सोमवार, 9 दिसंबर 2013

'आप' से नहीं अब 'संघ परिवार' से सीखना होगा राहुल गाँधी को !




बहुत सम्भव  है कि उपरोक्त  शीर्षक को पढ़ने से ही कुछ वाग्मी- क्रांतिकारियों  का 'भेजा '  कुंठित  हो जाए। जो लोग संघ परिवार और उसके द्वारा पालित पोषित उसके  महाभ्रष्ट पूँजीवादी साम्प्रदयिक  राजनैतिक -   अनुषंगी संगठन -भाजपा या  नरेद्र मोदी, गडकरी , राजनाथ जैसे  कार्यकर्ताओं - नेताओं   के  वैयक्तिक  एवं  'वर्ग' चरित्र से वाकिफ हैं,  साथ ही  भारतीय धर्मनिरपेक्ष  लोकतंत्र में 'संघ परिवार' की अरुचि से वाकिफ हैं  ,उन्हें यह कभी पसंद नहीं आयेगा कि 'नमो' से  या  राजनाथ ,सुरेश सोनी ,जी  एम् वैद्य या  मोहन भागवत जैसे  निर्माता -निर्देशकों से कुछ सीखने  की कभी नौबत आये।
                                लेकिन ज्ञान किसी के पेटेंट का मोहताज नहीं यदि भगवान्  श्रीराम को उचित लगा तो  उन्होंने अपने अनुज लक्ष्मण को  भी मरणासन्न रावण के पास राजनीति  का ज्ञान अर्जित करने भेज दिया था । भले ही लक्ष्मण लाख नाक भों सिकोड़ते रहें।  चूँकि  वर्तमान दौर के पांच राज्य-विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की  ऐतिहासिक हार से व्यथित   राहुल गांधी ने 'आम आदमी पार्टी ' से सीखने की इच्छा जताई है इसलिए मैं बिन माँगे  फ़ोकट में ही उन्हें यह सलाह दे रहा हूँ कि सीखना ही है तो  संघ परिवार से सीखो !भाजपा से सीखो ! नरेद्र मोदी से सीखो!  खाना ही है तो हाथी  का खाओ! और ये नहीं कर सकते तो "इफ  यू  कांट  डिफीट  यू  ज्वाइन देम '' का पालन करते हुए राजनीति  के बियावान में एक  छायावादी कवि  की मानिंद प्रकृति दर्शन में खो  जाओ !कांग्रेस को सबसे ज्यादा खतरा आरएसएस  से है और हराया भी उसी ने है चूँकि वे हिंदुतव्वादी हैं अतएव महाभारत के भीष्म पर्व की कथा अनुसार भीष्म के पराजित नहीं हो पाने की दशा उन्ही से   पूंछने जा पहुंचे और पांडव बोले -हे पितामह आप मरोगे कैसे ?भीष्म ने अर्जुन को बताया कि बृहन्नला को रथ पर  अपने आगे  खड़ा करो  और मुझ पर बाणों की  वर्षा करो तो ही   मैं तुम्हारी जीत और मेरी मौत सुनिश्चित कर हूँ। मेरा ख्याल है कि यदि  राहुलगांधी भी  यदि संघ की शरण में चले  जांयें तो उनकी  बल्ले-बल्ले हो सकती है।
                 राजनीति का बड़ा मार्मिक दौर है  यह !क्या ही विलक्षण विडम्बना  है !लगभग  १२८ साल पुरानी कांग्रेस को ९ माह पुराने एक आधे -अधूरे क्षेत्रीय अर्धराजनैतिक  संगठन याने  'आप' से सीखने की नौबत आ गई है। निसंदेह  अरविन्द केजरीवाल कई मायनों में व्यक्तिश: राहुल गांधी से बेहतर हो सकते  हैं , उनके पास पढ़े-लिखे युवाओं और अनुभवी वकीलों की टीम है,  उनकी आम आदमी पार्टी को अप्रत्याशित , आकस्मिक और चमत्कारिक  सफलता भी मिली है। दिल्ली विधान सभा में  २८ सीटें  प्राप्त करना बाकई कमाल का काम है. वे शायद स्पष्ट बहुमत भी पा जाते लेकिन एन चुनाव के वक्त संघ के इशारे पर अन्ना नामक कन्फ्यूज्ड आदमी ने रायता ढोल दिया। 