गुरुवार, 29 अगस्त 2024

कल्कि अवतार होने का इन्तजार है।

  अपढ़ -अज्ञानी लोग 'योगेश्वर' भगवान श्रीकृष्ण को भूलकर, जिस 'माखनचोर' मटकी फोड़,गोपीजन चितचोर के पीछे पड़े हैं, जिसके पास गोपीजनों की बिरह व्यथा के अलावा और क्या शेष बचा है?

हिन्दू पौराणिक मिथ के अनुसार भगवान् विष्णु के दस अवतार माने गए हैं। कहीं-कहीं चौबीस अवतार भी माने गए हैं। खैर जो भी हो अधिकांस हिन्दू मानते हैं कि केवल देवकी नंदन योगेश्वर श्रीकृष्ण का अवतार ही भगवान् विष्णु का पूर्ण अवतार है। हिन्दू मिथक अनुसार श्रीकृष्ण से पहले विष्णु का 'मर्यादा पुरषोत्तम' श्रीराम अवतार हुआ और वे केवल मर्यादा के लिए जाने गए। उनसे भी पहले परशुराम का अवतार हुआ,वे क्रोध और क्षत्रिय -हिंसा के लिए जाने गए। उनसे भी पहले 'वामन' अवतार हुआ जो न केवल बौने थे अपितु दैत्यराज प्रह्लाद पुत्र राजा - बलि को छल से ठगने के लिए जाने गए।
उनसे भी पहले 'नृसिंह'अवतार हुआ ,जो आधे सिंह और आधे मानव रूप के थे अर्थात पूरे मनुष्य भी नहीं थे। उससे भी पहले 'वाराह' अवतार हुआ जो अब केवल एक निकृष्ट पशु ही माना जाता है। उससे भी पहले कच्छप अवतार हुआ ,जो समुद्र मंथन के काम आया। उससे भी पहले मत्स्य अवतार हुआ जो इस वर्तमान 'मन्वन्तर' का आधार माना गया है।
डार्विन के वैज्ञानिक विकासवादी सिद्धांत की तरह यह श्री हरि विष्णु का 'सगुण अवतारवाद' सिद्धांत भी पूर्णत: वैज्ञानिक है।
आमतौर पर विष्णुजी के ९ वें अवतार 'गौतमबुद्ध' माने गए हैं,अभी दसवाँ कल्कि अवतार होने का इन्तजार है। लेकिन हिन्दू मिथ भाष्यकारों और पुराणकारों ने श्री विष्णु के श्रीकृष्ण अवतार का जो भव्य महिमा मंडन किया है वह न केवल भारतीय मिथ -अध्यात्म परम्परा में बेजोड़ है,बल्कि विश्व के तमाम महाकाव्यात्मक संसार में भी श्रीकृष्ण का चरित्र ही सर्वाधिक रसपूर्ण और कलात्मक है।
श्रीमद्भागवद पुराण में वर्णित श्रीकृष्ण के गोलोकधाम गमन का- अंतिम प्रयाण वाला दृश्य पूर्णतः मानवीय है। इस घटना में कहीं कोई दैवीय चमत्कार नहीं अपितु कर्मफल ही झलकता है। अपढ़ -अज्ञानी लोग कृष्ण पूजा के नाम पर वह सब ढोंग करते रहते हैं जो कृष्ण के चरित्र से मेल नहीं खाते।
कालांतर में प्रेमाश्रयी शाखा के बहाने दक्षिण के मंदिरों में देवदासी दुर्दशा और उत्तर भारत में श्रीकृष्ण (रासलीला) के बहाने हर दौर में श्रीमान आसाराम रामरहीम जैसे महाकमीने महाधूर्त अपने धतकर्मों को जस्टीफाई करने के लिए प्रभु श्री कृष्ण की आड़ लेकर कृष्णलीला या रासलीला को बदनाम करते रहे हैं। श्रीकृष्ण ने तो इन्द्रिय सुखोंपर काबू करने और समस्त संसार को निष्काम कर्म का सन्देश दिया है।
आपदाग्रस्त द्वारका में जब यादव कुल आपस में लड़-मर रहा था । तब दोहद- झाबुआ के बीच के जंगलों में श्रीकृष्ण किसी मामूली भील के तीर सेदं में घायल होकर निर्जन वन में एक पेड़ के नीचे कराहते हुए पड़े थे । इस अवसर पर न केवल काफिले की महिलाओं को भीलों ने लूटा बल्कि गांडीवधारी अर्जुन का धनुष भी भीलों ने छीन लिया । इस घटना का वर्णन किसी लोक कवि ने कुछ इस तरह किया है :- जो अब कहावत बन गया है ।
''पुरुष बली नहिं होत है ,समय होत बलवान।
भिल्लन लूटी गोपिका ,वही अर्जुन वही बाण।।''
