्या है ? यदि देश की राजधानी दिल्ली के मध्यमवर्गीय युवावर्ग- बुर्जुवा समाज की सोच 'खाप स्तर' की है। इस हालात में बाकी देश का तो 'ईश्वर ही मालिक'है। सामन्ती दौर में कहावत थी कि ''यथा राजा तथा प्रजा ''! लेकिन पूंजीवादी लोकतंत्र में  यह सिद्धांत लागू नहीं होता। बल्कि अब तो ज़माना पब्लिक का है ,इसलिए '' यथा जनता तथा नेता'' वाला  सिद्धांत लागू हो रहा है। इस नए सिद्धांतानुसार, जनता की सोच और रूचि के अनुसार ही राजनीतिक नेता और  दल सत्ता में होंगे। पूँजीवादी लोकतंत्र की  यही रीति है !

आजादी के फौरन बादसे ही भारतमें क्रांतिकारी विचारों से महरूम  जनता द्वारा कभी कांग्रेस को, कभी जनसंघ या भाजपा को , कभी नकली समाजवादियों को ,कभी जाति -मजहब और आरक्षण की दुहाई देने वालों को और कभी सरमायेदारों-भूस्वामियों के गठजोड़ को तरजीह दी जाती रही है। केरल जैसे सर्व शिक्षित राज्य में भी जनता कभी कांग्रेस को और कभी 'लेफ्ट' को चुनती रही है, तो इसकी वजह वर्ग चेतना नहीं बल्कि चुनाव जीतने वालों की चुनावी स्ट्रेटजी है। और सत्ताधारी दल की बदनामी ही उसकी पराजय का कारण हुआ करती है। इसी तरह दिल्ली राज्य की जनता भी  भारतीय जनता की सोच का ही प्रतिनिधित्व कर रही है। देश  की आवाम का बहुमत यदि लोकतंत्र को न समझते हुए ,भेड़ चाल से चलता रहा है ,तो इसमें कोई अनहोनी भी नहीं है। बल्कि यह तो पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी का मूल तत्व है। दिल्ली  की जनता कभी कांग्रेस और कभी भाजपा को ही चुनती आ रही है। जब अन्ना हजारे ने  भृष्टाचार के खिलाफ अहिंसक संघर्ष छेड़ा तो उसी जनता ने नया प्रयोग किया और अण्णा के चेले केजरीवाल  को ईमानदार समझकर उनकी 'आप' पार्टी को सत्ता का मौका दिया। लेकिन अब 'आप' की 'आपबीती से दिल्ली की जनता संकट में है। इस संकट के लिए 'आप' से ज्यादा केंद्र की मोदी सरकार जिम्मेदार है। इसलिए 'आप' और उसके विरोधी लोग दिल्ली में  जो कुछ भी कर रहे हैं ,वो 'स्वराज 'नहीं अराजकता है !

 दिल्ली असेम्बली के चुनाव में 'आप' को जिताकर, जनता ने सोचा होगा कि उसने महान  'फ़्रांसिसी क्रान्ति' की तरह ,महान अक्टूबर क्रांति की तरह ,दिल्ली में भी कोई महान 'क्रांति' कर डाली है। लेकिन दिल्ली की जनता ने गलत सोचा था। यह उसका गलत निर्णय लिया था,उसने कोई बड़ा तीर नहीं मारा !अण्णा आंदोलन के समय से ही  'आप' नामक पूत के पाँव पालने में दिख रहे थे। चुनाव जीते हुए पूरे दो साल भी नहीं हुए और दिल्ली अब की जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। दिल्ली की जनता ने जिस 'आमआदमी पार्टी' को अपने गले का कंठहार बनाया, उसने मात्र दो साल के अंदर  सावित कर दिया कि आप'  दिल्ली के गले की फांसी है। उसने बदनामी के दर्जनों कीर्तिमान बना डाले हैं। वेशक 'आप'की कोई विचारधारा नहीं है.लेकिन सिर्फ विचारधारा का प्रश्न होता तब भी गनीमत होती। किन्तु यहाँ प्रश्न अनैतिक आचरण  और अराजकता के सिलसिले का  है। जिसकी बुनियाद पर अण्णा ने आंदोलन चलाया और अरविन्द केजरीवाल ने 'आप' पार्टी का निर्माण किया ,सत्ता भी प्राप्त की।किन्तु 'आप' की कुख्याति से जाहिर है कि दिल्ली की जनता धोखा खा गयी । दिल्ली का राजनैतिक हश्र देखकर लगता है कि जनता की सोच निहायत ही अपरिपक्व है। 'आप' के आचरण से जाहिर  है कि दिल्ली की जनता ने कांग्रेस-भाजपा के नरम -गरम पूँजीवाद की जगह  दिशाहीन 'अराजकतावाद' को पसन्द किया था।

जनता की अपरिपक्व सोच बनाये रखने के  लिए पूंजीवादी -साम्प्रदायिक राजनीती ने अनवरत षड्यन्त्र रचे हैं। आजादी के बाद से ही देशी-विदेशी दक्षिणपन्थियों ने भारत में  भगतसिंह की सोच को हासिये पर धकेलने का पुर जोर प्रयास किया है। कांग्रेसकी दिशाहीन तदर्थवादी आर्थिक नीतियों से मुक्ति के लिए,उसके कुशासन को खत्म करने के लिए और सार्वजनिक जीवन में भृष्टाचार समाप्त करने के लिए लगातार जनांदोलन खड़े किये गए।किन्तु जब-जब किस विराट जन आंदोलन ने जोर पकड़ा ,तब -तब  पिछड़ावाद,दलितवाद , नारीवाद,अल्पसंख्यकवाद और साम्प्रदायिकतावाद  का भूत खड़ा कर दिया गया । लोहिया ,जेपी ,अन्ना हजारे टाइप के जन आंदोलनों को जानबूझकर यथास्थितिवादी और व्यवस्था का पोषक बनाया जाता रहा है। ताकि सत्ता से यदि नरम पूंजीवादी बाहर हों तो उनकी जगह गर्म पूंजीवादी ले सकें। और व्यवस्था में कोई वास्तविक बदलाव या क्रांति न हो सके !

 पता नहीं क्यों मेरी अधिकांस  राजनैतिक भविष्यवाणियाँ तीर में तुक्का की तरह सही सावित होती रहती हैं। जो भविष्यवाणियाँ  कभी -कभार गलत सावित हुईं  उनके उदाहरण बहुत कम ही हैं। मैंने  तीन साल पहले डॉ मनमोहनसिंह की यूपीए सरकार का शर्मनाक पराभव घोषित किया था ,और अण्णा के लोकपाल आंदोलन का दुखान्त हश्रभी अनुमानित किया था। सबकुछ वैसा ही हुआ। शायद इसे ही वैज्ञानिक दॄष्टि कहा गया है। दो साल पूर्व मैंने अण्णा के चेले-चपाटों -जनरल बी के सिंह, किरण वेदी ,केजरीवाल ,योंगेंद्र यादव ,प्रशांत भूषण तथा अण्णा के कुछ खास समर्थकों की कुंडली बनाकर ,उनकी निजी अभिलाषाएं और अनुमानित उत्थान-पतन को अपने आलेखों में व्यक्त किया था ,जो मेरे ब्लॉग पर अभी भी मौजूद हैं। एक आलेख में तो मैंने केजरीवाल और 'आम आदमी पार्टी ' के उथले -खोखले आदर्शवाद पर जो कुछ भी लिखा था ,वह सब अक्षरशः सही सिद्ध हो रहा है। हालाँकि इस नकारात्मक राजनीतिक पतन से भी है। क्योंकि भृष्टाचार का मुद्दा अब और अजर-अमर नजर आने लगा है। कांग्रेस -भाजपा से 'आप' की तुलना करने पर साफ़ दीखता है कि  वैचारिक धरातल पर अण्णा हजारे और उनके चेले -चपाटे भी कूड़ मगज ही हैं। अन्ना से विद्रोह करने वाले अरविन्द केजरीवाल ,उनकी आम आदमी पार्टी तथा उसके सभी साथी कांग्रेस और भाजपा के नेताओं से भी गए बीते हैं। इन अय्यास 'आप' नेताओं से  उत्कृष्ट विचारधारा या आदर्श नैतिकता की उम्मीद करना  व्यर्थ है।  