'आम आदमी पार्टी 'के चंदे को लेकर अन्ना हजारे यदि अरविन्द केजरीवाल की  पगड़ी नहीं उछालते  और आपके खिलाफ  ठीक चुनाव की पूर्व संध्या में स्टिंग आपरेशन का ड्रामा घटित नहीं होता तो दिल्ली में आज 'आप'की सरकार होती। ' आप'  की झाड़ू से कांग्रेस या भाजपा ही नहीं बल्कि अण्णा  हजारे को भी परेशानी रही है ।  केवल वैयक्तिक अहंकार से आक्रान्त  किरण बेदी भी नहीं चाहती की केजरीवाल या 'आप' सफल  हो पाएं। ये किरण वेदी और अन्ना हजारे  ही हैं जो अब  'आप 'को बिन मांगे  ज्ञान बाँट रहे हैं। अन्ना कहते हैं कि "अरविन्द तुम किसी से हाथ न मिलाना एक दिन तुम मुख्यमंत्री जरुर बनोगे " ये हैं अन्ना का सदाचार  ज्ञान !  इसी  ज्ञान  के  दम पर अन्ना देश से भ्रस्टाचार मिटाने चले थे। जो केवल मुख्यमंत्री की  कुर्सी से आगे नहीं देख पाते !किरण वेदी का सुझाव है "अरविन्द और 'आप' को भाजपा से हाथ मिला लेना चाहिए !क्योंकि अरविन्द केजरीवाल और भाजपा के सिद्धांत एक जैसे हैं " किरण जी जैसे जिसके  सलाहकार हों उसकी लुटिया डूबने में कोई एक नहीं।

      संस्कृत सुभाषितानि कहता है :-

      काक : कृष्ण : पिकः कृष्ण :  ,को भेद पिक काक् यो।

      वसंत समये शब्दै : ,काक : काक :पिकः पिकः।।

                       याने कौवा काला  होता है ,कोयल भी काली होती है ,लेकिन वसंत ऋतू के आगमन पर ही मालूम पड़ता है कि किसकी क्या  औकात  है ! अब अन्ना और किरण वेदी का सुर बदला रहा है तो उनकी निष्ठा नहीं बल्कि अपराधबोध है जो उन्हें अंदर से साल रहा है। यदि संघ परिवार , अन्ना , किरण वेदी और  स्वामी अग्निवेश ये सब मिलकर  केजरीवाल या 'आप' का विरोध  नहीं करते तो दिल्ली में आज झाड़ू वालों की  सरकार होती।  फिर भी  राहुल को  राजनीति  सिखाने की पात्रता यदि  'आप'  के नेताओं में है तो ये तो बहुत गौरव की बात है।  लेकिन सच चाहे कितना हे कड़वा क्यों न हो ! यह कहना ही  पडेगा कि  ये 'श्मशान वैराग्य की क्षणिक अभिव्यक्ति है ! इस  'आप' की सलामती तभी तक हैं जब  तक की  केजरीवाल सलामत [ईश्वर करे कि वे १०० साल जियें ] हैं. या जब -तक  उनका तथाकथित भ्रस्ष्टाचार  विरोधी एजेंडा कायम है ।  यदि आम आदमी पार्टी को ये सीटें नहीं मिलती तो वो अपने भ्रूण काल में ही दम तोड़ देती । लेकिन  कांग्रेस तो  अजर-अमर  है। उसे एक नहीं अनेकों बार हार और अनेकों बार जीत का मौका मिला है। कांग्रेस के लिए  यह चुनावी  हार जीत राजनीती में एक अवश्यम्भावी तत्व है.  कांग्रेस तो दुनिया का तेरहवां अजूबा है कि  उसकी अनेकों नाकामियों   , बदनामियों और चूकों के वावजूद जनता घूमफिरकर उसी को फिर -फिर सत्ता में बिठा देती है। इस बार संघ परिवार की बरसों की तपस्या रंग लायी  और उसने मध्यप्रदेश एवं राजस्थान में अपने संगठित  राजनैतिक अनुषंगी भाजपा को  भारी जीत दिलवा दी।याने कुछ सीखना ही  है तो संघ से सीखो समझे राहुल भिया !
                         चूँकि इन दोनों राज्यों में कांग्रेस को हराने  के लिए कांग्रेसी ही एक पाँव पर खड़े रहते  हैं तो इसमें  इसमें किसी से क्या सीखना ?राहुल यदि कांग्रेस हाई कमान हैं तो उन्हें हार का शोक नहीं बल्कि अनुशाशन का  'कोड़ा' चलाना चाहिए। जैसा कि अपने प्रत्याशी के हारने या  असहनीय भ्रष्टाचार पाये जाने पर 'संघ' अपने नेताओं पर अनुशाशन का  हंटर चलाता है। हालांकि जोगी कि ओछी हरकतों के वावजूद  छ्ग में तो कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़ा ही है ये बात  जुदा  है कि रमनसिंह हर हाल में 'किसी भी छ्त्तीशगढ़िया  कांग्रेसी से बेहतर ही  हैं। और उन्होंने यदि  १० सीट ज्यादा कबाड़ लीं तो इसमें कांग्रेस को इतना  मायुश भी नहीं होना चाहिए ।  हालाँकि इसमें भी संघ  की ही व्यूह रचना का कमाल है। अब लोग मोदी को श्रेय दें या खुद की पीठ ठोकें। सचाई तो यही है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अतीत में जो भी संघर्ष  किया है  उसके केंद्र में  हिंदुत्व्  नहीं बल्कि दिल्ली कि राज्य सत्ता उसका अभीष्ट है। इसीलिये वे  चुके हुए आडवाणी को किनारे कर नरेंद्र  मोदी को  भी एक मौका दे रहे हैं । जीत का अधिकांस श्रेय और सम्मान मोदी को देने का अभिप्राय भी यही है कि मोदी इसी तरह भीड़ जुटाते रहें ,वोट बेंक बढ़ाते  रहें ताकि आगामी लोक सभा चुनाव में दिल्ली के  लाल  किले पर भगवा झंडा फहराया जा सके।    यह बात दीगर है कि कांग्रेस तो  नरेंद्र  मोदी  के अश्वमेध का घोडा  नहीं रोक सकी किन्तु दिल्ली में  नवोदित 'आम आदमी पार्टी' ने मोदी का अश्व  अवश्य बाँध लिया है. 'झाड़ू'  ने  मोदी को रोक दिया है।  अब आगे -आगे देखते हैं क्या होता है !
           किसी की हार और किसी की जीत  यह जनता  का कोई मूर्खता पूर्ण फैसला नहीं है।  बल्कि  बेहतर  विकल्प का अभाव   भी कभी-कभी किसी की जीत का कारण  हुआ करता है ।  कई बार ऐंसा हुआ है कि  बेहतर विकल्प के सामने आते  ही कांग्रेस हार जाती है।  यह लोकतंत्र के स्वस्थ  लक्षण हैं। याने कांग्रेस की हार या जीत दोनों ही देश के हित  में  ही हुआ करते हैं. फिर ऐंसी पार्टी को खत्म करने की सोच क्या स्वस्थ  मानसिकता  का सबूत  है ? जब तक दुनिया में  आजादी शब्द है ,जब तक दुनिया  में भारत का नक्शा विदयमान है ,तब तक कांग्रेस के ज़िंदा रहने की  पूरी गारंटी है।  कांग्रेस में फीनिक्स पक्षी की तरह राख  से उठ खड़े होने की समर्थ है।  जिस कांग्रेस को  खुद महात्मा गांधी ,जयप्रकश नारायण,मोरारजी देशाई ,नीलम संजीव रेड्डी  और सुभाष चर्द्र बोस खत्म नहीं कर पाये  उसे 'आप'या संघ परिवार  क्या खाक  खत्म  कर पाएंगे ?  मोदी ,स्वामी रामदेव  ,  अन्ना -केजरीवाल या कोई और तीसमारखां कांग्रेस को   क्या खाक  ख़त्म  कर पाएंगे जो खुद  गांधी -नेहरू के घुटनों तक  नहीं  आते !
                  यदि राहुल का आत्म विश्वाश डगमगा रहा है तो वे  कांग्रेस को  प्रजातांत्रिक तौर -तरीकों से चलाकर देखें  और खुद भी आनुवंशिक एकाधिकार से मुक्त हो जाएँ !  देश  के युवा और प्रगतिकामी जनता उनके साथ अवश्य ही जुड़ना पसंद करेगी। यदि  यही सोच रही कि  गांधी परिवार के अलावा और किसी कांग्रेसी   की छवि   बेहतर न बन पाये तो कांग्रेस  की जीत के लिए कौन पागल होगा जो घर फूंककर गांधी परिवार को उजास देता रहेगा ? कांग्रेस में  कोई राहुल या  सोनिया  जी  से ताकतवर या लोकप्रिय न हो जाए ,जब तक ये सोच जारी रहेगी तब तक कांग्रेस को दिल्ली ,राजस्थान ,मध्यप्रदेश और छ्ग में ही नहीं बल्कि पूरे  देश में  इसी तरह हार का सामना करना होगा।  यदि आदिवासी वोट  के चक्कर में  भूरिया और जोगी जैसे नाकारा नेताओं को   या  पिछड़ों के चक्कर में गेहलोत  जैसे  पिद्दू नेताओं को   कांग्रेस के प्रांतीय क्षत्रप  बनाते रहोगे  तो 'शक्तिशाली संघ परिवार से जीत पाना कांग्रेस के लिए   कठिन  ही नहीं असम्भव  होता जाएगा  । वेशक   जिस दिन कांग्रेस के नेता  कदाचार ,भ्रष्टाचार छोड़कर अपनी हार से सबक सीखना शुरूं कर देंगे उस दिन उन्हें भारत की जनता सर-माथे  लेने  लगेगी । यदि कांग्रेस कुछ न करे केवल कोई  एक पाठ  ही नैतिकता का सीख ले जैसे कि "भ्रष्टाचार से लड़ने में समझोता नहीं करंगे"  तो भी उसे अपनी खोई हुई इज्जत वापिस मिल सकती है।
                        निसंदेह भाजपा ,मोदी या संघ परिवार को  आगामी लोक सभा चुनाव में सफलता  भी मिल सकती है। क्योंकि  राहुल गांधी तो अभी सीखने सिखाने  की ही बात कर रहे हैं।    यदि वे  यूपीए -प्रथम से ही कुछ सीख लेते तो इन्हें आज ये नहीं कहना पड़ता कि 'आप'से सीखेंगे !  केजरीवाल से सीखेंगे !  फिर भी राहुल या कांग्रेसी किसी से कुछ भी सीखें उससे  कांग्रेस की या देश की  सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। क्योंकि कांग्रेस ,भाजपा और केजरीवाल  को जो पैसा देते हैं वे पूंजीपति लोग जो चाहेंगे वही होगा।  विगत ६६ साल से कांग्रेसी  वही  करते आ रहे हैं जो पूँजीपतियों  ने चाहा।  वही अटल बिहारी जी सरकार याने  एनडीए के दौरान भाजपा और संघ परिवार ने किया  जो देशी-विदेशी पूँजीपतियों  ने चाहा। स्वर्गीय प्रमोद महाजन तो केवल तत्कालीन भ्रष्टाचार की  हांडी के एक चावल मात्र थे।
                            बंगारू लक्षमण ,जूदेव या येड्डी-रेड्डी के भाजपाई करप्शन को कांग्रेसी यदि जनता तक नहीं पहुंचा पाये तो इसमें राहुल और सोनिया गांधी की भी कहीं कोई भूल- चूक है। मध्यप्रदेश में शिवराज सरकार के८ सालाना   कार्यकाल  में जितना भ्रष्टाचार हुआ उतना कांग्रेसी नेता  विगत ६६ साल में भी  नहीं कर पाये । शिवराज के राज में -व्यापम के माध्यम से हजारों मुन्ना भाई डॉ बन चुके हैं । दिलीप बिलडकां,सुधीर शर्मा और सन्नी गौड़  जैसे सैकड़ों पूँजीपति 'संघम शरणम गच्छामि' हो चुके हैं।  सोचने की बात है कि जब कोई भी काम यहाँ मध्यप्रदेश में  बिना रिश्वत के नहीं होता तो क्या सरकार ईमानदार  कही जा  सकती है ? मध्यप्रदेश में कर्मचारी/अधिकारी फीलगुड में क्यों  हैं? अधिकांस पोस्टल बैलेट  भाजपा के पक्ष में कईं गए ? क्योंकि यहाँ का  मामूली चपरासी या पटवारी भी करोड़ पति हो चूका है.  फिर डॉ ,कलेक्टर ,कांटेक्टर इत्यादि जितने भी 'टर ' हैं सारे के सारे शिवराज भक्ति में लीन हैं  वे  भाजपा को क्यों नहीं  जितवाएंगे  ? इसके अलावा संघ की शखाओं में कर्मचारियों को हिंदुतव की शान पर  भी  तो  चढ़ाया  जाता है ! ये लोग हाई टेक भी हो चुके हैं जबकि कांग्रेस  अभी भी पुराने जमाने के चलन से चिपकी हुई है।  जो भ्रष्टाचार भाजपा के राज में चल रहा है  वो  चूँकि कांग्रेसी भी कभी यही सब करते थे ,शायद कुछ कम करते होंगे। लेकिन  उनको सत्ता सुख की आदत  तो अवश्य ही  हो गई है. इसलिए वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के हाथों  बिके  होने के आरोपों से घिरे  हैं । अब  ऐंसे कमलछाप कांग्रेसी क्या खाकर शिवराज और संघ परिवार से  मुकाबला करेंगे ।
                             अब राहुल जी किस से क्या सीखना चाहते हैं वो उनका अपना पर्सनल मेटर नहीं हो सकता। यदि देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस  के वे  उपाध्यक्ष हैं तो देश की जनता के प्रति उनकी जबाबदेही से भी  इंकार नहीं कर सकते । कांग्रेस हो या भाजपा हो या कोई और यदि वो पूँजीपति  वर्ग से किनारा नहीं करता तो वो किसी खास क्रांति का दावा इन कर सकता। वेशक आज 'आप' ने देश  में ईमानदारी की राजनीती का अभिनव प्रयास किया है । किन्तु  यदि पूंजीपतियों से पैसा लिया तो  मौका  आने पर   केजरीवाल और 'आप' भी वही करेंगे जो भाजपा या कांग्रेस करती है।  क्रांतिकारी परिवर्तन और सत्ता परिवर्तन  एक दूसरे  के पूरक तो हैं किन्तु  यह   आर्थिक -सामाजिक  संबंधों का सम्पर्क  सूत्र   हमेशा  व्यवस्था परिवर्तन के समय शोषण की ताकतों के  ही काम आता रहता   है । किसी भी बड़े व्यवस्था परिवर्तन या क्रांतिकारी परिवर्तन में  आर्थिक असमानता को समाप्त  करने वाले  उत्प्रेरकों की  भी बहुत जरुरत होती है। यह  उत्प्रेरक तत्व   कांग्रेस  , भाजपा या  'आप' के  पास  नहीं हैं ।   केवल वामपंथ और समाजवादियों के पास यह तत्व बहुतायत से पाया जाता है किन्तु उनकी समस्या ये है कि पूँजीवादी  प्रजातंत्र में वोट के माध्यम से किसी खास  क्रांति की दरकार को पर्याप्त जन-समर्थन फिलहाल  नहीं है।
                                 देश में तानाशाही न आ जाये ,फासिज्म न आ जाए इसलिए बहुदलीय व्यवस्था का पूंजीवादी ढांचा भी उतना बुरा नहीं है जितना कहा जा रहा है। इसीलिये तमाम देशभक्त बुद्धिजीवी चाहते हैं कि कांग्रेस भी रहे ,भाजपा भी रहे ,कम्युनिस्ट भी रहें समाजवादी भी रहें।  लेकिन  कोई किसी की रेखा मिटाने के बजाये अपनी  रेखा बढ़ाकर देश को सही सुशाशन प्रदान करे। अब यदि कुछ लोग समझते हैं कि कांग्रेस  तो खत्म होने वाली है  या राहुल -सोनियाजी के कारण कांग्रेस संकट में  है , तो वे गफलत में हैं।  राहुल गांधीं रहें न रहें [ईश्वर करे वे ११० साल जियें ] सोनिया जी रहें न रहें[ईश्वर उन्हें दीर्घायु दे ] , यूपीए रहे न रहे ,एनडीए रहे न रहे  , भाजपा रहे न रहे ,[वैसे भी भाजपा तो संघ का तीसरा या चौथा   संस्करण है ,उससे पहले हिन्दू महा सभा  ,  जनसंघ फिर जनता पार्टी और अब भाजपा]  मोदी जी  रहें न रहें [ ईश्वर करे कि  वे शतायु हों ] किन्तु कांग्रेस हमेशा रहेगी। क्योंकि कांग्रेस केवल किसी  एक खास दर्शन  या    विचारधारा या राजनैतिक पार्टी का नाम नहीं बल्कि वह विश्व की सभी विचारधाराओं  के  घालमेल  का     भारतीय पञ्चगव्य  है।  यदि राहुल गांधी को ये सब नहीं मालूम तो उसमें कांग्रेस  की गलती   नहीं  है ? यह उनकी- वैयक्तिक  कमजोरी है। यदि किसी   विधान सभा  चुनाव  की हार-जीत  से  राहुल को  सीखने -सिखाने की नौवत आ ही गई है तो  सोनिया जी ,राहुल या  कांग्रेस के  मौजूदा नेताओं को   भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास से  सबक सीखना चाहिए  !
                               राहुल को अपनी दादी  स्वर्गीय  इंदिरा गांधी से  सबक सीखना चाहिए ।  जो अंत तक देशभक्ति की सीख  देकर शहीद हो गईं।वे अपने पापा स्वर्गीय  राजीव गांधी  की शहादत से भी कुछ तो सीख ही सकते हैं । राहुल या कोई और जो भी  सीखने की तमन्ना रखते हैं  उन्हें  डॉ मनमोहन सिंह ,चिदम्बरम।,अरुण  शौरी , यशवंत सिन्हा ,मोंटेकसिंहअहलुवालिया  और अमेरिका परस्त लाबी  की राष्ट्रघाती आर्थिक उदारीकरण की  नीतियों से सबक अवश्य  सीखना चाहिए !केजरीवाल और 'आप ' जब स्वयं भी इस घातक परिणामों की विनाशकारी नीतियों का ककहरा भी नहीं जानते तो राहुल को उनसे क्या सीख मिल सकती है ?
                     आज की कांग्रेस भले ही स्वाधीनता संग्राम की अगुआई  करने वाली कांग्रेस नहीं रही हो ! किन्तु उसमें अक्स तो उन्ही का है  जिन्होंने  भारत राष्ट्र  और उसकी स्वाधीनता के लिए अपने प्राण  न्योछावर किये हैं !लाल-वाल-पाल ,सुभाष ,पटेल ,मौलाना आजाद ,डॉ राधाकृष्णन और महात्मा गांधी  और पंडित नेहरू को सुयश प्रदान करने वाली कांग्रेस को , इंदिरा जी के नेत्तव में पाकिस्तान  की गर्दन मरोड़कर बँगला देश बनवाने वाली कांग्रेस को ,देश में हरित-श्वेत और संचार क्रांति करवाने वाली कांग्रेस को ,दक्षिण अफ्रीकी गांधी नेल्सन मंडेला  का मार्गदर्शन करने वाली कांग्रेस को,  पाकिस्तान  के सरहदी गांधी सीमान्त गांधी अब्दुल गफ्फारखां  की कांग्रेस को ,बंग-बंधू शेख मुजीबुरहमान  को आजादी का सबक सिखाने वाली कांग्रेस को  किस  से सीखना चाहिए ?  क्या  सदानीरा नदी गंगा[भले ही वो  कितनी ही मैली क्यों न हो जाये ]  किसी बरसाती पोखर से सीखने जायेगी ?
                      भारतीय मीडिया  के एक महत्व् पूर्ण हिस्से  ने दिल्ली विधान सभा चुनाव परिणाम के संदर्भ में  अरविन्द केजरीवाल के  नेतत्व् में   'आम आदमी पार्टी'  की उपलब्धि को   याने कि  'आपको' मिले सर्वाधिक वोट प्रतिशत  को  या २८ विधान सभा सीटों की उपलब्धि  को  जिस शिद्दत से प्रोजैक्ट  किया है वो एक जन-आकांक्षी देशभक्तिपूर्ण कार्य कहा जा सकता  है। हालांकि चुनाव प्रक्रिया की खामियों ,नोटा  और बहुदलीय- व्यवस्था  में मत विभाजन  इत्यादि  कारणों से  'आपको 'सत्ता के लायक सीटें नहीं मिल पाईं  हैं। फिर भी  'आप'  की झाड़ू को सम्मान देकर  दिल्ली  की जनता ने न केवल  अपना रोष जाहिर किया अपितु स्थापित राजनैतिक दलों की दादागिरी को चुनौती देकर  सही काम किया है।   किन्तु  त्रिशंकु विधान सभा की बुनावट   पर यदि देश के राजनैतिक पंडित बदलाव का अनुमान लगा रहे हैं या भारतीय  राजनीती में किसी किस्म  का  सकारात्मक  फीलगुड का  अनुभव कर रहे हैं तो यह खाम ख्याली ही है। कांग्रेस -भाजपा  को सबक सिखाना  , उनके अहंकार को रोकना अच्छी बात है. किन्तु  इससे राष्ट्र निर्माण होगा या भ्रष्टाचार मिट जाएगा ये पूरा उटोपियाई भावात्मक और  अवैज्ञानिक  चिंतन है।
                                   प्रमुख विपक्षी दल  भाजपा से २-३ सीट कम होने के वावजूद  'आपको'  यदि मीडिया ने असली "राजनैतिक  हीरो'' बना दिया है तो यह  अरविन्द टीम याने 'आप'  के प्रति ही नहीं बल्कि भ्रष्ट व्यवस्था को खत्म करने के प्रति एक क्रांतिकारी अहम -बहुत न्यायसंगत  और तार्किक   प्रतिबद्धता  है। इसको संजोये रखना चाहिए। 'आप' का यह निर्णय की वे सत्ता के लिए हड़बड़ी में नहीं हैं भाजपा और कांग्रेस को नसीहत देता दिख रहा है। खबर है कि चुनाव के दौरान भाजपा के मैनेजरों ने 'आप' में गद्दार खरीदने की कोशिश कि थी लेकिन कोई खास सफलता नहीं मिली। अब तो 'संघ' ने भी 'कोड़ा' अर्थात ब्हीप जारी कर दिया  है कि दिल्ली में जोड़-तोड़ से सरकार बनाने की कोशिश न  करें  -भाजपा। इसीलिये अब सभी  'पहले आप-पहले आप 'का राग अलाप रहे हैं। लेकिन   अभी भी भाजपा की तमन्ना है कि 'आप'और 'वे' मिल बैठकर  सत्ता सुख उठायें  किन्तु 'आप' ने रायता ढोल दिया है. आभासित हो रहा ऐ कि डॉ  हर्षवर्धन  भी  कहीं   'सीएम इन वैटिंग' ही न  रह जाएँ। कांग्रेस  हारकर भी दिल्ली और छ्ग में मजे में है क्योंकि अब कोई टेंशन नहीं।  वरना अभी  तक तो सर फुटौवल शुरू हो गई होती।  फिलहाल  तो  कांग्रेस के लिए आत्म-मंथन और सबक सीखने के दिन आये हैं।
                राजनैतिक गगन में सभी तरह के  'दलों' में इजाफा हो यह हर देश भक्त की ख्वाइश हो सकती  है। किन्तु कांग्रेस को उठाकर कूड़ेदान में फेंक देनें की तमन्ना या कांग्रेस के नेताओं को 'आप' से सीखने की ख्वाइश नितांत अतार्किक और मूर्खतापूर्ण  है।  कांग्रेस की पराजय पर आंसू बहाने  वाला वैसे तो कोई नहीं है। क्योंकि  उसके समर्थकों  को तो इसी में तसल्ली बक्श हो जाना चाहिए कि कांग्रेस तो  देश पर प्रकारांतर से लगातार  ही  काबिज रही है. वो हारती नहीं है। उसे हरवाया जाता है। अभी तो  कांग्रेस  को हरवाने में डॉ मनमोहनसिंह और संघ का हाथ है। हालांकि कांग्रेस  आज भी केंद्र की सत्ता में है. यूपीए-२  के रूप में केंद्र में और  कांग्रेस  के रूप में   देश भर में -  १४ राज्यों में  आज भी इसकी   सरकारें  हैं।दिल्ली में लगातार १५ साल से  शीला दीक्षित के नेत्तव में  कांग्रेस  ही तो सत्ता में थी। अब कुछ दिन विपक्ष में रहंगे तो क्या घाट जाएगा ? छ्ग में तो  लगभग   बराबर की  ही  टक्कर दी  है ,मध्यप्रदेश और राजस्थान में 'संघ' ने ही  कांग्रेस को हराया है। अब राहुल को कुछ सीखना है तो 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ 'के शाखा में जाएँ या नागपुर स्थित 'संघ' मुख्यालय ऑशय जाएँ। मेरा  दावा  है कि  उन्हें वहाँ  बिना गुरु दक्षिणा दिए ही  ही बहुत कुछ सीखने  को मिल जायेगा।
                                          किसी विशाल राजनैतिक पार्टी का राजनैतिक फलक भी विराट ही होना  चाहिए ।  जनाधार की कमी यदि  केवल सत्ता प्राप्ति से मूल्यांकित होती  तो वाम मोर्चा या तीसरा मोर्चा तो  कब का खत्म हो गया होता !  वेशक  कांग्रेस के लिए  कोई भी हार पचा पाना बड़ा मुश्किल होता है। किन्तु अब आदत डालनी होगी।   