मंगलवार, 31 मार्च 2015

भारतीय समाज तो सनातन से सहज धर्मनिरपेक्षतावादी ही है। [भाग-२]




                            मुझे जब  कई बार  भगवद गीता पढ़ने पर उसमें 'हिन्दू' शब्द नहीं मिला तो मैंने उसके मूल ग्रन्थ  महाभारत को ही आद्योपांत बारीकी से  पढ़ डाला। मुझे  'महाभारत' में वो  'सब कुछ मिला'  जो  इस धरा  और  ब्रह्माण्ड  में उपलब्ध   हो  सकता  है। किन्तु 'हिन्दू ' शब्द का उल्लेख  इस  वेदव्यास  रचित महाकाव्य - महाभारत में  कहीं नहीं मिला। मैंने बाल्मिकी रामायण  [संस्कृत] बार-बार पढ़ी कि कहीं उसमें ही एक अदद  'हिन्दू' शब्द  मिल जाये । इस अल्पज्ञानी को  किसी भी  महानतम 'आर्य ग्रन्थ ' में कहीं  भी  'हिन्दू' शब्द नहीं मिला। तुलसीकृत -रामचरितमानस  तो  हिंदी भाषी सनातन धर्म के अनुयायियों की अर्वाचीन - मुगलकालीन कृति है।इसमें भी और तो सब कुछ है किन्तु 'हिन्दू' शब्द के  दर्शन  इसमें  भी नहीं हुए।

                 महाकवि कालिदास ,वरामिहिर ,वाणभट्ट ,वात्स्यायन ,पतंजलि  ,भवभूति ,भोज ,भर्तृहरि ,मुद्राराक्षस को भी काफी  कुछ पढ़ डाला। किन्तु 'हिन्दू' शब्द के लिए आँखें तरस गयीं।आदि शंकराचार्य ,जयदेवकृत [गीत - गोविन्दम], चैतन्य महाप्रभु, केशवदास [रामचन्द्र जस चन्द्रिका] सूरदास ,मीरा और अन्य सनातनी हिन्दूभक्त  कवियों के सकल  हिंदी - संस्कृत - वांग्मय को  पढ़ पाना तो  किसी एक व्यक्ति के लिए एक जन्म में कदापि संभव नहीं।  किन्तु  जहाँ -जितना सम्भव  था या उपलब्ध  हुआ वह मैंने  बहुत ध्यान से  पढ़ा किंतु  हिंदी -हिन्दू   -हिन्दुस्तान शब्द कहीं नहीं मिले। भवद्गीता या महाभारत में 'भारत' और 'आर्य' शब्दों का उल्लेख जरुर बार-बार आया है।जैन पउमचरित् या पद्मपुराण और बौद्ध  दर्शन की बृहद  ग्रंथ्वाली-सुत्तपिटक ,विनयपिटक और मझ्झम निकाय में भी उपरोक्त शब्द कहीं देखने में नहीं आये।
                                           जब  कहीं 'हिन्दू' शब्द  नहीं मिला  तो सामंती युगीन रसिक दरवारियों-चंदवरदाई,  विद्यापति,भूषण ,समर्थ रामदास और बिहारी को भी पढ़ डाला। तमाम गोरखपंथ को घोंट डाला।  षट्दर्शन घोंट कर पी गए।  बहुत कुछ ज्ञान की बातें सब जगह भरी पडी हैं. किन्तु कहीं पर भी  'हिन्दू, शब्द का उल्लेख   नहीं  मिला । लेकिन  सामन्तकालीन सूफियों उर्दू के  शायरों और फारसी के  कवियों की कृतियों में  यह 'हिन्दू' शब्द इफरात से मिलता है। बीसवीं सदी के उर्दू  शायर अल्लामा इकबाल कृत  'सारे  जहां से  अच्छा हिन्दोस्ताँ  हमारा ……… हिंदी हैं हम वतन हैं …… से लेकर मुगलकालीन दरबारी कवि -लेखक  अबुल फजल तक - और जायसी से लेकर 'अमीर खुसरो' तक सभी ने 'हिंदी-हिन्दू -हिन्दुस्तान' का उल्लेख किया है।जबकि संस्कृतनिष्ठ बांग्ला और देवनागरी में रचे गए भारत राष्ट्र के 'राष्ट्रगान'-जन -गण-मन -अधिनायक .... या इसके राष्ट्रगीत  -सुजलाम-सुफलाम -मलयज शीतलाम ,,,,,,,, में 'हिन्दू-हिंदी -हिन्दुस्तान' का कहीं कोई उल्लेख नहीं हैं। फिर  हिंदुत्व' के नाम पर यह फितरत क्यों की जा रही है। 
                                           हो सकता है कि तुर्क मुगल ,पठान   भारत के लोगों को 'हिन्दू' पुकारा करते होंगे।  वेशक जायसी ,खुसरो  ग़ालिब   की रचनाओं में 'हिन्दू'  शब्द आया है. कबीर  भी कहते हैं ;-

     "कहि हिन्दू मोहि राम प्यारा ,तुरुक कहे रहिमाना। संतो देखों जग बौराना

   फैजी , दारा  शिकोह  की कृतियों और अब्दुर्रहीम खान -ए -खाना  द्वारा रचित कृष्ण के दोहों में  भी हिन्दू शब्द के  कहीं-कहीं दीदार अवश्य  हुए हैं।  शिवाजी के उत्तराधिकारी पेशवाओं का 'हिंदवी स्वराज' भी कुछ अलग किस्म का ही था। लेकिन  शिवाजी या उनके  उत्तराधिकारियों के चिंतन में भी धर्मनिरपेक्षता विद्यमान थी। वे दुष्टों के लिए कटटर थे किन्तु आम जनता के लिए  नवनीत की मानिंद दयालु और करुणासागर थे। वीसवीं शताब्दी के मध्यकाल में भारतेन्दु  हरिश्चन्द्र और बंकिमचंद चटर्जी  जैसे बँगला -देशज भाषा-खड़ी बोली ,बृज  और अवधी के  कवियों ,लेखकों  ने जब 'हिन्दी ' भाषा को संस्कारित  किया होगा तो शायद उन्होंने अपने आपको 'हिन्दू' मानकर ही भाषा का संधारण किया होगा।  भारतीय रेनेसां के दौर में  भी जब बंगाल में 'ब्रह्म समाज ' ने बांग्ला पर अंग्रेजी के प्रभुत्व का प्रतिकार किया तो शेष  भारत में जहाँ अंग्रेजी का चलन मामूली  ही  था वहां के 'हिन्द्वियों' में भी राष्ट्रीय चेतना पुष्पित  पल्ल्वित   होने लगी।उन्हें शायद लगने लगा कि अंग्रेजी की ही तरह  उर्दू ,अरबी ,फारसी  इत्यादि भाषाएँ भी  आक्राँताओं ' की ही हैं। तब भी व्यवहार में   भारत -भारतीय ,मादरे वतन  की  बनिस्पत  'हिन्दू'  शब्द जुबान पर कम ही आया।
                   स्वाधी नता संग्राम के लम्बे अंतराल में जब अंग्रेजों ने समाज को विभाजित करने की कूटनीति अपनायी तब उर्दू ,फारसी ,अरवी और अंग्रेजी के लेखकों ने -शायरों  ने  उस भारतीय  समुदाय  को जो खड़ी  बोली ,ब्रिज -अबधी ,संस्कृत और 'हिंदवी' में लिखता  था ,उसे 'हिन्दू' पदवी  प्रदान की। खास   तौर  से  हिंदी भाषा के अलावा अन्य क्षेत्रों  के गैर उर्दू  भाषी  भारतीयों को भी उस  पाले में ला खड़ा किया  जिसे बाद में  'हिन्दू' कहा  जाने लगा।वास्तव में बारीकी से  अध्यन करने पर हम पाते हैं कि  भले  ही किसी खास धर्म-मजहब पर किसी खास देश या काल में  उसके  आविर्भाव  की 'छाप' लगा दी जाए.  किन्तु  सार  - रूप में तो  सभी धर्म-मजहब  सर्वकालिक और सार्वदेशिक ही हैं।दुनिया में कुछ  मतान्ध लोगों को  पता नहीं क्यों लगता है  कि उनका  'अमुक ' मत-सिद्धांत   धर्म  - मजहब  या दर्शन - पंथ  ही सर्वश्रेष्ठ है। उनके मत का  प्रमुख संस्थापक  ही संसार  का तारणहार है। वरना  तो दुनिया अँधेरे में ही भटक  रही थी।
                                 जबकि वास्तव में हुआ इसका उल्टा ,जब -जब कोई 'बड़े महाशय' ईश्वर या उसके दूत - अवतार -पैगंबर बनकर इस धरा पर पधारे तो उन की व्यक्तिगत 'खब्त' के कारण इस धरती  के तमाम प्राणियों को  भारी दुःख झेलने पड़े।  जिस -किसी  'मत ' का  प्रमुख  दृष्टा  जहाँ  भी  'अवतरित' हुआ। वहीं अपनी गटर गंगा  बहाकर  इस धरा को लहूलुहान मरने में जुट  गया। कुछ मजहबों में तो व्यक्तिगत  लोलुपता  और तानाशाही का ही बोलबाला रहा है। कुछ मजहबी  उन्मादियों द्वारा आहूत किये गए, प्रकाशित  किये गए  ,संपादित किये गए धर्म  ग्रन्थ'को  ही अंतिम  सत्य  मानने की निरंकुश  परम्परा कायम की गयी  ! उसके  जन्मना कटरपंथी  धर्मांध - अनुयायी  अपने आपको स्वयंभू उत्तराधिकारी  मानने लगे  । कुछ तो  अपने आप को  उसके पेटेंट का  हकदार ही मान बैठे ।  अपने पुश्तैनी पाखंड  को बचाने के लिए किये जा रहे प्रयाशों  ' जेहाद' कहीं 'धर्मांतरण' कहीं 'सेवा भावना' कहीं लोभ लालच ,कहीं मार काट कहीं सभ्यताओं के नाम पर रक्तपात हो रहा है।
                         दरसल जिस तरह   बाइबिल  ,कुरआन  , जेंदावेस्ता ,ओल्ड टेस्टामेंट , कन्फूसियस  दर्शन , को उनके सृजनहार की जन्मभूमि - कर्मभूमि पश्चिम एशिया और यूरोप से खाद -पानी मिला ,उसी तरह  हिन्दुओं  की भी  आम धारणा है कि   ऋग्वेद ,सामवेद ,यजुर्वेद और अथर्ववेद ही नहीं बल्कि आयुर्वेद का सृजन  भारतीय उपमहाद्वीप  में हुआ  है।  चूँकि वेद किसी काल खंड में या किसी खास व्यक्ति द्वारा रचित नहीं हैं,उनके प्रमुख रचियता या मन्त्र  दृष्टा ऋषियों  की बड़ी लम्बी सूची है।  जो भिन्न-भिन्न काल में ,भिन्न -भिन्न मन्त्रों और वेद-वेदांगों के सृजनकर्ता रहे हैं ।  शायद इसीलिये वेदों को  'अपौरषेय'  भी  माना  जाता है। दरसल  जिस तरह  'नॉर्मन्स ' लोगों  दवारा या रोमन समाज द्वारा  ईसा  के  एक हजार साल पूर्व  से  ही  उस बौद्धिक चेतना को प्रकाशित किया गया  जो बाद में 'मैग्नाकार्टा' के प्रकटीकरण का आधार बना। सैकड़ों  साल बाद  लम्बे अंतराल  के बाद  एक महान राजनैतिक  समष्टिक चिंतन धारा  को  'ब्रिटश संविधान' के रूप में सूत्र  बद्ध  किया जा  सका। जिस ने   न केवल ब्रिटेन को बल्कि समूची  दुनिया  को लोकतंत्र का आधार  दिया।
                                                     भारतीय राजनैतिक,सामाजिक ,साहित्यिक और आध्यत्मिक  मनीषियों ने, भी  ईसा  से हजारों साल पहले ही एक लम्बी राजनैतिक ,आर्थिक ,सामाजिक , दार्शनिक  और आध्यात्मिक चिंतनधारा  को सूत्र  बद्ध  कर लिया था ।न केवल  रामायण या महाभारत बल्कि 'षड्दर्शन' में उसकी झलक बखूबी देखि जा सकती है। चूँकि बौद्धकालीन भारत को 'अहिंसा -भिक्षा -भोग' की लत  पड़  गयी थी। अतएव बहुत सम्भव है कि बाहरी यायावर  हिंसक आक्रन्ताओं  को भारत विजय में आसानी रही होगी।  विजेता कौम या मजहबी कबीलों  ने न  केवल भारत की दमित  जनता क उत्पीड़न किया होगा बल्कि उसकी परम्परगत  'आदर्श'  मानवीय मूल्यों से सराबोर  जीवन  शैली को खत्म करने की भी कोशिश की होगी।  न केवल सभ्यता ,संस्कृति बल्कि उसकी तमाम प्राचीन गौरवशाली धरोहर को ध्वस्त करने में बढ चढ़कर कारवाही की होगी। सुदूरपूर्व के देशों में भारत ने भी कुछ कालखण्ड में ऐसा ही किया होगा।इस आयाराम-गयाराम के कारण भारतीय महाद्वीप  का मौलिक और परम्परागत स्वरूप  के नष्ट होने से बचे अवशेषों और आक्रमणकारी जातियों के प्रत्यारोपित मूल्यों से निर्मित नयी सभ्यता के भारत को 'मुगलकालीन' बहरत कह सकते हैं।  अंग्रेजों ने इसी भारत को हस्तगत कर जो  इस महादीप में  जो आधा दरजन   देश बना डाले वे सभी उस प्राचीन भारतीय सभ्यता के ही  ओरस पुत्र  हैं। भारत ,पाकिस्तान ,श्रीलंका ,तिब्बत ,नेपाल और बांग्लादेश तो एक ही 'गोत्र' के हैं।  जिसे 'वैदिक' गोत्र कहा जा सकता है।
                    वैसे तो   विश्व के सभी  प्रमुख  धर्म ग्रंथों  में  मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठित किया गया है।  किन्तु   वेद ,उपनिषद ,संहिताएं और आरण्यक  अर्थात ' वेदान्त दर्शन' कुछ ख़ास विशेषता से परिपूर्ण हैं। वह डंके की चोट कहता है कि :-

                            इन्द्रं  मित्रम वरुणम्  अहुरथो ,दिव्या सो गरुत्मान् ।

                              एकम सद्  विप्रा बहुधा  वदन्ति  मात्रिश्वानाहु ।।


भावार्थ :- इंद्र ,मित्र ,वरुण ,अग्नि ,अहोरम, याहोबा  या की और [अल्लाह, खुदा ,जेहोबा हो ]   कोई भी नाम दो उस परम सत्य को "वह एक ही है '! इतना ही नहीं इससे भी एक कदम आगे हिन्दू [वैदिक] मत कहता है :-

                 अयं   निजः  परोवेति , गणना लघु चेतसाम्।

                  उदार     चरितानाम तू , वसुधैव  कुटुम्कम।।

                                    उपरोक्त विराट  मूल्यों और  सिद्धांतों पर चले जो वही तो सही मायने में हिन्दू है।
 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें