गुरुवार, 19 मार्च 2015

भारतीय समाज तो सनातन से सहज धर्मनिरपेक्षतावादी ही है। -[भाग -1]

 मेरा ऐसा मानना है कि  अधिकांस प्रबुद्ध भारतीय जन-गण  अपने देश और उसके संविधान को सबसे अहम और पवित्र मानते हैं !किन्तु कुछ अपवाद भी हैं। कुछ नागरिक जो भारत में जन्में हैं, भारत में  ही पले -बढ़े है वे  अपने  देश से बढ़कर अपने मजहब को ही बड़ा मानते हैं , कुछ लोग अपने  देश के संविधान  से ऊपर  अपनी जाति -खाप और अपने समाज के  दकिनूसी बर्बर उसूलों  को  ही तरजीह दे रहे हैं। कुछ लोग अपनी  तथाकथित पिछड़ी-दलित जाति  की वैचारिक संकीर्णता को राष्ट्र से ऊपर  मानते हैं। कुछ लोग तो देश से ऊपर आरक्षण और जातीय  गिरोहबंदी को  भी  बड़ा मानते हैं। कुछ लोग  अपनी खाप  के क़ानून  को देश के कानून से  भी उपर मानते हैं । यदि कोई शख्स  इन तत्वो के खिलाफ आवाज उठाये तो असली राष्ट्रप्रेम और असल प्रगतिशीलता   वही है। इन  बेहूदा  नकारात्मक तत्वों की देश में भरमार है। इन के वोट की फ़िक्र करने मात्र से भारत को चीन  - जापान या अमेरिका जैसा ताकतवर नहीं बनाया जा सकता। वर्तमान राजनैतिक बिडंबना यही है कि देश के प्रति जिनको रंचमात्र आश्था नहीं ,वे ही धर्म-जाति -मजहब -खाप -आरक्षण और अलगाववाद की ज्वाला सुलगा रहे हैं। कुछ लोग इन  नकारात्मक तत्वों की तुलना 'संघपरिवार ' से कर बैठते है जो की हास्यापद है।
 
              वेशक 'संघी' चिंतन के मूल में फासिज्म की बू आती है। किन्तु 'संघ' की तुलना न तो नक्सलवादियों से की जा सकती है और न ही उनसे जो देश और संविधान से ऊपर अपनी ढपली -अपना राग छेड़ते रहते हैं। अक्सर  कहा जाता  है कि  आईएसआईएस- तालिवान और 'संघ'  सभी  एक जैसे हैं !क्योंकि ये सभी  अमेरिका की खूब  आलोचना करते हैं।  ये सभी पाश्चात्य सभ्यता के विरोधी हैं।ये सभी मजहबी संगठन अतीतगामी हैं।किन्तु इस  दुनिया में भारत के अलावा  शायद ही कोई अन्य  मुल्क होगा जहाँ के मजहबी  बहुसंख्यक  लोग सत्ता में आने पर  किसी अन्य मुल्क में  भी आतंकी कार्रवाइयों में लिप्त न हों।आईएस के बारूद की दुर्गन्ध   इराक  , सीरिया  , लेबनान  यमन  और लीबिया  ही नहीं बल्कि अफगानिस्तान पाकिस्तान और  हिन्दुस्तान तक आ रही है।  क्या 'संघ परिवार' का कोई प्रमाण दुनिया में इस प्रकार का  है  ?  भारत में अक्सर धर्मनिरपेक्ष और  प्रगतिशील चिंतक संघ को ही निशाना बनाते रहते हैं। जबकि अल्पसंख्यक वर्गों  के मुखिया खुद ही  संघ के सौजन्य और सामाजिक 'समरसता' की तारीफ़ करते रहते हैं।  यही वजह है कि पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यक लोग 'माकपा' और वामपंथ का उपहास  कर रहे  हैं। वहां के अधिकांस हिन्दू अब भाजपा की ओर खिसक रहे हैं।अल्पसंख्यक - मुस्लिम केवल  ममता का गुणगान कर रहे हैं। क्या  वजह है कि न केवल कांग्रेस या वामदल बल्कि अधिकांस धर्मनिरपेक्ष  पार्टियों का जनाधार तेजी से खिसक रहा है। 
                        हिन्दुओं के अलावा अन्य मजहबों के लोग अपने सर्वोच्च धार्मिक सत्ता  केंद्र से निर्देशित होते हैं। जबकि अधिकांस हिन्दू सहज सरल और धर्मनिरपेक्ष ही  होते हैं । भले ही विगत  कुछ सालों से  'संघ' परिवार ने हिन्दुओं का राजनैतिक शोषण किया है।  किन्तु दुनिया भर में आग मूत  रहे हिंसक मजहबी संगठनों के सामने संघ  की तस्वीर किसी शुतुरमुर्ग से ज्यादा नहीं है। यही कारण है कि अधिसंख्य हिन्दू का दवाव है कि      'संघ'  भाजपा पर लगाम  कसके रखे । उसे अपनी अनुषंगी -भाजपा की कटटर  कार्पोरेट परस्त नीतियों के विरोध का ढोंग नहीं करना चाहिए।  संघ पर हिंदुत्व की प्रगतिशील कतारों का दवाव है कि अपनी छवि को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद सीमित रखे।  जो हिन्दू 'संघ ' से जुड़े हैं उन्हें भी यह भी  याद दिलाना चाहिए कि  वे शहीद भगतसिंह ,आजाद,सुखदेव ,राजगुरु ,सुभाषचन्द्र वोस और उनके साथियों-सहगल- ढिल्लों -शाहनवाज से  बड़े देशभक्त नहीं हो सकते। हमारे ये सभी 'नायक' धर्मनिरपेक्षता के तरफदार थे। उनकी तरह का राष्ट्र प्रेम होना या राष्ट्रीय स्वाभिमान  होना वेशक बड़े गर्व और प्रतिष्ठा की बात है।किन्तु इन राष्ट्र निर्माताओं के सिद्धांतों की अनदेखी कर या गलत व्यख्या कर अपनी राजनैतिक रोटी सेंकना कहीं से भी युक्तिसंगत नहीं है। यह कृत्य किसी भी तरह से देशभक्तिपूर्ण  नहीं कहा जा सकता।
                      भारत में जबसे  मोदी सरकार को लोक सभा में बम्फर बहुमत मिला है। तभी से हिंदुत्व के नाम पर राजनीति  करने का चलन सड़क छाप हो  चुका  है। इस आरोप पर 'हिंदुत्व' के अलंबरदारों  का कुतर्क होता है कि 'सब यही कर रहे हैं '। उनका तर्क है जापानियों ,ज्रर्मनों यहूदिओं ,ईसाइयों ,अंग्रजों और मुसलमानों की तरह हमे भी कौम की कटटरता सीखनी चाहिए। उनका कहना है कि चूँकि भारत के मुसलमान,ईसाई  तथा अन्य अल्पसंख्यक वर्ग के लोग अपनी मजहबी सोच के वशीभूत होकर टैक्टिकल  वोटिंग किया करते हैं ।चूँकि इमाम बुखारी  और ओवैसी  जैसे  अल्पसंख्यक कतारों के नेता  इस्लामिक  कटटरवाद में अपना राजनैतिक स्वार्थ साधते रहते हैं। इसलिए हिन्दुओं को  भी धर्म-और राजनीति  का घालमेल कर सत्ता पर काबिज रहना चाहिए ।                            अव्वल तो कोई भी सच्चा भारतीय[हिन्दू] यह कतई स्वीकार नहीं कर सकता कि अपने अमर शहीदों की 'धर्मनिरपेक्षतावादी' अवधारणा को ध्वस्त करे।दूसरी बात  हिन्दुओं को किसी 'विधर्मी' से उसका हिंसक और लूट पर आधारित उधार का ज्ञान लेने  की आदत ही नहीं है ! तीसरी  बात 'हिंदुत्व' की श्रेष्ठता तो पहले  से ही वाकई दुनिया  में बेजोड़ है। चूँकि  वह क्षमा,करुणा ,परोपकार,सत्य ,अहिंसा ,अपरिग्रह और सहज सहिष्णुता इत्यादि  महानतम मूल्यों का  उतसर्जक -उत्प्रेरक और  धारक है। अतएव  इन श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों को  ध्वस्त कर राज्य सत्ता प्राप्त करना  भारतीय [हिन्दू] परम्परा के अनुकूल  नहीं है। जिस तरह एक  शुद्ध   शाकाहारी हाथी  कभी आदमखोर भेड़िया नहीं हो सकता उसी तरह  हिंदुत्व जैसी किसी  सहिष्णु और उदार  चरित्र की  हिन्दु कौम को  दुनिया के हिंसक -उन्मादी -लम्पट  और आवारा  कबायलियों जैसा नहीं बांया जा सकता। नहीं किया जा सकता।जो  निर्धन गरीब मजदूर -किसान हिन्दू संघ के प्रभाव में आकर भाजपा के साथ  चले जाते हैं , जो शोषित -पीड़ित मुस्लिम किसान -मजदूर -कारीगर अपने कठमुल्लों के प्रभाव में-कांग्रेस  , मुफ्ती  ,मुलायम ,मायावती , ,केजरीवाल ,लालू  ,नीतीश  और ममता के साथ टैक्टिकल  वोट करने में बिखर जाते हैं वे भारत के प्रगतिशील आंदोलन को बर्बाद करने के लिए जिम्मेदार हैं।  जो हिन्दू किसी अन्य मजहब या कौम से नफरत करे वो हिन्दू हो ही नहीं सकता।  क्योंकि असली हिन्दू जानता है कि "ईश्वर सब में है और सब  में सब है " वैसे भी हिन्दू शब्द ही आयातित और परकीय है। वरना भारतीय समाज तो सनातन से सहज धर्मनिरपेक्षतावादी  ही है।

                                                       श्रीराम तिवारी

   भारतीय समाज तो सनातन से सहज धर्मनिरपेक्षतावादी  ही है। [भाग-२]


                           मुझे जब  कई बार  भगवद गीता पढ़ने पर उसमें 'हिन्दू' शब्द नहीं मिला तो मैंने उसके मूल ग्रन्थ  महाभारत को ही आद्योपांत बारीकी से  पढ़ डाला।  महाभारत में 'सब कुछ मिला' किन्तु 'हिन्दू ' शब्द का उल्लेख  कहीं नहीं मिला। बाल्मिकी रामायण [संस्कृत ]  भी  पढ़ डाली कि  कहीं उसमें ही एक अदद   'हिन्दू' शब्द  मिल जाये । किसी भी  महानतम 'आर्य ग्रन्थ ' में 'हिन्दू' शब्द नहीं मिला। तुलसीकृत -रामचरितमानस में- कि सनातन धर्म के अनुयायियों की अर्वाचीन - मुगलकालीन कृति है।इसमें भी और तो सब कुछ है किन्तु 'हिन्दू' शब्द तो  क्या उसके ' धातु' रूप के भी  दर्शन नहीं हुए। कालिदास ,भवभूति ,भोज ,भर्तृहरि ,मुद्राराक्षस को भी पढ़ डाला किन्तु 'हिन्दू' शब्द के लिए आँखें तरस गयीं।  आदि शंकराचार्य ,जयदेव[गीत गोविन्दम], चैतन्य महाप्रभु, केशवदास [रामचन्द्र जस चन्द्रिका] सूरदास ,मीरा और अन्य  सनातनी हिन्दू भक्त कवियों के सकल  भारतीय तथा  संस्कृत - वांग्मय को  पढ़ पाना तो  किसी एक व्यक्ति के लिए एक जन्म में  भी संभव नहीं है।  किन्तु  जहाँ -जितना सम्भव  था या उपलब्ध  हुआ वह मैंने  बहुत ध्यान से पड़ा है। किन्तु हिंदी -हिन्दू -हिन्दुस्तान शब्द कहीं नहीं मिले। भवद्गीता या महाभारत में 'भारत' और 'आर्य' शब्दों का उल्लेख जरुर बार-बार आया है।
                                           जब  कहीं 'हिन्दू' शब्द  नहीं मिला  तो सामंती युगीन रसिक दरवारियों-चंदवरदाई,  विद्यापति,भूषण ,समर्थ रामदास और बिहारी को भी पढ़ डाला। तमाम गोरखपंथ को घोंट डाला।  षट्दर्शन घोंट कर पी गए।  बहुत कुछ ज्ञान की बातें सब जगह भरी पडी हैं. किन्तु कहीं पर भी  'हिन्दू, शब्द का उल्लेख   नहीं  मिला । लेकिन  सामन्तकालीन सूफियों उर्दू के  शायरों और फारसी के  कवियों की कृतियों में  यह 'हिन्दू' शब्द इफरात से मिलता है। बीसवीं सदी के उर्दू  शायर अल्लामा इकबाल कृत  'सारे  जहां से  अच्छा हिन्दोस्ताँ  हमारा ……… हिंदी हैं हम वतन हैं …… से लेकर मुगलकालीन दरबारी कवि -लेखक  अबुल फजल तक - और जायसी से लेकर 'अमीर खुसरो' तक सभी ने 'हिंदी-हिन्दू -हिन्दुस्तान' का उल्लेख किया है।जबकि संस्कृतनिष्ठ बांग्ला और देवनागरी में रचे गए भारत राष्ट्र के 'राष्ट्रगान'-जन -गण-मन -अधिनायक .... या इसके राष्ट्रगीत  -सुजलाम-सुफलाम -मलयज शीतलाम ,,,,,,,, में 'हिन्दू-हिंदी -हिन्दुस्तान' का कहीं कोई उल्लेख नहीं हैं। फिर  हिंदुत्व' के नाम पर यह फितरत क्यों की जा रही है। 
                                           हो सकता है कि तुर्क मुगल ,पठान   भारत के लोगों को 'हिन्दू' पुकारा करते होंगे।  वेशक जायसी ,खुसरो  ग़ालिब   की रचनाओं में 'हिन्दू'  शब्द आया है. कबीर  भी कहते हैं ;-

     "कहि हिन्दू मोहि राम प्यारा ,तुरुक कहे रहिमाना। संतो देखों जग बौराना

   फैजी , दारा  शिकोह ,अब्दुर्रहीम खान -ए -खाना  द्वारा रचित कृष्ण के दोहों में  भी हिन्दू शब्द के दीदार हुए हैं।  शिवाजी के  उत्तराधिकारी पेशवाओं का 'हिंदवी स्वराज' भी कुछ अलग किस्म का ही था। लेकिन  शिवाजी के चिंतन में भी धर्मनिरपेक्षता विद्यमान थी। वे  दुष्टों के लिए कटटर थे. किन्तु आम जनता के लिए  नवनीत की मानिंद दयालु और करुणासागर थे। वीसवीं शताब्दी के मध्यकाल में भारतेन्दु  हरिश्चन्द्र और बंकिमचंद चटर्जी  जैसे बँगला -देशज भाषा-खड़ी बोली ,बृज  और अवधी के  कवियों ,लेखकों  ने जब 'हिन्दी ' भाषा का नामकरण संस्कार किया होगा तो शायद उन्होंने अपने आपको 'हिन्दू' मानकर ही भाषा का संधारण किया होगा।  भारतीय रेनेसां के दौर में  भी जब बंगाल में 'ब्रह्म समाज ' ने बांग्ला पर अंग्रेजी के प्रभुत्व का प्रतिकार किया तो शेष  भारत में जहाँ अंग्रेजी का चलन मामूली  ही  था वहां के 'हिन्द्वियों' में भी राष्ट्रीय चेतना पुष्पित  पल्ल्वित   होने लगी।उन्हें शायद लगने लगा कि अंग्रेजी की ही तरह  उर्दू ,अरबी ,फारसी  इत्यादि भाषाएँ भी  आक्राँताओं ' की ही हैं। 
                  स्वाधी नता संग्राम के लम्बे अंतराल में जब अंग्रेजों ने समाज को विभाजित करने की कूटनीति अपनायी तब उर्दू ,फारसी ,अरवी और अंग्रेजी के लेखकों ने -शायरों  ने  उस भारतीय  समुदाय  को जो खड़ी  बोली ,ब्रिज -अबधी ,संस्कृत और 'हिंदवी' में लिखता  था ,उसे 'हिन्दू' पदवी  प्रदान की।  हिंदी भाषा के अलावा अन्य क्षेत्रों को भी जिस पाले में ला खड़ा किया उसे  'हिन्दू' कहा  जाने लगा।वास्तव में बारीकी से  अध्यन करने पर हम पाते हैं कि  भले  ही किसी खास धर्म-मजहब पर किसी खास देश या काल में  उसके  आविर्भाव  की 'छाप' लगा दी जाए  किन्तु  सार  - रूप में तो  सभी धर्म-मजहब  सर्वकालिक और सार्वदेशिक ही हैं।दुनिया में कुछ  मतान्ध लोगों को  पता नहीं क्यों लगता है  कि उनका  'अमुक ' मत-सिद्धांत   धर्म  - मजहब  या दर्शन - पंथ  ही सर्वश्रेष्ठ है। उनके मत का  प्रमुख संस्थापक  ही संसार  का तारणहार है। वरना  तो दुनिया अँधेरे में ही भटक  रही थी।
                                 जबकि वास्तव में हुआ इसका उल्टा ,जब -जब कोई 'बड़े महाशय' ईश्वर या उसके दूत - अवतार -पैगंबर बनकर इस धरा पर पधारे तो उन की व्यक्तिगत 'खब्त' के कारण इस धरती  के तमाम प्राणियों को  भारी दुःख झेलने पड़े।  जिस -किसी  'मत ' का  प्रमुख  दृष्टा  जहाँ  भी  'अवतरित' हुआ। वहीं अपनी गटर गंगा  बहाकर  इस धरा को लहूलुहान मरने में जुट  गया। कुछ मजहबों में तो व्यक्तिगत  लोलुपता  और तानाशाही का ही बोलबाला रहा है। कुछ मजहबी  उन्मादियों द्वारा आहूत किये गए, प्रकाशित  किये गए  ,संपादित किये गए धर्म  ग्रन्थ'को  ही अंतिम  सत्य  मानने की निरंकुश  परम्परा कायम की गयी  ! उसके  जन्मना कटरपंथी  धर्मांध - अनुयायी  अपने आपको स्वयंभू उत्तराधिकारी  मानने लगे  । कुछ तो  अपने आप को  उसके पेटेंट का  हकदार ही मान बैठे ।  अपने पुश्तैनी पाखंड  को बचाने के लिए किये जा रहे प्रयाशों  ' जेहाद' कहीं 'धर्मांतरण' कहीं 'सेवा भावना' कहीं लोभ लालच ,कहीं मार काट कहीं सभ्यताओं के नाम पर रक्तपात हो रहा है।
                         दरसल जिस तरह   बाइबिल  ,कुरआन  , जेंदावेस्ता ,ओल्ड टेस्टामेंट , कन्फूसियस  दर्शन , को उनके सृजनहार की जन्मभूमि - कर्मभूमि पश्चिम एशिया और यूरोप से खाद -पानी मिला ,उसी तरह  हिन्दुओं  की भी  आम धारणा है कि   ऋग्वेद ,सामवेद ,यजुर्वेद और अथर्ववेद ही नहीं बल्कि आयुर्वेद का सृजन  भारतीय उपमहाद्वीप  में हुआ  है।  चूँकि वेद किसी काल खंड में या किसी खास व्यक्ति द्वारा रचित नहीं हैं,उनके प्रमुख रचियता या मन्त्र  दृष्टा ऋषियों  की बड़ी लम्बी सूची है।  जो भिन्न-भिन्न काल में ,भिन्न -भिन्न मन्त्रों और वेद-वेदांगों के सृजनकर्ता रहे हैं ।  शायद इसीलिये वेदों को  'अपौरषेय'  भी  माना  जाता है। दरसल  जिस तरह  'नॉर्मन्स ' लोगों  दवारा या रोमन समाज द्वारा  ईसा  के  एक हजार साल पूर्व  से  ही  उस बौद्धिक चेतना को प्रकाशित किया गया  जो बाद में 'मैग्नाकार्टा' के प्रकटीकरण का आधार बना। सैकड़ों  साल बाद  लम्बे अंतराल  के बाद  एक महान राजनैतिक  समष्टिक चिंतन धारा  को  'ब्रिटश संविधान' के रूप में सूत्र  बद्ध  किया जा  सका। जिस ने   न केवल ब्रिटेन को बल्कि समूची  दुनिया  को लोकतंत्र का आधार  दिया।
                                                     भारतीय राजनैतिक,सामाजिक ,साहित्यिक और आध्यत्मिक  मनीषियों ने, भी  ईसा  से हजारों साल पहले ही एक लम्बी राजनैतिक ,आर्थिक ,सामाजिक , दार्शनिक  और आध्यात्मिक चिंतनधारा  को सूत्र  बद्ध  कर लिया था ।न केवल  रामायण या महाभारत बल्कि 'षड्दर्शन' में उसकी झलक बखूबी देखि जा सकती है। चूँकि बौद्धकालीन भारत को 'अहिंसा -भिक्षा -भोग' की लत  पड़  गयी थी। अतएव बहुत सम्भव है कि बाहरी यायावर  हिंसक आक्रन्ताओं  को भारत विजय में आसानी रही होगी।  विजेता कौम या मजहबी कबीलों  ने न  केवल भारत की दमित  जनता क उत्पीड़न किया होगा बल्कि उसकी परम्परगत  'आदर्श'  मानवीय मूल्यों से सराबोर  जीवन  शैली को खत्म करने की भी कोशिश की होगी।  न केवल सभ्यता ,संस्कृति बल्कि उसकी तमाम प्राचीन गौरवशाली धरोहर को ध्वस्त करने में बढ चढ़कर कारवाही की होगी। सुदूरपूर्व के देशों में भारत ने भी कुछ कालखण्ड में ऐसा ही किया होगा।इस आयाराम-गयाराम के कारण भारतीय महाद्वीप  का मौलिक और परम्परागत स्वरूप  के नष्ट होने से बचे अवशेषों और आक्रमणकारी जातियों के प्रत्यारोपित मूल्यों से निर्मित नयी सभ्यता के भारत को 'मुगलकालीन' बहरत कह सकते हैं।  अंग्रेजों ने इसी भारत को हस्तगत कर जो  इस महादीप में  जो आधा दरजन   देश बना डाले वे सभी उस प्राचीन भारतीय सभ्यता के ही  ओरस पुत्र  हैं। भारत ,पाकिस्तान ,श्रीलंका ,तिब्बत ,नेपाल और बांग्लादेश तो एक ही 'गोत्र' के हैं।  जिसे 'वैदिक' गोत्र कहा जा सकता है।
                    वैसे तो   विश्व के सभी  प्रमुख  धर्म ग्रंथों  में  मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठित किया गया है।  किन्तु   वेद ,उपनिषद ,संहिताएं और आरण्यक  अर्थात ' वेदान्त दर्शन' कुछ ख़ास विशेषता से परिपूर्ण हैं। वह डंके की चोट कहता है कि :-

                            इन्द्रं  मित्रम वरुणम्  अहुरथो ,दिव्या सो गरुत्मान् ।

                              एकम सद्  विप्रा बहुधा  वदन्ति  मात्रिश्वानाहु ।।


भावार्थ :- इंद्र ,मित्र ,वरुण ,अग्नि ,अहोरम, याहोबा  या की और [अल्लाह, खुदा ,जेहोबा हो ]   कोई भी नाम दो उस परम सत्य को "वह एक ही है '! इतना ही नहीं इससे भी एक कदम आगे हिन्दू [वैदिक] मत कहता है :-

                 अयं   निजः  परोवेति , गणना लघु चेतसाम्।

                  उदार     चरितानाम तू , वसुधैव  कुटुम्कम।।  क्यों

उपरोक्त विराट  मूल्यों और  सिद्धांतों पर चले जो वही तो सही मायने में हिन्दू है।  उच्चतर  नैतिकता से सराबोर हिन्दू  ही 'हिंदुत्व' की रक्षा कर सकता है। विधर्मी से घृणा करना या उनके प्रचारकों  की आलोचना  करना 'धार्मिक नेताओं' का काम नहीं ! मोहनराव भागवत जी को यह शोभा  नहीं देता कि  वे 'महाजनो ये गतः सः  पन्थः ' से विचलित हों ! शील और  करुणा के जगद्गुरु भारत  के सिरमौर 'हिंदुत्व' को और उसके स्वयंभू  रक्षकों को  हालाँकि  किसी अन्य धर्म के गुरु से सीखने की जरुरत तो नहीं किन्तु भागवत जी को और उनके अन्य अनियंत्रित अनुयाइयों  को एक घटना का जिक्र यहाँ अपेक्षित है
          विगत दिनों जब एक मामूली कार्टून  से खपा होकर  इस्लामिक आतंकियों ने 'शार्ली  हेब्दों' के दफ्तर पर हमला किया और अधिकांस पत्रकारों को गोलियों से भून दिया तो इस कार्यवाही का सारे  सभ्य संसार ने पुरजोर विरोध किया। यूरोप में तो  ऐसा लगा मानों  ईसाई  वनाम मुस्लिम का विश्वयुद्ध ही छिड़ने वाला हो ! कैथोलिकों  ने और अन्य जमातों के गैर इस्लामिक अनुयाईयों ने न केवल उग्र प्रदर्शन किये अपितु शार्ली  हेब्दों के समर्थन में और ज्यादा  भद्दे कार्टून तथा स्लोगन जारी किये।  पोप  बेनेडिक्ट  ने इस कार्यवाही का समर्थन नहीं किया।  उन्होंने बड़ी शालीनता से धैर्य ने खोते हुए हिंसक आतंकियों को माफ़ किये जाने और इंसानियत की सही राह पर आने का आह्वान किया। भारतीय हिन्दुत्ववादी  धर्म रक्षक तो भस्मासुर बनने को उतावले हो रहे हैं।  भागवत जी ने तो सिर्फ एक ईमानदाराना  सवाल ही उठाया था किन्तु उनकी सरपरस्ती में पलने वाले सत्ता पिपासु  राजनैतिक नेता और हिन्दुत्ववादी धर्मयोद्धा तो केवल अंगार ही उगल रहे हैं।  कोई रामजादे  बनाम - हरामजादे की बात करता है कोई चार-बच्चे पैदा करने क फरमान जारी करता  है ,कोई इस बात पर सवाल खड़े करता है कि  फ़िल्मी दुनिया के  मुस्लिम हीरो,मुस्लिम  पॉलिटिकल लीडर्स  को केवल सुंदर हिन्दू कन्याएं ही क्यों भाती  हैं ?  वे अण्डर वर्ल्ड  से जुड़े तमाम -अबु सालेम और दाऊद जैसे  औरतखोरों पर चुप क्यों हैं ? जिन्होंने न केवल हजारों हिन्दू लड़कियों बल्कि -मुस्लिम-ईसाई लड़कियों  की भी जिंदगी बर्बाद कर डाली  है।  किसे नहीं मालूम कि यह सिलसिला अब भी जारी है। प्रायः देखा गया है कि  हिन्दू लड़कियों को अधिकांस वे मुसलमान ही बर्बाद करते हैं   जिनकी एक अदद मुस्लिम बीबी पहले से ही मौजूद हुआ करती है। वास्तव में यह न तो लव जेहाद है और न ही  धर्मांतरण -बल्कि यह तो शैतानी हवश और नैतिक पतन का मामला है। किन्तु टेरेसा का मामला विशुद्ध धर्मांतरण का और ईसाईयत के वैश्विक अभियान का  ही अहम हिसा रहा है।वह सिलसिला आज भी जारी  है।  हरेक को अपने आसपास ही कुछ उदाहरण मिल जायंगे। बस सामन्य बुद्धि  और सच का सामना  करने की नजर होना चाहिए। केवल कोलकता में 'चेरिटी ऑफ़ मिशनरीज' के विस्तार का ही  सवाल नहीं है. केरल या दक्षिण भारत  में संगठित गिरोहबंदी का सवाल नहीं है।  बल्कि  मध्यप्रदेश के झाबुआ में ,उड़ीसा  के कन्धमाल में ,झारखंड के  अंदरुनी इलाकों  में और लगभग पूरे छग में ईसाई मिशनरीज ने जो भी पुण्याई कमाई है उसमें 'दलित-निर्धन' हिन्दू समाज को ललचाने का ही काम किया गया है। इस  सच्चाई को स्वीकारने से किसी की प्रगतिशीलता या धर्मनिरपेक्षता को तुषार नहीं लग जाएगा।  कोई वास्तविक  सच  सिर्फ इसलिए झूंठ नहीं हो जाता कि  वह सच  मोहन भागवत  ने उजागर किया है ! इसी तरह कोई सच इसी लिए झूंठ नहीं हो जाता की सच को नहीं जानने वाला उसे झूंठ मानता है।

                     अब यदि भाववादी नजरिये से देखा जाए तो  हिंदुत्व का प्रचार करो , इस्लाम का प्रचार करो या ईसाईयत का प्रचार करो  ,सभी का उद्देश्य तो  एक ही  है ! फिर किसी ख़ास का मजहब का  समर्थन या विरोध कोई मायने नहीं रखता !  वैसे  भौतिकवादी - वैज्ञानिक नजरिये से देखा जाए तो सभी धर्म  - मजहब अब अपने मूल नैतिक  सिद्धांतों से भटक चुके हैं। अब तो  सभी  को  सत्ता  की सीढ़ी  का पायदान  बना  दिया गया  है।  सभी को वैश्विक पूँजी ने अपने उत्पादों का 'कॉकटेल' बना दिया है।  सभी धर्म-मजहब और पंथ अब इंसान के लिए और धरती के लिए  भयावह हो चुके हैं।  सभी में घोर स्वार्थ और कटटरता का बोलवाला है।  सभी ने इंसानियत को पीछे छोड़ दिया है।  इस्लामिक और ईसाई संसार में  धार्मिक उग्रता इतनी भयावह हो चुकी है कि  दर्जनों देश मिलकर भी 'आईएस'  के हाथों मारे जा रहे.अमेरिका -जापान या इंग्लैंड कोई भी तुर्रमखाँ  अपने ही बेगुनाहों को नहीं बचा पा रहे हैं।
                       भारत के  मूल निवासी ,आदिवासी या दलित-शोषित लोग वेदान्त  दर्शन या भारतीय मजहब-पंथ को छोड़  यदि  किसी ईसाई 'नन'   के प्रभाव में आकर धर्मांतरण करते रहे हैं तो  इसमें गर्व करने की या सीना तानने  जैसी  बात क्या है  ? यदि वेदान्त दर्शन सभी को समानता ,बंधुता और करुणा का मन्त्र सिखाता है तो उन लुच्चों -लफंगों को वह पसंद  क्यों आने लगा जो २ या ३ बीबीयो का तलबगार है।  टेरेसा के संरक्षण में  मांगीलाल गांगले यदि  फादर सेविस्टन  बन जाए ,  तीन-तीन महिलाओं की जिंदगी बर्बाद कर दे , अरविन्द वासनिक यदि आरक्षण की वैशाखी का मजा लूटकर जिंदगी भर ऐश करता रहे और किसी खास  हिन्दू विरोधी  मिशन  में शामिल होकर एक विश्वविद्यालय का वाइस चन्सलर बन जाए तो क्या यह प्रगतिशीलता है ?   मोहन भागवत के एक मामूली वाक्य पर रावर्ट वाड्रा के ट्वीट पर तालियाँ  बजाने वालों को थोड़ा सब्र  सीखना होगा। वेशक 'संघ ' से में सहमत नहीं।  वेशक मोहन भागवत जी का परदे के पीछे से राजनीति करना मुझे अलोकतांत्रिक लगता  है।  किन्तु 'टेरेसा'  आम्टे  और  और वाड्राओं  ने भारत राष्ट्र के लिए क्या किया ?  विपक्ष को तो मोदी सरकार पर ,संघ पर और हिंदुत्वादियों पर यह आरोप लगाना चाहिए कि  वे हिंदुत्व को वोट के लिए इस्तमाल कर भरता विरोधी ताकतों  और हिन्दू विरोधी ताकतों [मुफ्ती जैसे ] के हाथों बिक चुके हैं। चूँकि हिन्दुत्वादी अजंेडा पुअर अकरने में असफल रहे इसलिए अब  टेरेसा को ,ओवेसी को या लव जेहाद को मुद्दा बना रहे हैं। 

क्या किसी एक अल्पसंख्यकया गैर हिन्दू -  धर्म मजहब  का होने मात्र से  किसी के तीन खून  माफ़  किये जा सकते हैं ? यदि 'संघ ' या वीएच पी के सभी अभियान  स्वार्थ प्रेरित कर्म  नहीं  हैं  तो  टेरेसा ,आम्टे या स्ट्रेंस जैसे लोगों के  विवादास्पद व्यक्तित्व  की तरफदारी करने का क्या मतलब ?  क्या मजहबी द्वन्द में किसी खास मजहब की तरफदारी से क्रान्तिकरी चिंतन का रत्ती भर भी वास्ता है  ? यदि नहीं तो कतिपय  प्रगतिशाल  लिख्खाड़ों ने सिर्फ 'संघ' या भागवत पर ही अपनी जुबान या कलम क्यों चलाई ? क्या वेटिकन में सभी देवदूत विराजमान हैं ? वेशक संघ प्रमुख ने उसकी जो आलोचना की वह 'वेदांत दर्शन' की उदार चरित्र की मीमांसा से मेल नहीं खाती।  किन्तु मैं यदि श्री मोहन  भागवत के इस आचरण की निंदा करता  हूँ। तो उन लोगों की तारीफ कैसे कर सकता हूँ. जिन्होंने विदेशों से  भारत  में आकर एक ख़ास किस्म के मजहबी धर्मांतरण में  महती भूमिका निभाकर नोबल पुरुष्कार  भी पारितोषक के रूप में ही  प्राप्त किया  है।

                                          सहिष्णुता के साथ -साथ  मतभिन्नता को  भी बहुत सम्मान मिला है  भारत भूमि पर। बहुत उदार और विराट सोच है वेदों की।  आम हिन्दू   इन्हे नहीं   पढ़ सका  हो या अवसर ही न मिला हो तो अपराध क्षम्य है किन्तु  कोई   ऐंसा व्यक्ति जो हिन्दुओं के  विशाल संगठन का सर्वोसर्व हो ,या  धर्म-प्रचारक   प्रचारिका हो या हिंदुत्व के नाम पर वोट कबाड़कर सत्ता हथियाने में माहिर हो ऐंसे व्यक्ति को 'सम्पूर्ण वेदान्त दर्शन ' को न सही , कम से कम उक्त मन्त्र को ही ह्रदयगम्य कर लेना चाहिए।उक्त मन्त्र में तो  ऐंसा कहीं प्रतीत  नहीं होता कि  किसी अन्य धर्म-मजहब या उसके प्रचारकों की निंदा की जाए !

                                           मानव सभ्यता के इतिहास में 'ऋग्वेद'का ही सर्वप्रथम  उल्लेख मिलता है। इस महान आदि ग्रन्थ में  न केवल  भाववादी  दर्शन  का  समावेश  है, अपितु आश्चर्यजनक रूप से उसमें सापेक्ष  अनात्मवादी -नास्तिक दर्शन  को भी उतना ही सम्मानजनक  स्थान उपलब्ध है।  'वैदिक धर्म'  या सनातन धर्म [अब हिन्दू धर्म] के प्रमुख और आदि ग्रन्थ 'ऋग्वेद' में जिस समाज  व्यवस्था  का उल्लेख है  वह मार्क्स  एंगेल्स के अर्वाचीन  विचारों को पुष्ट करने में सक्षम है। छंदों में वे चाहे  प्रकृति -पुरुष सूक्त हों या अग्नि सूक्त हों -अधिकांस में  वैज्ञानिक -तार्किक सूत्रों की  ही भरमार है।वैदिक उपांग, उपनिषद और ब्राह्मण ग्रथों  के अधिकांस चिंतन में वही सब भरा पड़ा है जो कालांतर में  बौद्ध,जैन,चार्वाक जैसे अनात्मवादी सिद्धांतकारों ने अपने नए कलेवर में प्रस्तुत किया है। या नास्तिक पंथ भी हैं।  प्राचीन भारत में ऋग्वेद के प्रादुर्भाव  [ईसा पूर्व १० हजार साल ]  से पौराणिक काल तक  तो  इंद्र ,मित्र, वरुण, अग्नि ,अहुरथ,सुपर्णो, जैसे अपौरसेय अजन्मा   देवताओं  का ही बोलवाला रहा है।  बाद  के  पौराणिक  काल में -ब्रह्मा ,विष्णु  ,महेश  ,गणेश  कार्तिकेय ,  दुर्गा ,सरस्वती ,सावित्री इत्यादि देवी देवताओं   ने भारत और भारत  से बाहर  सुदूर पूर्व  एशिया के देशों में भी अपनी  धाक  जमाई ।

                       ईसा के  लगभग  ५०० साल पूर्व से   भारतीय सनातन धर्म [आज का हिन्दू धर्म] की  परम्परा में  शिवि , दधीच ,हरिश्चंद्र  ,रघु  ,श्रीराम,  कृष्ण  और जैसे उच्चतर मानवीय  और   धीरोदात्त चरित्रों को   भी  ईश्वर तुल्य  ही माना जाने लगा।   वे जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन करते गए  वही कालांतर में मानवीय मूल्यों के सूत्र बनते गए। उन्ही पर गृह  युद्ध लड़े गए। उन्ही पर  महाकाव्य रचे गये। उन्ही से भक्ति काव्य ,उन्ही से षड्दर्शन -योग ,मीमांसा ,न्याय, वैशेषिक ,सांख्य और निरुक्त को संसार में प्रसिद्धि मिली।  उन्ही  धर्मसूत्रों के  पुनर्संयोजन से प्राचीन भारत का  तथाकथित स्वर्णिम  अतीत  शोभायमान हुआ। उन्ही धर्मसूत्रों को घटा-बढ़ाकर  कालांतर में अन्य नवीन  मत-पंथों ने भारत  और दुनिया  में अपने आप को अभिव्यक्त किया।  जैन  ,बौद्ध  , सिख  इत्यादि सभी का मूलाधार  उन्ही  पुरातन  मूल्यों पर  ही  आधारित है। राज्य सत्ता पर काबिज लोगों ने  संकीर्ण मानसिक्ता  के स्वार्थी तत्वों  को प्रश्रय दिया जिन्होंने   भारतीय समाज को बुरी तरह विभाजित कराया।  उसी विभाजन ने विदेशी धार्मिक हमलावरों और मिशनरीज को भारत में अपने पैर पसारने का मौका दिया। संघ की साम्प्रदायिक सोच के कारण हिन्दुओं के  अब इतने दुर्दिन आये हैं कि जो  विदेशी हमलवार या मिशनरीज हैं ,जो भारतीय समाज को छिन्न-भिन्न करने के अपराधी हैं ,वही अब संघ प्रमुख मोहनराव  भागवत से उनकी मामूली  और पूर्णतः सत्य वयानी पर उनकी वास्तविक टिपण्णी पर  स्पष्टीकरण  मांग रहे हैं।
                           श्री  मोहनराव भागवत  यदि परदे के पीछे से सत्ता की   राजनीति में शिरकत नहीं करते तो वे इस मजहबी विमर्श के लिए  फिर भी आजाद होते। तब  वे  यदि मदर टेरेसा के उद्देश्य या उनकी सेवा भावना के पीछे छिपे 'पवित्र मकसद' को उजागर करते तो किसी हिम्मत नहीं होती कि  भागवत को कठघरे में खड़ा कर सके। यदि  भागवत जी ने एक बार भी महा पापी आसाराम  को डाँटा  होता ,यदि एक बार  भी उन बलात्कार पीड़ित महिलाओं के आंसू   पोंछे होते, यदि उन गवाहों की जान बचाने का कोई इरादा भी जताया होता  यदि  आसाराम जैसे  अन्य अनेक पाखंडी बाबाओं  की रंच मात्र भी  आलोचना की होती तो वे  न केवल हिन्दुओं बल्कि  समस्त भारतीय जनगणों के दिल में निवास करते । यदि हिन्दू मंदिरों में  बढ़ रही धन की अपार भूंख को वे शांत कर पाते  तब वे किसी भी   विधर्मी  धर्म प्रचारक  की मंशा पर अंगुली उठाते तो कोई अनैतिक बात नहीं  होती। लेकिन उनका प्रकारांतर से वर्तमान सरकार पर परोक्ष नियंत्रण होने से दुनिया में भारत की  लोकतांत्रिक और उदार  छवि  को धक्का लगा।  इसीलिये उनकी आलोचना हो रही है।  वरना उन्होंने कोई बहुत बड़ा अपराध  नहीं कर दिया और न ही उन्होंने किसी की भैंस  चुराई है।  इस तरह के विमर्श में जब जब  शंकराचार्य स्वरूपानंद जी  ने कोई हस्तक्षेप किया तो अधिकांस उदारवादी और प्रगतिशील चिंतकों ने उनकी स्थापनाओं का खंडन नहीं किया। यदि 'संघ' और उसके अधिष्ठाता केवल हिंदुत्व की ही चिंता करते और किसी राजनीतिक गोरखधंधे में नहीं फंसते या परदे के पीछे की राजनीति   नहीं करते तो वेशक वे उस  महान भारतीय परम्परा के सर्वमान्य  उत्तराधिकारी  होते । जिस पर हम सभी भारत वासियों को गर्व है।
                        ईसाइयत और इस्लाम में भी 'दीनो ईमान ' के लिए कुर्बानियों का लम्बा इतिहास और लम्बी सूची है। मध्ययुगीन सामंतकालीन  रोमन समाज में , यूरोपियन या  अरेबियन समाज में मजहबी संस्थाओं की  और उनसे संबंधित सच्चे   धर्मयोद्धाओं  के  व्यक्तिगत  चरित्र की कुछ खास स्थापनायें   हुआ  करती थी एक तो यही  कि उन्हें यदि  करुणा या दया का पात्र  कहीं न भी मिले तो वे  पहले  उसे  पैदा  करें । फिर उसकी  सेवा करो। प्रारम्भ में तो  उस सेवा में सेवक और सेवित का कोई मूल्य नहीं। याने मजहबी  सिद्धांत  को आदमी से बढ़कर  अनमोल माना  जाता था । भारत में  भी  "रघुकुल रीति सदा चली आयी। प्राण जाय पर बचन न जाई "  या " कौन बड़ी सी बात धरम  पर मिट जाना '' ये त्रेता -सतयुग की बातें  हैं
                           कालांतर में जब 'राज्य' और धार्मिक सत्ता में वर्चस्व की लड़ाई छिड़ी तो जनता को भी इस संघर्ष में झोंक दिया। गया ।  साम्प्रदायिकता की आग जले तो जल  जाना !  इन अमानवीय परम्पराओं को , उजबक उसूलों को  उस भारत की धरती पर भी आहूत किया गया जो १० हजार साल पहले ये सब  कर  चुका  था।  दरसल स्वामी विवेकानंद ने  भी  अपने शिकागो सम्बोधन में समस्त  ईसाई मिशनरीज को  भारत में यह सब गोरखधंधा बंद  करने की परोक्ष सलाह दी थी। उन्होंने कहा था भारत को किसी धर्म  की नहीं बल्कि रोटी -कपड़ा -मकान की ,टेक्नालाजी  की जरुरत है।  यदि मदर टेरेसा को भारत पर इतनी ही दया थी तो वे एक एहसान करतीं कि  भारत पर कोई एहसान नहीं करतीं।

मानव के  द्वारा मानव के शोषण की  घृणित और बर्बर परम्पराओं को जीवित रखने में , सड़ी गली व्यवस्था को  यथावत  बनाये रखने में - मजहब या धर्म की भूमिका हमेशा  संदेहास्पद रही है। सामंती या पूंजीवादी  शासकों के शोषण को जारी रखने में तब बड़ी सहूलियत रहती हैं  जब मजहबी -धार्मिक  पुरोहित वर्ग  द्वारा   जनता के उग्र आंदोलन  को पंचर कर दिया जाता है।  बहुत सारे अध्यन -अनुभव  और सोच समझ के बाद  ही मार्क्स ने कहा था की 'धर्म या मजहब एक  तरह की अफीम है '। पोलेंड , सोवियत यूनियन ,पूर्वी जर्मनी  और चेकोस्लोवाकिया की  साम्यवादी  क्रांतियोंं को  बदनाम करने ,उन्हें असफल कराने में  चर्च की  जो उल्लेखनीय  भूमिका रही है उसे  कौन नहीं जानता ?
                                    वेटिकन चर्च  ने तो भारत को आजादी के बाद भी अपने मजहबी चंगुल से आजाद नहीं किया।  भारत के स्वधीनता सेनानी चाहते थे की यहाँ धर्मनिपेक्षता ,समाजवाद और लोकतंत्र का परचम  बुलंदी पर हो । यहाँ भारतीय सभ्यता और संस्कृति का आधुनिकीकरण हो। पुरातन कटटर जातीय  ,धार्मिक , भाषायी  बंधनों  से मुक्त नयी वैज्ञानिक - प्रगतिशील विचारधाराओं का  गंगा -जमुनी मिलन हो।  किन्तु उपनिवेशवादी ताकतों ने अपने धार्मिक मिशन के मार्फ़त भारतीय समाज में हस्तक्षेप जारी रखा।  उन्होंने  हर तरह से भारत  में प्रदत्त अधिकारों का दुरूपयोग किया।  यह सौ फीसदी सत्य है कि  मदर टेरेसा  और उनका 'चेरिटी ऑफ़ मिशनरीज '  पूर्ण  रूपेण  'चर्च'  के प्रति  समर्पित  रहा है।
                                               भारत  में  विदेश   से आये किसी भी संत महात्मा ने ,मिशनरीज ने या मजहबी संगठन ने  भारत का कुछ भी भला नहीं किया।  वे  व्यक्तगत रूप से भले ही सादगी  ,करुणा ,ममता और  सेवा  की प्रतिमा रही हों किन्तु  यह परम सत्य है कि  उन्होंने  भारतीय  शोषित -पीड़ित आवाम को अपने क्रांतिकारी संघर्षों से दूर किया है । उनका कृत्य  बाहर  से   वेशक  मानवीय  दिखाई देता है किन्तु  वास्तव में  उनका लक्ष्य वही था जो संघ प्रमुख मोहनराव  भागवत ने  बखान किया है। मदर टेरेसा  जब भारत आई तब चीन  में क्रांति नहीं हुई थी।  तब चीन में बेहद गरीबी , भुखमरी और जहालत हुआ करती थे।  तब वे  चीन क्यों नहीं गयीं ? पाकिस्तान , इराक ,सीरिया ,फिलिस्तीन अफगानिस्तान क्यों नहीं गयीं जहाँ  आज भी इंसानियत तड़प  रही है।   कांग्रेसी और अल्पसंख्यक मजहबी नेता लाख एकतरफा बात  करें कि  मदर  टेरेसा तो भारत में साक्षात 'जगत जननी' का अवतार थीं  किन्तु मेरे वामपंथी मित्रों को क्या हो गया।   क्यों  पड़ोसी की दोनों आँखे फोड़ने  की तमन्ना पूर्ती के लिए  ईश्वर से खुद की  एक आँख   फ़ुड़वाने पर तुले हैं ? क्यों केवल  ईसाई मिशनरीज में ही 'सत्यमेव जयते दिख रहा है। वेशक 'संघ' भी साम्प्रदायिकता का पोखर है।  लेकिन मोहन  भागवत ने ऐंसा क्या गजब कर दिया कि   सबके सब पवित्र  'क्रास' पर  टँगने को आतुर हैं।  वेशक   इस विमर्श में  गड़बड़  यह है कि  करेले ने 'नीम' को कड़वा कह  दिया। दरअसल 'संघ' भी तो देश की जनता को शोषण -अन्याय से लड़ने  में अवरोधक बना हुआ है।  चूँकि वह इस्लामिक आतंक  के अतीत और वर्तमान  से प्ररित है, चूँकि वह  ईसाइयत के कुछ अवदानों से लज्जित है इसलिए अपने  हिन्दू सहोदरों को कंट्रोल में रखने के  बनिस्पत निरीह आवाम को   'साम्प्रदायिकता ' की आग में झोंकने पर आमादा है।
                                       सिर्फ नोबल पुरस्कार मिलने से कोई महान नहीं हो जाता।  वो तो किसी पचौरी  नामक बलात्करी को भी मिला है।  सिर्फ भारत रत्न मिल जाने से कोई देवता या महान नहीं बन जाता वो तो सचिन तेंदुलकर जैसे खुदगर्ज खिलाड़ी को भी मिला है। कोई  आजीवन भारतीय संस्कृति की जड़ें  खोदता रहे और फिर भी हम उसे 'मदर' 'संत' या महान सेविका  कहें तो भी कोई उज्र नहीं किन्तु  किस को कोई शक नहीं होना चाहिए।  एस  ठीक इसी तरह अधिकांस  इस्लामिक देशों  की जनता  भी मजहबी कठमुल्लेपन की  प्रतिक्रयावादी  सांघातिक  कटटरता के कारण  जनवादी क्रांतियों और  लोकतंत्र  को तरसती  रही है!  भारतीय लोकतंत्र  को  सभी मजहबों की कटटरता  से खतरा है !
               शीत युद्धोपरांत  पेरेस्त्रोइका या ग्लास्नोस्त से भी पूर्व  अमेरिकन सम्राज्य्वाद ने , वैश्विक  पूंजीवाद ने  और 'वेटिकन  चर्च ' ने  सर्वप्रथम   पोलेंड में साम्यवादी शासन  को उखाड़ने का काम किया। उन्होंने घ्रणित  और षड्यंत्रपूर्ण  तरीकों से  पोलेंड के  क्रांतिकारी  साम्यवादी शासन  को खत्म करने के लिए एक 'मजदूर नेता' - लेक वालेचा को खड़ा किया।जब लेक वालेचा  के नेतत्व में पूंजीवाद का  पिठठू - 'सालिडेरिटी मूवमेंट'  खूब  तगड़ा हो गया तो  उस कुख्यात तिकड़ी  ने  ठीक उसी अवसर पर एक  घोर कम्युनिस्ट विरोधी 'पोलिस'   कार्डिनल को ''पोप  जान पाल द्वतीय" बना दिया।  पोलेंड  के गद्दार पूंजीपति तो पहले से ही  'लाल क्रांति ' से  जले- भुने  हुए थे । इसलिए सबके सब दक्षिणपंथी प्रतिक्रयावादी  और मजहबी-उन्मादी एक होकर 'नवजात क्रांति  की  हत्या करने में सफल हो गए। जब  दुनिया का पहला याने पोलैंड का 'लाल' विकेट गिरा तो नाटो, पेंटागन ,व्हाइट  हॉउस और  बेटिकन  ने चेक गणराज्य, पूर्वी जर्मनी,अल्बानिया और रूमानिया पर निशाना साधा।  इन सभी को फतह करने के बाद इस कुटिल तिकड़ी ने   'केमलिन' पर ही धावा बोल दिया। सोवियत संघ की महान अक्टूबर  क्रान्ति  को विफल करने में गोर्वचेव या येल्तसिन तो  इस 'तिकड़ी' के  साधन या ओजार  मात्र थे। सोवियत संघ  के गिरजाघरों में  वेटिकन की आभा  वापिस लौट आयी। नैतिक अनुशासन की जगह  लुटेरे वर्ग की  ऐयाशी  याने  फिर से   वेल्थ ,वूमन, वाइन ने लेली।

               संघ प्रमुख श्री मोहनराव  भागवत ने यदि   'ईसाई मिशनरीज' के सेवा कार्यों में  छिपे  धर्मान्तरण  की अभिलाषा   पर प्रश्न  चिन्ह लगाया होता तो शायद इतना बबाल नहीं मचता। उन्होंने 'मदर टेरेसा'  को भी लपेटे में लिया तो देश और दुनिया के  'संघ विरोधियों ' का उबाल खाना स्वाभाविक था। भागवत जी ने जो शब्द इस्तेमाल किये वे 'असंसदीय 'नहीं हैं। उन्होंने सीधा सपाट सरल आरोप  लगाया की 'मदर टेरेसा की सेवा भावना के पीछे ईसाई धर्म का प्रचार -प्रसार प्रमुख उद्देश्य था। उनके इस कथन का तो मैं  कभी प्रतिवाद नहीं करूंगा। वेशक मैं  भागवत जी  से गुजारिश करूँगा कि  अपना घर देखें। वे हिंदुत्व के गरेवान में झांककर देखें ! वे न केवल बलात्कारी हत्यारे आसाराम की नीचता को  देखें बल्कि हर हिन्दू ढोंगी बाबा , हर हिन्दुत्वादी नेता , हर  हिन्दू धर्म श्थल पर जाकर  देखें।  यदि वे दिल से यह सब  देखेंगे तो पागल हो जायेंगे या 'मदर टेरेसा' से माफ़ी मांगते नजर आएंगे।
                                     जो लोग मोहन  भागवत पर लाल -पीले हो रहे हैं उन्हें भी याद रखना चाहिए  कि  लोकतंत्र में  आलोचना से  परे  कोई नहीं।  यदि किसी खास मजहब -धर्म के लोगों को लगता है कि  उनके यहाँ  सब पाक-साफ़ हैं तो वे यह याद कर लें कि  खुद ऎसा मसीह को भी कहना पड़ा था कि  इस संसार में कोई भी दूध का धुला नहीं है।  "पापी को पत्थर वही  मारे जिस के हाथ पाप से अछूते  हों '' 'संघ' वाले यदि 'साम्प्रदायिक'  हैं तो बाकी के अन्य साम्प्रदायिक संगठन 'चेरिटी आफ मिशनरीज' या आईएएम ,सिमी तथा एसजीपीसी  इत्यादि  का आधार भी साम्प्रदायिकता  ही  है। भारत के  धर्मनिरपेक्ष लोगों और दलों  को भी  यह तय करना होगा कि   क्या सिर्फ मोहन  भागवत  या 'संघ'  की आलोचना मात्र से सच का  सामना  हो जाएगा ? क्या इसीआलोचना मात्र  से कोई सर्वहारा  क्रांति हो जाएगी।  यदि 'संघ' न भी कहे तो  क्या यह सच नहीं कि कई एक  मिशनरीज के प्रभाव से -प्रलोभन से समय-समय पर  कई  हिन्दुओं  ने खुद  ही  धर्मांतरण स्वीकार किया है। हिन्दू धर्म त्यागकर इस्लाम या ईसाई  हो जाने वाले  'शेख -सैयद -मुगल पठान  होने से तो रहे। लेकिन वे तीन-तीन   लुगाईंया रखने  की हवश में  तो अवश्य ही सफल रहे  हैं. सिर्फ फिल्म अभिनेताओं की बात नहीं है ,सिर्फ माफिया डान्स  की बता नहीं है बल्कि आम  तौर पर हर जगह यह चलन हो गया है कि सामाजिक  सहिष्णुता और उदारता के कारण  ' हिन्दू' महिला ही  इन धर्मांतरण करने वालों के चक्रव्यूह की शिकार ही जाया करती  है।  हमारी प्रगतिशील सोच को  तब लकवा लग जाता है।जब हम  धर्मांतरित लोगों की वास्तविक  सच्चाई पेश करते हैं।  ऐ आर खान ,  एसडीओ  हुसैन ,एलेन  फ्रांसिंस , मदनलाल गांगले ,राजू  अन्थोनी, आर मसीह  , अरविंद वासनिक  जैसे ४-६  नाम तो में भी जानता हूँ जो मेरे सहकर्मी हुआ करते थे ।  ये सभी  पहले कभी हिन्दू - दलित/आदिवासी   हुआ करते थे।  किन्तु  बाद में कोई  किसी ईसाई नर्स  से जुड़ गया। कोई किसी  डॉ से  जुड़ गया , कोई मिशनरीज के प्रभाव से  'टेरेसा' के मिशन में शामिल  होकर ईसाई लड़किओं को भी अपनी अंकशायनी बनाने में जुट गया। गाँव में हिन्दू ओरत को भूँखा मरने के लिए छोड़कर कोई शहरों में ताई बांधकर चर्च की वारंगनाओं के साथ रंगरेलियाँ  मनाने में जुट गया।  जिन्हे मेरी साक्ष्यों पर  यकीन न हो वे उन  नामों की तफ्सीस कर सकते हैं।  जो आज भी जिन्दा हैं।  पते में बता  सकता हूँ। वामपंथ या साम्यवाद यह कतई   नहीं सिखाता कि केवल किसी  खास मजहब के संगठन को या उसके वरिष्टतम नेता को  तो गरियाते रहें।  किन्तु अल्पसंख्यक वर्ग के इस काले अध्याय की तरफ नजर ही न उठायें। असली गुनहगार  कौन -कौन हैं यह पहले तय  कर लिया जाए !
                       अधिकांस सवर्ण  हिन्दू या तो कांग्रेस में मिलेंगे  या वामपंथ का  लाल झंडा उनके हाथों में होगा।  अधिकांस जातीयतावादी और धर्म-मजहब के अल्पसंख्यक  लोग  अकाली,सपा, वसपा ,जदयू और शिवसेना में मिल जाएंगे । अधिकांस नकली हिन्दू-मुस्लिम  या अन्य जातियों/मजहबों में पथविचलित वर्णशंकर ही हो सकते हैं ।  जो राजनीति  में धर्मान्धता - साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने की कोशिश करते हैं। जिस तरह नकली 'वामन'  कान पर जनेऊ बार-बार चढ़ाकर दिखाता है. किन्तु फिर भी समाज में  संदिग्ध ही माना  जाता है। जिस तरह नया-नया मुल्ला नवाज घनी-घनी पढता  है ।  उसी तरह  हर जाति -मजहब का  पतितजन  भी अपने आपको  कटटरपंथी दिखाकर अपना जी जुड़ा लेता है। जो किसी भी मानवीय  मजहब में दीक्षित नहीं है ,  जो अपनी बदकारी के कारण समाज में सम्मान्नित नहीं है ,जो किसी आर्थिक -सामाजिक या वैयक्तिक हीनता या  कुंठा से ग्रस्त  है. वही  इंसान धर्मान्धता की घुट्टी  पीने को मजबूर हो जाता है।  इन्ही में से  कुछ  संसदीय  राजनीति  की गटरगंगा में डुबकी लगाते  रहते हैं। इन्ही में से कुछ  देश के बड़े पूँजीवादी  नेता बन जाते हैं।कुछ तो  मंत्री - प्रधानमंत्री भी बन जाते हैं। दुनिया  भर में सभ्यताओं के संघर्ष की रक्तरंजित तस्वीर  और अन्य  'मार्शल' कोमों से  प्रभावित होकर भारतीय  बहुसंख्यक अर्थात तथाकथित 'हिन्दू 'समाज  भी राजनैतिक रूप से ध्रवीकृत होने को मजबूर है। यह धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के लिए चुनौती है। यह शोषण -उत्पीड़न की व्यवस्था को बनाये रखने में मददगार भी है।

                                 श्रीराम तिवारी



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