यूपीए के दौरमें भारतीय राजनीति का अबाधित भृष्टाचार ,उसके बरक्स अण्णा हजारे ,उनके सहचर -प्रशान्त भूषण ,अरविन्द  केजरीवाल ,मनीष सीसोदिया,आसुतोष इत्यादि का खूँटा पकड़ना।गोधरा कांड के बाद संघ के लोगों का एक तरफ 'हर-हर मोदी' का नारा लगाना, लगे हाथ दूसरी तरफ अण्णा हजारे के मंच पर जबरन कब्जा करना और कांग्रेस के खिलाफ तथा भाजपा के पक्ष में चुनावी माहौल बनाना। दिग्गी राजा और अजय माकन जैसे कांग्रेसी नेताओं का अण्णा हजारे को राजनीती में आकर,अपने आप को सावित करने की  चुनौती देना। अरविन्द केजरीवाल ,योगेंद्र यादव ,प्रशांत भूषण ,मनीष सीसोदिया और संजयसिंह इत्यादि द्वारा उस चुनौती को स्वीकार करना। इन लोगों द्वारा सक्रिय राजनीती में आकर न केवल दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार को गिराना, बल्कि भाजपा और मोदी जी के शौर्य को भी धूल -धूसरित करना। पहली बार स्पष्ट बहुमत के अभाव  में ४९ दिनों बाद इस्तीफा देकर फिर से चुनाव  कराना। प्रचण्ड बहुमत पाकर पुनः सत्ता में आना। सत्ता  पाकर एलजी नजीब जंग से पंगा लेना और अपनी असफलता छिपाने के लिए मोदीजी को निरन्तर कोसते रहना,यही 'आप'की आद्द्योपांत कहानी है। किन्तु यह अधूरा सच है ,सिर्फ एकांगी आख्यान  है. अन्ना हजारे,केजरीवाल और आप पार्टी की अंतर व्यथा-कथा यहीं समाप्त नहीं होती ।

दिल्ली में जिन परिस्थितियों में 'आम आदमी पार्टी'का गठन किया गया ,जिस तरह योगेंद्र यादव ,प्रशांत भूषण के विद्रोह के वावजूद केजरीवाल का 'आप' पर वर्चस्व  कायम रहा  ,जिस तरह चन्दा लेने की पारदर्शिता पर जोर दिया गया ,जिस तरह दिल्ली प्रशासन की कार्य योजनाओं पर मोहल्ला सभाओं का आयोजन किया गया ,जिस तरह ये ऐलान किया गया कि यदि कोई रिश्वत मांगता है  तो उसकी रिकार्डिंग कर सरकार को भेजें,जिस तरह एलजी की अड़ंगेबाजी और दिल्ली पुलिस के असहयोग के बावजूद 'आप' सरकार ने संघर्ष और साहस का दामन नहीं छोड़ा और खुद मुख्यमंत्री केजरीवाल धरने  भी धरने पर बैठे ,यह सब 'आप' की सकारात्मक उपलब्धियों में शुमार किया जा सकता है। केजरीवाल सरकार को केंद्र से सहयोग नहीं मिल रहा है ,उदाहरण के लिए 'आप' की सरकार ने दिल्ली राज्य के मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने का प्रस्ताव एलजी को भेजा था ,किन्तु एलजी नजीब जंग ने उसे बिना पास किये ही वापिस कर दिया। जबकि केंद्र की मोदी सरकार अपने केंद्रीय कर्मचारियों , अफसरों -मंत्रियों पर धन की वर्षा कर रही है। जिस तरह केंद्र में हर असफलता के लिए प्रधानमंत्री को कोसना ठीक नहीं ,उसी तरह दिल्ली सरकार की असफलता के लिए  सिर्फ 'आप' या केजरीवाल को जिम्मेदार ठहराना लोगोंके गले नहीं उतरेगा। लेकिन 'आप' के नेता ,विधायक,मंत्री जो कदाचरण कर रहे हैं वह कदापि सहन नहीं किया जा सकता !