प्रस्तुत  चार  राज्यों के विधान सभा चुनाव  बहुत महत्वपूर्ण थे. किन्तु   केंद्र की यूपीए सरकार के भ्रस्टाचार ,महँगाई बढ़ाने वाली नीतियां  ,ढुलमुल प्रशासन ,नकारातमक हटधर्मिता  अहंकार   और राज्यों में उनके  आभाहीन नेतत्व् के बरक्स  प्रतिपक्षी 'संघ परिवार' की निरंतर आक्रामक  जागरूकता  और मोदी का प्रोजेक्सन    कांग्रेस की   शर्मनाक हार  के प्रमुख कारण हैं ।  संघ परिवार का 'नमोगांन ' भी  कुछ नतीजों को प्रभावित करने में काम आया। जीत-हार  भी कई जगह कुछ मतों -कहीं सौ -दो सौ कहीं हजार पांच सौ से हुई है। ऐंसे में ये कहना कि कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया   सरासर अनैतिक और  अप्रजातन्त्रिक है। क्या जो वोट कांग्रेस को  मिले या हारने वाले को मिले वे जीतने वाले  की नजर में हेय ठहराना  लोकतान्त्रिक नजरिया कहा जा सकता है ?  कांग्रेस के लिए ये हार वरदान बन सकती है वशर्ते  इस हार से सबक लेकर  कांग्रेस  आगामी   लोक सभा चुनाव  में भाजपा और मोदी के पाखंड पूर्ण दुष्प्रचार का मुकाबला करे। कांग्रेस को 'संघ' से यही सीखना है। 'आप ' से ही कुछ  सीखने के लिए यदि राहुल का  मन कर  रहा है  तो  वहाँ केवल ईमानदारी की कोरी स्लेट दी जायेगी। लेकिन १२५ साल बाद 'आप'  का नामोनिशान नहीं मिलेगा और कांग्रेस तब भी आज से  भी बेहतरीन हालत में मिलेगी।
                              वेशक अभी तो भ्रष्टाचार से आक्रान्त  दिल्ली की जनता  ने कांग्रेस और भाजपा को ठुकराकर  आम आदमी पार्टी को  तीसरे विकल्प के रूप में मान्य किया है।  दिल्ली से एक नई  राजनीतिक  चेतना की शुरुआत हुई है। लेकिन कांग्रेस को याद रखना चाहिए कि उसे हराकर दिल्ली में आप ,मध्यप्रदेश राजस्थान  में भाजपा - स्प्ष्ट  बहुमत  पाकर  जीत की खुशियां   मना रही है. वहाँ उसे हराने  के लिए कोई चुनौती नहीं थी। मध्यप्रदेश की कांग्रेस स्थानीय क्षत्रपों के अहंकार की चपेट में लोहू-लुहान है। वे शिवराज सरकार द्वारा किये गए दुष्प्रचार का मुकाबला कर पाने में असमर्थ रहे। मध्यप्रदेश में जितना भ्रस्टाचार विगत १० सालों में हुआ है उतना अतीत के ५० सालों में भी  नहीं हुआ। व्यवसायिक परिक्षा मंडल याने व्यापम में १०००० करोड़ का घोटाला  हुआ ,मनरेगा और खनन माफिया की लूट तो  राजस्थान  की गेहलोत सरकार के तथाकथित घपलों से कहीं ज्यादा कुख्यात  थी।  लेकिन केंद्र सरकार की गलत नीतियों और विपक्ष के ढपोरशंखी दुष्प्रचार के सामने कांग्रेस टिक नहीं सकी।  केंद्र में आये दिन के घपलों और महँगाई  ने भाजपा की जीत आसान कर दी।अब राहुल को किस से क्या सीखना है वे जाने किन्तु यदि वे केंद्र सरकार में  वापिसी चाहते हैं तो  अपने आपको पहले तैयार करना होगा और फिर कांग्रेस को वहाँ -वहाँ  तक ले जाना होगा जहां -जंहाँ आरएसएस  ने अपनी पेठ बना रखी  है।  देश के  मुसलमानों ,दलितों ,आदिवासियों और ईसाइयों को वोट बेंक समझते रहोगे तो  यही अंजाम होगा जो अभी हुआ है। कांग्रेस  थोडा जाति -सम्प्रदाय से परे सभी के हित में  भी सोचना शुरू कर दें  तो शायद आगामी लोक सभा चुनाव तक स्थति वापिस  सुधर जाए !

                         श्रीराम तिवारी    

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें