विवादास्पद आईटी एक्ट की धारा -६६ [ए ] के दुरूपयोग पर सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर चिंता व्यक्त कर इसे खत्म करने के निर्देश दिए हैं। विद्वान न्यायाधीशों-नरीमन व चेलामेश्वरम ने आई टी एक्ट के अधिकांस हिस्से को यथावत रखते हुए सिर्फ ६६[ए ] को विलोपित किये जाने का आदेश पारित किया है। उनका विद्वत्तापूर्ण कथन है कि "यह आर्टिकल ६६ [ए ] अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन करता है "ज्ञातव्य है कि इस संदर्भ में एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की गयी थी। इस धारा के तहत एफआईआर दर्ज होते ही पुलिस बिना किसी जांच -पड़ताल के ही किसी को भी गिरफ्तार के सकती है। जैसा कि कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी और स्वर्गीय बाल ठाकरे के निधन पर मुंबई बंद की आलोचना पर -दो फेसबुक यूजर्स लड़कियों के प्रकरण में हुआ था। इस एक्ट के प्रावधान धारा ६६[ए ] के तहत केस सावित हो जाने पर तीन साल के सश्रम कारवास की सजा का प्रावधान है।
आईटी एक्ट सेक्शन ६६[ए ] के तहत कोई भी व्यक्ति इस में जबरिया फंसाया जा सकता है।यदि कोई व्यक्ति कम्प्यूटर सहित किसी भी अन्य संचार माध्यम से ऐसी सामग्री भेजे, जो कि तथाकथित अनैतिक -आपत्तिजनक हो डरावनी हो। दंगे-फसाद पैदा करने में सहायक हो। धमकी-दुश्मनी -ठगी- दुर्भावना से प्रेरित हो, तो सुप्रीम कोर्ट की महती कृपा से अब ऐसा नहीं होगा । किन्तु न केवल सरकार के सामने बल्कि देश के सामने फिर भी एक चुनौती तो फिर भी विद्यमान है कि भारतीय समाज की इकाई के रूप में प्रत्येक व्यक्ति ,संगठन व संस्थाएं स्वानुशासन अर्थात आत्मानुशासन में दशमांश भी परिपक्व हैं या नहीं ?देश सिर्फ भृष्टाचार ,महँगाई ,बेकारी ,पिछड़ेपन और शोषणकारी ताकतों से ही त्रस्त नहीं है बल्कि अनुशासनहीनता उत्श्रंखलता ,नारी उत्पीड़न ,जातीय दादागिरी ,पूँजीवादी कुकुरमुत्ता -राजनीति और सोशल मीडिया पर दिगंबर देहदर्शन की बाढ़ से भी आक्रान्त है। तमाम संचार माध्यमों-फिल्मो पर उपलब्ध सुविधाओं के मार्फत कुछएक मनचले दिग्भर्मित असमाजिक तत्व भीकभी-कभी बेकाबू हो जाते हैं । इन ढेरों चुनौतियों से पस्त भारत के लिए क्या सुप्रीम कोर्ट के उक्त फैसले को वरदान माना जाए? आशंका है कि यह तथाकथित 'अभिव्यक्ति की आजादी ' कहीं समाज और देश का अभिशाप न बन जाए ! आशा की जा रही है कि यह लोकतंत्र के लिए संजीवनी ही सिद्ध हो !
