सोमवार, 1 नवंबर 2010

भारत और इंडिया मे दूरी बढ़ती जा रही है-कब वापिस आओगे मास्टर बाबूलाल...

बात उन दिनों की है जब हम मिडिल  स्कूल में पड़ा करते थे तब भारत और इंडिया का एक ही मतलब हुआ करता था .यही सीखा था हमने डॉ बाबूलाल से ...उस जमाने में दुनिया भर  की ख़बरें बाबूलाल मास्टर  के द्वारा हमें ताजातरीन मिल जाया करतीं थींचीन पकिस्तान अमेरिका और सोवियत संघ के बारे में ,कश्मीर के बारे में ,जनसंघ ,कांग्रेस और साम्यवादियों के बारे में .मास्टर बाबूलाल  को उस ठेठ देहात में इतना ज्ञान था कि आज के विनोद दुआ और योगेश यादव भी शर्मा जाएँ .वाल तेर . गेरिबल्दी से लेकर  सुमित्रानंदन पन्त पर रास्ते में खड़े खड़े अच्छी खासी गोष्ठी हो जाया करते थी वन  मेन आर्मी जैसे थे हमारे मास्टर बाबूलाल ..वे जाति के कहार या रेकुवार थे किन्तु पता  नहीं कब -किसने -कहाँ प्रभावित किया सो -केश ,कंघा  ,कड़ा,कच्छ और कटार    धारण कर पता नहीं कहाँ-कहाँ क्या -क्या करते फिरते थे  अलवत्ता वे विना डिग्री के इलाकाई एलोपेथिक डाक्टर हुआ करते थे .उन्होंने तीन शादियाँ की थीं .पहली खांटी देहातिन होने से कुछ दुराव हुआ सो दूसरी थोड़ी मोर्डन याने छुत्कौवल  साड़ी पहिनने वाली सुन्दरी ले आये .इसके अलावा एक और चीज थी जो उन्हें इस धरती पर सबसे अधिक प्रिय थी -वो थी उनकी १२ बोर की बन्दूक -जिसे वे मजाक में तीसरी बेगम कहा करते थे .उनका व्यक्तित्व बब्बर शेर जैसा था .आसपास के १०० कोस के दायरे में वे एकमात्र चिकित्सक ,एकमात्र सरदार .एकमात्र भगोड़े मास्टर थे .
            भगोड़े इसलिए की सरकारी टीचेरशिप से उन्हें वर्खास्त किया गया था .यह किसी को नहीं मालूम की क्यों ? उनके लड़के भी उनसे ज्यादा लम्बे तड़ंगे और महा पातकी निकले .एक सरदार बनकर डाक्टरी करते करते कई बार जेल हो आया .एक ने कई महिलाओं का जीवन बर्बाद किया ,एक ने मानसिक संत्राश से प्रेरित होकर आत्महत्या कर ली .एक दो  ने झोला छाप डाक्टरी या कस्बाई पत्रकार बनकर इलाके में अपने बाप का नाम रोशन किया .इस प्रकार डाक्टर बाबूलाल की  लगभग आधा दर्जन ओलादें होते हुए भी वे बुढ़ापे में दर- दर की ठोकरें खाने को अभिशप्त थे -सो वे स्वयम डाक्टर होते हुए भी इन महा ब्याधियों के शिकार होकर परमात्मा को प्यारे  हो गए ..
   डाक्टर बाबूलाल  का सामान्य ज्ञान उत्क्रष्ट था भले ही उनका रहन सहन निकृष्ट था . गाँव में उस समय  दूरदर्शन ,अखवार  का नामोनिशान नहीं था सिर्फ दो रेडियो थे एक -सिघई गुलाबचंद {सरपंच एवं जैन मंदिर त्र्श्ती ]
दूसरा डॉ बाबूलाल जी के यहाँ .में जिस रास्ते से स्कूल जाता था उस रास्ते पर इन दोनों के मकान पड़ते थे .अतः जब हम तीन -चार भाई एक टोली के रूप में घर से निकलते तो पहले डॉ बाबूलाल जी को भाई साब जैरामजी करते और बदले में वे एक दो ताज़ा समाचार हम लोगों की और हवा में यों उछालते मानों मंदिर में प्रसाद बाँट रहे हों .इस तरह कक्षा  ५ वीं से लेकर ८ वीं तक के सफ़र में डॉ बाबूलाल ने हम सभी को तत्कालीन सामान्य ज्ञान में इतना आप्लावित कर दिया कि जो ६ वीं में पढता था वो ८ वीं से ज्यादा जानने लगता था .स्कूल का अनुशाशन काबिले तारीफ था .यह अलहदा बात है कि डॉ बाबूलाल सरकारी शिक्षक नहीं थे किन्तु जब कभी उन्हें अपने चिकित्सीय पेशे से फुर्सत मिलती वे गाँव  के अपढ़ लोगों को भी शिक्षित करते .भारत में  आजादी के बाद नेहरु युग में जो भी घटा वो सब हमें आज भी अक्षरश ;याद हैक्योंकि यह उसी दौर का आख्यान है .जो स्कूली ज्ञानहुआ करता  था वो तो डंडे के डर पर हमें याद करना ही होता था किन्तु साहित्य क्या है ,कला क्या है राजनीत क्या है ये भी हमें जानना चाहिए .जब हम पूंछते थे कि  क्यों ?तो जबाब होता था कि इसलिए कि यदि कभी मेरी तरह एक जगह से बर्खास्त कर दिए जाओ तो दूसरी जगहआसानी से फिट हो जाओ ..आज के शिक्षक गाँव में रहना पसंद नहीं करते ,स्कूलों में गाय ढ़ोरों जैसे स्थिति है ,छात्र और शिक्षक एक दुसरे से तिकड़में भिडाकर टूशन और पास होने कि गारंटी में लिप्त हैं यही वजह है कि आज गाँव का छात्र बेहद पिछड़ गया है जबकि शहरों में बुर्जुआ वर्ग के पास भ्रष्टाचार से प्राप्त आकूत आमदनी है अतह जबकि आज के शिक्षकों  को मोटी पगार और बेहतर भत्ते के अलावा पेंशन इत्यादि कि गारंटी है किन्तु वहां न तो पुस्तकालय हैं न प्रयोगशालाएं हैं और न ही आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान के संसाधन . यह देश कि ७० प्रतिशत ग्रामीण जनता के प्रति वर्तमान दौर कि पतनशील पूंजीवादी छल्नात्म्क व्यवस्था  का ही दोष है कि सरकारी -गैरसरकारी क्षेत्रों में ग्रामीण क्षेत्रों का और खास तौर से हिदी भाषी भारत में भय भूंख और भृष्टाचार से पीड़ित युवाओं का प्रतिशत नगण्य है .
जिन गाँवों  में आजादी के ६० साल बाद भी पीने योग्य पानी उपलब्ध नहीं .एक प्रशिक्षित डॉ नहीं, पोलिस नहीं ,डाकखाना नहीं, मोटर  या ट्रेन का साधन नहीं ,वहां का युवा छात्र या नौजवान ,यदि   किसी तरह कोई योग्यता परीक्षा पास कर भी ले या कोई इंटरव्यू में निकल भी जाए तो वह  या तो गाँव में तारीख पर पत्र नहीं मिलपाने से या शहर पहुँचने कि असुविधा के कारण इंडिया के साथ नहीं चाल पा  रहा है अब तो गाँवों में चौतरफा गृह युद्ध छिड़े हुए हैं ..जात -पांत में तो पहले भी ग्रामीण समाज अन्दर ही अन्दर सुलग रहा था अब तो घर घर में राजनीती .साम्प्रदायिकता और जर -जोरू -जमीन के झगडे बेतहाशा बढ़ते जा रहे हैं .अधिकांश राजनेतिक दलों ने गाँव कि गरीव जनता को केवल वोट बैंक समझ कर भू स्वामियों और वैश्वीकरण के लुटेरे हाथों में पिसने के लिए मजबूर कर दिया है ...गाँव के किसानो .खेतिहर मजदूरों और कारीगरों को एकजुट कर बंगाल और केरल तथा त्रिपुरा कि वाम पंथी सरकारों ने पूरे भारत को नई राह दिखाई है .वाम शाशित तीनों राज्यों में भले ही और कोई शिकायत हो किन्तु साक्षरता और कन्या संरक्षण में इनका काम काबिले तारीफ है .

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