पिछले डेढ़ साल से 'आप' की दिल्ली सरकारके कई विधायक आरोपों के घेरे में हैं। कुछ तो बहुत गंभीर आरोपों में फंसे हैं। अरविन्द केजरीवाल को इस अवधि में  अपने तीन मंत्री मंडलीय साथियों को बाहर का रास्ता दिखाना पड़ा। सर्वश्री -जितेंद्रसिंह तोमर अपनी डिग्री के विवाद में नप गए. असीम अहमद खान भृष्टाचार के आरोप में धरा गए। महिला बाल विकास मंत्री -संदीप कुमार तो एक मामूली राशन कार्ड के लिए ही एक 'अबला' का देह शोषण  करते हुए 'वीर गति' को प्राप्त हो गए। इधर 'आप' नेताओं के ये हाल हैं ,उधर दिल्ली की प्रशासनिक शैली में ,अस्पतालों,विद्यालयों,दफ्तरों में व्याप्त भृष्टाचार अपने चरम पर पूर्ववत है। जबसे सुप्रीम कोर्टने दिल्ली  पुलिस को एल जी के प्रति जबाबदेह बताया है,जबसे कोर्ट ने 'आप' सरकार को केंद्रीय कर्मचारियों की 'जांच पड़ताल' से वंचित किया है ,जबसे सुप्रीम कोर्ट ने 'आप' की तमाम अपीलों  को ठुकराया है ,तब से  अरविन्द केजरीवाल बिना पंख के ही फडफडा रहे हैं।वे किसी भी बड़ी योजना पर तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक केंद्र सरकार का सहयोग न हो !जब तक न्याय पालिका का सहयोग न हो और जब तक दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त न हो !

वेशक केजरीवाल पर व्यक्तिगत कोई आरोप नहीं है ,वे अम्बानी,अडानी जैसे पूंजीपतियों के चमचे भी नहीं हैं किन्तु वे शीला दीक्षित से ज्यादा आउट पुट नहीं दे पाएंगे। क्योंकि अव्वल तोदिल्ली की जो संवैधानिक स्थिति है वो शीला जी के ज़माने में भी थी। लेकिन तब केंद्र में कांग्रेसनीत यूपीए की मनमोहनसिंह सरकार थी। अब केंद्र में मोदी सरकार है ,जो  'आप' को सहयोग नहीं कर रही है। लेकिन बक्त का तकाजा था कि 'आप' के नेता और मंत्री कम से कम नैतिक मापदण्ड पर तो खरे उतरते। इसके विपरीत केजरीवाल के संगी साथी  धीरे -धीरे उसी  भृष्टाचारी माँद में धसते जा रहे हैं,जिसके खिलाफ कभी अण्णा हजारे और केजरीवाल ने दिल्ली में खूब नाटक -नौटंकी की थी। वेशक अरविन्द केजरीवाल के पास कोई राजनैतिक सोच नहीं है ,वे कभी ममता के साथ दीखते हैं ,कभी  नीतीश की ओर देखते हैं ,कभी  पंजाब की और दौड़ लगाते हैं,कभी सिद्धू की ओर देखते हैं। और जब सिद्धू कोई शर्त के साथ आना चाहते हैं तो केजरीवाल पलटी मार जाते हैं। आरोपों -प्रत्यारोपों से आगे बढ़कर 'आप' ने संगठन स्तर पर भी कुछ  खास नहीं किया है। उनकी राजनैतिक गिनती  केजरीवाल से शुरूं होती है और उन्ही पर समाप्त हो जाती है। यह लोकतंत्र है या 'व्यक्तिवाद' इसका फैसला आनेवाला इतिहास करेगा।

