शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

' आपको' नजर न लग जाए ! बधाई! हमारी शुभकामनाएँ ! !


    अरविन्द केजरीवाल के शपथ गृहण  से ठीक पहले   एलपीजी कम्पनियों  द्वारा दिल्ली में सी एन जी के दाम बढ़ाये जाना , आठ कांग्रेसी विधायकों  का 'बिना शर्त' समर्थन 'सशर्त' हो जाना  , 'आप'  के सत्तारोहण की सादगीपूर्ण  प्रस्तुति से बौखलाए भाजपा नेताओं के पेट में  ईर्षा का वायु विकार  पैदा  होना और देश में स्थापित  महत्वाकंकांक्षी  भ्रष्ट  नेताओं  के सामने शुचिता और आदर्शवाद की  कठिन चुनौती  पेश होना   इत्यादि सिम्टम्स बताते हैं कि 'आप' की सरकार  का जीवन लंबा नहीं होगा। चूँकि 'आप' का जन्म नागरिक मंच और 'इंडिया अगेंस्ट करप्सन ' के  आन्दोलनों  की विफलता और राजनैतिक सत्ता के  द्वारा आंदोलनकारियों को अपमानित करने  के परिणाम स्वरुप  हुआ था।  इसलिए जैविक  द्वन्दात्मकता  उसके अंतस में अवस्थित है। उसकी जीवंतता  देश का 'आम आदमी ' ही सुनिश्चित कर सकता है।
              जन-लोकपाल के मार्फ़त  भ्रष्टाचार समाप्त करने ,महंगाई कम करने ,सुशासन देने इत्यादि उद्देशों के लिए किये गए  हाई टेक प्रचार से 'आप' के केजरीवाल  ने  न केवल  शानदार उपस्थिति दर्ज कराई है  अपितु पहले ही हल्ले में सत्ता और शासन के सूत्र भी हासिल कर लिए हैं। यह स्थति कांग्रेस और भाजपा के लिए कतई  सुखद नहीं है। इसलिए तो  गाँव वसा नहीं और  श्वान जीमने को लालायित  हैं। केजरीवाल की 'आप' को गिराने के मंसूबे  बनाये  जाने लगे हैं। लेकिन जब तक आम आदमी और देशभक्त  मीडिया  'आप'  के  साथ है, जब तक केजरीवाल टीम वर्त्तमान व्यवस्था के पाप पंक में नहीं धसती,जब तक  प्रजातांत्रिक -धर्मनिरपेक्ष  और   सामाजिक-नैतिक मूल्य भ्रष्टाचार के सामने झुकने को तैयार नहीं -   तब तक 'आप' की  सेहत को कोई खतरा नहीं ! वेशक केजरीवाल और 'आप' के पास  वर्त्तमान पूँजीवादी  नीतियों से इतर कोई  वैकल्पिक  आर्थिक नीति नहीं है. लेकिन यदि वे वामपंथ और तीसरे मोर्चे से जुड़ते हैं तो उनके पास एक बेहतरीन आर्थिक-सामाजिक दर्शन हो सकता है।   गैर कांग्रेस और गैर भाजपा दलों  को चाहिए कि   केजरीवाल और 'आप' को खुलकर साथ दें. ताकि आगामी लोक सभा चुनाव में देश को भ्रष्टाचार मुक्त, धर्मनिरपेक्ष ,समाजवादी  और वास्तविक लोकतंत्रतातमक शासन सुलभ हो सके।
            लगभग एक साल पहले  भ्रष्टाचार के खिलाफ एक  कारगर क़ानून - 'जन-लोकपाल ' की मांग को लेकर   समाज सेवी अन्ना हजारे ,अरविन्द केजरीवाल, प्रशांत भूषण , किरण वेदी योगेन्द्र यादव  और 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन'के  साथियों ने  दिल्ली के रामलीला मैदान में  आमरण अनशन किया था। जनता के अप्रत्याशित समर्थन से घबराये  कांग्रेस के पुराधाओं ने पहले तो अनशनकारियों के  मान-मनौवल का रास्ता अपनाया,  किन्तु , जब लोक सभा में भाजपा ने तत्कालीन  लोकपाल बिल का  समर्थन नहीं किया  तो  कांग्रेस के  नेताओं ने अनशन कर्ताओं  को अपनी मजबूरी बताकर मामला शांत करने की कोशिश की। जब आंदोलनकारी नहीं माने  तो फिर यूपीए सरकार ने उनके खिलाफ  कठोर रुख  अपनाया। कांग्रेसियों ने अनाप-शनाप वयानबाजी कर , आंदोलनकारियों को  दिल्ली की  ठिठुरती  रातों में भूंखो मरने को रामलीला मैदान में  छोड़ दिया । उस बक्त  भाजपा  ,वाम मोर्चे   और तीसरे मोर्चे की  राजनीति  के  क्षत्रपों ने भी  इन  गैर राजनैतिक - अहिंसक  अनशनकारियों को राजनीति  में आकर भ्रष्टाचार खत्म करने का व्यंगात्मक आह्वान किया  था।
                                       इस  अपमानजनक व्यवहार से आंदोलनकारियों  के मन में कांग्रेस  और भाजपा  के  प्रति घोर वैमनस्य घर कर गया। चूँकि अन्ना  हजारे  को 'संघ' का समर्थन भी  प्राप्त था। अतएव वे तो केवल कांग्रेस विरोध का झंडा लेकर  ही  गैर राजनीती के वियावान में भटकने चले गए।  किन्तु जिनका स्वाभिमान बुलंदियों पर था और जिनके जिगर में भृष्टाचार को खत्म करने का जज्वा और जूनून था ,  जिनका आदर्शवादी   सामाजिक  आंदोलनो से मोह भंग हो  चुका  था ,उन्होंने राजनीति  में आकर व्यवस्था परिवर्तन की चुनौती को  स्वीकार  किया । आनन् -फानन 'आम आदमी पार्टी' बनाई गई। मुख्य धारा का मीडिया और एन आर आई से लेकर दिल्ली के मध्यवित्त वर्ग ने 'आप' को हाथों-हाथ लिया। भरपूर समर्थन भी दिया।
             अरविन्द केजरीवाल  के नेत्तव में -मनीस सिसोदिया,योगेन्द्र यादव ,संजयसिंग ,कुमार विश्वाश और प्रशांत भूषण जैसे अनेक  दिग्गजों  के प्रयाशों को  एनआरआई  और मीडिया ने भी  विश्वाश व्यक्त  किया। जब पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव सम्पन्न हुए तो  दिल्ली विधान सभा चुनाव में  पहली बार मैदान में उतरी नव-गठित  ' आम आदमी पार्टी' को अप्रत्याशित सफलत मिली । अरविन्द केजरीवाल के नेत्तव में  'आप' की सरकार ने  दिल्ली के उसी रामलीला मैदान में  शपथ ग्रहण की है जहाँ  अरविन्द केजरीवाल और उनके  साथी अपमानित हुए थे । अहंकारी और भ्रष्ट शासकों  को यह दुखांत अनुभव हो सकता है।
                   'आप' ने  न केवल कांग्रेस को ८ सीट पर समेट  दिया है  ,न केवल शीला दीक्षित को  विधायक  भी नहीं बनने  दिया बल्कि दिल्ली राज्य  में बनने  वाली सम्भावित भाजपा  की सरकार का रास्ता  भी रोक लिया है ।  भाजपा  के 'सी एम् इन वेटिंग '  डॉ हर्षवर्धन यदि मुख्यमंत्री नहीं बन पाये तो उसका श्रेय 'आप' को जाता है। 'आप' की   इस छप्पर-फाड़  सफलता से  भारतीय जन- मानस  के  वैचारिक  गर्भ गृह में  अनेक  प्रकार के कयास गुंजायमान हो  रहे हैं। 'आप' के नेता अरविन्द केजरीवाल अब केवल दिल्ली राज्य के मुख्यमंत्री ही नहीं बल्कि  भारतीय  राजनीति में व्यवस्था परिवर्तन के आकाशदीप  बन चुके हैं ।उनके गुरुवर अण्णा  हजारे इसलिए दुबले हो रहे हैं कि अरविन्द  केजरीवाल  तथा जिन समर्थकों को उन्होंने 'नालायक' मानकर छोड़ दिया था, वे अन्ना के सहयोग के बिना ही सफल होते जा रहे हैं। अण्णा के नकारात्मक ,हठधर्मी आन्दोलनों से  केजरीवाल और 'आप' की सकारात्मक राजनीती  काफी  आगे निकल चुकी है। चूँकि 'आप' का दृष्टिकोण सकरात्मक  और विजन वैज्ञानिक है ,और चूँकि 'आप ' ने कांग्रेस और भाजपा  दोनों को ही भृष्ट व्यवस्था का उन्नायक माना है इसलिए 'आप' की  विश्वशनीयता बढ़ी है। 'आप'की राजनीती का भविष्य  उज्जवल  है।
                    'आप'का  नजरिया प्रगतिशील है ,साधनों की शुचिता और व्यवस्था  परिवर्तन की चाहत है,जनता का  भारी  समर्थन  मिल रहा है। कांग्रेस के आठ  विधायकों के समर्थन  से सरकार बनाने के सवाल पर भी  'आप' ने जनता से 'परमीशन'  ले ली है. यह एक शानदार लोकतांत्रिक कदम है।  'आप' का  हर कदम नैतिकता पूर्ण ,आदर्शोन्मुखी  और प्रजातांत्रिक है   इसलिए भारत में 'आप'   के उदय से  क्रांति की सम्भावनाओं को भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। 'आप' के उदय से न केवल कांग्रेस  बल्कि भाजपा को भी समान  रूप से  खतरा है इसलिए इन  दोनों बड़ी पार्टियों में बैचनी है। कांग्रेस में 'आप' को समर्थन के प्रश्न पर घमासान मचा है। भाजपा  के पेट में भी  दर्द उठ रहा है कि सबसे बड़ी पार्टी [३१-विधायक] होने के वावजूद  उसे  विपक्ष में बैठना पड़  रहा है। यह सब 'आप' कि माया है।   भाजपा को डर  है  कि आगामी लोक सभा चुनाव में भी 'आप' की भूमिका  कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण हो सकती  है। इसलिए संघ परिवार ने 'आप' को घेरना शुरू कर दिया है.अण्णा  को अरविन्द के खिलाफ भड़काया जा रहा है। संघ परिवार को यह डर  भी सता रहा है कि कहीं  डॉ हर्षवर्धन की तरह   'नमो' भी  पीएमएन वेटिंग ' ही  न रह जाएँ !
                कांग्रेस और राहुल गांधी ने  भी 'आप' को मान्यता दे दी है । इसलिए  आगामी लोक सभा चुनाव के पूर्व  'आप' को समर्थन देकर  सम्भावनाओं के  दरवाजे खुले रखे  गये  हैं.कांग्रेस को मालूम है कि वेशक   भारतीय राजनीति  में भ्रस्टाचार और कदाचार का बोलबाला   है.महंगाई ,बेकारी और राजकोषीय घाटे की स्थति है। किन्तु  इन समस्याओं से  'आप' कैसे निपटेगी ?'आप'  के सामने  अनेक  चुनौतियाँ  दर पेश होंगी। नीतियों के  अभाव  में 'आप'दिल्ली की जनता से किये गए वादों को  पूरा नहीं कर पायेगी। तब ६ माह बाद समर्थन वापिस लेकर उसका बोरिया बिस्तर बाँधना आसान होगा। कांग्रेस  ने यदि अतीत की गलतियों से सबक नहीं सीखकर 'आप' को निपटाने की गलती की तो वास्तव में उसको लम्बे वनवास के लिए भी तैयार रहना चाहिए ! यदि अपने अजेंडे का  ५०% भी 'आप' ने पूरा कर दिखया,राजनीति  की काजल कोठरी में अपना दामन बेदाग़ रखा तो  आइंदा  सिर्फ दिल्ली ही नहीं पूरा भारत 'आप' का होगा !
                                 श्रीराम तिवारी  

गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

दलाल -सत्ता के डरे हुए हैं क्यों ? [ श्रीराम तिवारी ]





     क्यों  कांग्रेस  का समर्थन ,  क्यों  भाजपा बेहाल ?

      क्यों  राजनीति के शिखर  ,चढ़े  केजरीवाल? ?


      चढ़े  केजरीवाल ,  'आप' ने  आशा  दीप  जलाए?

      क्यों   अण्णा  हैरान ,हक्का  -बक्का   मुँह  बाए ? ?


      गिद्ध परवाज़  दलाल ,सत्ता के डरे  हुए हैं  क्यों ?

      राजनीति   का मलय समीर ,मंद-मंद बहता है क्यों ??

                  श्रीराम तिवारी

     




  

रविवार, 22 दिसंबर 2013

देवयानी खोबारागड़े तो अपराधी है जिसने संगीता रिचर्ड का उत्पीड़न किया !




अमेरिका में पदस्थ भारतीय उपमहावाणिज्य दूत देवयानी  खोब्रागड़े  पर आपराधिक मुकददमें की तलवार लटक रही है। कमोवेश पूरा भारत  देवयानी के पक्ष में और अमेरिका के खिलाफ खड़ा हो गया है। किन्तु  किसी को भी उस पीड़ित नौकरानी संगीता रिचर्ड की फ़िक्र नहीं  जिसको सताने  के आरोप देवयानी पर लगे हैं। हालांकि    इस  समय जो शानदार एकता  भारत  में दिख रही है  उसकी तो  सदैव ही  बहुत  जरुरत है। इस एकता को में  भी सलाम करता हूँ। अमेरिका को  मैंने कभी भी भारत का मित्र या हितेषी नहीं माना। मेरा मानना है कि - दुनिया के छटे  हुए बदमाशों से जो भूभाग  भरा पड़ा है  -उसी का नाम अमेरिका है। इन छटे  हुए चतुर- चालाकों , बदमाशों में केवल यूरोपियन ,अफ्रीकन या एसियन  ही नहीं कुछ भारतीय भी हो सकते हैं। धर्म-अर्थ -काम-मोक्ष की तमन्ना रखने वाले ही तो  अमेरिका की और भागते हैं। वेशक  इनमें अधिकांस अपराधी ही हों यह जरूरी नहीं , किन्तु  देवयानी को निर्दोष करार देने की भारतीय मानसिकता से  मैं अपने आप को अलग पाता  हूँ। मैं इस पक्ष में भी नहीं हूँ कि देवयानी प्रकरण पर अमेरिका से 'शीत  युद्ध' लड़ा जाए ! या संगीता रिचर्ड नामक  पीड़िता को केवल अमेरिकी क़ानून के भरोसे छोड़ दिया जाए !

                           राजनीति  के महापंडित आचार्य चाणक्य कह गए हैं कि "यदि एक व्यक्ति के कारण परिवार संकट में आ जाए तो उस व्यक्ति का त्याग किया  जाना चाहिए। यदि एक परिवार के कारण पूरा गाँव संकट में आ जाए तो उस परिवार का त्याग किया जाना श्रेयस्कर  है। यदि एक गाँव के कारण पूरा देश ही  संकट में आ जाए तो उस गाँव का त्याग भी किया जा सकता है "  यह एक बिडंबना ही है कि केवल एक छुद्र आईएफएस  की वैयक्तिक भूल  के कारण  , अमेरिका में उसकी  दुस्साहसिक अवैधानिक  गतिवधि  और उसके द्वारा  घरेलु नौकरानी का बेजा शोषण  करते पाये जाने के कारण  आज  भारत और अमेरिका एक दूसरे  के आमने-सामने खड़े दिखाई दे रहे  हैं।  भारत सरकार ने  देवयानी को  यूएनओ में स्थानांतरित  करके मामले को और उलझा दिया है।  जबकि उसे तत्काल  बर्खास्त  करके अमेरिकी  क़ानून के हवाले किया जाना  चाहिए था।  उसकी जांच में सहयोग करना चाहिए था। इससे देश का नाम रह जाता और भ्रष्ट आईएफएस अफसरों को नसीहत मिलती कि वे विदेश में केवल  ऐयाशी के लिए नहीं बल्कि भारत के हितों की देखभाल के लिए पदस्थ् किये गए हैं।  उन्हें शानदार वेतन भत्ते और राजनयिक सुविधाएं अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ती के लिए नहीं बल्कि  सक्षम  भारतीय विदेश सेवा  के लिए ही  दिए जा रहे हैं।
                 हमारे कतिपय स्वनामधन्य बुद्धिजीवी , चिंतक ,वाम-विचारक ,प्रगतिशील लेखक ,जन -संगठनों से लेकर घोर दक्षिणपंथी संघ परिवार तक सभी  मिलकर   देवयानी प्रकरण में अमेरिका को शैतान का अवतार और देवयानी खोब्रागडे को पीड़िता  बता रहे हैं।  जो कि सरासर झूँठ  है।  जिनको इस घटना क्रम की  कुछ  भी समझ नहीं  है  वे भी  केवल अमेरिकन विरोध के लिए  भों-भों   कर रहे हैं।  देवयानी के पिताश्री उत्तम खोब्रागडे जी ने  [ सेवा निवृत आई ऐ एस]  तो  घोषणा  ही कर दी है कि  उनकी पुत्री देवयानी पर उत्पीड़न-शोषण का आरोप लगाने वाली - घरेलु नौकरानी  संगीता रिचर्ड तो सी आई ऐ की  एजेंट है। उनका एक और अजीबो गरीब वयान आया है कि '' मेरी बेटी को अमेरिका में किसी षड्यंत्र के तहत फंसाया जा रहा है " उनकी  आशंका बिलकुल आसाराम और  नारायण साईं जैसी है जो गिरफ्तारी से पूर्व पुलिस पर या नेताओं पर आरोप लगाकते थे कि 'हमें फंसाने में किसी माँ -बेटे का  हाथ है 'याने आसाराम एंड संस  ने अपने अपराधों से बचने के लिए जो विशेष छूट  की अपेक्षा की थी  वही  उत्तम खोब्रागडे अपने बेटी के लिए मांग रहे हैं ! जय हो ! भारत भाग्य विधाता !जय हो ! अब उस वेचारी नौकरानी संगीता रिचर्ड  को तो कम्युनिस्टों ने भी वेसहारा छोड़ दिया है । कम्युनिस्ट एवं संघी सभी एक साथ मिलकर  देवयानी के  ग्लेमर और झूंठे राष्ट्र सम्मान का रोना रो रहे हैं।
                                      यूनओ चार्टर के अनुसार दुनिया के तमाम राष्ट्र परस्पर दौत्य सम्बन्ध कायम रखने, व्यापार -पारगमन  और कूटनीतिक सम्बन्धों का साहचर्य बनाये रखने के लिए, अपने प्रतिनिधि एक - दूसरे  के यहाँ  भेजते हैं। इनमें राजदूत ,उच्चायुक्त ,महावाणिज्य दूत ,उपवाणिज्य दूत और कनिष्ठ  राजनयिक हुआ करते हैं। इन सफेद हाथियों को पालने के लिए देश के खजाने से हर माह  भारी भरकम धनराशि खर्च की जाते है। इनका काम सिर्फ इतना होता है कि वे अपने पैतृक देश और पर-राष्ट्र [जिसमें वे पदस्थ हैं] के  बीच बेहतर तादात्म्य और अन्योन्याश्रित रिस्ता   बनाये  रखने में अपने व्यक्तित्व का पूर्ण इस्तेमाल करें।  अतीत में अनेक विभूतियों- जी पार्थसारथी ,केपीएस मेनेन  मुचकुंद दुबे और  रिखी जैपाल जैसे कई बेहतरीन राजनयिकों  ने अपने -अपने श्रेष्ठतम गुणों से दुनिया में भारत का नाम ऊँचा किया है.किन्तु  जिस तरह राजनीती में योग्य ता की जगह आरक्षण और राजनीतिक पहुँच का बोलबाला बढ़ा है उसी तरह इंडियन सिविल सर्विस ,पुलिस सर्विस  तथा विदेश सेवा में भी  पहुँच वालों के बाल-बच्चों को ही मलाई खाने अमेरिका ,इंग्लेंड या विदेश भेजा जाने का सिलसिला जारी  है। इन अकुशल और लापरवाह राजनयिकों की मूर्खता या ऐयाशी का खामियाजा देश को भुगतना पड़ता है।
                              जिस देवयानी खोबरागड़े की ये जिम्मेदारी थी कि भारत और अमेरिका के बीच विदेश  व्यापार और दौत्य सम्बन्धों को अपने देश के पक्ष में -  बेहतर  बनाने  में अपने उत्तरदायित्तव का  शिद्दत से पालन करे !  यदि  उस राजनयिक की  किसी भूल-चूक  या गैर कानूनी हरकत  के कारण भारत और अमेरिका में तलवारें खिची हुई हैं तो  ऐंसे राजनयिकों की नियुक्ति भी  संदेहास्पद है। इनकी काबलियत और योग्यता पर सवाल उठना चाहिए। सवाल  तो  यह भी उठना चाहिए  कि  इन  अयोग्य राजनयिको को  सिलेक्ट करने वाले कौन  हैं  ?  कहीं ऐंसा तो नहीं कि  बाप कलेक्टर था तो बेटी को आईएफएस बनवा दिया ! बहुत सम्भव है कि मध्यप्रदेश के भ्रष्ट आइएएस दंपत्ति की तरह  देवयानी  भी बाप के चरण चिन्हों पर चल पडी  हो ! हो सकता है कि घोड़े को नाल ठुकवाते देख मेंढकी को भी  नाल ठुकवाने का शौक चर्राया हो ! यदि देवयानी ने  कोई गुनाह नहीं किया तो क़ानून का सामना  क्यों नहीं करती ? उनके पिता  को सीआईए के सपने क्यों आ रहे हैं ? क्या देश के कंधे पर बन्दुक रखकर ये लोग  अपने गुनाह  छिपाने  में कामयाब हो जायेंगे?क्या  इनके द्वारा सताई गई नौकरानी संगीता को न्याय नहीं मिलेगा ?
                           मध्यप्रदेश में मुन्ना भाइयों[नकली डाक्टरों] की  तरह  न केवल देश में बल्कि विदेश सेवा में भी रिश्वत ,जुगाड़ और आरक्षण की वैशाखी पर सवार होकर , फ़ोकट में मलाई जीमने वाले  दुनिया भर में हमारी नाक कटा रहे हैं। नकली बीजा पासपोर्ट वनवाकर या तो अपनों को उपकृत कर रहे हैं या घरेलू नौकरों के नाम पर शोषण कर रहे हैं।  जब उनकी पोल खुलती है  और  जांच होती है तो देश की साख को दाव पर लगा  देते हैं।  इन भ्रष्ट तत्वों की हिफाजत  के लिए जब  हमारे  एस ऍफ़ आई या वाम मोर्चे के  क्रांतिकारी  साथी   सड़कों पर संघर्ष करते हैं  तो मेरा कलेजा मुँह  को आता है।  मुझे मजबूर होकर कहना पड़ता है कि मैं उस शोषित  - पीड़ित घरेलु नौकरानी   को न्याय दिलाने के पक्ष में हूँ जिसे अमेरिकी प्रशासन और 'अमेरिकन डोमेस्टिक  वर्कर यूनियन '  का संरक्षण प्राप्त है। कमलनाथ जी और भारत सरकार को सलमान खुर्शीद साहब का शुक्रगुजार होना चहिये जिन्होंने इस मौके पर संतुलित बयान दिए और आपा नहीं खोया।
                     भारतीय महिला राजनयिक देवयानी  खोब्रागड़े के साथ अमेरिकी प्रशासन द्वारा  तथाकथित बदसलूकी विषयक   मामला जरा ज्यादा ही पेंचीदा होता जा रहा है।  विगत दिनों  मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं ने ,डी वाई ऍफ़ आई के साथियों ने ,एस ऍफ़ आई छात्र संघठन ने अमेरिकन सेंटर के सामने प्रदर्शन किया !अखिल भारतीय विद्द्यार्थी परिषद् ,रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया ने  मुम्बई में अमेरिकन काउंसुलेट  जनरल के आफिस पर प्रदर्शन किया ! इसमें क्या उद्देश्य हो सकता है ?इससे बेहतर  और उद्देश्यपूर्ण  तो वो आंदोलन है जो अमेरिका  के न्यूयार्क शहर में   'अमेरिकन डोमेस्टिक वर्कर्स यूनियन ' ने  भारतीय महा वाणिज्य दूतावास के समक्ष प्रदर्शन करके  किया है ।
                                   भारतीय    वामपंथी जन संगठनों  ने ,विद्द्यार्थी परिषद् ने ,भाजपा ने ,आरपीआई ने और  समस्त  भारतीय मीडिया  ने तो बेहिचक  मान लिया  है कि  अमेरिका  ही  पाप का घड़ा  है!  और रहेगा। इन सभी को ये भी  लगता है कि तथाकथित  निर्दोष  भारतीय राजनयिक देवयानी पर बड़ा भारी  जुल्म हुआ है।  भारत के मीडिया  प्रगतिशील  विचारक और वामपंथ से लेकर घोर दक्षिणपंथी संघ परिवार सभी एक होकर  अमेरिका को नरक का कीड़ा  बता रहे हैं। देवयानी को  भारतीय अस्मिता मानकर  उसके अपमान को  अपना मानकर- अपने आप को अपमानित महसूस कर रहे हैं। इसीलिये सबके सब अमेरिका को सबक सिखाने  के लिए  शब्द भेदी  बाण  उगलते हुए   संघर्ष के मैदान में कूंद पड़े हैं।   कुछ लकीर के फ़कीर हैं जो अपने आप को कम्युनिस्ट  या वामपंथी कहते हैं और उनकी  अति दयनीय समझ है कि अमेरिका  कभी कुछ सही नहीं कर सकता ! इसीलिये  यदि अमेरिका कहेगा कि  सूरज  पूर्व से उदित होता है, तो  ये रूढ़ीवादी -प्रगतिशील  विश्वाश नहीं करेंगे और तब उनका सूरज पश्चिम से  भी  उदित  हो सकता है ।देवयानी खोब्रागड़े जो की स्वयं अब एलीट  क्लाश  को सुशोभित करती है ,जिसने  निसंदेह गैर कानूनी हरकतें  कीं हैं ,अपनी घरेलू नौकरानी का शोषण -उत्पीड़न  किया है और वीजा  प्रकरण  समेत  कई मामलों में अपराधी है  उसे बचाने के लिए मेरे कम्युनिस्ट  मित्र अमेरिका को ललकार रहे हैं। धन्य है उनकी क्रांतिकारिता !  मार्क्स ,लेनिन और शहीद भगतसिंह ने स्प्ष्ट कहा है कि ;- "पूँजीवादी -साम्राज्यवादी व्यवस्था में न्याय शक्तिशाली का पक्षधर हुआ करता है "  एक तरफ विशेषाधिकार प्राप्त उच्चाधिकारी -देवयानी खोब्रागड़े  है  और  दूसरी ओर  उसके द्वारा सताई गई ,उत्पीड़ित -उसकी घरेलु  नौकरानी  है.इस  सन्दर्भ में  भारतीय वामपंथ को किसका पक्षधर होना चाहिये ?
              क्या यह वैसा ही मामला नहीं है जब कोई  कुटिल सास अपनीअप्रिय  बहु  से नफरत करे और क्रोध में उसे  अभिशाप भी  दे डाले  कि "जा रांड हो जा ''याने बहु से नफरत इतनी कि  क्रोधन में सास ने  अपनी  बहु के पति  के मर जाने की बद-दुआ भी दे डाली ! जबकि बहु का पति सास का अपना बेटा भी होता है। अमेरिका को गरियाने के लिए क्या  भारतीय वामपंथ ने कसम खा  रखी  है ?क्या देवयानी के संदर्भ में  उस पीड़ित मजदूर नौकरानी से अब भारत के कम्युनिस्टों को कोई सरोकार नहीं ? क्या एलीट क्लास के ऐयाशीपूर्ण  आपराधिक जीवन में अमेरिकी क़ानून की दखल से भारतीय क्रांतिकारियों के पेट में दर्द होने लगा है ?
                  संघ परिवार , भाजपा -विद्द्यार्थी परिषद् और दक्षिण पंथी विचारकों  को अमरीका  से कभी  कोई शिकायत नहीं रही ।  वे तो  अमेरिका और सीआईए के सहज मित्र हैं ही। उन्हें देवयानी की वेइज्ज्ती से भी कोई लेना -देना नहीं। वे तो  अमेरिका हो, पाकिस्तान हो,  चीन हो , बंगला देश हो ,नैपाल हो या श्रीलंका हो जब भी भारत की किसी से तकरार  हुई तो संघ परिवार  की तिकड़म  रहती है कि कैसे  'सोनिया ,राहुल और कांग्रेस ' को  घेर-घारकर निपटाया जाए। किन्तु कम्युनिस्टों ,समाजवादियों और अन्य राष्ट्र भक्तों को तो इन घटनाओं की सही जानकारी और सही समय पर सही प्रतिक्रिया व्यक्त करनी ही  चाहिए।  अभी भी कुछः नहीं बिगड़ा भारतीय वामपंथ को  चाहिए कि  अमेरिका में घरेलू कामगारों की यूनियन 'अमेरिकन डोमेस्टिक वर्कर्स यूनियन'  की  आवाज में आवाज मिलाये और शोषित पीड़ित नौकरानी संगीता रिचर्ड के  बहाने देश और दुनिआ में  मजदूरों ,नौकरों और कामगारों के शोषण को समाप्त करने की ,उन्हें काम के घंटे कम करने की ,उचित मेहनताना  और गुजर वसर  दिलाने की मांग को  अपना  समर्थन दे !देवयानी और उसके जैसे एलीट क्लाश  के लोग तो प्रकारांतर से  शोषक शासक  वर्ग का ही  प्रतिनिधित्व   करते हैं।


                            श्रीराम तिवारी 

शनिवार, 21 दिसंबर 2013

मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार की जांच के लिए -उमा भारती द्वारा - सीबी आई जांच की माँग !

   

     आठ दिसंबर को आये  मध्यप्रदेश विधान सभा -चुनाव परिणाम  इतने  अप्रत्याशित  थे कि  स्वयं  भाजपा और शिवराजसिंह चौहान  भी दंग  रह गए होंगे  ! संघ परिवार और भाजपा को इतनी उम्मीद नहीं थी कि उन्हें १६३  सीटों पर विजय मिलेंगी ! अपनी असफलताओं  के कारण  ही उभरते एंटी इन्कम्बेंसी फेक्टर और  कांग्रेस की वापिसी की सम्भावना  को चुनौती मानकर  शिवराज सिंह चौहान लगभग एक साल पहले ही 'जन-आशीर्वाद यात्रा पर निकल पड़े थे।  शिवराज की जीत से 'नमो' को कोई खास खुशी नहीं हुई !यह  सर्व विदित है कि   मध्यप्रदेश के  अधिकांस मंत्री,अफसर ,बाबू और स्टेक होल्डर्स - गले-गले तक  भ्रष्टाचार  में लिप्त हैं. किन्तु कांग्रेस की आपसी फूट और केंद्र में यूपीए -२ का निराशाजनक प्रदर्शन शिवराज के लिए विजय का  वरदान सावित हुआ है । वे बम्फर मेजारिटी से हैट्रिक बना कर मध्यप्रदेश की सत्ता में वापिस  स्थापित हो चुके हैं।  न केवल मध्यप्रदेश की राजनीति  में बल्कि दिल्ली की राजनीती में  भी  शिवराज अब  नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में सप्रयास उभर रहे हैं। उनकी इस तरह अप्रत्याशित  बढ़त को पलीता लगाने के लिए  ही भाजपा का मोदी धड़ा भी तेजी से  काम पर लग   चुका  है।
                                विगत सप्ताह शिवराज की ताजपोशी के समय भोपाल में नमो और उमा की जो 'गुप्त मत्रणा 'हुई उसके बाद से शिवराज  को घेरने के प्रयास तेज हो गए हैं। भले ही मध्यप्रदेश के अधिकांस वोटर 'मामा' शिवराज पर मेहरवान  हुए हैं ,भले ही आडवाणी ,शुषमा स्वराज  और मोहन राव  भागवत उनकी वनावटी  विनम्रता के  कायल हैं ,भले ही शिवराज को भाजपा में अटल बिहारी बाजपेई  की तरह  'धर्मनिरपेक्ष ' चेहरा बताया जा रहा हो ,किन्तु वास्तव  में तो शिवराज के 'राज' में मध्यप्रदेश बुरी तरह  घायल ही हुआ  है। विगत ८सालों में मध्यप्रदेश में जितनी लूट हुई है ,जितने मर्डर और रेप हुए हैं  ,जितने रिश्वतकांड हुए हैं, उतने अतीत में कांग्रेस के ५० साल के कार्यकाल में भी नहीं हुए हैं।  वेशक कांग्रेस यदि चोर सावित हुई है तो  ये सीधे -सादे दिखने वाले  तथाकथित राष्ट्रवादी देशभक्त  'डांकू ' सावित हो रहे हैं !
                        मध्यप्रदेश में अब कोई भी काम बिना रिश्वत दिए करा पाना टेडी खीर है।  हर कदम पर  कमीशन का % बंधा हुआ है।  सत्ताधारी पार्टी ने  पुलिस और क़ानून  को भी  लगभग  बंधक  बना डाला है।  थाने  बिक रहे हैं। नाके बिक रहे हैं।  सरकारी जमीन और नदियां बिक रहीं हैं।  भू माफिया ,रियल स्टेट माफिया ,दारु माफिया ,ड्रग ट्रायल माफिया ,पीएससी माफिया,व्यायवसायिक परीक्षा मंडल माफिया ,नकली डाक्टर -मुन्ना भाई माफिया  ,खनन माफिया , प्रदेश  की सम्पदा को राजनीति  के मार्फ़त लूटने वाल माफिया ,आसाराम एंड सन्स  के  गुनाहों का गवाह  माफिया,  हवाला माफिया ,ड्रग माफिया ,मनरेगा का पैसा लूटने वाला माफिया ,जेएनएनयूआरएम का पैसा खाने वाल माफिया ,और  पता नहीं कितने माफिया हैं जो मध्यप्रदेश को बर्बाद करने में  जूट हुए  हैं।  चूँकि  तथाकथित  पार्टी विथ डिफ्रेन्स का  महाभ्रष्ट चाल-चेहरा और  चरित्र केवल कांग्रेस को ही नहीं दिखा  और वो जनता के सामने भाजपा को नंगा करने में असमर्थ रही।  इसलिए  विगत वधान सभा चुनाव में  कांग्रेस को  वांछित सफलता नहीं  मिली। कांग्रेस तो  भाजपा को घेरने में भी   नाकामयाब रही क्योंकि उसके नेता  तो एक दूसरे  की कब्र खोदने में ही  लगे थे।  यही कारण है कि चोर  भले ही  हार गए हों  किन्तु  डाकू  तो  भारी बहुमत से जीत गए।  अब तो मध्यप्रदेश 'मरू प्रदेश ' की और  अग्र्सर    हो रहा है।
                मध्यप्रदेश के भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने में स्थानीय कांग्रेस - जनों  का भी स्वार्थ  है   क़्योकि जिस किसी भी आपराधिक  माफिया की खोज बीन की जाती है उसमें भाजपा वाले यदि ७०% खाने के लिए  कुख्यात हैं  तो ३० % पहले ही  खा चुके कांग्रेसियों के नाम भी बाजार में प्रसिद्ध होने लगते हैं।  इसीलिये  मोदी जी की प्रेरणा से सुश्री  उमा भारती  को ही यह  पुनीत  कार्य करना   पड़  रहा है। उन्हें मध्यप्रदेश  सरकार की ईमानदारी पर संदेह है इसलिए  उन्होंने व्यापम और अन्य घोटालों के लिए सीबी आई  जांच की मांग की है। यदि शिवराज निर्दोष हैं तो उन्हें  फ़ौरन सीबी आई जांच की मांग स्वीकार करनी चाहिए। यदि  वे ऐंसा नहीं करते तो  'संघ' को इस बारे में कठोर निर्णय लेना  चाहिए और तथाकथित देशभक्ति पूर्ण फैसला लेकर मध्यप्रदेश के भ्रष्ट भाजपा नेताओं पर अंकुश लगाना  चाहिए ! यदि भाजपा हाई कमान ,संघ परिवार  ने उमा  भारती के वयानों को केवल  प्रेशर की राजनीति  मानकर अवहेलना की तो  मध्यप्रदेश की जनता को  पुनः  विचार करना चाहिए कि वो किन  दम्भी और झूंठे नेताओं को 'राष्ट्रवादी 'मानकर अपना  प्रदेश  लुटावा रहे है ?  आगामी लोक सभा चुनाव इसके लिए बेहतर  अबसर है।  केंद्र सरकार को भी शुश्री उमा  भारती की अपील  का संज्ञान लेकर मध्यप्रदेश में हो रहे घोटालों की जाँच करनी   चाहिए।


                           श्रीराम तिवारी 
                                        

गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

'आप' केजरीवाल अब , भये दिल्ली सरकार !



  डूबे हैं आकंठ जो ,खुद ही भ्रष्टाचार।

 लोकपाल के बन गए ,वे ही सृजनहार।।



   जिनके कर-कमलों हुआ ,वतन का बंटाढ़ार।

   लोकपाल की वे करें ,झूंठी जय-जय कार।।



         राजनीति  के  घाट  पर , मची  दलों की भीर।

          कांग्रेस और भाजपा  ,  सब  मिल पीवें नीर ।।


           अन्ना ने अनशन किया ,लोकपाल के  हेत।

           रालेगण सिद्धि बना ,राजनीति  का खेत। ।


          
              भ्रष्टाचार का गम नहीं ,सत्ता की तकरार।

              गठबंधन की हाँडियाँ ,चढ़ती बारम्बार।।



           दिल्ली आम चुनाव में ,   भई  भ्रष्टन की हार।

           'आप' केजरीवाल अब ,  भये दिल्ली सरकार।।


            बड़े दलों  ने  छोड़ दी ,सत्य  न्याय की धार।

            दिल्ली  की तरुणाई का ,मिला 'आपको' प्यार   ।।
        



                      श्रीराम तिवारी

         


        


   

   

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

आइये ! इस लोकपाल क़ानून की सफलता के लिए दुआ करें !

     
              विगत नवम्बर -२०१३ में सम्पन  दिल्ली विधान सभा चुनाव के अप्रत्याशित परिणाम स्वरुप  कांग्रेस और भाजपा  दोनों को ही  एक विचित्र और आसन्न भय की  अनुभूति हुई है।कांग्रेस को लगता है कि अरविन्द केजरीवाल और 'आप' ने ही  उसे हराया है।  न केवल हराया  है  बल्कि  बदनाम भी  किया है।  उसके परम्परागत   वोट बेंक  - जनाधार में 'आप' ने जबरजस्त  सेंधमारी की है।  इसके साथ-साथ   आगामी लोक सभा चुनाव के लिए भी  एक  विकट  चुनौती  पेश कर दी है।  भाजपा और संघ परिवार को भी   इस बात का बड़ा गम है कि 'आप' ने  ही उसके रास्ते में  कांटे विछाये  हैं।  मौजूदा दौर के पांच राज्य विधान सभा चुनाव  में से तीन    -  राजस्थान ,मध्यप्रदेश और छ्ग में  तो  भाजपा को  भारी  सफलता मिली है ,किन्तु  दिल्ली में उसके विजय रथ  के  हर्ष को  'आप' ने  शोक में बदल दिया है । भाजपा को  मात्र ४-५ सीटें और मिल जाती तो आज  डॉ हर्षवर्धन भाजपा  के  'दिल्लीश्वर' होते।  संघ परिवार  की सोच है कि  मोदी की राह में 'आप' का रोड़ा आड़े आ रहा  है । अर्थात  भारतीय राजनीति  के इस दौर में कांग्रेस और भाजपा दोनों का जुड़वा शत्रु एक ही है -जिसका नाम 'आप' है ! जिसके नेता अरविन्द केजरीवाल हैं और जिसे  'अण्णा टीम ' ने हमेशा हिकारत से देखा है।
                                     चूँकि 'आप' को नापसंद करने  वाले अन्ना  हजारे को तो  राजनीति  का ककहरा ही नहीं मालूम इसलिए वो थाली के उस वेगन की तरह हैं जो ज़रा सी छुअन से इधर-उधर लुढक जाता है।   अण्णा  ने हमेशा  जनांदोलन - अनशन -धरना  इत्यादि के ब्लेकमेलिंग से ही  अपना उल्लू   सीधा किया  है।  उनके आसपास जो दो-चार चमचे -चमचियां हैं  वे  भी  दिग्भ्रमित और विचारधारा विहीन  तत्व हैं। ये नितांत  महत्वाकांक्षी तत्व  अरविन्द केजरीवाल से जलते हैं। क्योंकि 'आप' ने इनके सहयोग के  बिना ही दिल्ली में शानदार कामयाबी हासिल की है। इसलिए इन लोगों  के अहम को ठेस पहुँची है. इन्हें  'आप' की दिल्ली विजय रास  नहीं आई है । 'आप'को मिले जन समर्थन  और राष्ट्रीय क्षितिज  पर उसके नेता  अरविन्द केजरीवाल की पूंछ परख ने  नरेंद्र मोदी ,राहुल गांधी , अन्ना हजारे ,जेटली ,सुषमा स्वराज  तथा अन्य स्थापित नेताओं को चिंता में डाल  दिया  है।   इन सभी के 'कामन-इंटरेस्ट ' का परिणाम है कि सांप-नेवले सब एक हो गए। इन   सबका  एक ही राग था  कि उनके चमन में  ''ये कौन आया रोशन हो गई महफ़िल  जिसके  नाम से "?
                          ' आम आदमी पार्टी ' नामक    इस नए राजनैतिक शक्ति केंद्र के  उदय से जो  आक्रान्त हुए हैं  वे  -कांग्रेस ,भाजपा और अन्ना  सब  के सब एक साथ ,' आप'  के खिलाफ खड़े हो गए  हैं । कांग्रेस  + भाजपा  +अण्णा याने 'आप ' के  अभी साझा शत्रु !  इसीलिये इन साझा शत्रुओं के  साझा  शुभ चिंतकों ने, इनके वित्त पोषकों ने ,इनके स्टेक होल्डर्स ने तथा 'समन्वयकों' ने मोर्चा सम्भाल लिया है। भ्रष्टाचार उन्मूलन के निमित्त - ४५  साल पुराना 'लोकपाल ' बिल  जो राजनीति  के कूड़ेदान में धूल -धूसरित  हो रहा  था उसे झाड़-पोंछकर  फिर से संवैधानिकता के आवरण में प्रस्तुत  किये जाने का कार्यक्रम बनाया गया । तथाकथित सरकारी  लोकपाल   नामक जिन्न को सियासत की  बोतल से  निकालकर कानूनी शक्ल दी  गई है ।  हालाँकि  राज्य सभा की प्रवर  समिति  ने संसद के शीतकालीन सत्र से पूर्व ही इसे  अप्रूव कर दिया था। किन्तु राजनैतिक हानि-लाभ के फेर में कोई सुध नहीं ली गई। जब आम आदमी पार्टी को दिल्ली में आशातीत सफलत मिली और अण्णा  को  लगा  कि लोग उन्हें  भूलने लगे हैं ,  तो पराजित कांग्रेस के 'युवराज' को जानकारों ने यह उक्ति सुझाई कि 'अण्णा  शरणम् गच्छामि ' हो जाओ. राहुल जी आप तो  लोकपाल  का समर्थन कर ही  दो. इससे दोनों हाथ लड्डू रहेंगे। एक और तो  कांग्रेस की हार को मीडिया के विमर्श  से तो निजात मिलेगी !  दूसरी और भ्रष्टाचार से लड़ने वालों का समर्थन भी मिल जाएगा। चूँकि अण्णा  की कांग्रेस और भाजपा दोनों में ही  बराबर की पकड़ है इसलिए भाजपा को साधने में  भी उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई।  अण्णा ने भाजपा  और संघ परिवार  में  अपने शुभ चिंतकों को बता दिया कि में रालेगण सिद्धि  में  अनशन  करूँगा और सात दिन बाद  ' संशोधित सरकारी लोकपाल' पर सहमत होने जा रहा हूँ। कांग्रेस तैयार है, तुम लोग भी बहती गंगा में हाथ धो डालो! भाजपा के सामने कोई विकल्प नहीं था कि इसका विरोध कर सकें। क्योंकि राज्य सभा  की   प्रवर समिति में उनकी पार्टी की बड़ी नेता और लोक सभा में विपक्ष की नेता  सुषमा  स्वराज भी इस प्रवर  समिति की सदस्य  हैं। इसीलिये कांग्रेस और भाजपा ने अद्वतीय एकता के साथ आनन्-फानन पहले राज्य सभा में, फिर लोक सभा में  सरकारी लोकपाल  बिल  पारित करा  ही लिया।
                                  इस बिल को अगले चरण में माननीय  राष्ट्रपति महोदय के पास भेजा जाना है। उनकी अनुशंषा के बाद इसे कानून की शक्ल में  सरकारी गजट में प्रकाशित कर दिया जाएगा। तब उम्मीद की  जा रही है कि भारत में "भ्रष्टाचार का नामोनिशान  नहीं  रहेगा "  दरसल यह 'आप' याने  केजरीवाल टीम  की  शानदार  सामयिक सफलता के  आभा मंडल को धूमिल करने  और अण्णा +कांग्रेस +भाजपा के सामूहिक रूप से  अपने-अपने  वजूद को साधने  की   साझा  कोशिश  मात्र  है। भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए भ्रष्टाचारी ही क़ानून बनाएँ इससे  बड़ी बिडंबना क्या हो सकती है ? लोकपाल के दायरे में कौन आयेगा ?कौन नहीं आयेगा ? सीबीसी, सीबीआई ,प्रधान मंत्री और  सरकारी भ्रष्टाचार में वर्ग २-वर्ग -३ ,ग्रुप-डी  तथा नॉन -एक्जीक्यूटिव सुपरवाइजरी, अधिकारियों  के भ्रष्टाचार में  लिप्त होने  की दशा में मौजूदा लोकपाल मौन है।   कई  मसलों पर ततसंबंधी  चार्टर के सम्पादित होने के बाद ही इसकी वास्तविक शक्ल सामने आयेगी।   लोकपाल हो या तथाकथित   जोकपाल हो कोई भी क़ानून  तब तक सफल नहीं हो सकता  जब तक  शक्तिशाली लोग इस सिस्टम पर काबिज हैं। कोई  भी देश  सिर्फ क़ानून के डंडे से  भ्रष्टाचार समाप्त नहीं कर सकता। जब तक  मौजूदा   व्यवस्था   में सामाजिक -आर्थिक-राजनीतिक  और सांस्कृतिक आधार पर असमानता  है  तब तक न्याय और क़ानून हमेशा शक्तिशाली के  ही पक्षधर होते रहेंगे। बिना  ठोस वैज्ञानिक विजन,क्रांतिकारी विचारधारा  और संगठित संघर्ष  के   भ्रष्टाचार तो क्या उसकी चूल को भी  हिला पाना सम्भव नहीं है। हीरोगिरी  से  व्यवस्थाएँ  नहीं बदला करतीं।  व्यवस्थाओं को बदलने के लिए कानून में संशोधन की नहीं क्रान्ति की दरकार  हुआ  करती   है। समाजवादी नेता मुलायमसिंह की आपत्ति को भी सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि भारत में वैसे ही विकाश और सरकारी कामकाज की रफ़्तार  मंदगति के संचारों की तरह है ,ऐंसे में लोकपाल के बहाने मक्कार लोग हाथ पर हाथ   रखकर मुफ्त की रोटी तोड़ते रहेंगे !
                                विश्व - साहित्य और फ़िल्म संसार के काल्पनिक चरित्रों और उसके  'नायकत्व्' को  या  अवतारवाद को वास्तविक जीवन में अब कोई स्थान नहीं है। राजनीति  के कदाचार और संस्थागत लूट को रोकना केवल क़ानून का विषय नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि  भारत में रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार और देश की सम्पदा को लूटने  की प्रतिष्पर्धा  अब  बेहद  चिंतनीय अवस्था में पहुँच   चुकी  है..इसका इलाज फ़ौरन जरूरी है।  यह कोई आकस्मिक बीमारी नहीं है।  बल्कि इसके मूल में मध्य युग  के  सामंती अवशेष , आधुनिक साधन सम्पन्नता  एवं  साइंस - टेक्नालॉजी   के चमत्कारों पर  प्रभावशाली लोगों की पकड़  तथा शासकवर्ग की यथास्थितिवादी मानसिकता   भी महत्वपूर्ण फेक्टर है।  इसके अलावा   प्रत्येक अमानवीय घटना को राजनैतिक  नफ़ा -नुक्सान के रूप में देखने की  दुष्प्रवृत्ति तथा मीडिया द्वारा इन नकारात्मक घटनाओं और सूचनाओं को  उत्पाद के रूप में बेचने की बाजारू बाध्यता भी इन बुराइयों को  असहनीय बनाने में  एक महत्वपूर्ण  कारक  है।
                     मानव समाज   ही जाने-अनजाने  अपने से आगे आने वाले प्रत्येक  दौर के सिस्टम का निर्माण करता है । हमारे  इस  मौजूदा  दौर के  सिस्टम को वेशक हमने नहीं  बनाया है। ये हमें विरासत में मिला है ।   मानव समाज अपने समकालीन दौर में  तत्काल कोई परिणाममूलक सिस्टम बना भी नहीं सकता । यदि हम बेहतरी का कोई प्रयास करते भी हैं तो उसके परिणाम आगामी पीढ़ी के काम  के अवश्य हो सकते हैं। किन्तु   यदि   हमारा मौजूदा दौर का यह  सिस्टम दोषपूर्ण है और लोग तत्काल परिणाम चाहते हैं , तो  उसमें आये भ्रष्टाचार जैसे जंग  से निजात पाने के दो ही विकल्प हैं। एक -इस सिस्टम को पूरा का पूरा  बदल दिया जाए। दो-इस सिस्टम में जहां -जहां छेद  हैं, टूटन-फाटन  है, वहाँ-वहाँ दुरुस्ती के प्रयास किये  जाएँ। पहले वाला उपाय क्रांति की अपेक्षा रखता है। कम्युनिस्ट और वामपंथी इसी क्रांति की  राह पर दुनिया में कई जगह  सफल  हुए हैं। कई जगह असफल भी हुए हैं।  यदि भारत की जनता इस राह पर आगे बढे तो उसे भी सफलता अवश्य  ही  मिलेगी। किन्तु देश की जनता अभी पूर्ण रूप से शिक्षित और चैतन्य नहीं है और  चूँकि विश्व पूँजीवाद चरम पर है  इसलिए  अभी तो भारत - वैश्विक बाजारीकरण के चक्रव्यूह में  उलझ हुआ  है।  इसलिए  बहरहाल अभी तो  किसी भी प्रगतिशील क्रांति की  सम्भावना नहीं है ।
                                 दूसरा वाला उपाय यथास्थतितिवादी है ।  टूटे -फूटे सिस्टम को हजार छेद वाले सरकारी   'लोकपाल' से नहीं ढका जा सकता।   यह  तो फटे -पुराने कपडे को अल्टर करके या रफू करके काम चलाने जैसा  है। यह  एक  तात्कालिक  कानूनी  और दंडात्मक  उपाय  मात्र है।  चूँकि मौजूदा दौर  के सिस्टम  में अनेकों विकृतियों  का बोलबाला   है। इसलिए  कहाँ -कहाँ थेगड़े लगाए जा सकते हैं ?  अन्ना हजारे जैसे सीधे सरल लोगों की भावना तो ठीक है किन्तु वे 'थेगड़ेबाद' में उलझकर इस सिस्टम को ठीक करने में यकीन करते हैं।  सिस्टम यदि  मिट्टी का घड़ा है और उसमें एक-आध छेद  है तो उसे  मिट्टी के टीपने  से कुछ समय के लिए तो  ठीक    किया जा सकता  है. किन्तु   हमेशा के लिए  वर्तमान   व्यवस्था दोष रहित होगी यह दावा नहीं किया जा सकता। अन्ना एंड कम्पनी का यह आकलन  कि  प्रस्तुत 'लोकपाल' से ४०-५०% भ्रष्टाचार कम हो सकेगा एक 'बाल-सुलभ ' प्रत्याशा मात्र है। दरसल ५% भी यदि इससे भ्रष्टाचार कम होता है तो राहुल गांधी ,अण्णा  हजारे ,अरुण जेटली और सुषमा स्वराज बाकई बधाई के हकदार  होंगे। सबसे  ज्यादा श्रेय उनको मिलेगा जिन्होंने ' आप' को दिल्ली में शानदार सफलता दिलाई। क्योंकि यदि आम आदमी पार्टी को इतनी सफलत नहीं मिलती और कांग्रेस -भाजपा  दोनों की  ही दुर्गति नहीं होती तो अन्ना का लोकपाल या सरकारी लोकपाल अभी भी संसद की किसी आलमारी में धूल  फांक रहा होता !
     यदि इस लोकपाल से भ्रष्टाचार  के मगरमच्छ तो क्या एक  चूहा भी डर  जाए तो गनीमत है।  हम भी मुरीद हो जायँगे ! यदि व्यवस्था से भ्रष्टाचार को खत्म करने में कोई क़ानून कारगर होता है तो ! आइये इस लोकपाल क़ानून  की सफलता के लिए हम सब ईश्वर से  दुआ करें !आमीन !
                        
