मंगलवार, 30 नवंबर 2010

नक्सलवाद बनाम वामपंथ का भटकाव

४०-४५ साल पहले   नक्सलवाड़ी से शुरू हुआ   नक्सल संघर्ष आज  आधे भारत में फ़ैल चुका है ..छतीसगढ़ ,झारखंड ,आन्ध्र ,बिहार ,बंगाल ,महाराष्ट्र ,उडीसा उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश कि सरकारें इस पर अपने अपने ढंग से रणनीति निर्धारितकरती रही हैं . कई बार  प्रतिक्रांतिक कार्यवाही के लिए प्रशाश्कीय  संसाधनों  कि बदतर तस्वीर भी प्रचार माध्यमो से जनता को प्राप्त हुई है .दंतेवाडा ,लालगढ़  कि घटनाओं में महज इतना फर्क है कि दंतेवाडा में जहाँ नक्सलवादियों ने असावधान ७५  अर्ध सेनिक बालों को काट डाला तो लालगढ़ में ममता के किराये के पिठ्ठुओं ने नक्सल वादिओं मओवादिओं  के नाम पर आम गरीब जनता पर निर्मम प्रहार किये .
  दक्षिण पंथी वामपंथी और मध्मार्गी  मीडिया ने अपने अपने नजरिये से नक्सलवाद पर लिखा है .बहस मुसाहिबे ,सेमिनार हुए हैं .बाज मर्तवा एक आध ने नक्सलवादियों के ख़ूनी आतंक को क्रांति का शंखनाद भी बताया है और उसका खामियाजा  भी भुगता है .
         नई पीढी के शहरी युवाओं के दिमाग में - नेट के जरिये और संचार माध्यमों से नक्सलवाद  के बारे में दिग्भ्रमित अध् कचरी सूचनाएँ ठूंसी जा रही हैं .उधर अरुंधती ,स्वामी अग्निवेश और महाश्वेता देवी जैसे तथाकथित वुद्धीजिवी भी माध्यम मार्ग केअहिंसावादी  शांतिकामी वामपंथ को नीचा दिखने के लिए नक्सलवाद का उटपटांग समर्थन कर रहे हैं .
   वर्तमान दौर कि महाभ्रुष्ट पूंजीवादी व्यवस्था में एक तरफ समृद्धि के शिखर पर अम्बानियों कि भोग लिप्सा बढ़ती जा रही है दूसरी ओर आभाव और दीनता का सारे देश में बोलवाला है .इस कठिन स्थिति में आदिवासी अंचलों से ,वनांचलों में  हिसात्मक स्वर गूंजने लगे हैं .
  घोर आभाव में भी एन -कें -प्रकारेण अपनी आधी अधूरी शिक्षा से असहाय ,असफल ,दिशाहीन ,भटका हुआ नौजवान -नंगे भूंखे रहकर मर जाने कि अपेक्षा क्रन्तिकारी जिजीविषा कि खोज में उदहर पहुँच जाता है जहाँ से लौटना नामुमकिन हो जाता है .उसे जब क्रांति के स्ब्जवाग दिखाए जाते हैं तो वह घोर धर्म भीरु या अहिंसक होने के वावजूद वर्ग शत्रुओं कि कतारों पर टूट पड़ता है जिसने एक बार उस मांड का दाना पानी पी लिया वह उधर से वापिस नहीं लौट सकता .या तो कर्न्ती कि चाह में उत्सर्ग को प्राप्त होगा या अपने ही साथियों कि गोलियों का शिकार हो जायेगा .
         भारत में इस रास्ते से क्रांती कभी  नहीं आ सकती ...महान जनवादी साहित्यकार हरिशंकर परसाई ने भारत में वामपंथ के तीन भेद माने हैं .इसका बड़ा ही रोचक व्यंगात्मक आलेख भी उन्होंने लिखा था .किसी मित्र ने उनसे जब साम्यवाद के भारतीय तीनो भेदों का खुलासा चाहा तो उन्होंने चाय कि केतली का उदाहरन दिया .उनका मानना था कि केतली कि गरम -गरम चाय जब सीधे केतली से ही हलक में उतार ली जाये तो इसे नक्सलवाद कहते हैं .जब चाय को टोंटी से गर्म -गर्म हलक में उतारी जाए तो माकपा कहते हैं ...और चाय को प्लेट में डालकर बहस में खो जाएँ चाय ठंडी हो जाये और उसमें मख्खी भी गिर जाये  फिर पी जाये तो सी  पी आई कहते हैं ..

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