विगत नवम्बर -२०१३ में सम्पन दिल्ली विधान सभा चुनाव के अप्रत्याशित परिणाम स्वरुप कांग्रेस और भाजपा दोनों को ही एक विचित्र और आसन्न भय की अनुभूति हुई है।कांग्रेस को लगता है कि अरविन्द केजरीवाल और 'आप' ने ही उसे हराया है। न केवल हराया है बल्कि बदनाम भी किया है। उसके परम्परागत वोट बेंक - जनाधार में 'आप' ने जबरजस्त सेंधमारी की है। इसके साथ-साथ आगामी लोक सभा चुनाव के लिए भी एक विकट चुनौती पेश कर दी है। भाजपा और संघ परिवार को भी इस बात का बड़ा गम है कि 'आप' ने ही उसके रास्ते में कांटे विछाये हैं। मौजूदा दौर के पांच राज्य विधान सभा चुनाव में से तीन - राजस्थान ,मध्यप्रदेश और छ्ग में तो भाजपा को भारी सफलता मिली है ,किन्तु दिल्ली में उसके विजय रथ के हर्ष को 'आप' ने शोक में बदल दिया है । भाजपा को मात्र ४-५ सीटें और मिल जाती तो आज डॉ हर्षवर्धन भाजपा के 'दिल्लीश्वर' होते। संघ परिवार की सोच है कि मोदी की राह में 'आप' का रोड़ा आड़े आ रहा है । अर्थात भारतीय राजनीति के इस दौर में कांग्रेस और भाजपा दोनों का जुड़वा शत्रु एक ही है -जिसका नाम 'आप' है ! जिसके नेता अरविन्द केजरीवाल हैं और जिसे 'अण्णा टीम ' ने हमेशा हिकारत से देखा है।
चूँकि 'आप' को नापसंद करने वाले अन्ना हजारे को तो राजनीति का ककहरा ही नहीं मालूम इसलिए वो थाली के उस वेगन की तरह हैं जो ज़रा सी छुअन से इधर-उधर लुढक जाता है। अण्णा ने हमेशा जनांदोलन - अनशन -धरना इत्यादि के ब्लेकमेलिंग से ही अपना उल्लू सीधा किया है। उनके आसपास जो दो-चार चमचे -चमचियां हैं वे भी दिग्भ्रमित और विचारधारा विहीन तत्व हैं। ये नितांत महत्वाकांक्षी तत्व अरविन्द केजरीवाल से जलते हैं। क्योंकि 'आप' ने इनके सहयोग के बिना ही दिल्ली में शानदार कामयाबी हासिल की है। इसलिए इन लोगों के अहम को ठेस पहुँची है. इन्हें 'आप' की दिल्ली विजय रास नहीं आई है । 'आप'को मिले जन समर्थन और राष्ट्रीय क्षितिज पर उसके नेता अरविन्द केजरीवाल की पूंछ परख ने नरेंद्र मोदी ,राहुल गांधी , अन्ना हजारे ,जेटली ,सुषमा स्वराज तथा अन्य स्थापित नेताओं को चिंता में डाल दिया है। इन सभी के 'कामन-इंटरेस्ट ' का परिणाम है कि सांप-नेवले सब एक हो गए। इन सबका एक ही राग था कि उनके चमन में ''ये कौन आया रोशन हो गई महफ़िल जिसके नाम से "?
' आम आदमी पार्टी ' नामक इस नए राजनैतिक शक्ति केंद्र के उदय से जो आक्रान्त हुए हैं वे -कांग्रेस ,भाजपा और अन्ना सब के सब एक साथ ,' आप' के खिलाफ खड़े हो गए हैं । कांग्रेस + भाजपा +अण्णा याने 'आप ' के अभी साझा शत्रु ! इसीलिये इन साझा शत्रुओं के साझा शुभ चिंतकों ने, इनके वित्त पोषकों ने ,इनके स्टेक होल्डर्स ने तथा 'समन्वयकों' ने मोर्चा सम्भाल लिया है। भ्रष्टाचार उन्मूलन के निमित्त - ४५ साल पुराना 'लोकपाल ' बिल जो राजनीति के कूड़ेदान में धूल -धूसरित हो रहा था उसे झाड़-पोंछकर फिर से संवैधानिकता के आवरण में प्रस्तुत किये जाने का कार्यक्रम बनाया गया । तथाकथित सरकारी लोकपाल नामक जिन्न को सियासत की बोतल से निकालकर कानूनी शक्ल दी गई है । हालाँकि राज्य सभा की प्रवर समिति ने संसद के शीतकालीन सत्र से पूर्व ही इसे अप्रूव कर दिया था। किन्तु राजनैतिक हानि-लाभ के फेर में कोई सुध नहीं ली गई। जब आम आदमी पार्टी को दिल्ली में आशातीत सफलत मिली और अण्णा को लगा कि लोग उन्हें भूलने लगे हैं , तो पराजित कांग्रेस के 'युवराज' को जानकारों ने यह उक्ति सुझाई कि 'अण्णा शरणम् गच्छामि ' हो जाओ. राहुल जी आप तो लोकपाल का समर्थन कर ही दो. इससे दोनों हाथ लड्डू रहेंगे। एक और तो कांग्रेस की हार को मीडिया के विमर्श से तो निजात मिलेगी ! दूसरी और भ्रष्टाचार से लड़ने वालों का समर्थन भी मिल जाएगा। चूँकि अण्णा की कांग्रेस और भाजपा दोनों में ही बराबर की पकड़ है इसलिए भाजपा को साधने में भी उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। अण्णा ने भाजपा और संघ परिवार में अपने शुभ चिंतकों को बता दिया कि में रालेगण सिद्धि में अनशन करूँगा और सात दिन बाद ' संशोधित सरकारी लोकपाल' पर सहमत होने जा रहा हूँ। कांग्रेस तैयार है, तुम लोग भी बहती गंगा में हाथ धो डालो! भाजपा के सामने कोई विकल्प नहीं था कि इसका विरोध कर सकें। क्योंकि राज्य सभा की प्रवर समिति में उनकी पार्टी की बड़ी नेता और लोक सभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज भी इस प्रवर समिति की सदस्य हैं। इसीलिये कांग्रेस और भाजपा ने अद्वतीय एकता के साथ आनन्-फानन पहले राज्य सभा में, फिर लोक सभा में सरकारी लोकपाल बिल पारित करा ही लिया।
इस बिल को अगले चरण में माननीय राष्ट्रपति महोदय के पास भेजा जाना है। उनकी अनुशंषा के बाद इसे कानून की शक्ल में सरकारी गजट में प्रकाशित कर दिया जाएगा। तब उम्मीद की जा रही है कि भारत में "भ्रष्टाचार का नामोनिशान नहीं रहेगा " दरसल यह 'आप' याने केजरीवाल टीम की शानदार सामयिक सफलता के आभा मंडल को धूमिल करने और अण्णा +कांग्रेस +भाजपा के सामूहिक रूप से अपने-अपने वजूद को साधने की साझा कोशिश मात्र है। भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए भ्रष्टाचारी ही क़ानून बनाएँ इससे बड़ी बिडंबना क्या हो सकती है ? लोकपाल के दायरे में कौन आयेगा ?कौन नहीं आयेगा ? सीबीसी, सीबीआई ,प्रधान मंत्री और सरकारी भ्रष्टाचार में वर्ग २-वर्ग -३ ,ग्रुप-डी तथा नॉन -एक्जीक्यूटिव सुपरवाइजरी, अधिकारियों के भ्रष्टाचार में लिप्त होने की दशा में मौजूदा लोकपाल मौन है। कई मसलों पर ततसंबंधी चार्टर के सम्पादित होने के बाद ही इसकी वास्तविक शक्ल सामने आयेगी। लोकपाल हो या तथाकथित जोकपाल हो कोई भी क़ानून तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक शक्तिशाली लोग इस सिस्टम पर काबिज हैं। कोई भी देश सिर्फ क़ानून के डंडे से भ्रष्टाचार समाप्त नहीं कर सकता। जब तक मौजूदा व्यवस्था में सामाजिक -आर्थिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक आधार पर असमानता है तब तक न्याय और क़ानून हमेशा शक्तिशाली के ही पक्षधर होते रहेंगे। बिना ठोस वैज्ञानिक विजन,क्रांतिकारी विचारधारा और संगठित संघर्ष के भ्रष्टाचार तो क्या उसकी चूल को भी हिला पाना सम्भव नहीं है। हीरोगिरी से व्यवस्थाएँ नहीं बदला करतीं। व्यवस्थाओं को बदलने के लिए कानून में संशोधन की नहीं क्रान्ति की दरकार हुआ करती है। समाजवादी नेता मुलायमसिंह की आपत्ति को भी सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि भारत में वैसे ही विकाश और सरकारी कामकाज की रफ़्तार मंदगति के संचारों की तरह है ,ऐंसे में लोकपाल के बहाने मक्कार लोग हाथ पर हाथ रखकर मुफ्त की रोटी तोड़ते रहेंगे !
विश्व - साहित्य और फ़िल्म संसार के काल्पनिक चरित्रों और उसके 'नायकत्व्' को या अवतारवाद को वास्तविक जीवन में अब कोई स्थान नहीं है। राजनीति के कदाचार और संस्थागत लूट को रोकना केवल क़ानून का विषय नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि भारत में रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार और देश की सम्पदा को लूटने की प्रतिष्पर्धा अब बेहद चिंतनीय अवस्था में पहुँच चुकी है..इसका इलाज फ़ौरन जरूरी है। यह कोई आकस्मिक बीमारी नहीं है। बल्कि इसके मूल में मध्य युग के सामंती अवशेष , आधुनिक साधन सम्पन्नता एवं साइंस - टेक्नालॉजी के चमत्कारों पर प्रभावशाली लोगों की पकड़ तथा शासकवर्ग की यथास्थितिवादी मानसिकता भी महत्वपूर्ण फेक्टर है। इसके अलावा प्रत्येक अमानवीय घटना को राजनैतिक नफ़ा -नुक्सान के रूप में देखने की दुष्प्रवृत्ति तथा मीडिया द्वारा इन नकारात्मक घटनाओं और सूचनाओं को उत्पाद के रूप में बेचने की बाजारू बाध्यता भी इन बुराइयों को असहनीय बनाने में एक महत्वपूर्ण कारक है।
मानव समाज ही जाने-अनजाने अपने से आगे आने वाले प्रत्येक दौर के सिस्टम का निर्माण करता है । हमारे इस मौजूदा दौर के सिस्टम को वेशक हमने नहीं बनाया है। ये हमें विरासत में मिला है । मानव समाज अपने समकालीन दौर में तत्काल कोई परिणाममूलक सिस्टम बना भी नहीं सकता । यदि हम बेहतरी का कोई प्रयास करते भी हैं तो उसके परिणाम आगामी पीढ़ी के काम के अवश्य हो सकते हैं। किन्तु यदि हमारा मौजूदा दौर का यह सिस्टम दोषपूर्ण है और लोग तत्काल परिणाम चाहते हैं , तो उसमें आये भ्रष्टाचार जैसे जंग से निजात पाने के दो ही विकल्प हैं। एक -इस सिस्टम को पूरा का पूरा बदल दिया जाए। दो-इस सिस्टम में जहां -जहां छेद हैं, टूटन-फाटन है, वहाँ-वहाँ दुरुस्ती के प्रयास किये जाएँ। पहले वाला उपाय क्रांति की अपेक्षा रखता है। कम्युनिस्ट और वामपंथी इसी क्रांति की राह पर दुनिया में कई जगह सफल हुए हैं। कई जगह असफल भी हुए हैं। यदि भारत की जनता इस राह पर आगे बढे तो उसे भी सफलता अवश्य ही मिलेगी। किन्तु देश की जनता अभी पूर्ण रूप से शिक्षित और चैतन्य नहीं है और चूँकि विश्व पूँजीवाद चरम पर है इसलिए अभी तो भारत - वैश्विक बाजारीकरण के चक्रव्यूह में उलझ हुआ है। इसलिए बहरहाल अभी तो किसी भी प्रगतिशील क्रांति की सम्भावना नहीं है ।
दूसरा वाला उपाय यथास्थतितिवादी है । टूटे -फूटे सिस्टम को हजार छेद वाले सरकारी 'लोकपाल' से नहीं ढका जा सकता। यह तो फटे -पुराने कपडे को अल्टर करके या रफू करके काम चलाने जैसा है। यह एक तात्कालिक कानूनी और दंडात्मक उपाय मात्र है। चूँकि मौजूदा दौर के सिस्टम में अनेकों विकृतियों का बोलबाला है। इसलिए कहाँ -कहाँ थेगड़े लगाए जा सकते हैं ? अन्ना हजारे जैसे सीधे सरल लोगों की भावना तो ठीक है किन्तु वे 'थेगड़ेबाद' में उलझकर इस सिस्टम को ठीक करने में यकीन करते हैं। सिस्टम यदि मिट्टी का घड़ा है और उसमें एक-आध छेद है तो उसे मिट्टी के टीपने से कुछ समय के लिए तो ठीक किया जा सकता है. किन्तु हमेशा के लिए वर्तमान व्यवस्था दोष रहित होगी यह दावा नहीं किया जा सकता। अन्ना एंड कम्पनी का यह आकलन कि प्रस्तुत 'लोकपाल' से ४०-५०% भ्रष्टाचार कम हो सकेगा एक 'बाल-सुलभ ' प्रत्याशा मात्र है। दरसल ५% भी यदि इससे भ्रष्टाचार कम होता है तो राहुल गांधी ,अण्णा हजारे ,अरुण जेटली और सुषमा स्वराज बाकई बधाई के हकदार होंगे। सबसे ज्यादा श्रेय उनको मिलेगा जिन्होंने ' आप' को दिल्ली में शानदार सफलता दिलाई। क्योंकि यदि आम आदमी पार्टी को इतनी सफलत नहीं मिलती और कांग्रेस -भाजपा दोनों की ही दुर्गति नहीं होती तो अन्ना का लोकपाल या सरकारी लोकपाल अभी भी संसद की किसी आलमारी में धूल फांक रहा होता !
यदि इस लोकपाल से भ्रष्टाचार के मगरमच्छ तो क्या एक चूहा भी डर जाए तो गनीमत है। हम भी मुरीद हो जायँगे ! यदि व्यवस्था से भ्रष्टाचार को खत्म करने में कोई क़ानून कारगर होता है तो ! आइये इस लोकपाल क़ानून की सफलता के लिए हम सब ईश्वर से दुआ करें !आमीन !
श्रीराम तिवारी
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