           श्रीराम तिवारी     

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

'आप' आगे बढ़ें -दिल्ली राज्य की सरकार बनाएँ !


          सभी जानते हैं कि देश की राजनीति  में गठबंधन का दौर है । दिल्ली विधान सभा चुनाव  के परिणाम  भी देश की बहुलतावादी मानसिकता के अनुरूप ही आये हैं। याने यदि  तुरंत या आगामी ६ माह में सबसे बड़े  दल भाजपा और  दूसरे नंबर की  बड़ी पार्टी'आप'दोनों ने ही सरकार नहीं बनाई तो  ६ माह बाद जब चुनाव होंगे तब कांग्रेस  और शीला दीक्षित  के लिए परिस्थितियाँ  काफी अनुकूल होंगी।जनता ,मीडिया और सिस्टम  से जुड़े लोगों  की याददास्त उतनी नकारात्मक नहीं है कि वे  सिर्फ कांग्रेस की असफलता या उसके भ्रष्टाचार को ही अनतकाल तक  याद करते  रहें । यदि  वर्तमान  विधान सभा में किसी भी दल  को स्प्ष्ट बहुमत नहीं है तो ये कांग्रेस की या ईश्वर की  इच्छा   नहीं बल्कि एंटी इन्कम्बेंसी फेक्टर के प्रभाव और केद्र की यूपीए सरकार  को  उसके नकारात्मक कृत्य पर  दिल्ली की जनता  का जनादेश है । जो राजनैतिक दल  जनता के इस जनादेश का सम्मान नहीं करेगा उसे भविष्य  में खामियाजा तो  भुगतना ही  होगा।
                             सर्वाधिक सीटें मिलने के बाद भी भाजपा यदि सरकार नहीं बना पाई तो ये उसकी समस्या है।  यह उसकी ऐतिहासिक भूल भी हो सकती है।  क्योंकि जनता ने तो कांग्रेस को हटाकर उसे भरपूर समर्थन ही दिया है।  बेशक यदि भाजपा सरकार  बनाती और  विधान सभा में उसके खिलाफ अविश्वाश प्रस्ताव लाया जाता तो  बहुत सम्भव था कि  भाजपा ही  विश्वाश मत जीतती। किन्तु भाजपा ने अत्यधिक चतुराई के फेर में  सुअवसर गँवा दिया।   क्योंकि कांग्रेस तो अभी 'कोमा' में ही  है और 'आप' तो भाजपा से कम संख्या बल की पार्टी है. फिर भाजपा ने सरकार नहीं बनाई तो यह कोई लोकप्रिय या जनहितकारी फैसला नहीं  कहा जा सकता।  यह भाजपा और 'संघ' की  आगामी लोक सभा चुनाव के मद्देनजर 'चालाकीपूर्ण' राजनैतिक बेईमानी है।  यदि उसे  'आप ' और कांग्रेस मिलकर सदन में विश्वाश मत पर  हरा भी  देते तो भी इसका फायदा भाजपा को ही मिलता।  भाजपा की ही जीत होती क्योंकि तब सरकार भले ही चली जाती किन्तु दिल्ली की  जनता के सामने भाजपा का पक्ष वर्तमान  स्थिति से ज्यादा बेहतर होता । 
                         चूँकि कांग्रेस  के खिलाफ जनादेश आया है और उसके पास मात्र आठ  विधायक   ही हैं। अतएव उसकी राजनैतिक भूमिका  तो सीमित हो गई है। फिर भी छत-विक्षत  कांग्रेस ने तत्काल  बहुत सूझ-बूझ से एक  लोकतांत्रिक फैसला ले  लिया और 'आप'  को  बिना शर्त समर्थन  दे दिया है। अब दिल्ली की जनता के लिए यही बेहतर था कि 'आप' सरकार बनाये। किन्तु भाजपा और कांग्रेस -दोनों  के भ्रष्टाचार पर आक्रमण करने से 'आप' को जनता का समर्थन मिला है इसलिए 'आप' और उनके नेता अरविन्द  केजरीवाल का 'अनिश्चयात्मक' स्थिति  में होना स्वाभाविक है। किन्तु राजनैतिक  क्षेत्र में उनके लिए अधिक समय तक यह अनिश्चितता नुक्सानदेह हो सकती है।  चूँकि  दिल्ली का जन-मानस  तो अभी बँटा  हुआ है इसलिए बहरहाल किसी को स्पष्ट बहुमत मिल पाना सम्भव नहीं। कांग्रेस की जो दुर्दशा हुई है उससे ज्यादा अब उसकी सीटें कम तो नहीं बल्कि बढ़ने की सम्भावना है। भाजपा को चूँकि राजस्थान ,मध्यप्रदेश और छ्ग में अनपेक्षित सफलता मिली है. किन्तु दिल्ली में उसका विजय रथ 'आप' ने ही  रोक लिया है।  इसलिए  भाजपा को  दिल्ली  की  आंशिक विजय कतई  मंजूर  नहीं। भाजपा और 'संघ परिवार'  की सत्ता पिपासा बढ़ चुकी है। उन्हें  केंद्र की सत्ता चाहिए और उसके पहले दिल्ली राज्य की  सत्ता  भी चाहिए।  उनके  हिस्से का शिकार 'आप' कैसे खा  सकते हैं ?   भाजपा की सीटें  छीन पाना 'आप' के लिए अभी तो  सम्भव नहीं। यदि आइंदा फिर से चुनाव की नौबत  भी आती है तो 'आप' को २८ से ज्यादा की तो बहरहाल इम्मीद नहीं करना चाहिए।
                             अरविन्द केजरीवाल और 'आप'  के समक्ष दरपेश  मौजूदा चुनौतियों  अप्रत्याशित नहीं हैं। उन्हें जानना -समझना होगा कि यह स्थिति उलट भी हो सकती थी या हो सकती है. याने २८ सीटें  जो 'आप' को मिलीं हैं वे कांग्रेस  की भी  हो सकती थीं !आइंदा यदि 'आप' ने सरकार बनाने से न-नुकर की तो कांग्रेस की वापिसी  में कोई संदेह नहीं। यदि 'आप' ने मौजूदा चुनौती का डटकर मुकबला नहीं किया,सत्ता या सरकार की जिम्मेदारी से दूरी बनाई   तो अभी जो आठ सीटें  कांग्रेस को मिली  हैं  वे आइंदा  'आप'  की हो सकतीं  हैं। यदि  'आप' ने अभी सरकार नहीं बनाई तो आइंदा जब चुनाव होंगे तब  भले ही भाजपा  की कुछ सीटें घट  जाएँ , कांग्रेस की कुछ बढ़ जाएँ, किन्तु  'आप' का भविष्य खतरे में पड  सकता है। इसलिए कांग्रेस के  द्वारा प्रदत्त  बिना शर्त समर्थन को सहर्ष स्वीकार कर 'आप' को केजरीवाल के मुख्य मंत्रितव में अविलम्ब  सरकार  बनाना चाहिए। जनता से पूंछने की जरुरत नहीं पड़ेगी यदि 'आप' के नेता भ्रष्ट पूँजीवादी  व्यवस्था में; राजनीति  की   काजल - कोठरी में बिना कालिख के ५ साल भी निकाल लें।कांग्रेस और भाजपा के भ्रष्टाचार को देश के सामने  लाने के लिए अरविन्द केजरीवाल  और 'आप' का सत्ता में आना जरूरी है। उन्हें अपने उस अनुभव को नहीं भूलना चाहिए जो विगत वर्ष उन्हें जंतर-मंतर और रामलीला मैदान पर हुआ था और तब  अण्णा  हजारे की संकुचित मनोदशा के वावजूद   केजरीवाल ने भुजा उठाकर कहा था "हाँ !भृष्टाचार मिटाना तब तक सम्भव नहीं  है  जब तक  ईमानदार लोग  खुद ही  राजनीती में न  जाएँ" ! कालचक्र ने 'आप'को एक  मौका दिया है। अब  तो पथ यही है कि मत  चूके चौहान ! दिल्ली में सरकार बनाएँ !अपना अजेंडा -घोषणा पत्र  पूरा करें ! सफल हो गए तो भारत का राजनैतिक इतिहास बदल दोगे  ! यदि कांग्रेस ने धोखा दिया तो जनता उसको देख लेगी। यदि 'आप ' इस बार चूक गए तो यह जरूरी नहीं की जनता 'आप' को  बार्-बार मौका देगी !

                                              श्रीराम तिवारी 

रविवार, 15 दिसंबर 2013

क्या 'आप' का वर्तमान स्टेंड सही है ?



    अरविन्द  केजरीवाल के नेत्तव में 'आप' का  दिल्ली राज्य में सशर्त  सरकार बनाने का  वर्तमान  स्टेंड सूझ-बूझ भरा और काबिले -तारीफ  हो सकता  है; यदि उनके  विमर्श के केंद्र में  जनता से किये गए वादों का अजेंडा हो । दिल्ली विधान सभा के सद्द सम्पन्न विधान सभा चुनाव में वहाँ की जनता  ने  देश की विराट आवाम की  खंडित मानसिकता  के अनुरूप ही  जनादेश  दिया है । यही वजह है कि  मौजूदा दौर में 'गठबंधन' की राजनीति   एक आवश्यक बुराई के रूप में सही अब न सिर्फ केंद्र में  बल्कि  दिल्ली विधान सभा में भी अवतरित हो चूकी  है। ऐंसा प्रतीत होता है कि  दो पार्टी सिद्धांत को दिल्ली की जनता ने नामंजूर कर दिया है। आगामी लोक सभा चुनाव में भी  इसी पैटर्न पर राष्ट्रव्यापी  'महागठबंधन' की सम्भावनाओं  से इंकार नहीं किया जा सकता है।  आदर्श   प्रजातंत्र में  'बहुलताबाद ' को वैसे  भी  सम्मान कि नजर से ही  देखा जाता है।  वेशक कांग्रेस और भाजपा जैसे बड़े दलों के  राजनैतिक एकाधिकार को इस बहुलतावाद से  खतरा हो सकता है। इस  खतरे की घण्टी दिल्ली में ही बजेगी इसकी उम्मीद शायद कम लोगों को ही  होगी ! 
                   दिल्ली विधान सभा में इस समय  सबसे बड़ी पार्टी[३१ विधान सभा सदस्य] भाजपा है  इसीलिये उससे उम्मीद की जा रही थी कि वो   संवैधानिक   उत्तरदायित्तव का पालन करते हुए,जनादेश का सम्मान करे। भाजपा से उम्मीद थी कि जनादेश  का सम्मान करते  हुए 'दिल्ली राज्य ' की लोकप्रिय सरकार का गठन करेगी।  डॉ हर्षवर्धन और भाजपा  के ' पी एम् इन वेटिंग' नरेंद्र मोदी भी चाहते होंगे  कि दिल्ली में डॉ हर्षवर्धन के नेत्तव में  भाजपा  की राज्य  सरकार शीघ्र बने।  इस  बाबत  भाजपा के 'धन कुबेरों' के नेत्तव में  पूरी कोशिश  भी  की गई होगी । किन्तु  कांग्रेस की  मर्मांतक  हार [आठ विधान सभा सदस्य  ]   और 'आम आदमी पार्टी'  [२८] का आशातीत उभार  भाजपा  की राजनैतिक तिजारत में आड़े आ गया । न केवल  आगामी लोक सभा चुनाव  को ध्यान में रखते  हुए  बल्कि 'आप' के नेटवर्क  से घबराये भाजपाइयों ने फूंक-फूंक कर पाँव रखते हुए सत्ता की  गेंद 'आप' के पाले में उछाल दी है ।भाजपा का कहना है कि 'आप' ही सरकार बनाकर दिखाएँ !
                                            हालांकि यह करिश्मा यों ही नहीं हो गया। खरीद -फरोख्त के आरोपों से  घिरी  भाजपा को 'संघपरिवार' ने  कवरिंग फायर का सहारा दिया  और  भाजपा को सरकार  बनाने की प्रक्रिया में तथाकथित राजनैतिक शुचिता' का ध्यान रखने की हिदायत दे डाली।  'आम आदमी पार्टी'   याने  अरविन्द केजरीवाल टीम  चूँकि दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है जो  कांग्रेस -भाजपा के जुड़वाँ आपराधिक रिकार्ड ,ढपोरशंखी दुष्प्रचार , कुनवा  परस्त भ्रष्टाचार और प्रायोजित महँगाई  के खिलाफ  शानदार  लड़ाई लड़कर,दिल्ली विधान सभा में  बेहतर सीट संख्या  के साथ उपस्थित है।  चूँकि गुजारे लायक  न्यूनतम बहुमत उसे भी  नहीं मिला है  इसलिए उसने भी सरकार बनाने की उतावली नहीं दिखाई है । अपने-अपने संख्या बल पर 'नाज'करने के वावजूद दिल्ली सरकार बनाने की बात पर  भाजपा और 'आप'दोनों ही  पार्टियां अब 'पहले आप-पहले आप' का जाप कर रहीं हैं. यह एक विरला ही नजारा है कि कांग्रेस हारकर भी सीना तानकर चल रही  है. जबकि भाजपा और 'आप' में बैचेनी का दौर है।
                      कांग्रेस की दिल्ली इकाई के प्रवक्ता  न केवल 'आप'या  केजरीवाल बल्कि  भाजपा  के भी  'मजे' ले रहे  हैं। शीला जी  भी सोचतीं होंगी  कि 'कमबख्तो !जब भाजपा या 'आप' को सरकार ही  नहीं बनानी  थी तो मुझे क्यों  हटाया ? चूँकि  कांग्रेस के समक्ष  कुछ  खास   करने-कराने लायक नहीं बचा था , इसलिए उसने अपने ऐतिहासिक अनुभवों के अनुरूप  एक जिम्मेदार पार्टी की भूमिका  अदा करते हुए ,अपने आठ विधायकों की सूची  दिल्ली के उपराज्यपाल   श्री नजीब जंग  को  इस घोषणा के साथ  सोंप  दी कि हम बिना शर्त  'आप' के साथ हैं। अब २८ सीट वाले 'आप' याने केजरीवाल टीम - १८  शर्तों का  भारी -भरकम बोझ मात्र ८ सीटों वाली कांग्रेस के  ऊपर लादकर क्या  हासिल कर पाएंगे? ये तो  वे ही जाने ! किन्तु  भाजपा को आशा है कि  इस घटना क्रम  से आगामी लोक सभा चुनाव की भरपूर  तैयारी के लिए उसे  माकूल अवसर अवश्य ही मिल जाएगा ।   
                              वेशक ! 'आप' की १८ 'महाशर्तों 'से भाजपा की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। उसका वोट बेंक न तो अवैध  कालोनियों में रहता है और ना  ही उसे बिजली विभाग के भ्रष्टाचार  से राजनैतिक पराभव की  परवाह है। उसका अधिकांस वोट बेंक तो  मिनरल वाटर पीने वाला हो गया है।  वैसे भी  भाजपा का वोट बेंक किसी एक खास  लहर   में  नहीं अपितु 'संघ परिवार' की सतत सक्रियता  में और  'टॉप टू  वाटम  ' सदैव  चाक -   चौबंद होकर जनता में निरंतर  पैठ बनाये रखने की कोशिशों   से निरंतर बढ़ रहा  है।  कभी हिन्दुत्व की लहर  , कभी राम  मंदिर की लहर ,कभी साम्प्रदायिक दंगों  की लहर,  कभी विकाश की लहर  और कभी 'नमो' लहर  में भाजपा का तरनतारन होता ही  रहता है। दिल्ली में भाजपा को अधिकाँश सवर्ण-वामन,वानिया ,ठाकुर वोटों के अलावा बाबाओं,स्वामियों ,अन्नाओं और पूंजीपतियों का वरद हस्त प्राप्त है। केजरीवाल  के नेत्तव में 'आप'ने भाजपा के नहीं कांग्रेस के वोट बेंक का सूपड़ा साफ़ किया है और आइंदा भी आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा के वोट बढ़ने वाले हैं।  क्योंकि कांग्रेस के लिए तो एंटी इन्कम्बेंसी फेक्टर अभी कम से कम  ५ साल तक और   रहेगा।  इसलिए   राष्ट्रीय छितिज पर  नरेद्र मोदी को  राहुल या कांग्रेस अभी   चुनौती देने की स्थति में नहीं है । कांग्रेस की निरंतर छिछालेदारी करने वाला  तीसरा मोर्चा और जनता के सवालों को लेकर निरंतर संघर्ष करने वाला  वाम मोर्चा - अभी -अभी हुए विधान सभा चुनाव में  उचित   समर्थन  हासिल करने में असमर्थ रहे हैं । उनके संघर्षों का फल  केवल  भाजपा को ही  मिल रहा है.
                वेशक  !  दिल्ली में 'आप'को  मिले जन-समर्थन से उम्मीद जगी है कि तीसरा मोर्चा और वाम मोर्चा आइंदा कुछ  बेहतर परफार्मेंस दे सकेंगे।दिल्ली में नई  सरकार के गठन की सूरत बनती  नहीं दिख रही है। केजरीवाल ने  दिल्ली के  उपराज्यपाल को सूचित किया है कि 'आप' की १८ शर्तों पर कांग्रेस और भाजपा का जबाब आने के बाद वे मतदाताओं  याने जनता से पूंछकर  ही  सरकार गठन के लिए कदम बढ़ाएंगे । इसके लिए कुछ समय भी उन्होंने माँगा है।  भाजपा की अनिच्छा और 'आप'  की  शर्तों से कांग्रेस गदगदायमान है कि" न तो नौ मन तेल मिलने वाला है और न ही राधा नाचने वाली है". राष्ट्रपति शासन के बहाने दिल्ली  राज्य की सत्ता पर प्रकारांतर से  कांग्रेस का ही कब्जा रहने वाला है. फर्क सिर्फ इतना  है कि अब शीला दीक्षित सत्ता में  नहीं होंगी । बल्कि परोक्ष रूप से  सोनिया जी  का ही  प्रभाव रहेगा । कांग्रेस को वापसी के लिए ६ माह भी काफी हैं  वशर्ते  वो'आप' या   केजरीवाल  से  वो  खेल न खेले  जो उसने कभी चंद्रशेखर से कभी गुजराल से और कभी देवेगौड़ा से  खेला  था ।  केजरीवाल और  'आप' भी जरुरत से ज्यादा जनतांत्रिकता के दिखावे के फेर  में न  रहें !उनका यह कहना  कि-' हम जनता से पूंछकर  उप  राज्य पाल को बताएँगे  कि  कांग्रेस का समर्थन लेकर   सरकार बनाना  है या नहीं ' यह कदाचित  व्यवहारिक नहीं लगता।  वैसे भी जनता  ने अपने हिस्से का काम तो चुनावों में  कर ही  दिया है। फिर भी जनता  को याने मतदाताओं को तो  और भी गम हैं जमाने में  राजनीति  के अलावा। सभी तो राजनीती में होलटाइमर नहीं हो सकते  हैं न ! 'आप'  की तरह !
                       श्रीराम तिवारी   
      
        
               
  

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

क्रांतिपथ- अग्निपथ आबाद है अविराम ! श्रीराम तिवारी !




   बदलते नहीं मौसम इंसानी फितरत से ,

   उदित होता है रवि तो इठलाती भोर है।

  अगम को सुगम पथ बनाता कोई और ,

  मंजिल पर जा पहुंचा बन्दा कोई और है।

  संघर्ष के संत्रास भोगते हैं क्रांतिवीर ,

  स्वतंत्रता का फल चख रहा कोई और है।

  जिनके  पूर्वजों ने की थीं वतन से गद्दारियाँ,

   उन्हीं के वंशजों द्वारा वतन को लूटने का दौर है।

    उपजाता अन्न  बनाता लहू को  पसीना कोई ,

    उदर  जिसके समा जाता वह शख्स कोई और है।

    चमकती है बिजली कहीं गरजता बादल कहीं ,

     गिरती है गाज जिस पर वो अभागा कोई और है।

     पिघलते हैं ग्लेसियर  मचलते हैं हिमाद्रि तुंग ,

    महिमामंडित होतीं जो नदियां वे कोई और हैं।

     क्रांतिपथ- अग्निपथ आबाद है  अविराम ,

    भले ही इस जमाने का मिजाज कुछ और है।


        श्रीराम तिवारी


   

   

  

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

इसलिए हम सच के बगलगीर हो गए ।



        जो थे फटे दूध  की  मानिंद वे  खीर हो गए,

        भ्रष्ट नेता अब लोकतंत्र की  नजीर हो गए।

        सरमायेदारों की  जिन -जिन पर रही  कृपादृष्टि  ,

        जीतकर चुनाव  वे  लुटेरे सब  वजीर हो गए।

         पूँजीवादी   नीतियों  का  ही  नतीजा  है दोस्त  ,

        कि   अमीर  अब और ज्यादा अमीर हो गए।

        शिक्षा -संचार क्रान्ति के मायने क्या  जबकि ,

         हम पहले से ज्यादा लकीर के फ़कीर हो गए।

         अब तो देवता भी  डरते होंगे  इनसे  शायद  ,

         धंधेबाज बलात्कारी जो  धर्मवीर हो गए।

         भगवान् भी हैंरान होगा  कि  क्यों  मेरे   वंदे,

         आजकल अधिकांस   दूध से  पनीर हो गए।

          सितमगरों के सामने झुकना मंजूर नहीं ,

         इसलिए  हम सच के बगलगीर हो गए ।

         
        श्रीराम तिवारी

      
  

मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

आज ११-१२-१३- है।



अंग्रेजी केलेण्डर में आज ११-१२-१३- है।

ठण्ड का मौसम और खुशनुमा सवेरा है। ।

काम पड़ने पर हर कोई किसी को याद करता है।

जिन्हे भूलना चाहता है उन्हें ज़रा ज्यादा  याद  करता  है।।

यदि  आप उन्हें याद नहीं  करते  जिनके दिल में आप का वसेरा है।

तो समझ लीजिये जनाब ! आपके जीवन में घनघोर अँधेरा है।।


         श्रीराम तिवारी



 

सोमवार, 9 दिसंबर 2013

'आप' से नहीं अब 'संघ परिवार' से सीखना होगा राहुल गाँधी को !




बहुत सम्भव  है कि उपरोक्त  शीर्षक को पढ़ने से ही कुछ वाग्मी- क्रांतिकारियों  का 'भेजा '  कुंठित  हो जाए। जो लोग संघ परिवार और उसके द्वारा पालित पोषित उसके  महाभ्रष्ट पूँजीवादी साम्प्रदयिक  राजनैतिक -   अनुषंगी संगठन -भाजपा या  नरेद्र मोदी, गडकरी , राजनाथ जैसे  कार्यकर्ताओं - नेताओं   के  वैयक्तिक  एवं  'वर्ग' चरित्र से वाकिफ हैं,  साथ ही  भारतीय धर्मनिरपेक्ष  लोकतंत्र में 'संघ परिवार' की अरुचि से वाकिफ हैं  ,उन्हें यह कभी पसंद नहीं आयेगा कि 'नमो' से  या  राजनाथ ,सुरेश सोनी ,जी  एम् वैद्य या  मोहन भागवत जैसे  निर्माता -निर्देशकों से कुछ सीखने  की कभी नौबत आये।
                                लेकिन ज्ञान किसी के पेटेंट का मोहताज नहीं यदि भगवान्  श्रीराम को उचित लगा तो  उन्होंने अपने अनुज लक्ष्मण को  भी मरणासन्न रावण के पास राजनीति  का ज्ञान अर्जित करने भेज दिया था । भले ही लक्ष्मण लाख नाक भों सिकोड़ते रहें।  चूँकि  वर्तमान दौर के पांच राज्य-विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की  ऐतिहासिक हार से व्यथित   राहुल गांधी ने 'आम आदमी पार्टी ' से सीखने की इच्छा जताई है इसलिए मैं बिन माँगे  फ़ोकट में ही उन्हें यह सलाह दे रहा हूँ कि सीखना ही है तो  संघ परिवार से सीखो !भाजपा से सीखो ! नरेद्र मोदी से सीखो!  खाना ही है तो हाथी  का खाओ! और ये नहीं कर सकते तो "इफ  यू  कांट  डिफीट  यू  ज्वाइन देम '' का पालन करते हुए राजनीति  के बियावान में एक  छायावादी कवि  की मानिंद प्रकृति दर्शन में खो  जाओ !कांग्रेस को सबसे ज्यादा खतरा आरएसएस  से है और हराया भी उसी ने है चूँकि वे हिंदुतव्वादी हैं अतएव महाभारत के भीष्म पर्व की कथा अनुसार भीष्म के पराजित नहीं हो पाने की दशा उन्ही से   पूंछने जा पहुंचे और पांडव बोले -हे पितामह आप मरोगे कैसे ?भीष्म ने अर्जुन को बताया कि बृहन्नला को रथ पर  अपने आगे  खड़ा करो  और मुझ पर बाणों की  वर्षा करो तो ही   मैं तुम्हारी जीत और मेरी मौत सुनिश्चित कर हूँ। मेरा ख्याल है कि यदि  राहुलगांधी भी  यदि संघ की शरण में चले  जांयें तो उनकी  बल्ले-बल्ले हो सकती है।
                 राजनीति का बड़ा मार्मिक दौर है  यह !क्या ही विलक्षण विडम्बना  है !लगभग  १२८ साल पुरानी कांग्रेस को ९ माह पुराने एक आधे -अधूरे क्षेत्रीय अर्धराजनैतिक  संगठन याने  'आप' से सीखने की नौबत आ गई है। निसंदेह  अरविन्द केजरीवाल कई मायनों में व्यक्तिश: राहुल गांधी से बेहतर हो सकते  हैं , उनके पास पढ़े-लिखे युवाओं और अनुभवी वकीलों की टीम है,  उनकी आम आदमी पार्टी को अप्रत्याशित , आकस्मिक और चमत्कारिक  सफलता भी मिली है। दिल्ली विधान सभा में  २८ सीटें  प्राप्त करना बाकई कमाल का काम है. वे शायद स्पष्ट बहुमत भी पा जाते लेकिन एन चुनाव के वक्त संघ के इशारे पर अन्ना नामक कन्फ्यूज्ड आदमी ने रायता ढोल दिया। 'आम आदमी पार्टी 'के चंदे को लेकर अन्ना हजारे यदि अरविन्द केजरीवाल की  पगड़ी नहीं उछालते  और आपके खिलाफ  ठीक चुनाव की पूर्व संध्या में स्टिंग आपरेशन का ड्रामा घटित नहीं होता तो दिल्ली में आज 'आप'की सरकार होती। ' आप'  की झाड़ू से कांग्रेस या भाजपा ही नहीं बल्कि अण्णा  हजारे को भी परेशानी रही है ।  केवल वैयक्तिक अहंकार से आक्रान्त  किरण बेदी भी नहीं चाहती की केजरीवाल या 'आप' सफल  हो पाएं। ये किरण वेदी और अन्ना हजारे  ही हैं जो अब  'आप 'को बिन मांगे  ज्ञान बाँट रहे हैं। अन्ना कहते हैं कि "अरविन्द तुम किसी से हाथ न मिलाना एक दिन तुम मुख्यमंत्री जरुर बनोगे " ये हैं अन्ना का सदाचार  ज्ञान !  इसी  ज्ञान  के  दम पर अन्ना देश से भ्रस्टाचार मिटाने चले थे। जो केवल मुख्यमंत्री की  कुर्सी से आगे नहीं देख पाते !किरण वेदी का सुझाव है "अरविन्द और 'आप' को भाजपा से हाथ मिला लेना चाहिए !क्योंकि अरविन्द केजरीवाल और भाजपा के सिद्धांत एक जैसे हैं " किरण जी जैसे जिसके  सलाहकार हों उसकी लुटिया डूबने में कोई एक नहीं।

