शनिवार, 14 मार्च 2015

आप जिस विदेशी एफडीआई पर फ़िदा हो रहे हैं वो ऋग्वेद के किस मंत्र का भाष्य है श्रीमान ?

 भारत का यह  दुर्भाग्य ही है कि जब-कभी दक्ष्णिपंथी मानसिकता के लोगों को सत्ता सुख नसीब हुआ तो उनकी किस्मत  भले ही चमक  गयी किन्तु उनकी सोच  दिग्भर्मित -खंडित मानसिकता  की  'शौचालय सोच ' से आगे कभी नहीं बढ़ पायी। वे यह भूल जाते हैं कि भारत में हमेशा ही  अनेक धर्म -मजहब और मत-मतांतरों की  भारी भीड़ रही  है। आम तौर  पर यह मान्यता है कि  ईसाई,इस्लाम ,पारसी,यहूदी  भारत  में जब  कभी बाहर से आये होंगे तो  भारतीय  'आर्यों' एवं द्रविड़ों   ने उनके  कुछ  अच्छे सिद्धांत और कायदे -क़ानून भी अपने अंदर समाहित कर लिए होंगे ! आगंतुकों  विदेशियों - फ़िलिपस, हेलेना , अश्वघोष , मिलिंद  [मिनांडर]  , फाह्यान  ,ह्वेनशांग ,अलबरूनी ,वर्नी 'अकबर ,बाज - बहादुर ,दारा- शिकोह , वाजिद अलीशाह, बहादुर शाह  'जफर', एनी  वेसेन्ट , कामिल बुल्के  जैसे विदेशियों ने  भी  भारतीय परम्पराओं से बहुत कुछ सीखा होगा !उन्होंने जरूर  बहुत कुछ भारतीय  समाज का चलन  और दार्शनिक दृष्टिकोण भी  अपनाया  ही  होगा। इन सकारात्मक तथ्यों के वावजूद भारत में   सभी मजहबों  के कटटरपंथी बैचेन हैं कि धर्मनिरपेक्ष  भारत की मिली जुली 'गंगा -जमुनी' सांस्कृतिक विरासत अभी तक जिन्दा क्यों है  ?

             इतिहासकारों और समाजविज्ञानियों  की  आम  धारणा है  कि  जो मत- पंथ ,दर्शन  भारत में ही पैदा हुए हैं वे निरंतर गतिशील और प्रवाहमान रहे हैं।  प्रत्येक  बदलते दौर में नए -पुराने के दवंद की स्वाभाविक परणिति  ही समाज के चलन में रही है। प्रकारांतर से  सभी भारतीय मत-मतान्तर और पूजा-पद्धतियों का  जैविक  डीएनए उसी सनातन 'इंडो-यूरोपियन ' परम्परा से मैच करता है।जिसे दुनिया में धर्मनिरपेक्षता का जन्मदाता भी कहा जा सकता है। जिससे भारत -पाकिस्तान ,बांग्लादेश सहित सम्पूर्ण भारतीय उपमहादीप  की सभ्यता का निर्माण हुआ है।  भारत कोई नवजात मुल्क नहीं है। उसकी सभ्यता -संस्कृति और आध्यत्मिक मूलयवत्ता विश्व में  अवश्य बेजोड़ है। किन्तु  भारत की पुरातन सभ्यता संस्कृति के आलोचकों  को यह नहीं भूलना  चाहिए कि  भारत के अलावा अन्य पडोसी मुल्क भी उसी साझी परम्परा के हमसफ़र रहे हैं।  वैज्ञानिक सोच के अध्ध्येताओं की  यह आपत्ति दुरस्त है कि भारतीय  वाङ्गमय  और उसका अतीत में लिखा गया-इतिहास ,धर्म ,दर्शन और अध्यात्म का  हर शब्द केवल शासकों-राजाओं ,श्रेष्ठियों और पुरोहित वर्ग तक ही सीमित रहा है !
                  जिस  नकारात्मक ट्रेंड  के कारण भारत को सदियों की गुलामी भी झेलनी पडी। उसी की  वजह से भारत  को एक अजीब अवदान भी मिला। शायद यही कारण है कि भारत  आज  दुनिया के अन्य एकल धर्मी राष्ट्रों की तरह -धर्मांध राष्ट्र बनने से बचा रहा। उसी वजह से वह विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक राष्ट्र भी  कहा  जाता है। वेशक  हजारों साल की दासता का ही यह  परिणाम है  कि भौतिकतावादी सोच  और विकास में  भारत लगभग फिसड्डी रहा है। यही वजह है कि  वह  किसी उन्नत  और वैज्ञानिक रूप से अति  विकसित  राष्ट्र के समक्ष पासंग भी नहीं  हो पाया है। यह  यक्ष प्रश्न जिस दिन हल कर लिया जाएगा कि  अतीत का तथाकथित स्वर्णिम और  विशुध्द  'मनुवादी'  भारत सदियों  तक गुलाम क्यों रहा ?उसी दिन भारत में महान सर्वहारा क्रांति का बिगुल बज उठेगा।  मजदूर वर्ग को और शोषित आवाम को समझना ही पडेगा कि किसी भी तरह के  धर्मांतरण से- इस्लाम -ईसाई-बौद्ध या अन्य  धर्मों के प्रचार-प्रसार के  बह्काबे  में आने के वावजूद भी उनका  शोषण -उत्पीड़न  कहीं भी कम नहीं हुआ है। जनता की  खोज का यह  विषय भी  है कि इतने तमाम धर्म -मजहब  तो भारत में खूब फले -फूले किन्तु  आज भी भारत का चिंतन  'शौचालय सोच ' से आगे क्यों  नहीं बढ़ पाया  है ?

                       मोहनराव  भागवत या 'संघ' वाले  ही क्यों पूरा भारत एक स्वर में कहने को तैयार है कि  भारत को या भारत के अधिसंख्य 'हिन्दू' समुदाय को किसी खास पाश्चात्य  मिशनरीज की या किसी खास  'अफीम' साम्प्रदायिक संगठन  की  आवश्यकता नहीं है। हिन्दुओं को तो 'संघ' की भी आवश्यकता नहीं है।यदि 'संघ' याने  आरएसएस विसर्जित कर दिया जाए तो  भारत को किसी से धर्मनिरपेक्षता सीखने की भी जरुरत नहीं है।  ओबामा से भी नहीं। तब पाकिस्तान ,तालिवान ,अलकायदा और आईएसएस से भी भारत को कोई खतरा नहीं।  जैसे कि  चीन को पाकिस्तान से या आईएसएस से कोई खतरा नहीं।

           भारत के ये तीन शब्द -हिंदी -हिन्दू -हिन्दुस्तान तो वैसे भी सहज धर्मनिरपेक्ष शब्द ही हैं। मोहन राव  भागवत जी की 'हिन्दू' शब्द  व्याख्या और वामपंथी बुद्धिजीवियों की 'हिंदुत्व' शब्द व्याख्या में  मूलतः कोई विरोधाभाष नहीं है। चूँकि 'संघ' की हिन्दुत्ववादी राजनैतिक आकांक्षाओं का अल्पसंख्यकों और  धर्मनिर्पेक्ष   वर्गों के प्रति असहिष्णुता से प्रेरित है । चूँकि संघ की आधारभूत सोच में  उसका  'अल्पसंख्यकवादी 'व्यामोह से सनातन टकराव परिलक्षित  है। इसलिए 'संघ ' की कार्यप्रणाली के कारण  'हिन्दू-हिंदी -हिन्दुस्तान जैसे धर्मनिरपेक्ष शब्द भी अब 'अपावन'- दक्षिणपंथी  -कटटरवादी बना दिए गए हैं। इसलिए भारत को अल्पसंख्यक अलगाववादियों और उनकी 'सेवायोजना'  से लेस विभिन्न  मिशनरीज  को  भारत में गड़बड़ी करने का बहाना मिल जाता  है। गजब तो तब हो जाता है जब कोई वेटिकन समर्थक और  भारत विरोधी  हस्ती नोबल पुरूस्कार भी पा जातीं हैं  !  संघ की बदनाम छवि का  ही यह दुष्परिणाम  है कि  मोहनराव भागवत जैसे 'संत' देशभक्त  'हिन्दू' की सर्वथा 'सत्य' टिप्पणी को  कोई भी स्वीकार करने  को तैयार नहीं  है कि ' मदर टेरेसा की सेवा  भावना निष्काम नहीं थी ' !
                                  जनवादी विद्द्वतजनों और धर्मनिरपेक्ष  साहित्यकारों का यह उत्तर  - दायित्व  है कि भारतीय बहुसंख्यक वर्ग  की स्वाभाविक  धर्मनिरपेक्ष छवि  को विश्वमंच पर प्रस्तुत  करें। दुनिया   मुल्कों की गैर हिन्दू आवाम को  भी चाहिए कि भारतीय बहुसंख्यक समाज [हिन्दुओं] की सहिष्णुता को 'संघ'की अनुदार  कटटरता से न तौलें। अधिसंख्य 'हिन्दू' सहिष्णुता -उदारता -सौजन्यता और बलिदान जनित मूल्यों का उपासक है।  उसकी यह  वास्तविक और  असल तस्वीर  दुनिया के समक्ष  प्रस्तुत  की जानी चाहिए । वैसे भी  विदेशी हमलावरों और यायावर साहित्यकारों द्वारा सिंधु दरिया के इस पार वालों को दिया गया सम्बोधन  याने   'हिन्दू ' शब्द की व्युत्पत्ति का इतिहास भी यही सिद्ध करता  है। उन् विदेशियों ने  ही यहां के मूल  निवासियों को  'हिंदुस्तानी' कहा। अब जो भारत में पैदा हुआ है और आइन्दा  होगा उसे 'हिंदुस्तानी' नहीं तो क्या 'सुल्तानी ' कहा जाएगा।  भारतीय  उपमहादीप के तमाम मुसलमानों को  सउदी लोग तब भी 'हिंदुस्तानीमुस्लिम' कहा करते थे। अब पाकिस्तान बांगला देश बन जाने पर  भारत के मुसलमान ' इंडियन मुस्लिम ' कहलाने लगे।यदि    हिन्दुस्तान का विभाजन नहीं हुआ होता तो  भारत के मुसलमान आज भी 'हिंदुस्तानी मुसलमान' ही के जाते। जब इंडिया के नागरिक  को 'इंडियन' कहा जा सकता है. तो हिंदुस्तान में रहने वाले को  'हिन्दू' क्यों नहीं  कहा  जा सकता ? याने झगड़ा हिन्दू-मस्लिम का नहीं  बल्कि ' हिन्दुस्तान' के भारत हो जाने का या  उसके  सहोदर पाकिस्तान  हो जाने का है। इसके लिएअतीत की  जो भी  विचारधारा जिम्मेदार  हो  उसका खुलासा जरूर होना चाहिए।  यदि भारतीय दर्शन और  विचार उसे गुलामी में धकेलता है तो उसका भी पर्दाफास होना चाहिए।  यदि कोई पाश्चत्य  दर्शन  भारत को आजादी का मंत्र देता है।  उसे लोकतंत्र ,धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद देता है।  तो उसका स्वागत वैसे ही करना चाहिए जैसे कि  दुनिया के ताकतवर  राष्ट्रों और कौमों ने किया है। भारत का जो-जो अतीत में सुंदर हो ,सत्य हो ,शिव हो उसे  अवश्य सहेजा जाना चाहिए किन्तु जो  - जो  निकृष्ट और शोषणकारी -दमनकारी है, उसका निष्क्रमण होना चाहिए।

                    मान लें कि ब्राह्मणों या ऋषियों ने चारों वेद लिखे होंगे !  उन्होंने ही  आयुर्वेद ,धनुर्वेद का भी संधान  भी किया होगा ! तब हो सकता है कि भारतीय उपमहादीप के ये 'सभ्य' लोग  अपने आपको विश्व गुरु मानने लगे हों ! किन्तु राष्ट्र तो तब भी नहीं था। जब राष्ट्र ही नहीं था तो राष्ट्रीयता या कोमियत का तो सवाल ही नहीं उठता।  भारत में संविधान , स्वतंत्रता ,समानता ,लोकतंत्र ,धर्मनिरपेक्षता की ही तरह ' राष्ट्रवाद' भी विदेशों से ही आया है। ठीक  आज के -टेलीफ़ोन ,मोबाईल,कम्प्यूटर,बन्दुक ,बम , बिजली और अति उन्नत  टेक्नोलॉजी की तरह।  जो कुछ भी आज भारत के  पास है, उसका पूरा- पूरा श्रेय 'विदेशी' तकनीकी और आयातित 'विचार '  को ही जाता है। भारत का उसका खुद का अतीत का जो दर्शन है वो अब सिर्फ मंदिरों में पूजा के काम आता है। कुछ तो  बाजारों में उत्पाद के रूप में खरीद-फरोख्त के काम भी आता है।भारत के अति-पुरातन  तीन शब्द  असि -मसि -कृषि ये तीन शब्द  ही ऐंसे हैं जो भारतीय अतीत  को उज्जवल-धवल बनाते है.  ये तीन शब्द आज भी  भारत  को  ज़िंदा रखे हुए हैं।  इनमें  विदेशी निवेश की जरुरत तो भगवान आदिनाथ  [ऋषभदेव]  को भी नहीं रही।  आज सत्ता सीन हिंदुत्व वादी  नेताओं  से पूंछा जाए कि आप  किसानों  को बर्बाद करने के लिए 'भूमि अधुग्रहं बिल ' संसद में पेश कर गीता के किस श्लोक का अनुशरण कर रहे हैं ? आप  जिस विदेशी एफडीआई पर फ़िदा हो रहे हैं  वो ऋग्वेद के किस मंत्र का भाष्य है  श्रीमान ? 


    श्रीराम तिवारी


                

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