शनिवार, 3 दिसंबर 2016

क्या मोदी जी 'संघ' का एजेंडा छोड़ चुके हैं?

भारतीय जनतंत्रात्मक राजनीति के सर्वाधिक असरदार ' फेक्टर' कौन-कौनसे हैं ? इस सवाल का जबाब यदि ईमानदारी और विवेक से दिया जाए,तो भारत की अधिकांस मौजूदा चुनौतियाँ आसानी से निपटाईं जा सकतीं हैं। वैसे भारत की जनतंत्रात्मक राजनीति का सबसे प्रमुख असरदार 'फेक्टर' तो आम चुनाव ही है। किन्तु चुनाव को   प्रभावित करने वाले 'फेक्टर' परोक्ष रूप से देश की राजनीति और समग्र सिस्टम पर अपना व्यापक असर रखते हैं।जातीयता,साम्प्रदायिकता ,सामाजिक-भेदभाव,अशिक्षा,अद्दतन व्यवसाय,सरमायेदारी ,उपजाऊ जमीनों पर कुछ खास घरानों का एकाधिकार एवम जल-जंगल जमीन पर उनका आधिपत्य ये भारतीय राजनीति के प्रदूषक तत्व हैं। पूँजीवादी -अर्धसामंती निरंकुश सत्ता के साथ धर्म-मजहब की गलबहिंयाँ और समानान्तर मुद्रा याने अवैध धन याने कालाधन तो लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलने वाले खतरनाक फेक्टर हैं। यदि पीएम मोदी लोकतंत्र के इन खतरनाक कारकों पर ईमानदारी से हमला करते हैं,तो उन्हें 'संघ' की विचारधारा को तिलांजलि देनी होगी। क्योंकि 'संघ' के एजेंडे में लोकतंत्र ,धर्मनिरेपेक्षता और समाजवाद के लिए कोई सम्मान ही नहीं है। कम से कम 'बंच आफ थाट्स' में तो लोकतंत्र,समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे संवैधानिक शब्द त्याज्य ही हैं।

जबसे नरेंद्र मोदीजी के नेतत्व में एनडीए सरकार सत्ता में आई है,तभी से वे अपने पूर्व घोषित 'संघी'' एजेंडे से पृथक जनता के बीच एक नया एजेंडा लेकर आगे बढ़ रह हैं।यह एजेंडा -स्टार्टअप इण्डिया,डिजिटल इण्डिया , स्वच्छ भारत ,समृद्ध भारत और अंतर्राष्टीय मंच पर सशक्त भारत बनाने का पुरजोर दावा करता है। हरेक चुनाव में, हरेक क्षेत्र विशेष की जनता के लिए ,वहाँ की स्थानीय समस्याओं पर मोदीजी कांग्रेसीसरकारों के कुराज का व्यंगात्मक लहजे में ध्यानाकर्षण करते रहते हैं। लेकिन उनकी जुबान पर 'संघ' का अजेंडा  नहीं है। अब कोई शक नहीं रह गया कि मोदी समर्थक या संघ समर्थक भले ही अपने सड़े -गले पुराने एजेंडे से चिपके रहें ,किंन्तु  मोदीजी 'संघ' का एजेंडा बाकई छोड़ चुके हैं। बिहार चुनावों में मोदी जी नहीं हारे थे बल्कि 'संघ' हारा था। यदि ईमानदारी से उस चुनाव का विश्लेषण किया जाए तो बिहार में लोकतंत्र हारा था, जातिवाद और अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता की जीत हुई थी।यदि संघवालों ने मोदीजी की राह में बिहार की तरह ही  यूपी में भी काँटे बिछाए तो आगरा,मथुरा ,मुरादाबाद जैसी कितनी ही परिवर्तन रैलियां सफल हो जाएँ किन्तु  जातिवाद और साम्प्रदायिक गठजोड़ को हराना नामुमकिन है। मोदी जी भी न भूलें कि पूरा भारत बनारस नहीं है।


यह सभी को याद होगा कि मोदी जी ने जब बिहार चुनावों में विजय की ओर बढ़ रहे थे तभी मंझधार में श्री मोहन राव जी भागवत ने 'संघ' का एजेंडा पेश क्र दिया था। जबकि मोदी जी संघ के उलट स्टेण्ड ले रहे थे । में कहीं भी साम्प्रदायिता नहीं है ,कहीं भी जातीयता नहीं है ,कहीं भी कूपमण्डूकता नहीं है,किन्तु उनकी कथनी में लोकतंत्रात्मता और वास्तविकता का अभाव है।