      संस्कृत सुभाषितानि कहता है :-

      काक : कृष्ण : पिकः कृष्ण :  ,को भेद पिक काक् यो।

      वसंत समये शब्दै : ,काक : काक :पिकः पिकः।।

                       याने कौवा काला  होता है ,कोयल भी काली होती है ,लेकिन वसंत ऋतू के आगमन पर ही मालूम पड़ता है कि किसकी क्या  औकात  है ! अब अन्ना और किरण वेदी का सुर बदला रहा है तो उनकी निष्ठा नहीं बल्कि अपराधबोध है जो उन्हें अंदर से साल रहा है। यदि संघ परिवार , अन्ना , किरण वेदी और  स्वामी अग्निवेश ये सब मिलकर  केजरीवाल या 'आप' का विरोध  नहीं करते तो दिल्ली में आज झाड़ू वालों की  सरकार होती।  फिर भी  राहुल को  राजनीति  सिखाने की पात्रता यदि  'आप'  के नेताओं में है तो ये तो बहुत गौरव की बात है।  लेकिन सच चाहे कितना हे कड़वा क्यों न हो ! यह कहना ही  पडेगा कि  ये 'श्मशान वैराग्य की क्षणिक अभिव्यक्ति है ! इस  'आप' की सलामती तभी तक हैं जब  तक की  केजरीवाल सलामत [ईश्वर करे कि वे १०० साल जियें ] हैं. या जब -तक  उनका तथाकथित भ्रस्ष्टाचार  विरोधी एजेंडा कायम है ।  यदि आम आदमी पार्टी को ये सीटें नहीं मिलती तो वो अपने भ्रूण काल में ही दम तोड़ देती । लेकिन  कांग्रेस तो  अजर-अमर  है। उसे एक नहीं अनेकों बार हार और अनेकों बार जीत का मौका मिला है। कांग्रेस के लिए  यह चुनावी  हार जीत राजनीती में एक अवश्यम्भावी तत्व है.  कांग्रेस तो दुनिया का तेरहवां अजूबा है कि  उसकी अनेकों नाकामियों   , बदनामियों और चूकों के वावजूद जनता घूमफिरकर उसी को फिर -फिर सत्ता में बिठा देती है। इस बार संघ परिवार की बरसों की तपस्या रंग लायी  और उसने मध्यप्रदेश एवं राजस्थान में अपने संगठित  राजनैतिक अनुषंगी भाजपा को  भारी जीत दिलवा दी।याने कुछ सीखना ही  है तो संघ से सीखो समझे राहुल भिया !
                         चूँकि इन दोनों राज्यों में कांग्रेस को हराने  के लिए कांग्रेसी ही एक पाँव पर खड़े रहते  हैं तो इसमें  इसमें किसी से क्या सीखना ?राहुल यदि कांग्रेस हाई कमान हैं तो उन्हें हार का शोक नहीं बल्कि अनुशाशन का  'कोड़ा' चलाना चाहिए। जैसा कि अपने प्रत्याशी के हारने या  असहनीय भ्रष्टाचार पाये जाने पर 'संघ' अपने नेताओं पर अनुशाशन का  हंटर चलाता है। हालांकि जोगी कि ओछी हरकतों के वावजूद  छ्ग में तो कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़ा ही है ये बात  जुदा  है कि रमनसिंह हर हाल में 'किसी भी छ्त्तीशगढ़िया  कांग्रेसी से बेहतर ही  हैं। और उन्होंने यदि  १० सीट ज्यादा कबाड़ लीं तो इसमें कांग्रेस को इतना  मायुश भी नहीं होना चाहिए ।  हालाँकि इसमें भी संघ  की ही व्यूह रचना का कमाल है। अब लोग मोदी को श्रेय दें या खुद की पीठ ठोकें। सचाई तो यही है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अतीत में जो भी संघर्ष  किया है  उसके केंद्र में  हिंदुत्व्  नहीं बल्कि दिल्ली कि राज्य सत्ता उसका अभीष्ट है। इसीलिये वे  चुके हुए आडवाणी को किनारे कर नरेंद्र  मोदी को  भी एक मौका दे रहे हैं । जीत का अधिकांस श्रेय और सम्मान मोदी को देने का अभिप्राय भी यही है कि मोदी इसी तरह भीड़ जुटाते रहें ,वोट बेंक बढ़ाते  रहें ताकि आगामी लोक सभा चुनाव में दिल्ली के  लाल  किले पर भगवा झंडा फहराया जा सके।    यह बात दीगर है कि कांग्रेस तो  नरेंद्र  मोदी  के अश्वमेध का घोडा  नहीं रोक सकी किन्तु दिल्ली में  नवोदित 'आम आदमी पार्टी' ने मोदी का अश्व  अवश्य बाँध लिया है. 'झाड़ू'  ने  मोदी को रोक दिया है।  अब आगे -आगे देखते हैं क्या होता है !
           किसी की हार और किसी की जीत  यह जनता  का कोई मूर्खता पूर्ण फैसला नहीं है।  बल्कि  बेहतर  विकल्प का अभाव   भी कभी-कभी किसी की जीत का कारण  हुआ करता है ।  कई बार ऐंसा हुआ है कि  बेहतर विकल्प के सामने आते  ही कांग्रेस हार जाती है।  यह लोकतंत्र के स्वस्थ  लक्षण हैं। याने कांग्रेस की हार या जीत दोनों ही देश के हित  में  ही हुआ करते हैं. फिर ऐंसी पार्टी को खत्म करने की सोच क्या स्वस्थ  मानसिकता  का सबूत  है ? जब तक दुनिया में  आजादी शब्द है ,जब तक दुनिया  में भारत का नक्शा विदयमान है ,तब तक कांग्रेस के ज़िंदा रहने की  पूरी गारंटी है।  कांग्रेस में फीनिक्स पक्षी की तरह राख  से उठ खड़े होने की समर्थ है।  जिस कांग्रेस को  खुद महात्मा गांधी ,जयप्रकश नारायण,मोरारजी देशाई ,नीलम संजीव रेड्डी  और सुभाष चर्द्र बोस खत्म नहीं कर पाये  उसे 'आप'या संघ परिवार  क्या खाक  खत्म  कर पाएंगे ?  मोदी ,स्वामी रामदेव  ,  अन्ना -केजरीवाल या कोई और तीसमारखां कांग्रेस को   क्या खाक  ख़त्म  कर पाएंगे जो खुद  गांधी -नेहरू के घुटनों तक  नहीं  आते !
                  यदि राहुल का आत्म विश्वाश डगमगा रहा है तो वे  कांग्रेस को  प्रजातांत्रिक तौर -तरीकों से चलाकर देखें  और खुद भी आनुवंशिक एकाधिकार से मुक्त हो जाएँ !  देश  के युवा और प्रगतिकामी जनता उनके साथ अवश्य ही जुड़ना पसंद करेगी। यदि  यही सोच रही कि  गांधी परिवार के अलावा और किसी कांग्रेसी   की छवि   बेहतर न बन पाये तो कांग्रेस  की जीत के लिए कौन पागल होगा जो घर फूंककर गांधी परिवार को उजास देता रहेगा ? कांग्रेस में  कोई राहुल या  सोनिया  जी  से ताकतवर या लोकप्रिय न हो जाए ,जब तक ये सोच जारी रहेगी तब तक कांग्रेस को दिल्ली ,राजस्थान ,मध्यप्रदेश और छ्ग में ही नहीं बल्कि पूरे  देश में  इसी तरह हार का सामना करना होगा।  यदि आदिवासी वोट  के चक्कर में  भूरिया और जोगी जैसे नाकारा नेताओं को   या  पिछड़ों के चक्कर में गेहलोत  जैसे  पिद्दू नेताओं को   कांग्रेस के प्रांतीय क्षत्रप  बनाते रहोगे  तो 'शक्तिशाली संघ परिवार से जीत पाना कांग्रेस के लिए   कठिन  ही नहीं असम्भव  होता जाएगा  । वेशक   जिस दिन कांग्रेस के नेता  कदाचार ,भ्रष्टाचार छोड़कर अपनी हार से सबक सीखना शुरूं कर देंगे उस दिन उन्हें भारत की जनता सर-माथे  लेने  लगेगी । यदि कांग्रेस कुछ न करे केवल कोई  एक पाठ  ही नैतिकता का सीख ले जैसे कि "भ्रष्टाचार से लड़ने में समझोता नहीं करंगे"  तो भी उसे अपनी खोई हुई इज्जत वापिस मिल सकती है।
                        निसंदेह भाजपा ,मोदी या संघ परिवार को  आगामी लोक सभा चुनाव में सफलता  भी मिल सकती है। क्योंकि  राहुल गांधी तो अभी सीखने सिखाने  की ही बात कर रहे हैं।    यदि वे  यूपीए -प्रथम से ही कुछ सीख लेते तो इन्हें आज ये नहीं कहना पड़ता कि 'आप'से सीखेंगे !  केजरीवाल से सीखेंगे !  फिर भी राहुल या कांग्रेसी किसी से कुछ भी सीखें उससे  कांग्रेस की या देश की  सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। क्योंकि कांग्रेस ,भाजपा और केजरीवाल  को जो पैसा देते हैं वे पूंजीपति लोग जो चाहेंगे वही होगा।  विगत ६६ साल से कांग्रेसी  वही  करते आ रहे हैं जो पूँजीपतियों  ने चाहा।  वही अटल बिहारी जी सरकार याने  एनडीए के दौरान भाजपा और संघ परिवार ने किया  जो देशी-विदेशी पूँजीपतियों  ने चाहा। स्वर्गीय प्रमोद महाजन तो केवल तत्कालीन भ्रष्टाचार की  हांडी के एक चावल मात्र थे।
                            बंगारू लक्षमण ,जूदेव या येड्डी-रेड्डी के भाजपाई करप्शन को कांग्रेसी यदि जनता तक नहीं पहुंचा पाये तो इसमें राहुल और सोनिया गांधी की भी कहीं कोई भूल- चूक है। मध्यप्रदेश में शिवराज सरकार के८ सालाना   कार्यकाल  में जितना भ्रष्टाचार हुआ उतना कांग्रेसी नेता  विगत ६६ साल में भी  नहीं कर पाये । शिवराज के राज में -व्यापम के माध्यम से हजारों मुन्ना भाई डॉ बन चुके हैं । दिलीप बिलडकां,सुधीर शर्मा और सन्नी गौड़  जैसे सैकड़ों पूँजीपति 'संघम शरणम गच्छामि' हो चुके हैं।  सोचने की बात है कि जब कोई भी काम यहाँ मध्यप्रदेश में  बिना रिश्वत के नहीं होता तो क्या सरकार ईमानदार  कही जा  सकती है ? मध्यप्रदेश में कर्मचारी/अधिकारी फीलगुड में क्यों  हैं? अधिकांस पोस्टल बैलेट  भाजपा के पक्ष में कईं गए ? क्योंकि यहाँ का  मामूली चपरासी या पटवारी भी करोड़ पति हो चूका है.  फिर डॉ ,कलेक्टर ,कांटेक्टर इत्यादि जितने भी 'टर ' हैं सारे के सारे शिवराज भक्ति में लीन हैं  वे  भाजपा को क्यों नहीं  जितवाएंगे  ? इसके अलावा संघ की शखाओं में कर्मचारियों को हिंदुतव की शान पर  भी  तो  चढ़ाया  जाता है ! ये लोग हाई टेक भी हो चुके हैं जबकि कांग्रेस  अभी भी पुराने जमाने के चलन से चिपकी हुई है।  जो भ्रष्टाचार भाजपा के राज में चल रहा है  वो  चूँकि कांग्रेसी भी कभी यही सब करते थे ,शायद कुछ कम करते होंगे। लेकिन  उनको सत्ता सुख की आदत  तो अवश्य ही  हो गई है. इसलिए वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के हाथों  बिके  होने के आरोपों से घिरे  हैं । अब  ऐंसे कमलछाप कांग्रेसी क्या खाकर शिवराज और संघ परिवार से  मुकाबला करेंगे ।
                             अब राहुल जी किस से क्या सीखना चाहते हैं वो उनका अपना पर्सनल मेटर नहीं हो सकता। यदि देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस  के वे  उपाध्यक्ष हैं तो देश की जनता के प्रति उनकी जबाबदेही से भी  इंकार नहीं कर सकते । कांग्रेस हो या भाजपा हो या कोई और यदि वो पूँजीपति  वर्ग से किनारा नहीं करता तो वो किसी खास क्रांति का दावा इन कर सकता। वेशक आज 'आप' ने देश  में ईमानदारी की राजनीती का अभिनव प्रयास किया है । किन्तु  यदि पूंजीपतियों से पैसा लिया तो  मौका  आने पर   केजरीवाल और 'आप' भी वही करेंगे जो भाजपा या कांग्रेस करती है।  क्रांतिकारी परिवर्तन और सत्ता परिवर्तन  एक दूसरे  के पूरक तो हैं किन्तु  यह   आर्थिक -सामाजिक  संबंधों का सम्पर्क  सूत्र   हमेशा  व्यवस्था परिवर्तन के समय शोषण की ताकतों के  ही काम आता रहता   है । किसी भी बड़े व्यवस्था परिवर्तन या क्रांतिकारी परिवर्तन में  आर्थिक असमानता को समाप्त  करने वाले  उत्प्रेरकों की  भी बहुत जरुरत होती है। यह  उत्प्रेरक तत्व   कांग्रेस  , भाजपा या  'आप' के  पास  नहीं हैं ।   केवल वामपंथ और समाजवादियों के पास यह तत्व बहुतायत से पाया जाता है किन्तु उनकी समस्या ये है कि पूँजीवादी  प्रजातंत्र में वोट के माध्यम से किसी खास  क्रांति की दरकार को पर्याप्त जन-समर्थन फिलहाल  नहीं है।
                                 देश में तानाशाही न आ जाये ,फासिज्म न आ जाए इसलिए बहुदलीय व्यवस्था का पूंजीवादी ढांचा भी उतना बुरा नहीं है जितना कहा जा रहा है। इसीलिये तमाम देशभक्त बुद्धिजीवी चाहते हैं कि कांग्रेस भी रहे ,भाजपा भी रहे ,कम्युनिस्ट भी रहें समाजवादी भी रहें।  लेकिन  कोई किसी की रेखा मिटाने के बजाये अपनी  रेखा बढ़ाकर देश को सही सुशाशन प्रदान करे। अब यदि कुछ लोग समझते हैं कि कांग्रेस  तो खत्म होने वाली है  या राहुल -सोनियाजी के कारण कांग्रेस संकट में  है , तो वे गफलत में हैं।  राहुल गांधीं रहें न रहें [ईश्वर करे वे ११० साल जियें ] सोनिया जी रहें न रहें[ईश्वर उन्हें दीर्घायु दे ] , यूपीए रहे न रहे ,एनडीए रहे न रहे  , भाजपा रहे न रहे ,[वैसे भी भाजपा तो संघ का तीसरा या चौथा   संस्करण है ,उससे पहले हिन्दू महा सभा  ,  जनसंघ फिर जनता पार्टी और अब भाजपा]  मोदी जी  रहें न रहें [ ईश्वर करे कि  वे शतायु हों ] किन्तु कांग्रेस हमेशा रहेगी। क्योंकि कांग्रेस केवल किसी  एक खास दर्शन  या    विचारधारा या राजनैतिक पार्टी का नाम नहीं बल्कि वह विश्व की सभी विचारधाराओं  के  घालमेल  का     भारतीय पञ्चगव्य  है।  यदि राहुल गांधी को ये सब नहीं मालूम तो उसमें कांग्रेस  की गलती   नहीं  है ? यह उनकी- वैयक्तिक  कमजोरी है। यदि किसी   विधान सभा  चुनाव  की हार-जीत  से  राहुल को  सीखने -सिखाने की नौवत आ ही गई है तो  सोनिया जी ,राहुल या  कांग्रेस के  मौजूदा नेताओं को   भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास से  सबक सीखना चाहिए  !
                               राहुल को अपनी दादी  स्वर्गीय  इंदिरा गांधी से  सबक सीखना चाहिए ।  जो अंत तक देशभक्ति की सीख  देकर शहीद हो गईं।वे अपने पापा स्वर्गीय  राजीव गांधी  की शहादत से भी कुछ तो सीख ही सकते हैं । राहुल या कोई और जो भी  सीखने की तमन्ना रखते हैं  उन्हें  डॉ मनमोहन सिंह ,चिदम्बरम।,अरुण  शौरी , यशवंत सिन्हा ,मोंटेकसिंहअहलुवालिया  और अमेरिका परस्त लाबी  की राष्ट्रघाती आर्थिक उदारीकरण की  नीतियों से सबक अवश्य  सीखना चाहिए !केजरीवाल और 'आप ' जब स्वयं भी इस घातक परिणामों की विनाशकारी नीतियों का ककहरा भी नहीं जानते तो राहुल को उनसे क्या सीख मिल सकती है ?
                     आज की कांग्रेस भले ही स्वाधीनता संग्राम की अगुआई  करने वाली कांग्रेस नहीं रही हो ! किन्तु उसमें अक्स तो उन्ही का है  जिन्होंने  भारत राष्ट्र  और उसकी स्वाधीनता के लिए अपने प्राण  न्योछावर किये हैं !लाल-वाल-पाल ,सुभाष ,पटेल ,मौलाना आजाद ,डॉ राधाकृष्णन और महात्मा गांधी  और पंडित नेहरू को सुयश प्रदान करने वाली कांग्रेस को , इंदिरा जी के नेत्तव में पाकिस्तान  की गर्दन मरोड़कर बँगला देश बनवाने वाली कांग्रेस को ,देश में हरित-श्वेत और संचार क्रांति करवाने वाली कांग्रेस को ,दक्षिण अफ्रीकी गांधी नेल्सन मंडेला  का मार्गदर्शन करने वाली कांग्रेस को,  पाकिस्तान  के सरहदी गांधी सीमान्त गांधी अब्दुल गफ्फारखां  की कांग्रेस को ,बंग-बंधू शेख मुजीबुरहमान  को आजादी का सबक सिखाने वाली कांग्रेस को  किस  से सीखना चाहिए ?  क्या  सदानीरा नदी गंगा[भले ही वो  कितनी ही मैली क्यों न हो जाये ]  किसी बरसाती पोखर से सीखने जायेगी ?
                      भारतीय मीडिया  के एक महत्व् पूर्ण हिस्से  ने दिल्ली विधान सभा चुनाव परिणाम के संदर्भ में  अरविन्द केजरीवाल के  नेतत्व् में   'आम आदमी पार्टी'  की उपलब्धि को   याने कि  'आपको' मिले सर्वाधिक वोट प्रतिशत  को  या २८ विधान सभा सीटों की उपलब्धि  को  जिस शिद्दत से प्रोजैक्ट  किया है वो एक जन-आकांक्षी देशभक्तिपूर्ण कार्य कहा जा सकता  है। हालांकि चुनाव प्रक्रिया की खामियों ,नोटा  और बहुदलीय- व्यवस्था  में मत विभाजन  इत्यादि  कारणों से  'आपको 'सत्ता के लायक सीटें नहीं मिल पाईं  हैं। फिर भी  'आप'  की झाड़ू को सम्मान देकर  दिल्ली  की जनता ने न केवल  अपना रोष जाहिर किया अपितु स्थापित राजनैतिक दलों की दादागिरी को चुनौती देकर  सही काम किया है।   किन्तु  त्रिशंकु विधान सभा की बुनावट   पर यदि देश के राजनैतिक पंडित बदलाव का अनुमान लगा रहे हैं या भारतीय  राजनीती में किसी किस्म  का  सकारात्मक  फीलगुड का  अनुभव कर रहे हैं तो यह खाम ख्याली ही है। कांग्रेस -भाजपा  को सबक सिखाना  , उनके अहंकार को रोकना अच्छी बात है. किन्तु  इससे राष्ट्र निर्माण होगा या भ्रष्टाचार मिट जाएगा ये पूरा उटोपियाई भावात्मक और  अवैज्ञानिक  चिंतन है।
                                   प्रमुख विपक्षी दल  भाजपा से २-३ सीट कम होने के वावजूद  'आपको'  यदि मीडिया ने असली "राजनैतिक  हीरो'' बना दिया है तो यह  अरविन्द टीम याने 'आप'  के प्रति ही नहीं बल्कि भ्रष्ट व्यवस्था को खत्म करने के प्रति एक क्रांतिकारी अहम -बहुत न्यायसंगत  और तार्किक   प्रतिबद्धता  है। इसको संजोये रखना चाहिए। 'आप' का यह निर्णय की वे सत्ता के लिए हड़बड़ी में नहीं हैं भाजपा और कांग्रेस को नसीहत देता दिख रहा है। खबर है कि चुनाव के दौरान भाजपा के मैनेजरों ने 'आप' में गद्दार खरीदने की कोशिश कि थी लेकिन कोई खास सफलता नहीं मिली। अब तो 'संघ' ने भी 'कोड़ा' अर्थात ब्हीप जारी कर दिया  है कि दिल्ली में जोड़-तोड़ से सरकार बनाने की कोशिश न  करें  -भाजपा। इसीलिये अब सभी  'पहले आप-पहले आप 'का राग अलाप रहे हैं। लेकिन   अभी भी भाजपा की तमन्ना है कि 'आप'और 'वे' मिल बैठकर  सत्ता सुख उठायें  किन्तु 'आप' ने रायता ढोल दिया है. आभासित हो रहा ऐ कि डॉ  हर्षवर्धन  भी  कहीं   'सीएम इन वैटिंग' ही न  रह जाएँ। कांग्रेस  हारकर भी दिल्ली और छ्ग में मजे में है क्योंकि अब कोई टेंशन नहीं।  वरना अभी  तक तो सर फुटौवल शुरू हो गई होती।  फिलहाल  तो  कांग्रेस के लिए आत्म-मंथन और सबक सीखने के दिन आये हैं।
                राजनैतिक गगन में सभी तरह के  'दलों' में इजाफा हो यह हर देश भक्त की ख्वाइश हो सकती  है। किन्तु कांग्रेस को उठाकर कूड़ेदान में फेंक देनें की तमन्ना या कांग्रेस के नेताओं को 'आप' से सीखने की ख्वाइश नितांत अतार्किक और मूर्खतापूर्ण  है।  कांग्रेस की पराजय पर आंसू बहाने  वाला वैसे तो कोई नहीं है। क्योंकि  उसके समर्थकों  को तो इसी में तसल्ली बक्श हो जाना चाहिए कि कांग्रेस तो  देश पर प्रकारांतर से लगातार  ही  काबिज रही है. वो हारती नहीं है। उसे हरवाया जाता है। अभी तो  कांग्रेस  को हरवाने में डॉ मनमोहनसिंह और संघ का हाथ है। हालांकि कांग्रेस  आज भी केंद्र की सत्ता में है. यूपीए-२  के रूप में केंद्र में और  कांग्रेस  के रूप में   देश भर में -  १४ राज्यों में  आज भी इसकी   सरकारें  हैं।दिल्ली में लगातार १५ साल से  शीला दीक्षित के नेत्तव में  कांग्रेस  ही तो सत्ता में थी। अब कुछ दिन विपक्ष में रहंगे तो क्या घाट जाएगा ? छ्ग में तो  लगभग   बराबर की  ही  टक्कर दी  है ,मध्यप्रदेश और राजस्थान में 'संघ' ने ही  कांग्रेस को हराया है। अब राहुल को कुछ सीखना है तो 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ 'के शाखा में जाएँ या नागपुर स्थित 'संघ' मुख्यालय ऑशय जाएँ। मेरा  दावा  है कि  उन्हें वहाँ  बिना गुरु दक्षिणा दिए ही  ही बहुत कुछ सीखने  को मिल जायेगा।
                                          किसी विशाल राजनैतिक पार्टी का राजनैतिक फलक भी विराट ही होना  चाहिए ।  जनाधार की कमी यदि  केवल सत्ता प्राप्ति से मूल्यांकित होती  तो वाम मोर्चा या तीसरा मोर्चा तो  कब का खत्म हो गया होता !  वेशक  कांग्रेस के लिए  कोई भी हार पचा पाना बड़ा मुश्किल होता है। किन्तु अब आदत डालनी होगी।   प्रस्तुत  चार  राज्यों के विधान सभा चुनाव  बहुत महत्वपूर्ण थे. किन्तु   केंद्र की यूपीए सरकार के भ्रस्टाचार ,महँगाई बढ़ाने वाली नीतियां  ,ढुलमुल प्रशासन ,नकारातमक हटधर्मिता  अहंकार   और राज्यों में उनके  आभाहीन नेतत्व् के बरक्स  प्रतिपक्षी 'संघ परिवार' की निरंतर आक्रामक  जागरूकता  और मोदी का प्रोजेक्सन    कांग्रेस की   शर्मनाक हार  के प्रमुख कारण हैं ।  संघ परिवार का 'नमोगांन ' भी  कुछ नतीजों को प्रभावित करने में काम आया। जीत-हार  भी कई जगह कुछ मतों -कहीं सौ -दो सौ कहीं हजार पांच सौ से हुई है। ऐंसे में ये कहना कि कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया   सरासर अनैतिक और  अप्रजातन्त्रिक है। क्या जो वोट कांग्रेस को  मिले या हारने वाले को मिले वे जीतने वाले  की नजर में हेय ठहराना  लोकतान्त्रिक नजरिया कहा जा सकता है ?  कांग्रेस के लिए ये हार वरदान बन सकती है वशर्ते  इस हार से सबक लेकर  कांग्रेस  आगामी   लोक सभा चुनाव  में भाजपा और मोदी के पाखंड पूर्ण दुष्प्रचार का मुकाबला करे। कांग्रेस को 'संघ' से यही सीखना है। 'आप ' से ही कुछ  सीखने के लिए यदि राहुल का  मन कर  रहा है  तो  वहाँ केवल ईमानदारी की कोरी स्लेट दी जायेगी। लेकिन १२५ साल बाद 'आप'  का नामोनिशान नहीं मिलेगा और कांग्रेस तब भी आज से  भी बेहतरीन हालत में मिलेगी।
                              वेशक अभी तो भ्रष्टाचार से आक्रान्त  दिल्ली की जनता  ने कांग्रेस और भाजपा को ठुकराकर  आम आदमी पार्टी को  तीसरे विकल्प के रूप में मान्य किया है।  दिल्ली से एक नई  राजनीतिक  चेतना की शुरुआत हुई है। लेकिन कांग्रेस को याद रखना चाहिए कि उसे हराकर दिल्ली में आप ,मध्यप्रदेश राजस्थान  में भाजपा - स्प्ष्ट  बहुमत  पाकर  जीत की खुशियां   मना रही है. वहाँ उसे हराने  के लिए कोई चुनौती नहीं थी। मध्यप्रदेश की कांग्रेस स्थानीय क्षत्रपों के अहंकार की चपेट में लोहू-लुहान है। वे शिवराज सरकार द्वारा किये गए दुष्प्रचार का मुकाबला कर पाने में असमर्थ रहे। मध्यप्रदेश में जितना भ्रस्टाचार विगत १० सालों में हुआ है उतना अतीत के ५० सालों में भी  नहीं हुआ। व्यवसायिक परिक्षा मंडल याने व्यापम में १०००० करोड़ का घोटाला  हुआ ,मनरेगा और खनन माफिया की लूट तो  राजस्थान  की गेहलोत सरकार के तथाकथित घपलों से कहीं ज्यादा कुख्यात  थी।  लेकिन केंद्र सरकार की गलत नीतियों और विपक्ष के ढपोरशंखी दुष्प्रचार के सामने कांग्रेस टिक नहीं सकी।  केंद्र में आये दिन के घपलों और महँगाई  ने भाजपा की जीत आसान कर दी।अब राहुल को किस से क्या सीखना है वे जाने किन्तु यदि वे केंद्र सरकार में  वापिसी चाहते हैं तो  अपने आपको पहले तैयार करना होगा और फिर कांग्रेस को वहाँ -वहाँ  तक ले जाना होगा जहां -जंहाँ आरएसएस  ने अपनी पेठ बना रखी  है।  देश के  मुसलमानों ,दलितों ,आदिवासियों और ईसाइयों को वोट बेंक समझते रहोगे तो  यही अंजाम होगा जो अभी हुआ है। कांग्रेस  थोडा जाति -सम्प्रदाय से परे सभी के हित में  भी सोचना शुरू कर दें  तो शायद आगामी लोक सभा चुनाव तक स्थति वापिस  सुधर जाए !

                         श्रीराम तिवारी    

बुधवार, 4 दिसंबर 2013

और भी गम हैं जमाने में- यौन-विमर्श से जुदा !!!




      भारत में इन दिनों   प्रतिगामी सूचनाओं  और नकारात्मक घटनाओं के  उद्घोष  का सिलसिला अपने  चरम पर है।  मीडिया ,इंटरनेट ,फेसबूक ,ट्वीटर , ग्लोबल सर्विस मोबाइल से सम्बंधित तमाम अधुनातन  उच्च- दूर  संचार तकनीकी  वाले  संसधान केवल   देश में घटित -अघटित उन चुनिंदा स्त्री -देह  से आबद्ध  कहानियों पर केंद्रित हैं जो  'निर्बल'नारी और 'सबल' पुरुष  के अबैध  शारीरिक सम्बन्धों को उजागर कर  रहे  हैं। कुछ  बहादुर   युवतियाँ  जो  इस दौर के सामाजिक  मिजाज को भाँपकर  पुरुष- सत्ता के बर्बर और अमानुषिक  व्यवहार  का प्रतिकार करते हुए आगे आ रही हैं उन्हें भावी पीढ़ियाँ  भले ही  अपना आदर्श मान कर अनुशरण  करने लेगें, किन्तु  बहरहाल तो  इसमें कोई शक नहीं कि इस दौर के युवक -युवतियाँ -जो इस 'दुष्कर्म-विमर्श' से वाकिफ हैं  वे  नकारात्मक पेनीट्रेशन  के शिकार हो रहे हैं। किसी तथाकथित विक्टिम या यौन पीड़िता के पक्ष में और किसी खास तथाकथित रेपिस्ट के विरोध में नेताओं की वयान बाजी भी राजनैतिक प्रतिबद्धता के अनुरूप हो रही है। उनके लिए यह 'यौन -विमर्श' भी राजनैतिक  रूप  से फायदेमंद हो सकता है किन्तु देश और समाज का कुछ भी भला नहीं कर सकता !
            किन्तु  जब कोई  आम आदमी  या  नेता ,समाज सुधारक या इंटेलेक्चुअल्स शोषण अन्याय और  भ्रष्टाचार से लड़ने की बात करता है ,किसी क्रांतिकारी बदलाव की बात करता है तो उसकी आवाज को  अनसुना किया जाता   है।  मौजूदा दौर  के यौन-विमर्श को टी वी के घटिया  क्रमिक धारावाहिक कायर्क्रमों की तरह सभी माध्यमों में बहुलता से परोसा  जा रह है। जबकि  अन्याय  के प्रतिकार संबंधी विमर्श  नकारखाने  में तूती  की आवाज भी नहीं हैं। हालांकि यह सच है कि किसी व्यक्ति विशेष की  नितांत निजी सकरात्मक सक्रियता तब तक किसी अंजाम तक नहीं पहुँच सकती जब तक कि वह किसी प्रगतिशील जनतांत्रिक संघठन से सरोकार नहीं रख लेता। व्यक्तिवादी आदर्शवादी समाज सुधारक या गैर राजनैतिक व्यक्ति केवल अन्ना हजारे जैसा बन कर रह जाता  है ,जिसकी कोई नहीं सुनता बल्कि उसके बगलगीर भी उसे  केवल ऐंसा  विजूका समझते हैं जो कौवे भी नहीं भगा सकता।  वे न तो लोकपाल वनवा  सकते हैं और न ही वे समाज में हो रहे दुराचार -दुष्कर्म-यौन-शोषण जैसे मामले में देश के युवाओं का मार्ग दर्शन कर सकते हैं।
                     इतिहास साक्षी है कि  किसी भी  दौर की युवा पीढ़ी ने जब कभी विचारधारा को अपनाया है तो उसे कुछ न कुछ सफलता जरुर मिली है। जेपी आंदोलन जो की एक राजनैतिक विचारधारा पर आधरित था उससे जुड़े तत्कालीन  युवा आज भी  देश  की राजनीति  के केंद्र में हैं।इसी तरह वामपंथ और संघ परिवार से भी अपने-अपने दौर के  तत्कालीन युवा आज शीर्ष पर हैं क्योंकि वे किसी व्यक्ति नहीं बल्कि अपनी पसंदीदा विचाधारा के अनुयायी हैं। वेशक संघ परिवार साम्प्रदायिकता से आरोपित है  ,भाजपा पर भी कई आरोप हैं किन्तु उसके पास  प्रत्येक दौर में युवाओं की जो फौज आती गई उसमें  से कुछ त्याग-तपस्या और बलिदान के लिए मशहूर रहे हैं। कुशा भाऊ  ठाकरे ,दत्तोपंत ठेंगड़ी और दीन दयाल उपाध्याय को हम सिर्फ इसलिए नहीं भूल सकते कि वो संघ परिवार से जुड़े थे।  इसी तरह से  वाम पंथ के पास भी  नैतिक और चारित्रिक रूप से कसा हुआ  कैडर  है ,उन्हें  इस मौजूदा दौर में देश के युवाओं को और संचार माध्यमों को निर्देशित करना चाहिए कि देश की समस्या यौन-उत्पीड़न या ह्त्या बलात्कार ही नहीं बल्कि इस दौर की सम्पूर्ण व्यवस्था उपचार की अपेक्षा कर रही है। सुषमा  स्वराज ,सुब्रमन्यम  स्वामी जैसे नेता देश का मार्ग दर्शन नहीं कर सकते।  केवल अपने राजनैतिक फायदे के लिए आसाराम ,नारायण साईं ,तेजपाल ,अशोक गांगुली  जैसे लोगों पर अपनी -अपनी  वैचारिकी पर  समय और ऊर्जा बर्बाद नहीं करनी चाहिए।   
                             इस दौर की  युवा पीढ़ी का मानना है कि आधुनिकता और पुरातन 'यौन वरजनाएँ' दो विपरीत ध्रुव हैं. उनका ख्याल है कि साइंस और टेक्नालॉजी के उस दौर  में जब यत्र-तत्र-सर्वत्र 'प्रिंट-दृश्य-श्रव्य माध्यमों  के फलक पर अपने सम्पूर्ण यौवन के साथ  'रतिभाव' परिलक्षित हो रहा हो तब हर  नौजवान राम-लक्ष्मण ' की तरह सूर्पनखा को ठुकरा दे यह कैसे सम्भव है ? पतनशील अर्धपूँजीवादी -अर्ध सामंती समाज व्यवस्था में  'मर्यादाओं' की सलीब अपने कंधे पर ढोने  वाले लोग इस दौर में भी हैं. किन्तु  सबसे ज्यादा अपमानित और शोषित  भी  ऐंसे ही शख्स हो जाया करते हैं. वे  चाहते हैं कि  एक पत्नी व्रत का पालन  शिद्दत से किया जाए ,  क्योंकि इससे  'यौन -शोषण  के आरोप-प्रत्यारोप से काफी निजात मिल सकती है !वरना -

                    " अति संघर्षण कर जो कोई ! अनिल प्रगट चन्दन से होई !! "
 
 जब  लोकतांत्रिक आकांक्षाओं के नाम पर ,आर्थिक - सामाजिक -राजनैतिक -साम्प्रदायिक और पारिवारिक परिवेश में प्रतिष्पर्धा और  खुलेपन   की पूरी छूट  हो । एकाकीपन  की -ललक हो! और हर कोई 'ताकतवर' नैतिकता का  खूंटा उखाड़ने में  सक्षम हो तो 'यौन-रेप' गेंग -रेप'  की ही चर्चा क्यों ? कन्या भ्रूण ह्त्या से लेकर बृद्धा -बिधवा -माता -बहिन -बेटी और पत्नी के लिए गरिमामय संवेदनाएं कहाँ से प्रस्फुटित होंगी ?   हर युवा  विश्वामित्र और युवती मेनका हो जाने को बाध्य किये जा रहे हों तो समाज की दुर्दशा  क्यों नहीं हो सकती ? आधुनिकता में हमारी चाहत है कि   हम अमेरिका और यूरोप के बाप हो जाएँ! दूसरी और सामाजिक और नैतिकता का  हमारा  आगृह  कितना  श्रेष्टतम्  है कि   :-

      "एक नारि  व्रत रत सब झारी " के मन्त्र का जाप करें तो यह  कैसे सम्भव है ?

        यदि भारत के युवक-युवतियाँ  चाहें तो इस विमर्श को क्रांतिकारी रूप देकर कोई राह निकाल सकते हैं किन्तु हर घटना में केवल  'पुरुष' को दोषी ठहरकर जेल भिजवाने से  भारतीय या किसी भी  समाज में नारी -उत्पीड़न खत्म नहीं   हो सकता । तथाकथित  यौन -शोषण या व्यभिचार से भी 'स्त्री जाति ' को निजात मिल पाना तब तक सम्भव नहीं जब तक कि  समाज में असमानता ,घूसख़ोरी ,शोषण-दमन  , संस्कारहीनता, अनुशाशनहीनता और  पतनशील समाज व्यवस्था जैसे   अन्य विकार विद्द्यमान हैं ।आधुनिक पूँजीवादी  समाज ने जो अनैतिक  और ऐयाशीपूर्ण आचरण  अपनाया है उसे ही आदर्श मानकर धर्म-मज़हब ,राजनीति  और समाज के अन्य हिस्सों में अन्य  नर-नारियों द्वारा  आचरण किया जा रहा है।

    " "महाजनों ये गताः  स : पन्थाः " पुराने जमाने में इसका अर्थ यह था कि 'महापुरुष जिस रास्ते पर चले ,हमें उसी राह पर चलना है! इसका आजकल  ये अर्थ है कि:-भृष्ट - पूँजीपति ,ठेकेदार ,अफसर , डॉ, इंजीनियर , धर्म-गुरु  ,प्रवचनकार ,कथावाचक ,स्वामी ,  प्रोफ़ेसर ,संपादक, खिलाड़ी , आर्टिस्ट, फिल्मकार - साहित्यकार  जिस रास्ते  पर चल रहे हैं, वही आम लोगों के अनुशरण योग्य सुलभ मार्ग है। जब तक भारतीय युवक-युवतियां  इन वर्त्तमान  भृष्ट तत्वों से प्रेरणा  लेना नहीं छोड़ते, इन पाप के घड़ों को 'अमृतकुंभ' मानने से बाज नहीं आते ,जब तक युवा पीढ़ी एक स्पष्ट और उच्चतम नैतिक मूल्यों की ललक के साथ -  इस पूँजीवादी  समाज व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन  के लिए मैदान में नहीं उतरती  तब तक  नैतिक मूल्यों  के ह्रास  और हर किस्म के शोषण   का करुण  क्रंदन समाप्त  नहीं होगा।
                           स्त्री-पुरुष के बरक्स यौन सम्बन्धों में  सामन्तकालीन भारत की यौन वर्जनाओं को आदर्श नहीं कहा जा सकता । सामन्तकाल में नारी मात्र की जो भयावह दुर्गति हुआ करती थी उसके मुकाबले इस पूंजीवादी निजाम में नारी -उत्पीड़न  दशमांश भी नहीं है। तत्कालीन सामंती समाज में केवल शासक वर्ग ही स्त्री ,धरती और सम्पदा का स्वामी हुआ करता था। शेष जनता तो केवल राजा या शासक के अनुचर या दास मात्र थे।  साइंस और जन संघर्षों ने सामंतवाद का खत्मा किया तो समाज के धनिक वर्ग ने शासक का रूप धारण कर लिया और वे सामंतों की तरह नारी देह को 'भोग्य वस्तु ' समझकर चीर हरण में व्यस्त हैं। व्यक्तिशः वे फिल्मकार ,मंत्री ,अफसर ,न्यायधीश , धर्म-गुरु ,साधू-बाबा -स्वामी ,मीडिया परसनालिटी कुछ भी हो सकते हैं. किन्तु समेकित रूप से वे 'पूंजीवादी भृष्ट' समाज के 'टूल्स' मात्र हैं। इनके यौन शोषण विमर्श इतने ज्यादा चर्चित होने योग्य नहीं हैं कि शेष  सभी  मुद्दे पीछे छूट  जाएँ ! इन सम्पन्न लोगों के पास वैज्ञानिक अनुसंधान से सुसज्जित प्रचार माध्यमों का कोई तोड़ नहीं है अन्यथा सामंतयुग के क्रूर शासकों की तरह ये भी छुट्टा सांड ही घुमते रहते तब नारायण साइ हजारों लड़कियों की जिंदगी बर्बाद करता रहता और कोई उसका बाल बांका नहीं कर पाता।  चूँकि उन्नत  साइंस  -सूचना -संचार क्रान्ति तथा लोकशाही की सकरात्मक लहरों में वो ताकत है कि अब कोई आततायी ज्यादा दिन तक पाप-पंक में डूबा नहीं रह सकता। उसे या तो सुधरना होगा या जेल जाना होगा !  जन -आकांक्षाओं का ही दवाव है कि  ये सभी कुकर्मी वेनकाब हो रहे हैं और दुनिआ को लगता है कि भारत तो  बलात्कारियों का ही देश है ! दूसरा  पक्ष प्रस्तुत करने में हम फिसड्डी रहे कि देश में लोकशाही का जबरजस्त प्रभाव  भी एक नायाब उपलब्धि है जो बुराइयों से लड़ने का साधन उपलब्ध कराती  है। अब ये जनता की जिम्मेदारी है कि वो बुराइयों से लड़े !
                               स्त्री को पुरुष के बराबर अवसर ,सम्मान और हक़ प्रदान करने की मांग के दौर में , रात-दिन  एक साथ कोई वयस्क लड़की और लड़का  एक ही कम्पनी में काम करें भले ही वे विवाहित या अविवाहित हों तब क्या यह सम्भव है कि वे पौराणिक ' असिपत्र वृत ' का पालन करेंगे ?ऐंसी विषम स्थति में  किसी भी वयस्क लड़की या महिला के  साथ  उसके पार्टनर की सहमती के वावजूद किसी अवैध यौन  सम्बन्ध   के सार्वजनिक हो जाने  मात्र से सिर्फ पुरुष 'मित्र' को फाँसी  पर लटकवा दिया जाए क्या यह तार्किक और न्याय सांगत है। । की दशा में,  कानून के सामने घोषित  हुए तथाकथित घोषित  'यौन शोषण' याने  आपराधिक जामा पहनाकर  सारे देश को जेल बना  दिया जाए ।  यौन उत्पीड़न के इस विमर्श में  सिर्फ नारीवादी पक्ष  ही रखा जा रहा है और 'वास्तविक न्याय ' का सिद्धांत बहुत पीछे छूट गया है। सचाई सबको मालूम है फिर भी अधिकांस झूंठ का दामन थाम  कर 'हादसों' को भी सुनियोजित घटना निरूपित कर रहे हैं।
                                                  सभी जानते हैं कि अक्सर  ताली दोनों हाथों  से बजती है। फिर भी  संचार  माध्यमों के मार्फ़त अधिकांस व्यक्ति और समूह केवल ' पुरुष आरोपी'  पर ही  हाथ आजमाते रहते  हैं।  इतना ही नहीं  प्रमुख  राजनैतिक दल -कांग्रेस और भाजपा भी एक  दूसरे  के प्रमुख नेताओं के  शयनकक्षों के   नितांत   निजी  क्षणों  या सम्बन्धों की  या  बाथरूम -टायलेट की  दैनदिनी निगरानी  करने में व्यस्त  हैं।वे टेलीफोन  - मोबाइल   टैपिंग , आपत्तिजनक सीडी  का भंडाफोड़ करके देश और समाज का कैसा कल्याण कर रहे हैं ? ये तो वक्त  आने पर ही पता चलेगा किन्तु  इन ओछी हरकतों से भाजपा और कांग्रेस - दोनों ही दलों के बीच जो  भू-लुण्ठन , चरित्र लुंचन और  'यौन-आक्षेपण' युद्ध चल रहा है उसके केंद्र में  सत्ता की बड़ी भूंख एक बड़ा फेक्टर  है.
                                      सत्ता प्राप्ति के लिए वोट बैंक की बढ़त  चाहिये जो तभी  सम्भव है जब या तो कुछ अपने हिस्से का कुछ  'स्वार्थ' बलिदान किया जाए या फिर सामने वाले की रेखा को ही  कुछ छोटा कर दिया जाए।  चूँकि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दलों  के नेता और कार्यकर्ता  राष्ट्र-निर्माण   के बहाने अपने -अपने निजी उत्थान  की राजनीति  में विश्वाश रखते हैं इसलिए हितों के टकराव में राज्य सत्ता की प्राप्ति  का विमर्श प्रमुख है।  इन दोनों ही दलों   को ही वित्त पूँजी का लिहाज रखना पड़ता है क्योंकि इसी की गारंटी पर वे मैदान में हैं।  इसलिए वे लूट के बाज़ार में इंसानियत या जन  - कल्याण की  क्रांतिकारी बातें तो कर सकते हैं किन्तु वे समाजवाद याने -सामाजिक- आर्थिक -राजनीतिक  समानता के निमित्त कोई क्रांतिकारी नीति का अनुशरण करने की औकात नहीं रखते।मजबूरन एक-दूजे की बढ़त रोकने और अपनी पैठ बनाये रखने के लिए नारी-शोषण जैसे विमर्श को सार्वजनिक करते रहते हैं।
                  इसीलिये ये केवल अपने  राजनीतिक वर्चस्व के लिए    गुत्थम -गुत्था हो रहे हैं. जिन  मुद्दों   का  सम्बन्ध  देश के विकाश ,रोजगार  निर्माण ,जनसंख्या नियंत्रण,शिक्षा -स्वास्थ्य,खद्यान्न ,बृद्धावस्था पेंसन ,सामाजिक सुरक्षा   और पर -राष्ट्र नीति से है उन पर चर्चा करने और आंदोलन करने का ठेका सिर्फ देश के ट्रेड यूनियन आंदोलन या वाम मोर्चे ने रखा है।    लोगों की  आर्थिक बदहाली ,वेरोजगारी ,उग्रवाद और साम्प्रदायिक तनाव खत्म करने के प्रयत्नों से भाजपा और कांग्रेस को  कोई सरोकार नहीं।  वे तो नेताओं , अफसरों  ,मीडिया मुगलों और पूंजीपतियों की उद्दाम काम वासना के विमर्श में चटखारे ले रहे हैं। जिनसे देश और समाज को शर्मिन्दा होना पड़े   ऐंसे मुद्दों को  विभिन्न मंचों पर सत्ता लालायित  नेता स्वयं उठा रहे हैं या दीगर स्टेक होल्डर्स से उठवाकर अपनी राजनैतक बढ़त   स्थापित करने में  जुटे  हुए  हैं।  जनता याने आवाम कि जिम्मेदारी है किआगामी  लोक-सभा  के  आम चुनाव शीघ  ही होने जा रहे हैं ,अभी से  अपने हिस्से की  भूमिका के लिए सकारात्मक  तैयारी करे !


              श्रीराम तिवारी