आज तथाकथित 'मूर्ख दिवस' है ! इस अंतर्राष्ट्रीय [अ]पावन [?] पर्व पर कुछ लोग एक दूसरे मंदमति जड़मति[मूर्ख] बनाकर आल्हादित होंगे !जिस तरह पूँजीवादी -लोकतंत्रात्मक राष्ट्रों में आर्थिक सामाजिक , आध्यात्मिक और राजनैतिक क्षेत्र में एक दूसरे को ठगने - पछाड़ने मूर्ख बनाने की गलाकाट प्रवृत्ति पाई जाती है। उसी तरह क्षणिक आंनद के लिए ही सही मानसिक ठगी के रूप में भी कुछ घाघ - चालाक -बदमाश नर-नारियों द्वारा मौका मिलते ही [सिर्फ एक अप्रैल ही नहीं ] सरल-सीधे और 'गौ' इंसान को मूर्ख बना दिया जाता है। इस मानसिक प्रताड़ना से किसी -किसी काइयाँ इंसान को जो परम आनंद याने परम सुख प्राप्त होता है उस की पराकाष्ठा का बखान तो संत कबीर भी नहीं कर सके। इसीलिये शायद संत कबीर जी ने इन सनातन से ठगे जाते रहे शोषित- पीड़ित अकिंचनों - सहज -जडमतियों [मूर्खों] के ही पक्ष में अपनी प्रतिबद्धता प्रतिष्ठित की है ।जिन्हें यकीन न हो वे कबीर दास जी के इस दोहे को सदा के लिए मष्तिष्क में धारण कर ले !
कबीरा आप ठगाइये , और न ठगिए कोय !
आप ठगें सुख ऊपजे ,और ठगें दुःख होय ! !
केवल 'ओरिजन ऑफ स्पेसीज ' ही नहीं ,बल्कि डार्विन जैसे अनेक साइंटिस्ट ,कार्ल मार्क्स ,जे कृष्णमूर्ति और ओशो जैसे दर्शनशास्त्री भी कह गए हैं कि यदि आप विद्वान[द्धूर्त -चालाक] हैं तो ज्यादा इतराने की जरुरत नहीं। क्योंकि इसमें आपकी कोई नवाई नहीं। यह तो 'गॉड गिफ़्ट है'। यह तो पम्परागत एक आनुवंशिक बीमारी भी हो सकती है। 'ऐ तो महिमा राम की ,ई मा हमरा का कसूर है ?' यह सिद्धांत तो उन पर भी लागू होता है जो 'हेव नाट्स' की कतार में खड़े हैं। यदि आप 'मूरख' याने जड़मति- याने सीधे -सरल या 'गौ' इंसान हैं तो तब तक आपको आत्मग्लानि या शर्मिंदगी की जरुरत नहीं। जब आप अन्याय और शोषण से लड़ने के बजाय व्यवस्था से समझोता कर लेते हैं तो फिर आप अपने आपको वेशक 'धिक्कार' सकते हैं। आप कुशाग्र बुद्धि नहीं या कि धूर्त - चालाक नहीं तो इसमें आपका कोई कसूर नहीं। न केवल पाश्चात्य दर्शनशास्त्री न केवल विज्ञानवेत्ता बल्कि हमारे महान संत कवि गोस्वामी तुलसीदास जी भी कह गए है कि ;-
बोले विहँस महेश तब , ज्ञानी मूढ न कोय।
जेहिं जस रघुपति करहिं जब ,सो तस तेहिं छन होय।।
या
नट -मर्कट युव सबहिं नचावत। राम खगेस वेद अस गावत।।
या
हरी इच्छा भावी बलवाना …!
या
जो विधि लिखा लिलार……।
सामान्य अर्थ में ये सब 'किस्मत का खेल' है। सब ईश्वरीय देन है। बुद्धिमान याने चालु -बदमाश ! मंद -बुद्धि याने सीधा -सादा -भोला -भाला ! संतोष की बात है कि कुदरत ने जमाने भर की नेमतें सिर्फ 'बुद्धिमान' के ही हिस्से में नहीं सौंप दीं। कुछ सीधे के लिए भी रख छोड़ा है। इसीलिये तो कहा है " भोले के भगवान' हुआ करते हैं। सीधे या सरल होने कुछ फायदे भी हैं। खुद महादेव भगवान शंकर को तो 'भोलेनाथ' ही कहा जाता है। इसीलिये जब कोई ज्यादा 'समझदार' उनकी पूजा -अर्चना करता है तो उनके ठेंगे से ! किन्तु जब कोई मंदमति उनको याद करता है ,उनका घंटा भी चुराता है या धोखे से 'विल्वपत्र' भी चढ़ा देता है तो वे प्रसन्न होकर उसे मालामाल कर देते हैं। जब समुद्र मंथन होता है तो अमृत कुम्भ पर देवता असुर दोनों झपट पड़ते हैं। लक्ष्मी और सुदर्शन चक्र को श्री हरी विष्णु ले भागते हैं। देवराज इंद्र ऐरावत ले भागता है। सिर्फ हलाहल [जहर] बचता है जो निष्कपट -निश्छल और सीधे -साधे ,भोले-भाले 'संभु' को पिला दिया जाता है। जिन्हे आज मूल्यों के पतन की घोर चिंता है , जिन्हें वर्तमान कलयुग से घोर शिकायत है वे सतयुग की इस 'महाबदमाशी' सेयह सीख ले सकते हैं कि कोई युग अच्छा या बुरा नहीं होता। वे कलयुग में भी संतुष्ट हो सकते हैं। सीधे-सादे सरल शंकर को ठगने का यह मिथकिय नाटक वर्तमान पूँजीवादी धनतंत्र [गणतंत्र नहीं ] में भी अभिनीत हो रहा है। लेकिन जो व्यवस्था पर अपनी चालाकी से काबिज हैं वे यह याद रखें कि यह सर्वहारा रुपी शंकर कभी भी 'तांडव याने क्रांति कर सकता है।
मेरा अनुमान है कि दुनिया में मूर्खों की तादाद 'समझदारों ' से भी ज्यादा ही होगी । भारत और दुनिया में शायद इसीलिये चंद लोगों के पास अकूत धन -सम्पदा है। शायद इसीलिये भारत और दुनिया के अधिकांस लोग शोषण-उत्पीड़न और जुल्म के शिकार हैं। शायद इसीलिये अतीत के सामंती दौर में कभी किसी ब्रिटिश मजाकिये ने मूर्ख दिवस' की कल्पना की होगी !उस दौर में चूँकि ब्रिटिश साम्राज्य याने अंग्रेज जाति का सूरज कभी अस्त नहीं होता था। शायद इसीलिये यह 'मूर्ख दिवस' अब सारे संसार में मनाय जाता है। ठीक बेलेन्टाइन डे या क्रिकेट के खेल की तरह यदि भारत के कुछ मनचले यह शौक भी फरमाते हैं तो क्या आश्चर्य ?
वैसे भी हम भारत के जन-गण मूर्खता और विद्वत्ता में कोई भेद नहीं रखते। राजनीति में न सही विकाश में न सही किन्तु बौद्धिक हेराफेरी में तो हम भारतीय अंग्रेजों के भी बाप हैं । व्यक्ति ,समाज या राष्ट्र की जग हंसाई से हमे कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारे भारतीय दर्शन को भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारे तूलसी बाबा के अनुसार तो स्थाई रूप से कोई भी स्त्री या पुरुष विद्वान या मूर्ख नहीं होता । उसे देश काल परिस्थितियाँ ही मजबूर करतीं हैं कि कब विद्वान होना है और कब मूर्ख। जिनमें सात्विकता ज्यादा होगी वे गाय जैसे सीधे -सरल होंगे । जिनमें तामस ज्यादा होगा वे हिंसक भेड़ियों की तरह या लखवी ,कसाव ,परवेज मुसर्रफ , अफजल गुरु ,ओसामा ,बगदादी ,हाफिज सईद ,आईएस जैसे भी हो सकते हैं। जिस प्रकार जहर शरीफ के अंदर एक शैतान छुपा है ,जिस तरह हर बदमाश के अंदर एक इंसान छुपा है,उसी तरह से हर समझदार के भीतर एक मूर्ख विराजमान है। हर मूर्ख के अंदर एक समझदार छुपा हुआ है। किसका मूर्खत्व कब जाग जाए पता नहीं। किसका ज्ञानत्व कब जाग जाए पता नहीं।यह जो जान ले उसे ही ब्रह्म ग्यानी कहते हैं। वह मूर्ख या विद्वान नहीं होता। वह वास्तविक इंसान याने परमहंस होता है।
कुदरत का नियम कुछ बेढ़व सा है। जब इंसान को ज्ञान की याने विवेक की जरुरत होती है तो कुदरत उसको मूर्खता प्रदान करती है। जब इंसान को सीधा सरल हो जाना चाहिए तो वह टेड़ा हो जाता है। जब सूझ-बूझ की जरुरत होती है तो वह 'विनाशकाले विपरीत बुद्धि ' हो जाया करता है। दुनिया में मूर्खता का सम्मान इसलिए भी है कि वह 'गर्दभ' से सनातन तुलनीय है। चूँकि मूर्खता विद्वानों [चालाकों-धूर्तों] को आल्हादित करती है इसीलिये दुनिया में जब तक मूर्ख लोग ज़िंदा हैं चालाको की पौबारह है।ये भी कहा गया है कि "चींटियाँ घर बनातीं हैं -साँप उसमें रहने आ जाते है " याने मूर्ख लोग मकान बनाते हैं और विद्वान उसमें रहते हैं '। ये भी कहा जाता है कि दुनिया में लुटने -पिटने वालों की कमी नहीं बस लूटने वाला चाहिए। बुंदेलखंड की अतीव सुंदरी कवियत्री राजनर्तकी राय प्रवीण तो ये भी कह गयी है कि ;-
'जूँठी पातर भखत है ,बारी बायस स्वान '
अर्थात -हे राजन ! सूअर ,कुत्ता या कौआ ही जूंठी पत्तल पर लपकते हैं।
मेहनत की कमाई को लूटने वाले परजीवी बेईमान भी इस श्रेणी में ही आते हैं। जिस किसी कवि को इस ठगी और धोखाधड़ी में भी संतोष है तो वह संघर्ष करने के बजाय कहता है ;-
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये ! संतोषम परम सुखम !
एक कवि तो इतने में ही संतुष्ट है कि ;-
किसी बहाने ही सही ,आपने किया हमें याद।
मूर्ख बने तो क्या हुआ ,आया मीठा स्वाद।।
श्रीराम तिवारी
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