 यह सर्विदित है कि विगत पखवाड़े  गोवा में मोदीजी भाषण देते -देते रो दिए थे। उन्होंने लगभग रोते-रोते ही देश की आवाम से कहा था ''जिन्होंने ७० साल केवल कालाधन कमाया  है ,वे मेरे खिलाफ चिल्ला रहे हैं ,जिन्होंने देश को ७० साल लाइन में लगाए रखा वे अब नोटबंदी के लिए लाइन में लगने पर इतराज उठा रहे हैं। आप मुझे सिर्फ ५० दिन का वक्त दीजिये मैं देशको भृष्टाचार मुक्त करूँगा, अच्छे-दिनों की सौगात दूंगा !'' मोदीजी से यह सवाल किया जाना चाहिए कि आपने भावुक शब्दों की खूब झड़ी लगाई , किन्तु उन दिवंगतों की रंचमात्र चर्चा नहीं की जो लाइन  में लगे-लगे मर गए या अस्पताल में 'नोटों' के अभाव में भगवान् को अथवा अल्लाह को प्यारे हो गए !

यूपी के मथुरा,आगरा और मुरादाबाद में भाजपा की 'परिवर्तन रैली' में मोदीजी का मजमा रंग ला रहा है। उनके अगम्भीर और नुक्कड़ किस्म के भाषणों पर उपश्थित जनसमूह को गदगद होते देख लगता है की यूपी में 'मोदी लहर' है। ठीक इसी  तरह की 'मोदी लहर ' बिहार विधान सभा चुनावों में भी थी,किन्तु ठिठोलीबाज  नेताओं को   बिहार की जनता ने 'ठेंगा' दिखा दिया। मोदी जी यूपी के चुनावों में भी देश की समस्याओं पर बात न करके केवल 'कैशलेश' स्कीम या मोबाइल तकनीक से पेमेंट के तरीके बता रहे हैं। देश की समस्या केवल भुगतान संकट तक सीमित नहीं है। महँगाई,बेरोजगारी ,शिक्षा और स्वास्थ्य में निजी क्षेत्र की लूट ,बड़े जमींदारों की सामन्ती लूट और बैंक से पैसा खा गए धनवानों पर मोदी जी चुप क्यों हैं ? केवल कालाधन राग आलापने से यूपी में जीतना सम्भव नहीं। मोदीजी को मालूम हो कि मायावती,मुलायम,ममता,जयललिता, लालू ,ओवेसी ,चन्द्रशेखरराव ये लोकतंत्र - वादी नेता नहीं हैं, बल्कि ये जातिवादी -साम्प्रदायिक गैंगस्टरों' के नाम हैं।

मोदी जी को मालूम हो कि आपके अभिन्न मित्र और प्रथम पंक्ति के धनाड्य स्वामी बाबा रामदेव ने अभी-अभी कोलकता में 'ममता मंत्रजाप' किया है। रामदेव उवाच - ''जब एक चाय बेचने वाला भारत का प्रधान मंत्री बन सकता है तो ममता बेनर्जी क्यों नहीं ?'' और कालेधन के सवाल पर उनकी प्रतिक्रिया कुछ इस तरह है ''ममता जी सिम्पल साड़ी और चप्पलें पहनतीं हैं ,उनके पास कालाधन कहाँ ?अब ममता प्रधानमंत्री बने या न बने बंगाल में स्वामी रामदेव के 'पतंजलि साम्राज्य'' का व्यापारिक विस्तार निर्बाधरूप से अवश्यम्भावी है !

स्वामी रामदेव अब तक केवल  मोदीजी की ईमानदारी पर ही बलिहारी थे। किन्तु रामदेव अब वे ममता बेनर्जी की सादगी पर 'फ़िदा' हो रहे हैं। सवाल उठता है कि  मोदी जी के वित्तपोषक अम्बानी-अडानी,शाह बगैरह तो फिर भी देश को टैक्स देते हैं ,किन्तु ममता के कालेधन वाले समर्थक-स्मगलर  तो टेक्स देने के बजाय देश की सेना को गालियां दे रहे हैं ! 'संघी भाई' और  स्वाभिमान भारत वाले  इस 'देशद्रोह' पर मौन क्यों हैं ?

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