भारतीय 'मीडिया' -डिजिटल ,इलेक्ट्रॉनिक और अखवारों की बलिहारी है। 'हिंदी चेनल्स की महिमामयी परंपरा है कि पहले तो ये खुद ही भीड़ की ओर पत्थर उछालेंगे , 'तीर में तुक्का 'मारेंगे फिर उसी के ऑडिओ-वीडिओ दिन-दिन भर अपने 'सुदर्शन' चैनल पर दिखाएंगे। ये खबरची चैनल वे खबरें चलाते हैं जो किसी ने नहीं कहा हो ! ये वो वयान जारी करेंगे जो किसी ने या तो कहा ही नहीं होगा या कुछ और ही कहा होगा। इन्हे मालूम रहता है कि असल में क्या कहा गया है ? किन्तु ये वही सुनवाते हैं जो सच नहीं होता बल्कि उत्तेजक और कीचड़ उछाल होता है। इसमें मुँह देखी का सरोकार भी छिपा हुआ होता है। जिस -किसी के मुँह से अनकहा कहलवाने का माद्दा होता है वही टीआरपी का सरताज होता है। जिस में यह असत्य आचरण का गुर न हो वो क्या खाक 'मीडिया' में सुर्खरू होगा ! कुछ चेनल्स पर एंकर बार -बार चीख-चीख कर कहता है कि देखो -रे देखो ! गजब हो गया ! जब कोई पूंछता है कि क्या हुआ भाई ?तो कहता है रुको ! एक ब्रेक के बाद बताएँगे ! कल -परसो सीडी का खुलासा करेंगे। शानदार 'धमाका' होगा। इनकी नजर में भयानक दुर्घटना या बुरी खबर भी 'शानदार' ही होती है। भले ही बाद में खोदा पहाड़ और निकली चुहिया !
एक नयी- नयी मामूली सी राजनैतिक पार्टी है 'आप' जिस की निहायत मामूली सी बात को लेकर भारत का समग्र मीडिया हलकान हो रहा है।बहरहाल 'आप' में कोई ख़ास समस्या नहीं है। 'आप' ने अभी तक ऐंसा कोई काम नहीं किया कि उसे मुँह छिपाना पड़े या गर्व से सीना तान सके।मीडिया की खबरों से आहत होकर दिल्ली की जनता को भी शर्मिंदा होने की जल्दी नहीं मचानी चाहिए। जिन्हे 'आप' से कोई लेना-देना नहीं उनके पेट में मरोड़ उठती है तो उठा करे । जिनके जुमले कुछ इस तरह हैं ! 'आप' से यह उम्मीद तो न थी ! 'आप' का सर्कस कब तक जारी रहेगा ? क्या अपनी खांसी के बहाने दोस्तों का ही स्ट्रिंग करवा रहे हैं केजरीवाल ? हालाँकि इस बहाने एक सकारात्मक सन्देश भी जनता को गया। आंतरिक लोकपाल ,डेमोक्रसी , अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता , वैचारिक मतभेद और पार्टी अनुशासन इत्यादि शब्दों को देश के सामने कुछ चेनल्स ने बार-बार दुहराकर बड़ा उपकार किया है। लेकिन कुछ चेनल्स की महिमा बड़ी न्यारी है। अपनी टीआरपी के चक्कर में वे कुछ इस तरह आपाधापी कर बैठते हैं कि उनके मुख पर वयान तो सपा नेता रामगोपाल यादव का होता है किन्तु टीवी स्क्रीन पर चेहरा फिल्म निर्देशक रामगोपाल वर्मा का दिखाया जाता है !
'आप' के आंतरिक बिखराव और उसकी अपेक्षित दुर्गति के बहाने भारतीय मीडिया ने सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा को ,उनके विश्व विख्यात नेता और हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को भी कुछ घंटों के लिए भुला ही दिया। नसीबवालों को भी पीछे छोड़ दिया। दिल्ली में तो मीडिया की भेड़चाल ने 'आप' को क्रिकेट वर्ल्ड कप की चर्चा पर भी बढ़त प्रदान कर दी। वेशक इन दिनों कुछ भोले -भाले लोग और राजनीति में नए-नए दीक्षित नेता -कार्यकर्ता बड़े बैचेन हैं। वे इस 'आम आदमी पार्टी ' के मामूली आंतरिक कुकरहाव से इसलिए विचलित हैं । कदाचित यह स्वाभाविक भी है ! भगवद्गीता के अनुसार जब व्यक्तिगत कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उतपन्न हो सकता है, तो सर्व समावेशी 'सामूहिक हितों ' की कामना रुपी खीर में मख्खी गिरने का दुःख किसे न होगा ? 'आप' से उम्मीद रखने वालों को ठेस न पहुंचे यह कैसे हो सकता है ? 'आप' के चिर आलोचकों की बात जुदा है। मैं तो डंके की चोट कहता है कि 'आप' पूँजीवादी दलों की तलछट मात्र हैं। हालाँकि 'आप' के हाथों पराजित दोनों बड़े दल भाजपा और कांग्रेस 'आप' की अंतर्कलह से गदगद हैं। उनकी ख़ुशी छिपाए नहीं छिप रही है।
भारत की सबसे ताजातरीन राजनैतिक पार्टी 'आप' जो कुछ भी प्रस्तुत कर रही है, जो कुछ भी आउट पुट दे पा रही है, उसका वास्तविक - सर्वश्रेष्ठ स्वरूप सिर्फ और सिर्फ यही है। 'आप' के वर्तमान तथा - कथित स्खलन या 'प्रहसन' को जो लोग पसंद नहीं करते , जो मन ही मन दुखी हो रहे है वे या तो बड़े ही भोले हैं। जो लोग बछिया के ताऊ हैं या शुद्धतम अराजक प्राणी हैं वे यह भूल जाते हैं कि 'आप' का राजनैतिक दर्शन वही है जो कांग्रेस का है। प्रकारांतर से जो भाजपा का भी है। डॉ मनमोहनसिंह का अर्थशाश्त्र ही अरुण जेटली का अर्थशास्त्र है। केजरीवाल का तो कोई अर्थशास्त्र ही नहीं है। वे उत्पादन या निर्माण बाबत एक शब्द नहीं जानते। केवल बिजली-पानी फ्री में देने का वादा कर देने या किसी का स्ट्रिंग आपरेशन करके ब्लेकमिलिंग करने से वे भाजपा और कांग्रेस जैसी भृष्ट पार्टियों पर दिल्ली में हावी हो सकते हैं। किन्तु इस विशेष गुण मात्र से वे उन पूंजीवादी दलों से पृथक कैसे हो सकते हैं ? जब तक पूंजीवादी राजनीति का विकल्प सामने नहीं आता तब तक इसी व्यवस्था का नग्न दर्शन इसी तरह होता रहेगा। केवल स्ट्रिंग आपरेशन करने -करवाने से या मीडिया में वयानबाजी करते रहने से 'आप' कोई क्रांतिकारी नहीं हो जाते ! महंगाई ,बलात्कार ,भृष्टाचार ,दल-बदल , वेरोजगारी ,किसान -आत्महत्या और श्रम की लूट-खसोट के विहंगम दृश्य 'आप' का भी पीछा नहीं छोड़ने वाले। इन मुद्दों से ध्यान हटाकर भारत का मीडिया १० माह पुराने एक काल्पनिक स्ट्रिंग आपरेशन पर जनता को बरगला रहा है। सबको मालूम है कि एक साल पहले हुए दिल्ली राज्य चुनाव में भाजपा को ३२ ,'आप' को २८ और कांग्रेस को ८ सीट मिलीं थीं। जब भाजपा बहुमत नहीं जुगाड़ सकी तो उपराजयपाल ने 'आप' को बहुमत जुगाड़ने का अवसर दिया। उसमे यदि 'आप' नेताओं ने कांग्रेस या किसी अन्य विधायक से समर्थन माँगा तो इसमें क्या अनर्थ हो गया ? आजकल मुख्य धारा के मीडिया का इसी को लेकर भारी वितंडावाद चल रहा है । यह देशभक्तिपूर्ण कार्य नहीं कहा जा सकता !
' आप'से ज्यादा झगड़े कंग्रेस में हैं। जो लगातार हाराकिरी की ओर अग्रसर है। उसके शीर्षस्थ नेतत्व में इतना बिखराव है कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री भी आरोपी बनाया जा चूका है। उधर राहुल का अवकाशकाल भी कमरहस्य्मय और रोचक नहीं है। भाजपा की और एनडीए की अंदरूनी हालत का आलम ये है कि मोदी जी और शाह जी की जोड़ी ने तो मुफ्ती को मुफ्त में कश्मीर का मुख्यमंत्री ही बनाया। जिसने मुसर्रत आलम जैसे दस लखिया इनामी आतंकी को तत्काल छोड़ दिया। भाजपा की मातृसंस्था 'संघ ' ने तो गजब ही कर दिया । संघ के मुख पत्र 'ओागेनाइजर' को शिवसेना के चीफ उद्धव ठाकरे ने 'मूर्खपत्र' ऐसे ही नहीं कहा। पक्की खबर है कि 'ओर्गेनिजर' के मार्फ़त 'संघ' ने कश्मीर ही पाकिस्तान को दे दिया। ये बात अलग है कि पाकिस्तान के आतंकी अब हिन्दुस्तान को ही निगल जाने को बेताब हो रहे होंगे। भारत के मीडिया को ये सब नहीं दीखता । उसने तो केवल पहले 'आप' -'आप' की धूम मचा रखी है।
वेशक 'राजनीति' न तो स्वच्छ होती है और न ही गन्दी। वह तो सिर्फ 'राजनीति ' ही होती है। जैसे की चाकू न तो 'असुंदर' होता है और न ही सुंदर। वह तो महज चाकू ही होता है। जब उसे किसी निरीह - निर्दोष की हत्या के निमित्त प्रयुक्त किया जाता है तो वह 'वीभत्स' दिखता है। जब वह आपरेशन थिएटर में डॉ के हाथों में होता है तो वैल्यूएडेड दिखता है। रसोई घर में तो सब्जी काटते समय यदि भोंथरा चाकू भी मिल जाए तो बड़ा 'प्रिय ' हो जाता है। राजनीति और चाकू दोनों मानवता के लिए हैं। लेकिन जब राजनीति या चाकू के हाथों इंसान ही खिलौना बन जाये तो उसे पूंजीवादी -अर्धसामन्ती व्यवस्था का नासूर कहते हैं। कांग्रेस ,भाजपा और 'आप' इस नासूर को आपरेशन नहीं कर सकते। सिर्फ मार्क्सवाद -लेनिनवाद - सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद ही उसकी शल्य क्रिया कर सकता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि महान अक्टूबर क्रांति के कृतघ्न कौन हैं ? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दुनिया में उद्दाम पूँजीवाद के लिए 'वासंती' मौसम है। भारत के केरल ,बंगाल में वामपंथ को जन समर्थन में कमी आने मात्र से वह महान विचारधारा ख़ारिज या अर्थातीत नहीं हो जाती। क्रांति के लिए आज भी यही एक वैज्ञानिक और क्रांतिकारी दर्शन मुफीद है। उसके लिए असल चीज है वर्गीय चेतना ।जिस तरह बादलों की आवाजाही से सूरज का उगना बंद नहीं हो जाता। जिस तरह बादलों में सूरज छिपने का मतलब रात्रि नहीं हो जाता । इसी तरह इस दौर में पूँजी के खेल के कारण परिश्रम और सत्य की महत्ता खत्म नहीं हो जाती। यदि रात्रि हो गयी तो कौन गजब हो गया ?सुहानी सुबह के आगमन को कौन रोक सकता है?
महात्मा गांधी , पंडित नेहरू , बिनोबा भावे , लाल बहादुर शास्त्री ,जयप्रकाशनारायण जैसे उटोपियाई 'महापुरुषों' को यकीन रहा है कि यदि आदमखोर शेर के सामने अहिंसक ' सत्याग्रह ' किया जाए तो बियावान जंगल में वह दरिंदा तम्हारे प्राण बख्स देगा ! अण्णा हजारे जैसे 'भोले' सामाजिक कार्यकर्ता भी वही ढपली बजाते रहते हैं। उनकी कीर्तन मण्डली के आधा दर्जन चेले -चपाटे जब 'सत्याग्रह और जन संघर्ष से उक्त गए तो वे पूंजीवादी संसदीय राजनीति के अखाड़े में 'लतखौआ' बन बैठे। जहाँ जनता के दुर्भाग्य से ये नौसिखिये प्रशिक्षु - नामी पहलवानों को पछाड़कर दिल्ली राज्य की कुर्सी हथियाने में सफल हो गए।
यदि दिल्ली राज्य विधान सभा चुनाव में 'आप' बीच में नहीं आते तो क्या होता ? तो दिल्ली में कांग्रेस शून्य पर आउट नहीं होती। तब शीला दीक्षित गुमनामी के अँधेरे में नहीं धकेली जातीं। तब भाजपा दिल्ली राज्य की सत्ता में भी होती। तब मोदी जी और भाजपा का अहंकार अपने चरम पर होता ! तब बिहार में नीतीश नहीं माझी ही सत्ता के मजे ले रहे होते ! तब दिल्ली में भाजपा के एक दर्जन नेता मीडिया की आँखों के तारे होते ! तब किरण बेदी को 'उधार का सिन्दुर ' नहीं लगाना पड़ता। तब अन्ना के पेट में मरोड़ नहों उठती। तब योगेन्द्र ,प्रशांत और अन्यों को इस तरह रुस्वा नहीं होना पड़ता। तब अरविन्द केजरीवाल को न तो दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य मिलता न बेंगलुरु में 'नेचरोपैथी'से इलाज कराने की नौबत आती। अभी तो मैं यही कहूँगा कि 'आप' की राजनैतिक यात्रा मंगलमय हो !
श्रीराम तिवारी
सटीक लेख... ये दिन आना ही था लेकिन भारतीय मीडिया ऐसा दीवाना होगा की उसे बड़े मुद्दे भी दिखाई न दें, बड़ा दुखद है.
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