अर्थ :- कोई भी व्यक्ति उतना महान या बलवान नहीं है ,जितना कि 'समय' बलवान होता है। याने वक्त सदा किसी का एक सा नहीं रहता और मनुष्य वक्त के कारण ही कमजोर या ताकतवर हुआ करता है। कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध में, जिस गांडीव से अर्जुन ने हजारों शूरवीरों को मारा ,जिस गांडीव पर पांडवों को बड़ा अभिमान था ,वह गांडीव भी श्रीकृष्णकी रक्षा नहीं कर सका। दो-चार भीलोंके सामने अर्जुनका वह गांडीव भी बेकार साबित हुआ। परिणामस्वरूप 'भगवान' श्रीकृष्ण घायल होकर 'गौलोकधाम' जाने का इंतजार करने लगे।
पराजित-हताश अर्जुन और द्वारका से प्राण बचाकर भाग रहे यादवों के स्वजनों- गोपिकाओं को भूंख प्यास से तड़पते हुए मर जाने का वर्णन मिथ- इतिहास जैसा चित्रण नहीं लगता। यह कथा वृतांत कहीं से भी चमत्कारिक नहीं लगता। वैशम्पायन वेदव्यास ने श्रीमद्भागवद में जो मिथकीय वर्णन प्रस्तुत किया है ,वह आँखों देखा हाल जैसा लगता है। इस घटना को 'मिथ' नहीं बल्कि इतिहास मान लेने का मन करता है। कालांतर में चमत्कारवाद से पीड़ित,अंधश्रद्धा में आकण्ठ डूबा हिन्दू समाज इस घटना की चर्चा ही नहीं करता। क्योंकि इसमें ईश्वरीय अथवा मानवेतर चमत्कार नहीं है। यदि विष्णुअवतार- योगेश्वर श्रीकृष्ण एक भील के हाथों घायल होकर मूर्छित पड़े हैं तो उस घटना को अलौकिक कैसे कहा जा सकता है ? जो मानवेतर नहीं वह कैसा अवतार ? किसका अवतार ? किन्तु अधिकांस सनातन धर्म अनुयाई जन द्वारकाधीश योगेश्वर श्रीकृष्ण को छोड़कर , लोग पार्थसारथी - योगेश्वर श्रीकृष्ण को भूलकर माखनचोर के पीछे पड़े हैं। लोग श्रीकृष्ण के 'विश्वरूप'को भी पसन्द नहीं करते उन्हें तो 'राधा माधव' वाली छवि ही भाती है । रीतिकालीन कवि बिहारी ने कृष्ण विषयक इस हिन्दू आस्था का वर्णन इस तरह किया है :-
मोरी भव बाधा हरो ,राधा नागरी सोय।
जा तनकी झाईं परत ,स्याम हरित दुति होय।।
या
'' मोर मुकुट कटि काछनी ,कर मुरली उर माल।
अस बानिक मो मन बसी ,सदा बिहारीलाल।। ''
अर्थात :- जिसके सिर पर मोर मुकुट है ,जो कमर में कमरबंध बांधे हुए हैं ,जिनके हाथों में मुरली है और वक्षस्थल पर वैजन्तीमाला है , कृष्ण की वही छवि मेरे [बिहारी ]मन में सदा निवास करे !
कविवर रसखान ने भी इसी छवि को बार-बार याद किया है।
'या लकुटी और कामरिया पर राज तिहुँ पुर को तज डारों '
या
'या छवि को रसखान बिलोकति बारत कामकला निधि कोटि '
संस्कृत के भागवतपुराण -महाभारत, हिंदी के प्रेमसागर -सुखसागर और गीत गोविंदं तथा कृष्ण भक्ति शाखा के अष्टछाप -कवियों द्वारा वर्णित कृष्ण लीलाओं के विस्तार अनुसार 'श्रीकृष्ण' इस भारत भूमि पर-लौकिक संसार में श्री हरी विष्णु के सोलह कलाओं के सम्पूर्ण अवतार थे। वे न केवल साहित्य ,संगीत ,कला ,नृत्य और योग विशारद थे। अपितु वे इस भारत भूमि पर पहले क्रांतिकारी थे जिन्होंने इंद्र इत्यादि वैदिक देवताओं के विरुद्ध जनवादी शंखनाद किया था। खेद की बात है कि श्रीकृष्ण के इस महान क्रांतिकारी व्यक्तित्व को भूलकर लोग उनकी बाल छवि वाली मोहनी मूरत पर ही फ़िदा होते रहे । श्रीकृष्ण ने 'गोवर्धन पर्वत क्यों उठाया ? यमुना नदी तथा गायों की पूजा के प्रयोजन क्या था ? इन सवालों का एक ही उत्तर है कि श्रीकृष्ण प्रकृति और मानव समेत तमाम प्रणियों के शुभ चिंतक थे। क्रांतिकारी श्रीकृष्ण ने कर्म से ,ज्ञान से और बचन से मनुष्यमात्र को नई दिशा दी। उन्होंने विश्व को कर्म योग और भौतिकवाद से जोड़ा। शायद इसीलिये उनका चरित्र विश्व के तमाम महानायकों में सर्वश्रेष्ठ है। यदि वे कोई देव अवतार नहीं भी थे तो भी वे इतने महान थे कि उनके मानवीय अवदान और चरित्र की महत्ता किसी ईश्वर से कमतर नहीं हो सकती !
पं.श्रीराम तिवारी
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