आजाद भारत के राजनैतिक-सामाजिक विद्वेष की  कितनी विचित्र विडम्बना है कि जातीय आरक्षण का वितंडा खड़ा करके :अधिकांस कुख्यात -बदमाश और भृष्ट लोग चुनाव जीतकर सत्ता सुख पा  रहे हैं। किन्तु अब तो हद हो गयी ,कि कुछ असामाजिक तत्व तो अब बलात्कार,देशद्रोह और कमीनेपन में भी आरक्षण मांग रहे हैं।'आप' पार्टी की दिल्ली सरकार का बलातकारी- बर्खास्तशुदा मंत्री संदीप कुमार तो अपने बचाव में दलील दे रहा है कि उसे इसलिए फसाया गया कि वह दलित वर्ग से आता है। दिल्ली की 'आप' सरकार का  एक केविनेट मंत्री अपने कथित निकृष्ट कुकर्म के लिए जो सिद्धांत पेश कर रहा है। 'आप' नेता आशुतोष उसके बचाव में यों खड़े हो गए   मानों इस कुमार्गी मंत्री ने किसी बलिदान का कीर्तिमान बनाया हो !जातीय और सामाजिक आधार पर आरक्षण का सिद्धांत पेश करने वाले  नेताओं ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनके द्वारा प्रतिपादित जातीय आरक्षण की व्यवस्था का इस कदर दुरूपयोग होगा। पहले भी अंग्रेजोंके बहकावे में आकर भारतीय समाजके अंदर यह जातीय आरक्षण का मीठा जहर घोला गया । तब शायद उन्होंने इस बाबत सोचा भी  नहीं  होगा कि आजादी के सत्तर साल बाद ऐंसा भी वक्त आएगा जब उनका कोई भक्त 'बलातकार'के लिए भी आरक्षण मांगेगा ,तर्क देगा कि 'चूँकि वह दलित अर्थात आरक्षित समाज से है ,इसलिए उसे बलात्कार के आरोप मुक्त किया जाए।' यदि शुरूं से ही आर्थिक आधार पर आरक्षण व्यवस्था लागू हो जाती,तो शायद देश के तमाम गरीब अब तक दो वक्त की रोटी के लिए मुँहताज नहीं होते। और अनैतिक आचरण की नोबत इस हद तक नहीं आती कि एक बलात्कारी नेता अपने गुनाह को छिपाने के लिए अपनी जातीय 'निम्नता' की दलील नहीं दे रहा है !

 'आप' का निष्काषित नेता और पूर्व मंत्री  संदीप कुमार तो उस हांडी का एक चावल मात्र है,जो स्वार्थगत छल-छद्म और सामाजिक विद्वेष सेउफान पर है। इससे बदतर कमीनापन दुनिया में  सम्भवतः  किसी अन्य देश में या किसी अन्य राजनैतिक व्यवस्था में शायद ही दृष्ट्व्य होगा ! भारतका बुर्जुवा समाज और भृष्ट राजनैतिक जमात सत्ता पाने के लिए दूसरों की कमीज के सापेक्ष अपनी कमीज को सफेद बताने में माहिर है। एक दूजे को बदनाम करने के उन्माद में ये अपने ही देश को दुनिया भर के सामने हास्यापद बनाने में जुटे रहते हैं। मानव समाज में जो लोग नैतिक या संविधानिक रूप से 'बेदाग' होने का दम भरते हैं ,उनमें से कुछ तो इसलिए 'सती 'अथवा 'सता' हैं कि उन्हें कमीनेपन का अवसर ही नहीं मिला। और कुछ  यदि बाकई 'धर्मध्वज' या 'नीतिवान' हैं तो वो इसलिए कि उन्हें शहादत या 'आदर्शवाद'की गंभीर बीमारी है। वैसे यह सिद्धांत सार्वभौमिक और शाश्वत है ,किन्तु 'आप' वाले इससे ज्यादा पीड़ित हो रहे हैं।

 'आप'नेता संदीपकुमार की सीडी वायरल होने के बाद  कुछ लोगों ने इस व्यभिचारी के कदाचार की निंदा करने या 'आप' को नसीहत देने के बजाय ,भाजपा के नेताओं-मंत्रियों की भी सीडी पोस्ट कर डाली । कुछ लोगों ने तो इतिहास में और पीछे जाकर कांग्रेस के  कुछ कामुक नेताओं की सीडी दुबारा पोस्ट कर डाली । कुछ फुरसतिये तो और भी पीछे चले गए , जब सीडी का जमाना नहीं था, उससे पहले की 'कनबतियाई' खोज खबर भी ले आये। कहने का लब्बोलुआब यह है कि जो लोग एक दूसरे के हम्माम में झांकने के आदि हैं,वे नेता ,लेखक-साहित्यकार -उत्कृष्ट समाज का निर्माण नहीं कर रहे हैं। वे कमर के नीचे वाले विमर्श में उलझकर किस शुचिता की राजनीती को हवा दे रहे हैं?वे तो अब आवाम के समक्ष लोकतंत्र ,धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे मूल्यों की चर्चा भी नहीं कर रहे हैं।  जो लोग सार्वजनिक जीवन में लिप्सापूर्ण सोच रखते हैं ,वे  देश का विकास नहीं कर सकते। वे देश की रक्षा  भी नहीं कर सकते। बल्कि वे देश को बदनाम करने के लिए ही जिम्मेदार होंगे। 'आप' के नेताओं को अपनी कथनी और करनी पर शर्मिंदा होना चाहिए। उन्हें अपनी ईमानदार -आदर्शवाद की आभासी छवि का पाखण्ड नहीं करना चा

विगत दो-तीन साल पहले जब अण्णा हजारे और उनके सहयोगियों ने लोकपाल के निमित्त और भृष्टाचार के खिलाफ संघर्ष चलाया था ,तब  दिल्ली की जनता ने उन्हें हाथो-हाथ लिया था। देश के कुछ मासूम लोग 'उम्मीद' से होने लगे थे। हालाँकि अण्णा आंदोलन के विफल होने की भविष्यवाणी माबदौलत ने भी की थी। लेकिन आवाम का प्रचण्ड समर्थन देखकर देश के परपरागत राजनीतज्ञ हक्के-बक्के थे। यूपीए की तत्तकालीन मनमोहनसिंह सरकार की नाक में दम करने के लिए 'संघ' और भाजपा ने अपने कैडर्स को अण्णा के पीछे लगा दिया था। लेकिन अण्णा को बीच राह में छोड़ कर जब केजरीवाल ,किरणवेदी ,मनीस सिसोदिया और अन्य तमाम लोग सत्ता की ओर लपक लिए तो अण्णाजी भी फ़ना हो गए। केजरीवाल ने घाघ कांग्रेसियों  द्वारा उकसाये जाने और राजनीती में आकर कुछ कर दिखाने के चेलेंज को स्वीकार कर 'आप' का गठन कियाथा । लेकिन दो-दो बार जीतने के बाद भी न तो दिल्ली की जनता खुश है और न ही 'आप'के नेता वैसे निकले जैसे कि 'अण्णा आंदोलन'ने दावा किया था ! लेकिन अभी भी वक्त है आप के नेता केवल आलोचना -प्रत्यालोचना में न विंधे रहें बल्कि कुछ तो ऐंसा अनुकरणीय उदाहरण पेश करें ,जो कांग्रेस और भाजपा से  रंचमात्र बेहतर हो ! श्रीराम तिवारी !