भारत में इन दिनों प्रतिगामी सूचनाओं और नकारात्मक घटनाओं के उद्घोष का सिलसिला अपने चरम पर है। मीडिया ,इंटरनेट ,फेसबूक ,ट्वीटर , ग्लोबल सर्विस मोबाइल से सम्बंधित तमाम अधुनातन उच्च- दूर संचार तकनीकी वाले संसधान केवल देश में घटित -अघटित उन चुनिंदा स्त्री -देह से आबद्ध कहानियों पर केंद्रित हैं जो 'निर्बल'नारी और 'सबल' पुरुष के अबैध शारीरिक सम्बन्धों को उजागर कर रहे हैं। कुछ बहादुर युवतियाँ जो इस दौर के सामाजिक मिजाज को भाँपकर पुरुष- सत्ता के बर्बर और अमानुषिक व्यवहार का प्रतिकार करते हुए आगे आ रही हैं उन्हें भावी पीढ़ियाँ भले ही अपना आदर्श मान कर अनुशरण करने लेगें, किन्तु बहरहाल तो इसमें कोई शक नहीं कि इस दौर के युवक -युवतियाँ -जो इस 'दुष्कर्म-विमर्श' से वाकिफ हैं वे नकारात्मक पेनीट्रेशन के शिकार हो रहे हैं। किसी तथाकथित विक्टिम या यौन पीड़िता के पक्ष में और किसी खास तथाकथित रेपिस्ट के विरोध में नेताओं की वयान बाजी भी राजनैतिक प्रतिबद्धता के अनुरूप हो रही है। उनके लिए यह 'यौन -विमर्श' भी राजनैतिक रूप से फायदेमंद हो सकता है किन्तु देश और समाज का कुछ भी भला नहीं कर सकता !
किन्तु जब कोई आम आदमी या नेता ,समाज सुधारक या इंटेलेक्चुअल्स शोषण अन्याय और भ्रष्टाचार से लड़ने की बात करता है ,किसी क्रांतिकारी बदलाव की बात करता है तो उसकी आवाज को अनसुना किया जाता है। मौजूदा दौर के यौन-विमर्श को टी वी के घटिया क्रमिक धारावाहिक कायर्क्रमों की तरह सभी माध्यमों में बहुलता से परोसा जा रह है। जबकि अन्याय के प्रतिकार संबंधी विमर्श नकारखाने में तूती की आवाज भी नहीं हैं। हालांकि यह सच है कि किसी व्यक्ति विशेष की नितांत निजी सकरात्मक सक्रियता तब तक किसी अंजाम तक नहीं पहुँच सकती जब तक कि वह किसी प्रगतिशील जनतांत्रिक संघठन से सरोकार नहीं रख लेता। व्यक्तिवादी आदर्शवादी समाज सुधारक या गैर राजनैतिक व्यक्ति केवल अन्ना हजारे जैसा बन कर रह जाता है ,जिसकी कोई नहीं सुनता बल्कि उसके बगलगीर भी उसे केवल ऐंसा विजूका समझते हैं जो कौवे भी नहीं भगा सकता। वे न तो लोकपाल वनवा सकते हैं और न ही वे समाज में हो रहे दुराचार -दुष्कर्म-यौन-शोषण जैसे मामले में देश के युवाओं का मार्ग दर्शन कर सकते हैं।
इतिहास साक्षी है कि किसी भी दौर की युवा पीढ़ी ने जब कभी विचारधारा को अपनाया है तो उसे कुछ न कुछ सफलता जरुर मिली है। जेपी आंदोलन जो की एक राजनैतिक विचारधारा पर आधरित था उससे जुड़े तत्कालीन युवा आज भी देश की राजनीति के केंद्र में हैं।इसी तरह वामपंथ और संघ परिवार से भी अपने-अपने दौर के तत्कालीन युवा आज शीर्ष पर हैं क्योंकि वे किसी व्यक्ति नहीं बल्कि अपनी पसंदीदा विचाधारा के अनुयायी हैं। वेशक संघ परिवार साम्प्रदायिकता से आरोपित है ,भाजपा पर भी कई आरोप हैं किन्तु उसके पास प्रत्येक दौर में युवाओं की जो फौज आती गई उसमें से कुछ त्याग-तपस्या और बलिदान के लिए मशहूर रहे हैं। कुशा भाऊ ठाकरे ,दत्तोपंत ठेंगड़ी और दीन दयाल उपाध्याय को हम सिर्फ इसलिए नहीं भूल सकते कि वो संघ परिवार से जुड़े थे। इसी तरह से वाम पंथ के पास भी नैतिक और चारित्रिक रूप से कसा हुआ कैडर है ,उन्हें इस मौजूदा दौर में देश के युवाओं को और संचार माध्यमों को निर्देशित करना चाहिए कि देश की समस्या यौन-उत्पीड़न या ह्त्या बलात्कार ही नहीं बल्कि इस दौर की सम्पूर्ण व्यवस्था उपचार की अपेक्षा कर रही है। सुषमा स्वराज ,सुब्रमन्यम स्वामी जैसे नेता देश का मार्ग दर्शन नहीं कर सकते। केवल अपने राजनैतिक फायदे के लिए आसाराम ,नारायण साईं ,तेजपाल ,अशोक गांगुली जैसे लोगों पर अपनी -अपनी वैचारिकी पर समय और ऊर्जा बर्बाद नहीं करनी चाहिए।
इस दौर की युवा पीढ़ी का मानना है कि आधुनिकता और पुरातन 'यौन वरजनाएँ' दो विपरीत ध्रुव हैं. उनका ख्याल है कि साइंस और टेक्नालॉजी के उस दौर में जब यत्र-तत्र-सर्वत्र 'प्रिंट-दृश्य-श्रव्य माध्यमों के फलक पर अपने सम्पूर्ण यौवन के साथ 'रतिभाव' परिलक्षित हो रहा हो तब हर नौजवान राम-लक्ष्मण ' की तरह सूर्पनखा को ठुकरा दे यह कैसे सम्भव है ? पतनशील अर्धपूँजीवादी -अर्ध सामंती समाज व्यवस्था में 'मर्यादाओं' की सलीब अपने कंधे पर ढोने वाले लोग इस दौर में भी हैं. किन्तु सबसे ज्यादा अपमानित और शोषित भी ऐंसे ही शख्स हो जाया करते हैं. वे चाहते हैं कि एक पत्नी व्रत का पालन शिद्दत से किया जाए , क्योंकि इससे 'यौन -शोषण के आरोप-प्रत्यारोप से काफी निजात मिल सकती है !वरना -
" अति संघर्षण कर जो कोई ! अनिल प्रगट चन्दन से होई !! "
जब लोकतांत्रिक आकांक्षाओं के नाम पर ,आर्थिक - सामाजिक -राजनैतिक -साम्प्रदायिक और पारिवारिक परिवेश में प्रतिष्पर्धा और खुलेपन की पूरी छूट हो । एकाकीपन की -ललक हो! और हर कोई 'ताकतवर' नैतिकता का खूंटा उखाड़ने में सक्षम हो तो 'यौन-रेप' गेंग -रेप' की ही चर्चा क्यों ? कन्या भ्रूण ह्त्या से लेकर बृद्धा -बिधवा -माता -बहिन -बेटी और पत्नी के लिए गरिमामय संवेदनाएं कहाँ से प्रस्फुटित होंगी ? हर युवा विश्वामित्र और युवती मेनका हो जाने को बाध्य किये जा रहे हों तो समाज की दुर्दशा क्यों नहीं हो सकती ? आधुनिकता में हमारी चाहत है कि हम अमेरिका और यूरोप के बाप हो जाएँ! दूसरी और सामाजिक और नैतिकता का हमारा आगृह कितना श्रेष्टतम् है कि :-
"एक नारि व्रत रत सब झारी " के मन्त्र का जाप करें तो यह कैसे सम्भव है ?
यदि भारत के युवक-युवतियाँ चाहें तो इस विमर्श को क्रांतिकारी रूप देकर कोई राह निकाल सकते हैं किन्तु हर घटना में केवल 'पुरुष' को दोषी ठहरकर जेल भिजवाने से भारतीय या किसी भी समाज में नारी -उत्पीड़न खत्म नहीं हो सकता । तथाकथित यौन -शोषण या व्यभिचार से भी 'स्त्री जाति ' को निजात मिल पाना तब तक सम्भव नहीं जब तक कि समाज में असमानता ,घूसख़ोरी ,शोषण-दमन , संस्कारहीनता, अनुशाशनहीनता और पतनशील समाज व्यवस्था जैसे अन्य विकार विद्द्यमान हैं ।आधुनिक पूँजीवादी समाज ने जो अनैतिक और ऐयाशीपूर्ण आचरण अपनाया है उसे ही आदर्श मानकर धर्म-मज़हब ,राजनीति और समाज के अन्य हिस्सों में अन्य नर-नारियों द्वारा आचरण किया जा रहा है।
" "महाजनों ये गताः स : पन्थाः " पुराने जमाने में इसका अर्थ यह था कि 'महापुरुष जिस रास्ते पर चले ,हमें उसी राह पर चलना है! इसका आजकल ये अर्थ है कि:-भृष्ट - पूँजीपति ,ठेकेदार ,अफसर , डॉ, इंजीनियर , धर्म-गुरु ,प्रवचनकार ,कथावाचक ,स्वामी , प्रोफ़ेसर ,संपादक, खिलाड़ी , आर्टिस्ट, फिल्मकार - साहित्यकार जिस रास्ते पर चल रहे हैं, वही आम लोगों के अनुशरण योग्य सुलभ मार्ग है। जब तक भारतीय युवक-युवतियां इन वर्त्तमान भृष्ट तत्वों से प्रेरणा लेना नहीं छोड़ते, इन पाप के घड़ों को 'अमृतकुंभ' मानने से बाज नहीं आते ,जब तक युवा पीढ़ी एक स्पष्ट और उच्चतम नैतिक मूल्यों की ललक के साथ - इस पूँजीवादी समाज व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए मैदान में नहीं उतरती तब तक नैतिक मूल्यों के ह्रास और हर किस्म के शोषण का करुण क्रंदन समाप्त नहीं होगा।
स्त्री-पुरुष के बरक्स यौन सम्बन्धों में सामन्तकालीन भारत की यौन वर्जनाओं को आदर्श नहीं कहा जा सकता । सामन्तकाल में नारी मात्र की जो भयावह दुर्गति हुआ करती थी उसके मुकाबले इस पूंजीवादी निजाम में नारी -उत्पीड़न दशमांश भी नहीं है। तत्कालीन सामंती समाज में केवल शासक वर्ग ही स्त्री ,धरती और सम्पदा का स्वामी हुआ करता था। शेष जनता तो केवल राजा या शासक के अनुचर या दास मात्र थे। साइंस और जन संघर्षों ने सामंतवाद का खत्मा किया तो समाज के धनिक वर्ग ने शासक का रूप धारण कर लिया और वे सामंतों की तरह नारी देह को 'भोग्य वस्तु ' समझकर चीर हरण में व्यस्त हैं। व्यक्तिशः वे फिल्मकार ,मंत्री ,अफसर ,न्यायधीश , धर्म-गुरु ,साधू-बाबा -स्वामी ,मीडिया परसनालिटी कुछ भी हो सकते हैं. किन्तु समेकित रूप से वे 'पूंजीवादी भृष्ट' समाज के 'टूल्स' मात्र हैं। इनके यौन शोषण विमर्श इतने ज्यादा चर्चित होने योग्य नहीं हैं कि शेष सभी मुद्दे पीछे छूट जाएँ ! इन सम्पन्न लोगों के पास वैज्ञानिक अनुसंधान से सुसज्जित प्रचार माध्यमों का कोई तोड़ नहीं है अन्यथा सामंतयुग के क्रूर शासकों की तरह ये भी छुट्टा सांड ही घुमते रहते तब नारायण साइ हजारों लड़कियों की जिंदगी बर्बाद करता रहता और कोई उसका बाल बांका नहीं कर पाता। चूँकि उन्नत साइंस -सूचना -संचार क्रान्ति तथा लोकशाही की सकरात्मक लहरों में वो ताकत है कि अब कोई आततायी ज्यादा दिन तक पाप-पंक में डूबा नहीं रह सकता। उसे या तो सुधरना होगा या जेल जाना होगा ! जन -आकांक्षाओं का ही दवाव है कि ये सभी कुकर्मी वेनकाब हो रहे हैं और दुनिआ को लगता है कि भारत तो बलात्कारियों का ही देश है ! दूसरा पक्ष प्रस्तुत करने में हम फिसड्डी रहे कि देश में लोकशाही का जबरजस्त प्रभाव भी एक नायाब उपलब्धि है जो बुराइयों से लड़ने का साधन उपलब्ध कराती है। अब ये जनता की जिम्मेदारी है कि वो बुराइयों से लड़े !
स्त्री को पुरुष के बराबर अवसर ,सम्मान और हक़ प्रदान करने की मांग के दौर में , रात-दिन एक साथ कोई वयस्क लड़की और लड़का एक ही कम्पनी में काम करें भले ही वे विवाहित या अविवाहित हों तब क्या यह सम्भव है कि वे पौराणिक ' असिपत्र वृत ' का पालन करेंगे ?ऐंसी विषम स्थति में किसी भी वयस्क लड़की या महिला के साथ उसके पार्टनर की सहमती के वावजूद किसी अवैध यौन सम्बन्ध के सार्वजनिक हो जाने मात्र से सिर्फ पुरुष 'मित्र' को फाँसी पर लटकवा दिया जाए क्या यह तार्किक और न्याय सांगत है। । की दशा में, कानून के सामने घोषित हुए तथाकथित घोषित 'यौन शोषण' याने आपराधिक जामा पहनाकर सारे देश को जेल बना दिया जाए । यौन उत्पीड़न के इस विमर्श में सिर्फ नारीवादी पक्ष ही रखा जा रहा है और 'वास्तविक न्याय ' का सिद्धांत बहुत पीछे छूट गया है। सचाई सबको मालूम है फिर भी अधिकांस झूंठ का दामन थाम कर 'हादसों' को भी सुनियोजित घटना निरूपित कर रहे हैं।
सभी जानते हैं कि अक्सर ताली दोनों हाथों से बजती है। फिर भी संचार माध्यमों के मार्फ़त अधिकांस व्यक्ति और समूह केवल ' पुरुष आरोपी' पर ही हाथ आजमाते रहते हैं। इतना ही नहीं प्रमुख राजनैतिक दल -कांग्रेस और भाजपा भी एक दूसरे के प्रमुख नेताओं के शयनकक्षों के नितांत निजी क्षणों या सम्बन्धों की या बाथरूम -टायलेट की दैनदिनी निगरानी करने में व्यस्त हैं।वे टेलीफोन - मोबाइल टैपिंग , आपत्तिजनक सीडी का भंडाफोड़ करके देश और समाज का कैसा कल्याण कर रहे हैं ? ये तो वक्त आने पर ही पता चलेगा किन्तु इन ओछी हरकतों से भाजपा और कांग्रेस - दोनों ही दलों के बीच जो भू-लुण्ठन , चरित्र लुंचन और 'यौन-आक्षेपण' युद्ध चल रहा है उसके केंद्र में सत्ता की बड़ी भूंख एक बड़ा फेक्टर है.
सत्ता प्राप्ति के लिए वोट बैंक की बढ़त चाहिये जो तभी सम्भव है जब या तो कुछ अपने हिस्से का कुछ 'स्वार्थ' बलिदान किया जाए या फिर सामने वाले की रेखा को ही कुछ छोटा कर दिया जाए। चूँकि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दलों के नेता और कार्यकर्ता राष्ट्र-निर्माण के बहाने अपने -अपने निजी उत्थान की राजनीति में विश्वाश रखते हैं इसलिए हितों के टकराव में राज्य सत्ता की प्राप्ति का विमर्श प्रमुख है। इन दोनों ही दलों को ही वित्त पूँजी का लिहाज रखना पड़ता है क्योंकि इसी की गारंटी पर वे मैदान में हैं। इसलिए वे लूट के बाज़ार में इंसानियत या जन - कल्याण की क्रांतिकारी बातें तो कर सकते हैं किन्तु वे समाजवाद याने -सामाजिक- आर्थिक -राजनीतिक समानता के निमित्त कोई क्रांतिकारी नीति का अनुशरण करने की औकात नहीं रखते।मजबूरन एक-दूजे की बढ़त रोकने और अपनी पैठ बनाये रखने के लिए नारी-शोषण जैसे विमर्श को सार्वजनिक करते रहते हैं।
इसीलिये ये केवल अपने राजनीतिक वर्चस्व के लिए गुत्थम -गुत्था हो रहे हैं. जिन मुद्दों का सम्बन्ध देश के विकाश ,रोजगार निर्माण ,जनसंख्या नियंत्रण,शिक्षा -स्वास्थ्य,खद्यान्न ,बृद्धावस्था पेंसन ,सामाजिक सुरक्षा और पर -राष्ट्र नीति से है उन पर चर्चा करने और आंदोलन करने का ठेका सिर्फ देश के ट्रेड यूनियन आंदोलन या वाम मोर्चे ने रखा है। लोगों की आर्थिक बदहाली ,वेरोजगारी ,उग्रवाद और साम्प्रदायिक तनाव खत्म करने के प्रयत्नों से भाजपा और कांग्रेस को कोई सरोकार नहीं। वे तो नेताओं , अफसरों ,मीडिया मुगलों और पूंजीपतियों की उद्दाम काम वासना के विमर्श में चटखारे ले रहे हैं। जिनसे देश और समाज को शर्मिन्दा होना पड़े ऐंसे मुद्दों को विभिन्न मंचों पर सत्ता लालायित नेता स्वयं उठा रहे हैं या दीगर स्टेक होल्डर्स से उठवाकर अपनी राजनैतक बढ़त स्थापित करने में जुटे हुए हैं। जनता याने आवाम कि जिम्मेदारी है किआगामी लोक-सभा के आम चुनाव शीघ ही होने जा रहे हैं ,अभी से अपने हिस्से की भूमिका के लिए सकारात्मक तैयारी करे !
श्रीराम तिवारी
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