अभीअभी निवृत्त हुए याने भूतपूर्व हुए बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम माझी का पटना में धरना- ड्रामा खत्म भी नहीं हुआ कि चौथी बार पुनः तख्तनशीन हुए वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश भी उपवास पर बैठ गए। माना कि जीतनराम तो महज 'उतारा' कर रहे हैं। किन्तु नीतीश को क्या हो गया ? क्या अरुण जेटली द्वारा प्रस्तुत केंद्रीय बजट में बिहार को मिले काल्पनिक बम्फर वित्तीय सहयोग में भी कुचक्र की आशंका नजर आ रही है ? कहीं वे बिहार में जारी जातीय -धुर्वीकरण याने सत्ता के 'तरलीकरण' हेतु एक दिन के उपवास पर तो नहीं जा बैठे ? बिहार की राजनीति बाकई बड़ी क्रूर और भयानक है। मुंबई में मराठा अस्मिता वाले कटटरपंथी यदि 'बिहारियों' से चढ़ते हैं , तो इसमें आपत्ति की क्या बात है ?
दक्षिणपंथी राजनीतिज्ञ अक्सर मजाक में कहते रहते हैं कि बिहारी नेता अपना बिहार तो क्या घर भी ठीक से नहीं संभाल पाते । उन्हें देश और दुनिया की जातीयतावादी शोसल इंजीनियरिंग की राजनीती की फ़िक्र में दुबले होने की परम्परागत आदत है। इस कुनवा परस्ती और निज समाज दुःख -कातर नामक बीमारी के लिए बिहार समेत सम्पूर्ण भारत की 'जातीयतावादी' राजनीति प्रमुख रूप से जिम्मेदार है। इस जातीयतावादी राजनीति ने बिहार के दस-बीस परिवारों का भले ही भला कर दिया हो किन्तु आर्थिक विकाश की सूची में तो बिहार आज भी नंबर वन 'बीमारू' प्रदेश ही है।
बिहार का उद्धार करने के लिए लालू यादव, राबड़ी यादव ,पप्पू यादव ,साधु यादव ,रामप्रकाश यादव , मीसा यादव , असली यादव ,नकली यादव ,पासवान ,जीतनराम ,रमईराम और नीतीश ही काफी नहीं थे इसीलिये मध्यप्रदेश ने अपने युवा तुर्क शरद यादव को भी बिहार की पिछड़े वर्ग की जातीय राजनीति में धकेल दिया। हो सकता है कि मंडल कमीशन की कृपा प्राप्त कुछ मुठ्ठी भर बिहारी अपनी वैयक्तिक तरक्की कर चुके किन्तु इन सबने निर्धन -दमित बिहार को और ज्यादा बद से बदतर हालत में पहुंचा दियाहै । कभी-कभी लगता है कि शरद यादव को बिहार की और देश की नहीं सिर्फ अपने कैरियर की चिंता है। इसीलिये चर्चा में बने रहने के लिए वे संसद में अश्लील भाषण देते रहते हैं । जब बजट पर चर्चा करनी हो तब वे महिलाओं के सौंदर्य और 'रेप' विमर्श पर प्रबचन देने लगते हैं। जब सत्ता पक्ष की नीतियों और कार्यक्रमों की यथार्थ के धरातल पर समीक्षा करनी हो तो वे संसद में 'मसखरी' करते हुए नजर आते हैं।
वैसे तो बिहार तभी से अशांत है जब उसने कांग्रेस ,जनसंघ ,कम्युनिस्ट और असली समाजवादियों -राष्ट्रीय पार्टियों की पटरी को छोड़ कर क्षेत्रीय और जातीयतावादी दलों का दामन थाम लिया था। भाजपा और 'नमो' आजकल जिस 'कांग्रेसमुक्त' भारत का सपना देख रहे हैं , वह सपना तो विश्वनाथप्रतापसिंह की असीम अनुकम्पा से बिहार और यूपी में मंडल कमीशन वालों का विगत शताब्दी के उत्तरार्ध में ही पूरा हो चुका था। 'संघियों' की दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर राजनारायण ने जो विद्रोह का बिगुल बजाया था उसी से तो जनता पार्टी ढाई साल में ही बिखर गयी। उसी जनता पार्टी के अवशेषों से ही १९८० में भाजपा बनी। अटल -आडवाणी -मुरली मनोहर जोशी और विजयाराजे सिंधिया ने ही तो मुंबई में भाजपा की स्थपान की थी। जनता पार्टी के बिहारी अवशेषों से ही राष्ट्रीय जनता दल,जदयू बने। ओड़िया अवशेषों से 'बीजद' बना। कन्नड़ अवशेषों से 'जदएस' बना। उसी से यूपी में सपा बनी। उसी से 'जनता परिवार' के अन्य' दलदल ' और कुकुर्मुत्ते पैदा हुए। जिन्होंने भारत की राजनीति को नकारात्मक संघर्ष में धकेल दिया। बिहार उस डर्टी पॉलिटक्स का जीवंत उदाहरण है।
१९७७ से अब तक बिहार की राजनीति पर जिन-जिन का भी कब्ज़ा रहा है , वही अबतक आपस में मिल बाँट कर सत्ता सुख भोगते रहे हैं। वे ही तत्व अब कौरव पांडवों की तरह 'महाभारत' के लिए गुथ्थम -गुत्था हो रहे हैं। दलगत कुकरहाव के लिए अतीत में किये गए विश्वाश्घात जैसा ही ये 'माझी विद्रोह' भी था ! जातीयता के दल-दल में दल-बदल की घटनाओं के लिए बदनाम ये नकारत्मक दल - कभी कांग्रेस का ,कभी भाजपा का हाथ बताकर अपनी जग हंसाई कराते रहते हैं।
इन दिनों बिहार की राजनीतिक हांडी में वासी कड़ी का उबाल जरा ज्यादा ही आया हुआ है।सत्ता संघर्ष भले ही शांत दिख रहा है। विश्वाश मत हासिल कर नीतीश ने भले ही अपनी और जदयू की गिरती साख को बचा लिया है। किन्तु जातीय ध्रुवीकरण का आंतरिक संकट और ज्यादा गहरा गया है। विगत दिनों नीतीश और माझी के नेतत्व के सवाल पर जदयू में हुए पिछड़ा वनाम महादलित के सिन्धुमंथन का गरल माझी अकेले ही नहीं पिएंगे। पिछड़ा वर्ग को और खास तौर से कुर्मी -यादव -मुस्लिम गठजोड़ कोसंघ परिवार से और महादलित परिवार से एक साथ जूझना होगा।
जातीयता की राजनीति को धर्मनिरपेक्षता के आवरण में प्रस्तुत करना या भारतीय राजनीति में 'बिहारी संस्करण ' का स्थाई चरित्र है। कहा जा सकता है की यह लड़ाई पिछड़ा वनाम महादलित की है। किन्तु वास्तव में यह जातीयता के नकारात्मक संघर्ष पर टिकी बिहारी - डर्टी पॉलिटिक्स का यही असली रूप रंग है। यह सामाजिक न्याय संघर्ष के इतिहास का सबसे स्याह पन्ना है। अतीत में निहित स्वार्थ के द्वारा अवैज्ञानिक सोच के वशीभूत होकर सामाजिक विद्रूपता की जो राजनैतिक बोनी की गई है । बिहार में अब उसकी फसल काटने के दिन आये हैं। बिहार की सनातन - सामाजिक ,राजनैतिक संरचना और लोकतांत्रिक आचरण की तस्वीर भविष्य में भले ही कुछ चमकदार हो। किन्तु अभी फिलहाल तो अविश्वाश के कुहांसे और घात-प्रतिघात की गर्द ने पिछड़ा -दलित वाली सोशल इंजीनियरिंग की छवि बदरंग कर रखी है।
अंग्रेजों की 'फूट डालो राज करो' की नीति से देश पहले ही सामंतयुगीन भारत में हिन्दू -मुस्लिम ही नहीं , हिन्दू -सिख या हिन्दू बनाम ईसाई ही नहीं बल्कि वैष्णव ,जैन,बौद्ध , शाक्त ,शैव और अनेक मत-पंथ वाले आपस में संघर्षरत रहते थे । देश पहले से ही दलित वनाम सवर्ण के द्व्न्द का 'दंश' को झेल रहा था।चूँकि सत्ता पिपासा के निमित्त सुलगते - झुलसते भारत में मंडल कमीशन का अवतार हुआ। यह राम मनोहर लोहिया , जयप्रकाश नारायण जैसों की असीम अनुकम्पा से बिहार में परवान चढ़ा। ,विश्वनाथ प्रताप सिंह की सत्ता पिपासा से ,कर्पूरी ठाकुर ,भोला पासवान ,लालू यादव - मुलायम यादव -पासवान -नीतीश कुमार -शरद यादव की राजनैतिक अभिलाषा से , इस 'मंडल कमीशन' की अवैज्ञानिकता ने भारत के वास्तविक पिछड़ों या गरीबों को तो कुछ खास मदद नहीं की। किन्तु जातीयता के नाम पर अमीरों -जागीरदारों -जमीनदारों -व्यापारियों को पिछड़ा घोषित कर सनातन सत्ता का दावेदार बना दिया। नीतीश -मांझी संघर्ष इसी कुत्सित राजनीति का घ्रणित प्रमाण है।
शायद मंडल कमीशन को सपना आया होगा की किसी भी लँगोटीधारी -कमण्डलधारी को या उनके आधुनिक वंशजों को किसी भौतिक हित साधन की कोई आवश्यकता नहीं। क्योंकि वे तो जन्मना ही 'स्वर्ण' हैं । आजाद भारत के इतिहास में विगत ५० सालों से लगातार , यूपी -बिहार की सत्ता दलित या पिछड़ों के हाथ में ही रही है। यदि इन पचास सालों में यूपी बिहार का सत्यानाश हुआ है। यदि वर्णभेद में इजाफा हुआ है , यदि वर्ण संघर्ष में इजाफा हुआ है और यदि आज बिहार में पिछड़े -दलित ही आपस में कुकरहाव कर रहे हैं तो इसकी जिम्मेदारी क्सिकी है ? यह तय होना अभी बाकी है। अनवरत जातीय आरक्षण मिलते रहने के वावजूद यदि बिहार में अत्यधिक गरीबी है ,यदि बिहार में जातीयता का शत्रुतापूर्ण दमनचक्र जारी है यदि जातीयता की घटिया राजनीति बिहार को निगल रही है तो '' जिन्दा कौम पांच साल का इन्तजार क्यों कर रहीं है? दिल्ली में सम्पन्न विधान सभा चुनावों से सबक क्यों नहीं सीखते ? कांग्रेस ,भाजपा ही क्यों त्याज्य हों ? क्या नीतीश ,शरद ,लालू ,पासवान या मांझी की कोई आर्थिक सोच भी है ? क्या वे पूँजी निवेश ,उदारीकरण ,कार्पोरेटाइजेसन और भृष्टाचार के खिलाफ हैं ? यदि हाँ तो वे इन सवालों पर वामपंथ के साथ जनांदोलन में क्यों नहीं उतरते ? वाम पंथ के साथ न सही अण्णा जैसे या केजरीवाल जैसे व्यक्तिनिष्ठ किन्तु 'सदाचरण' के आकांक्षी आन्दोलनों से क्यों नहीं सीखते ? केवल लोहिया -लोहिया जपने से ,धर्मनिरपेक्षता का जाप करने से सामाजिक असमानता मिट जाएगी क्या ? सामाजिक असमानता तो तभी मिटेगी न ! जब कि आर्थिक असमानता को मिटा दिया जाए !
यदि लाखों को अगड़ा बताकर -भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से को निरंतर गरियाते रहोगे और जातिगत आरक्षण का लाभ केवल मलाईदार लोगों तक पहुँचते रहोगे तो मलाई का चस्का लग जाने और सत्ता मिल जाने के बाद कोई जीतनराम सत्ता क्यों छोड़ेगा ? लोकतंत्र का अभीष्ट है कि आर्थिक -सामाजिक और राजनैतिक समानता सभी को सामान रूप से मिले। सत्ता प्रतिष्ठान पर पकड़ बनाने के लिए वोट बैंक चाहिए। यदि वोट कबाड़ने के लिए यदि आरक्षण का झुनझुना बजाते रहोगे। सोसल इंजीनियरिंग का राग छेड़ते रहोगे तो बिहार में आज जिनके हित असुरक्षित हैं वे इस अवसर का लाभ क्यों नहीं उठाएँगे ? जो तत्व विहार को बर्बाद करने के जिम्मेदार हैं यदि वे आपस में लड़ रहे हैं तो सत्ता से वंचित वर्गों को शोषित पीड़ित वर्गों को एकजुट होकर इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए। बिहार में कांग्रेस को खत्म हुए ४० साल हो चुके हैं। जनसंघ या भाजपा को कभी एक दिन के लिए भी बिहार में स्वतंत्र सत्ता नहीं मिली। आजादी के बाद जब शुरुआती दौर में बिहारकी राजनीति पर कांग्रेस का कब्जा था तब विपक्ष में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ही हुआ करती थी। उसके सांसद और विधायक दर्जनों हुआ करते थे। बिहार के कम्युनिस्टों को पूँजीपतियों ने या कांग्रेसियों ने नहीं बल्कि सामाजिक इंजीनियरिंग के लुच्चे -लफंगों और हत्यारे पप्पू यादवों ने ही मारा है। चूँकि कम्युनिस्ट सभी जातियों ,सभी मजहबों के मजदूर -किसानों को एकजुट कर एक वर्गविहीन -जाती विहीन अर्थात अगड़ा -पिछड़ा विहीन समाज बनाना चाहते थे। इसलिए उत्पादन के साधनों पर काबिज बलवान गैर सवर्ण जातियों के नेताओं मंडल आयोग का जमकर दुरूपयोग किया। चूँकि यूपी में कासीराम ने कुछ सफलता पाई और मायावती भी २-३ बार सरकार बनाने के स्तर तक पहुँच गयी। तो बिहारी दलित भी अब पिछड़ों को धक्का देकर सत्ता में बने रहना चाहते हैं। जीतनराम को उकसाने वाले केवल नरेंद्र मोदी या सुशील मोदी ही नहीं हैं। केवल भाजपा को ही अपना भविष्य उज्जवल नहीं दिख रहा बल्कि दलित राजनीति के स्तम्भ पासवान ,रमईराम और अन्य मौकापरस्त भी इस खेल में शामिल हैं।
वेशक लोकतंत्र में सभी को अपनी स्थिति मजबूत करने का अधिकार है। अतीत में यदि कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए वी पी सिंह ने एक तरफ भाजपा दूसरी तरफ कम्युनिस्ट पार्टियों का सहयोग लिया था। तो अब जीतनराम माझी भी भाजपा या राजद के विद्रोहियों का समर्थन क्यों नहीं ले सकते। यदि मंडल का सहारा लेकर कर्पूरी ठाकुर , लालू यादव,नीतीश , रामविलास पासवान सत्ता