'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' का देश और दुनिया में बड़ा हो हल्ला है। भारतीय सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के बाद पाकिस्तान सहित अन्य पड़ोसी मुल्कों में और सुदूर राष्ट्रों में भी भारतीय न्यायपालिका की तारीफ हो रही है। हालाँकि भारत में सत्ता पक्ष को यह फैसला शायद रास नहीं आया है। खबर है कि वर्तमान मोदी सरकार के आईटी मंत्री श्री रविशंकर प्रसाद जी ने भी दवी जुबान से सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर कुछ नाखुशी जाहिर की है। हालांकि उनकी चिंता वाजिब हो सकती है। उनकी सोच में कुछ सच्चाई भी हो सकती है कि 'देश के खिलाफ कार्टून बनाने ,देश के खिलाफ लिखने ' पर कितनी छूट दी जाये। देश के खिलाफ काम कर रहे अनेक व्यक्तियों ,समूहों व अलगाववादियों की कुत्सित अभिलाषा को अभिव्यक्ति की आजादी से नथ्थी कैसे किया जा सकता ? वर्तमान युग के सोशल मीडिया ने तमाम प्रकार के उबड़-खाबड़ जघन्य कीर्तिमान रच डाले हैं। क्या उन्हें प्रगतिशीलता का जामा पहिनाया जा सकता है ? चूँकि डिजिटल,इलेक्ट्रॉनिक ,सोशल मीडिया ने एक आभाषी संसार की रचना कर ली है। वेशक उसने समाज के कुछ पुराने यथास्थितिवाद और कूटमिथ को भी तोड़ने में क्रांतिकारी भूमिका भी अदा की है। किन्तु उसने कश्मीरी उग्रवादियों ,सिमी उग्रवादियों,अल्पसंख्यक वर्ग के कटटरवादियों -तत्ववादियों को भी खूब खाद -पानी दिया है। अभिव्यक्ति की आजादी ने रामलीला मैदान और जंतर -मंतर पर अण्णा हजारे और रामदेव की हुललड़बाजी का नजराभी दिखाया है। सर्वहारा वर्ग को अभिव्यक्ति की आजादी 'रोटी' से बड़ी नहीं। मध्यमवर्गीय अर्धशिक्षित युवाओं को कभी 'आप' कभी ' हर -हर मोदी' ही वॉट्सऐप और एफबी पर सुहाते हैं।
अनियंत्रित भगवा मण्डली को ,'संघ परिवार' के कुछ सत्ता स्वार्थी तत्वों को भी तो इस सूचना -संचार तकनीक के अनियंत्रित ड्रेगन ने इस दौर में उपकृत ही किया है।सभी मजहबों साम्प्रदायिक समूहों और पूंजीवादी राजनैतिक दलों ने 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ' नामक इस सोम रस का खूब डटकर मधुपान किया है। उन्मुक्त सोशल मीडिया ने भारत के राष्ट्रीय हितों की लगातार अनदेखी की है । जब तक शिक्षित और युवा वर्ग स्वयं ही आत्मानुशासन के दायरे में नहीं आ जाता, तब तक 'अभिव्यक्ति की नाजुक स्वतंत्रता' को खतरा बना रहेगा। कोई भी निरंकुश सरकार राष्ट्र सुरक्षा के बहाने उसकी उन्मुक्तता को सीमित कर सकती है। राजनैतिक विपक्ष को तो हमेशा ही यह डर बना रहता है कि लोकतंत्र में सत्तारूढ़ वर्ग विपक्ष की आवाज को दवाने में आईटीएक्ट का दुरूपयोग कर सकता है। इधर शोषण के खिलाफ उठी आवाज को दवाने या देश के सच्चे क्रांतिकारियों को सेंसर रुपी 'राजदंड' के बेजा दुरूपयोग का कोई खतरा नहीं। क्योंकि सर्वहारा वर्ग के पास छिपाने को कुछ नहीं।उसके पास वर्ग संघर्ष के संग्राम में गुलामी की बेड़ियों को खोने के अलावा कुछ नहीं। वेशक यदि वह एकजुट होकर लड़ने पर आमादा हो जाए तो जीत के हजारों अवसर मुँह बाए जरूर उसके सामने खड़े हैं। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने आईटीएक्ट की धारा ६६[ए ] को विलोपित कर भारत की मध्यवित्त आवाम को ही बहरहाल भयमुक्त ही किया है। भारत का सर्वहारा वर्ग ,मजदूर ,किसान और मेहनतकश वर्ग को तो तभी भय से मुक्ति मिलगी जब 'काम के अधिकार ' की सौ फीसदी गारंटी का संवैधानिक प्रावधान हो।
न केवल वर्तमान एनडीए सरकार अपितु पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारों ने भी जब-तब इस अभिव्यक्ति की आजादी के हनन की पुरजोर कोशिशें की हैं। कहने को तो भारतीय समाज का मूल चरित्र सहिष्णु है किन्तु समाज के कुछ समूहों और व्यक्तियों को यह सहिष्णुता ज़रा भी नहीं सुहाती। दुनिया भर में पनप रहे नापाक तत्वों की तरह भारतीय समाज में भी कुछ असहिष्णु तत्व परवान चढ़ रहे हैं। उन्हें कार्टून या व्यंग से डर लगता है। वे 'शार्ली हेब्दों 'पर हमला करने वालों के प्रसंशक भी हो सकते हैं। वे मुंबई बम विस्फोट करने वालों के एजेंट्स भी हो सकते हैं। वे २६/११ ,९/११, के हत्यारों के अनुयायी भी हो सकते हैं। वे पेशावर स्कूली छात्र हत्याकांड में लिप्त कटट्रपंथियों से प्रेरणा पाने वाले भी हो सकते हैं। इन सभी हिंसक तत्वों से घृणा करने वाले ,अपनी तदनुरूप प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले और सहनशील आवाम में से कोई भी हो सकते हैं। तब यह सुनिश्चित किया जाना बहुत जरुरी है कि क्या हम भारत के जन-गण अब खुद ही आत्मनुशासित हो चुके हैं या डंडे से हांके जाने के लिए अभी भी अभिसप्त हैं। यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अक्षुण है तो उसके लिए सरकार और जनता की जवाब देही क्या है ? आइन्दा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दुरूपयोग का मापदंड क्या हो ?यदि तदनुसार दुरूपयोग पाया जाता है तो कहीं यह सुप्रीम कोर्ट की अवमानना तो नहीं होगी ?
उच्चतम न्यायालय का फैसला है कि " सरकार की नीति-रीति के विरोध में लिखने बोलने या कार्टून बिधा के मार्फत अपनी असहमति वयक्त करने मात्र से कोई नागरिक 'देशद्रोही' नहीं हो जाता" याने सरकार को निशाने पर रखकर तीखे और मजाकिया कार्टून या केरीकेचर बनाने वाले कार्टूनिस्ट,कलाकार,कवि , पर देशद्रोह का मुकदद्मा नहीं चलाया जा सकता। बहुत -बहुत शुक्रिया। ज्ञातव्य है कि कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी पर राष्ट्रीय चिन्हों का और संसद का अपमान करने का आरोप लगाकर सितमबर -२०१२ में गिरफ्तार किया गया था। जनता के भारी विरोध और न्यायपालिका की सूझबूझ से देश में अभिव्यक्ति की आजादी को अब जाकर जीवनदान मिला है । संघर्ष शील जागरूक वकीलों को धन्यवाद। न्यायधीशों का शुक्रिया।
सुप्रीम कोर्ट ने जाट जाति को केंद्र सरकार द्वारा नौकरियों व् शिक्षण संस्थानों में दिया गया आरक्षण रद्द कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट का आशय है कि ''जाति एक महत्वपूर्ण घटक है,लेकिन यह किसी जाति के पिछड़ेपन को निर्धारित करने का एकमात्र आधार नहीं हो सकता। अतीत में किसी खास जाति को गलत ढंग से दिया गया आरक्षण आगे भी इसी गलत ढंग से अन्य जाति को यह अधिकार देने का वैधानिक आधार नहीं हो सकता"। इस तरह के फैसलों से भारत की न्याय व्यवस्था को दुनिया में सम्मान मिल रहा है। शासक वर्ग को भी 'अँधा बांटे रेवड़ी आपन -आपन देय ' का मौका नहीं मिलने वाला। योग्यता को उसका हक मिलना ही चाहिए। गरीब वेरोजगार किसी भी जाती-धर्म का हो उसे अवसर और न्याय की समानता मिलनी ही चाहिए । यह वर्तमान व्यवस्था में तो सम्भव नहीं दीखता।
राजनीति के दल-दल में कमल खिलने से सिर्फ सत्ता के दल्लाओं के ही अच्छे आये हैं। लेकिन किसानों ,मजदूरों ,युवाओं और वेरोजगारों के बुरे दिन आये हैं। मध्यमवर्ग तो कोई न कोई रास्ता अपनी जिजीविषा का खोज ही लेगा किन्तु ओला-पाला ,वेमौसम वारिश से पीड़ित किसान और भूमि अधिग्रहण क़ानून की मारक क्षमता से भयग्रस्त किसान के लिए जीवन बहुत दुराधरष हो चुका है।एकमात्र आशा की किरण सरकार की किसान विरोधी नीतियों के खिलाफ जन संघर्ष ही है. जिसका श्रीगणेश दिल्ली में सम्पूर्ण विपक्ष द्वारा हो चुका है।
सरकार के फैसले भले ही देश की आवाम को अंधकूप में धकेल रहे हों, किन्तु भारतीय न्यायपालिका के कुछ ताजातरीन फैसलों से देश को कुछ शकुन हासिल हुआ है। भारतीय न्यायपालिका के इन फैसलों से समाज के जातीय और धार्मिक संगठित गिरोहों की दादागिरी पर कुछ तो अंकुश जरूर लगेगा। इसके लिए उन वकीलों ,जजौं और संस्थाओं को धन्यवाद दिया जाना चाहिए , जो न्याय के पक्षधर हैं। जो सत्य के लिए संघर्षरत है उनका अभिवादन किया जाना चाहिए ।यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि आरक्षण केवल उन्हें ही दिया जाए जो आर्थिक रूप से बेहद कमजोर हैं। जो शरीरिक और मानसिक रूप से अपंग हैं। जिसके पास हजारों एकड़ जमीन है ,जो सांसद हैं , मिनिस्टर है, उच्चधिकारी है ,यदि वह अपनी जाति को पिछड़ा ,दलित या महादलित बताकर अपने ही स्वार्थ सिद्धि में लगे हैं तो उसे और ज्यादा लूट का आरक्षण क्यों मिलना चाहिए ?
जिसे ५० साल पहले आरक्षण मिल चूका ,जिसके बच्चे अमेरिका -यूरोप में पड़ रहे हों या सेटिल हो गए हों उन्हें आरक्षण सिर्फ इसलिए नहीं दिया जा सकता कि पचास साल पहले की सरकार ने उन्हें वह हक दिया था। जो आरक्षित प्राणी आस्ट्रलिया न्यूजीलैंड में वर्ल्ड क्रिकेट मैच देखने के लिए हवाई यात्राओं का खर्चा सरकार के मथ्थे मढ़ रहा हो उसे आरक्षण की दरकार क्यों है ? जो भीख का कटोरा लेकर चौराहे पर खड़ा है ,जो धुप में सड़क किनारे पंचर सुधर रहा है. जो खेत में- खदान में -ईंट भट्ठों पर रोजनदारी मजदूरी कर रहा है,जो भवन निर्माण में उजरती मजदूर है उसे आरक्षण क्यों नहीं मिलना चाहिए ? रोटी-कपडा -मकान के लिए संघर्ष कर रहे करोड़ों लोग आरक्षण के हकदार हैं। भले ही वे किसी भी जाति के हों । जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था के कारण ही भारत में जातीयतावाद का जहर और ज्यादा बढ़ रहा है। यदि भारत को मजबूत करना है तो जातीयतावाद को कमजोर करना होगा। जातीयतावाद को कमजोर करना है तो आर्थिक आधार पर आरक्षण दिये जाने का प्रावधान संविधान में होना चाहिए।
वेशक भारतीय न्यायपालिका में 'शुचिता 'का गंभीर संकट है। व्यक्तिगत रूप से कई जस्टिस चरित्रगत कमजोरियों के शिकार हैं। कई जगहों पर न्याय के मंदिरों में बिना पैसे के कागज आगे नहीं बढ़ता। कई जगह पैसे देकर न्यायिक प्रक्रिया को दूषित और स्वार्थी बना दिया जाता है। किन्तु सब कुछ काला-काला नहीं है। भारतीय न्याय पालिका के पास बहुत कुछ ऐंसा है जिससे दुनिया के अन्य मुल्क ईर्षा कर सकते हैं।
श्रीराम तिवारी
आईटी एक्ट सेक्शन ६६[ए ] के तहत कोई भी व्यक्ति इस में जबरिया फंसाया जा सकता है।यदि कोई व्यक्ति कम्प्यूटर सहित किसी भी अन्य संचार माध्यम से ऐसी सामग्री भेजे, जो कि तथाकथित अनैतिक -आपत्तिजनक हो डरावनी हो। दंगे-फसाद पैदा करने में सहायक हो। धमकी-दुश्मनी -ठगी- दुर्भावना से प्रेरित हो, तो सुप्रीम कोर्ट की महती कृपा से अब ऐसा नहीं होगा । किन्तु न केवल सरकार के सामने बल्कि देश के सामने फिर भी एक चुनौती तो फिर भी विद्यमान है कि भारतीय समाज की इकाई के रूप में प्रत्येक व्यक्ति ,संगठन व संस्थाएं स्वानुशासन अर्थात आत्मानुशासन में दशमांश भी परिपक्व हैं या नहीं ?देश सिर्फ भृष्टाचार ,महँगाई ,बेकारी ,पिछड़ेपन और शोषणकारी ताकतों से ही त्रस्त नहीं है बल्कि अनुशासनहीनता उत्श्रंखलता ,नारी उत्पीड़न ,जातीय दादागिरी ,पूँजीवादी कुकुरमुत्ता -राजनीति और सोशल मीडिया पर दिगंबर देहदर्शन की बाढ़ से भी आक्रान्त है। तमाम संचार माध्यमों-फिल्मो पर उपलब्ध सुविधाओं के मार्फत कुछएक मनचले दिग्भर्मित असमाजिक तत्व भीकभी-कभी बेकाबू हो जाते हैं । इन ढेरों चुनौतियों से पस्त भारत के लिए क्या सुप्रीम कोर्ट के उक्त फैसले को वरदान माना जाए? आशंका है कि यह तथाकथित 'अभिव्यक्ति की आजादी ' कहीं समाज और देश का अभिशाप न बन जाए ! आशा की जा रही है कि यह लोकतंत्र के लिए संजीवनी ही सिद्ध हो !
'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' का देश और दुनिया में बड़ा हो हल्ला है। भारतीय सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के बाद पाकिस्तान सहित अन्य पड़ोसी मुल्कों में और सुदूर राष्ट्रों में भी भारतीय न्यायपालिका की तारीफ हो रही है। हालाँकि भारत में सत्ता पक्ष को यह फैसला शायद रास नहीं आया है। खबर है कि वर्तमान मोदी सरकार के आईटी मंत्री श्री रविशंकर प्रसाद जी ने भी दवी जुबान से सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर कुछ नाखुशी जाहिर की है। हालांकि उनकी चिंता वाजिब हो सकती है। उनकी सोच में कुछ सच्चाई भी हो सकती है कि 'देश के खिलाफ कार्टून बनाने ,देश के खिलाफ लिखने ' पर कितनी छूट दी जाये। देश के खिलाफ काम कर रहे अनेक व्यक्तियों ,समूहों व अलगाववादियों की कुत्सित अभिलाषा को अभिव्यक्ति की आजादी से नथ्थी कैसे किया जा सकता ? वर्तमान युग के सोशल मीडिया ने तमाम प्रकार के उबड़-खाबड़ जघन्य कीर्तिमान रच डाले हैं। क्या उन्हें प्रगतिशीलता का जामा पहिनाया जा सकता है ? चूँकि डिजिटल,इलेक्ट्रॉनिक ,सोशल मीडिया ने एक आभाषी संसार की रचना कर ली है। वेशक उसने समाज के कुछ पुराने यथास्थितिवाद और कूटमिथ को भी तोड़ने में क्रांतिकारी भूमिका भी अदा की है। किन्तु उसने कश्मीरी उग्रवादियों ,सिमी उग्रवादियों,अल्पसंख्यक वर्ग के कटटरवादियों -तत्ववादियों को भी खूब खाद -पानी दिया है। अभिव्यक्ति की आजादी ने रामलीला मैदान और जंतर -मंतर पर अण्णा हजारे और रामदेव की हुललड़बाजी का नजराभी दिखाया है। सर्वहारा वर्ग को अभिव्यक्ति की आजादी 'रोटी' से बड़ी नहीं। मध्यमवर्गीय अर्धशिक्षित युवाओं को कभी 'आप' कभी ' हर -हर मोदी' ही वॉट्सऐप और एफबी पर सुहाते हैं।
अनियंत्रित भगवा मण्डली को ,'संघ परिवार' के कुछ सत्ता स्वार्थी तत्वों को भी तो इस सूचना -संचार तकनीक के अनियंत्रित ड्रेगन ने इस दौर में उपकृत ही किया है।सभी मजहबों साम्प्रदायिक समूहों और पूंजीवादी राजनैतिक दलों ने 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ' नामक इस सोम रस का खूब डटकर मधुपान किया है। उन्मुक्त सोशल मीडिया ने भारत के राष्ट्रीय हितों की लगातार अनदेखी की है । जब तक शिक्षित और युवा वर्ग स्वयं ही आत्मानुशासन के दायरे में नहीं आ जाता, तब तक 'अभिव्यक्ति की नाजुक स्वतंत्रता' को खतरा बना रहेगा। कोई भी निरंकुश सरकार राष्ट्र सुरक्षा के बहाने उसकी उन्मुक्तता को सीमित कर सकती है। राजनैतिक विपक्ष को तो हमेशा ही यह डर बना रहता है कि लोकतंत्र में सत्तारूढ़ वर्ग विपक्ष की आवाज को दवाने में आईटीएक्ट का दुरूपयोग कर सकता है। इधर शोषण के खिलाफ उठी आवाज को दवाने या देश के सच्चे क्रांतिकारियों को सेंसर रुपी 'राजदंड' के बेजा दुरूपयोग का कोई खतरा नहीं। क्योंकि सर्वहारा वर्ग के पास छिपाने को कुछ नहीं।उसके पास वर्ग संघर्ष के संग्राम में गुलामी की बेड़ियों को खोने के अलावा कुछ नहीं। वेशक यदि वह एकजुट होकर लड़ने पर आमादा हो जाए तो जीत के हजारों अवसर मुँह बाए जरूर उसके सामने खड़े हैं। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने आईटीएक्ट की धारा ६६[ए ] को विलोपित कर भारत की मध्यवित्त आवाम को ही बहरहाल भयमुक्त ही किया है। भारत का सर्वहारा वर्ग ,मजदूर ,किसान और मेहनतकश वर्ग को तो तभी भय से मुक्ति मिलगी जब 'काम के अधिकार ' की सौ फीसदी गारंटी का संवैधानिक प्रावधान हो।
न केवल वर्तमान एनडीए सरकार अपितु पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारों ने भी जब-तब इस अभिव्यक्ति की आजादी के हनन की पुरजोर कोशिशें की हैं। कहने को तो भारतीय समाज का मूल चरित्र सहिष्णु है किन्तु समाज के कुछ समूहों और व्यक्तियों को यह सहिष्णुता ज़रा भी नहीं सुहाती। दुनिया भर में पनप रहे नापाक तत्वों की तरह भारतीय समाज में भी कुछ असहिष्णु तत्व परवान चढ़ रहे हैं। उन्हें कार्टून या व्यंग से डर लगता है। वे 'शार्ली हेब्दों 'पर हमला करने वालों के प्रसंशक भी हो सकते हैं। वे मुंबई बम विस्फोट करने वालों के एजेंट्स भी हो सकते हैं। वे २६/११ ,९/११, के हत्यारों के अनुयायी भी हो सकते हैं। वे पेशावर स्कूली छात्र हत्याकांड में लिप्त कटट्रपंथियों से प्रेरणा पाने वाले भी हो सकते हैं। इन सभी हिंसक तत्वों से घृणा करने वाले ,अपनी तदनुरूप प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले और सहनशील आवाम में से कोई भी हो सकते हैं। तब यह सुनिश्चित किया जाना बहुत जरुरी है कि क्या हम भारत के जन-गण अब खुद ही आत्मनुशासित हो चुके हैं या डंडे से हांके जाने के लिए अभी भी अभिसप्त हैं। यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अक्षुण है तो उसके लिए सरकार और जनता की जवाब देही क्या है ? आइन्दा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दुरूपयोग का मापदंड क्या हो ?यदि तदनुसार दुरूपयोग पाया जाता है तो कहीं यह सुप्रीम कोर्ट की अवमानना तो नहीं होगी ?
उच्चतम न्यायालय का फैसला है कि " सरकार की नीति-रीति के विरोध में लिखने बोलने या कार्टून बिधा के मार्फत अपनी असहमति वयक्त करने मात्र से कोई नागरिक 'देशद्रोही' नहीं हो जाता" याने सरकार को निशाने पर रखकर तीखे और मजाकिया कार्टून या केरीकेचर बनाने वाले कार्टूनिस्ट,कलाकार,कवि , पर देशद्रोह का मुकदद्मा नहीं चलाया जा सकता। बहुत -बहुत शुक्रिया। ज्ञातव्य है कि कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी पर राष्ट्रीय चिन्हों का और संसद का अपमान करने का आरोप लगाकर सितमबर -२०१२ में गिरफ्तार किया गया था। जनता के भारी विरोध और न्यायपालिका की सूझबूझ से देश में अभिव्यक्ति की आजादी को अब जाकर जीवनदान मिला है । संघर्ष शील जागरूक वकीलों को धन्यवाद। न्यायधीशों का शुक्रिया।
सुप्रीम कोर्ट ने जाट जाति को केंद्र सरकार द्वारा नौकरियों व् शिक्षण संस्थानों में दिया गया आरक्षण रद्द कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट का आशय है कि ''जाति एक महत्वपूर्ण घटक है,लेकिन यह किसी जाति के पिछड़ेपन को निर्धारित करने का एकमात्र आधार नहीं हो सकता। अतीत में किसी खास जाति को गलत ढंग से दिया गया आरक्षण आगे भी इसी गलत ढंग से अन्य जाति को यह अधिकार देने का वैधानिक आधार नहीं हो सकता"। इस तरह के फैसलों से भारत की न्याय व्यवस्था को दुनिया में सम्मान मिल रहा है। शासक वर्ग को भी 'अँधा बांटे रेवड़ी आपन -आपन देय ' का मौका नहीं मिलने वाला। योग्यता को उसका हक मिलना ही चाहिए। गरीब वेरोजगार किसी भी जाती-धर्म का हो उसे अवसर और न्याय की समानता मिलनी ही चाहिए । यह वर्तमान व्यवस्था में तो सम्भव नहीं दीखता।
राजनीति के दल-दल में कमल खिलने से सिर्फ सत्ता के दल्लाओं के ही अच्छे आये हैं। लेकिन किसानों ,मजदूरों ,युवाओं और वेरोजगारों के बुरे दिन आये हैं। मध्यमवर्ग तो कोई न कोई रास्ता अपनी जिजीविषा का खोज ही लेगा किन्तु ओला-पाला ,वेमौसम वारिश से पीड़ित किसान और भूमि अधिग्रहण क़ानून की मारक क्षमता से भयग्रस्त किसान के लिए जीवन बहुत दुराधरष हो चुका है।एकमात्र आशा की किरण सरकार की किसान विरोधी नीतियों के खिलाफ जन संघर्ष ही है. जिसका श्रीगणेश दिल्ली में सम्पूर्ण विपक्ष द्वारा हो चुका है।
सरकार के फैसले भले ही देश की आवाम को अंधकूप में धकेल रहे हों, किन्तु भारतीय न्यायपालिका के कुछ ताजातरीन फैसलों से देश को कुछ शकुन हासिल हुआ है। भारतीय न्यायपालिका के इन फैसलों से समाज के जातीय और धार्मिक संगठित गिरोहों की दादागिरी पर कुछ तो अंकुश जरूर लगेगा। इसके लिए उन वकीलों ,जजौं और संस्थाओं को धन्यवाद दिया जाना चाहिए , जो न्याय के पक्षधर हैं। जो सत्य के लिए संघर्षरत है उनका अभिवादन किया जाना चाहिए ।यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि आरक्षण केवल उन्हें ही दिया जाए जो आर्थिक रूप से बेहद कमजोर हैं। जो शरीरिक और मानसिक रूप से अपंग हैं। जिसके पास हजारों एकड़ जमीन है ,जो सांसद हैं , मिनिस्टर है, उच्चधिकारी है ,यदि वह अपनी जाति को पिछड़ा ,दलित या महादलित बताकर अपने ही स्वार्थ सिद्धि में लगे हैं तो उसे और ज्यादा लूट का आरक्षण क्यों मिलना चाहिए ?
जिसे ५० साल पहले आरक्षण मिल चूका ,जिसके बच्चे अमेरिका -यूरोप में पड़ रहे हों या सेटिल हो गए हों उन्हें आरक्षण सिर्फ इसलिए नहीं दिया जा सकता कि पचास साल पहले की सरकार ने उन्हें वह हक दिया था। जो आरक्षित प्राणी आस्ट्रलिया न्यूजीलैंड में वर्ल्ड क्रिकेट मैच देखने के लिए हवाई यात्राओं का खर्चा सरकार के मथ्थे मढ़ रहा हो उसे आरक्षण की दरकार क्यों है ? जो भीख का कटोरा लेकर चौराहे पर खड़ा है ,जो धुप में सड़क किनारे पंचर सुधर रहा है. जो खेत में- खदान में -ईंट भट्ठों पर रोजनदारी मजदूरी कर रहा है,जो भवन निर्माण में उजरती मजदूर है उसे आरक्षण क्यों नहीं मिलना चाहिए ? रोटी-कपडा -मकान के लिए संघर्ष कर रहे करोड़ों लोग आरक्षण के हकदार हैं। भले ही वे किसी भी जाति के हों । जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था के कारण ही भारत में जातीयतावाद का जहर और ज्यादा बढ़ रहा है। यदि भारत को मजबूत करना है तो जातीयतावाद को कमजोर करना होगा। जातीयतावाद को कमजोर करना है तो आर्थिक आधार पर आरक्षण दिये जाने का प्रावधान संविधान में होना चाहिए।
वेशक भारतीय न्यायपालिका में 'शुचिता 'का गंभीर संकट है। व्यक्तिगत रूप से कई जस्टिस चरित्रगत कमजोरियों के शिकार हैं। कई जगहों पर न्याय के मंदिरों में बिना पैसे के कागज आगे नहीं बढ़ता। कई जगह पैसे देकर न्यायिक प्रक्रिया को दूषित और स्वार्थी बना दिया जाता है। किन्तु सब कुछ काला-काला नहीं है। भारतीय न्याय पालिका के पास बहुत कुछ ऐंसा है जिससे दुनिया के अन्य मुल्क ईर्षा कर सकते हैं।
श्रीराम तिवारी
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