सुख भोग सकते हैं तो माझी भी पिछड़ा बनाम अति दलित -महादलित का टंटा पैदा क्यों नहीं करेगा ? जो ताकतें पिछड़ा बनाम दलित के संघर्ष को ' हवा' दे रही हैं वे नया क्या कर रहीं हैं ? वैसे भी यह महज पिछड़े बनाम दलित या महादलित का संघर्ष नहीं है। यह संकट केवल नीतीशकुमार बनाम जीतनराम माझी का भी नहीं है। यह संकट सिर्फ बिहार विधान सभा बनाम राज्यपाल का भी नहीं है। बिहार के इस वर्तमान राजनैतिक संकट में लोकतंत्र,धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के असली पहरुए भी अवश्य प्रभावित होंगे। उनका सकारात्मक हस्तक्षेप अपेक्षित है।
नीतीश और जदयू को समझना होगा कि भाजपा या नरेंद्र मोदी को दोष देने लायक इस घटनाक्रम में कुछ नहीं है। राज्यपाल ,सभापति या राष्टपति के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा प्रहसन मांझी की सत्ता लिप्सा और उसकी वैचारिक [अ] प्रतिबध्दता का निरूपण मात्र है। नीतीश शरद को कोई ढंग का विश्वाश पात्र 'मोहरा' ढूंढ़ना चाहिए था। लेकिन अब पछताए होत क्या चिड़िया चुग गई खेत। नीतीश -शरद को सत्ता की दुबारा जुगाड़ के बजाय आगामी विधान सभा की तैयारी करने चाहिए। उधर जीतनराम को मालूम हो कि बकरे की माँ ईद तक भी खेर नहीं मनाती ! वो चाहे तो भाजपा प्रसाद पर्यन्त ' कुछ दिन और सत्ता सुख उठा ले। किन्तु भाजपा की समस्या जीतनराम नहीं हैं। भाजपा के अश्वमेध का घोड़ा पाटलिपुत्र की ओर बढ़ रहा है।
वर्गीय समाज में शोषित-पीड़ित -दलित मनुष्य के मानवीय सरोकारों व ततसम्बन्धी संघर्ष या द्वंद की अवस्था में समाजशास्त्रियों की भिन्न -भिन्न स्थापनाएँ मौजूद हैं। हालांकि इन सभी स्थापनाओं और सिद्धांतों का प्रेरक वह प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत है- कि अंततोगत्वा 'न्याय शकिशाली का ही पक्षधर होगा' । यह प्रमेय उस सिद्धांत से प्रेरित नहीं है कि 'जिसकी लाठी उसकी भेंस' ! बल्कि वह तो जंगल के वातावरण में शेर और बकरी के रूपक से रूपायित किया जाना शक्य है। चूँकि कुदरत ने शेर को वो सब दिया है जिससे वह बकरी तो क्या हाथी को भी चीर सकता है। बकरी लाख मिमयाये किन्तु बिना नख दंत के वह शेर के सामने असहाय ही है। सामान्य तर्क बुद्धि का सूक्त वाक्य है - 'बकरियों के सामने एक ही रास्ता है कि वे शेर के खिलाफ एकजुट हो जाएँ' ! क्रांतिकारी तार्किकता कहती है कि केवल शेर से आक्रान्त बकरियां ही नहीं , केवल शेर से आक्रांत वन्य प्राणी ही नहीं ,बल्कि हर किस्म के अमानवीय अत्याचार , आतंक और अन्याय से पीड़ित मनुष्यों को भी एकजुट होकर उस दरपेश असभ्य - नृशंसता का मुकाबला करने के अलावा कोई चारा नहीं !
राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के दौरान जब क्रान्तिकारी जन नायकों को आजादी की उम्मीद जागने लगी तो वे देशी -सत्ता संचालन की खुदमुख्तारी के लिए भी सोचने लगे। मुख्यधारा के नेताओं -पंडित मोतीलाल नेहरू, महात्मा गांधी और राजेन्द्रप्रसाद जैसे धर्मनिरपेक्ष अहिंसावादी वरिष्ठ वकीलों ने राजनैतिक स्वाधीनता ,लोकतंत्र , धर्मनिरपेक्षता पर जोर दिया। बाबा साहिब आंबेडकर और लोहिया जी ने इन मूल्यों के अलावा आर्थिक -सामाजिक और राजनैतिक असमानता के विमर्श पर भी खाका खींचा ।मुस्लिम लीगी और हिन्दूमहासभाई अपनी ढपली अलग बजा रहे थे। सभी के खांचे समीचीन थे।
पुनर्जागरण कालीन दयानद सरस्वती , विवेकानंद , राम मोहनराय ,ज्योतिबा फुले ,पेरियार ही नहीं बल्कि उनके उत्तरधिकारी - गांधी , और सुब्रमण्यम भारती इत्यादि भी आजीवन न केवल राष्ट्रीय एकीकरण की समस्यायों से बल्कि भारतीय समाज की जड़ता और उसकी कुरीतियों से जूझते रहे।ये महापुरुष 'वर्ग सहयोग' के अनुशरण में यकीन रखते थे। गांधी जी तो इसके सबसे बेहतरीन सिद्धांतकार माने गए हैं।
इनके अलावा वे लोग भी इस दिशा में प्रयासरत थे जो न केवल भारतीय पृष्ठभूमि के संघर्षों और द्वन्दों की समझ रखते थे बल्कि यूरोपियन रेनेसां को भी समझते थे। उन्हें फ्रांसीसी क्रांति, महानतम सोवियत अक्टूबर क्रांति और दो -दो विश्व युद्धों के कारकों की बेहतर समझ भी थी । इन्ही लोगों में से एक राम मनोहर लोहिया थे। दूसरे थे बाबा साहिब आंबेडकर। बाद में जय प्रकाश नारायण भी कांग्रेस छोड़ लोहिया खेमे में आ गए । ये लोग मार्क्सवाद से प्रभावित थे। इसलिए वे सामाजिक शोषण -उत्पीड़न को आर्थिक असमानता जनित अन्याय से भी बदतर समझते थे। सामाजिक बिडम्ब्नाओं के बरक्स साम्यवाद से या मार्क्सवाद इतर 'वर्ग संघर्ष' की जगह 'वर्ण संघर्ष' पर ही उनका जोर था। अगड़ा-पिछड़ा -दलित -महादलित का जातीय संघर्ष भारतीय लोकतंत्र और भारत राष्ट्र का कोढ़ बन चुका है।
यदि देश में वर्ग संघर्ष की संभावनाएं क्षीण हो रहीं हैं ,यदि नीतीश ,पासवान, जीतराम लालू और मायावती आपस में उलझ रहें तो यह उस बिल्ली को तो उचित लगेगा जो छींका टूटने का इंतजार कर रही है किन्तु जो सामाजिक ,आर्थिक असमानता को खत्म कर न्याय ,बराबरी और लोकतंत्र -धर्मनिरपेक्षता का शासन चाहते हैं वे मायूस हैं। बिहार में नीतीश ने मांझी पर यकीन किया वो गलत फैसला था। माझी 'प्यादे से फर्जी भये और टेड़े टेड़े चलने लगे तो यह बुरा हुआ। चूँकि यूपी बिहार में सामाजिक शक्तियाँ बदनाम हो चुकीं हैं। चूँकि पिछड़ा,अति पिछड़ा ,दलित -महादलित का तो कोई भला नहीं हुआ लेकिन दस बीस बिहारी पिछड़े दवंग हो गए हैं दस बीस यूपी वाले पिछड़े और दो-चार दलित नेता और नेत्रियां मालामाल हो चुके हैं इसलिए यह दौर सामाजिक और जातीयता के अवसान का है। अब माझी को यदि मोदी प्रिय हैं या नीतीश को लालू प्रिय हैं तो ये सभी विवशताएँ मात्र हैं। केंद्र में मोदी सरकार की समग्र प्र स्तुति और भारतीय हिन्दू समाज में 'संघ' के एकीकरण प्रयास यदि आज इतने उद्दाम और सर्वस्वीकृत हो रहे हैं तो इसकी वजह लोहिया की विचाधारा का भग्नावशेषीं करण ही है। जिन-जिन ने जातीयताबाद के नाम पर देश को लूटा और जो साम्प्रदायिकता के नाम पर अभी मजे कर आरहे हैं वे सभी इतिहास के कूड़ेदान में फेंके जाने को अभिशप्त
हैं।
श्रीराम तिवारी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें