बुधवार, 7 दिसंबर 2016

अंधश्रद्धा / अंधआलोचना दोनों की लक्ष्मण रेखा होनी चाहिए ।

 ''संतुष्टः सततं  योगी जितात्मा धृढ़ निश्चयः ''  [भगवद्गीता ]

अर्थ :- धृढ़ निश्चयी ,आत्मजित और सदा अपने आप में सन्तुष्ट रहने वाला मनुष्य योगी कहलाता है।

भगवद गीता के उक्त सिद्धांत के सापेक्ष आधुनिक प्रगतिशील अद्द्तन सिद्धांत कुछ इस प्रकार है  :-

  ''असन्तुष्ट: सततं रोगी पत्रकार, सत्ता पक्ष बनाम विपक्षी नेता और कवि : '' 

आधुनिक सदा नाखुश रहनेवाला,छिद्रान्वेषी,दूसरों के सद्गुणों की अनदेखी करने वाला और दूसरों की सदा निंदा करनेवाला व्यक्ति ही सफल  नेता बन सकता है। यदि हो जाता है। ऐंसा व्यक्ति  पत्रकार ,नेता अथवा साहित्यकार या कवि हो सकता है ।

कोई लेखक,कवि ,पत्रकार अथवा विचारक जब 'विचार केंद्रित' पक्ष प्रस्तुत करने के बजाय केवल 'व्यक्ति केंद्रित' लफ्फाजी का हौआ खड़ा करता है,तब उसके द्वारा दिशाहीन आलोचना का क्रूर कृत्य यथार्थ की पत्तल पर रायता ढोलने लगता है ! समष्टिहित  विचार की जगह उस 'व्यक्ति केंद्रित' वाचालता में रमण करनेवाला कोई भी शख्स केवल  मानसिक रोगी ही हो सकता है। जिस तरह व्यक्तिनिष्ठा अथवा अंधश्रद्धा निंदनीय और अधम है उसी तरह किसी व्यक्ति की अंध आलोचना या सतत निंदाकी भी कोई लक्ष्मण रेखा होनी चाहिए। समाज का प्रगतिशील वर्ग या रेसशनालिस्ट तबका धर्म-मजहब की जिन वर्जनाओं को अवैज्ञानिक मानता है यदि वह उन्हें डस्टबिन में फेंक भी दे ,तब भी वह उस लोकमत और भाववादी चिंतनधारा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता ,जिसे सूफी सन्तोंने  'अवैदिक' दार्शनिकों ने स्वयं परवान चढ़ाया है । गौतम,महावीर,नानक और स्वयम योग गुरु पतंजलि ने प्राणी -मात्र की ' निंदा' को आत्मघाती माना है। उन महापुरुषों के समक्ष नत मस्तक होना ही होगा ,जिन्होंने अपने काव्य में निंदा अथवा आलोचना की जगह तितिक्षा अर्थात सहनशीलता और करुणा का  महिमामंडन किया है ।
 
 किसी धर्म -मजहब के स्वघोषित अंध समर्थक ,प्रचारक अथवा मतावलम्बी द्वारा किसी व्यक्ति,विचार या राष्ट्रकी इकतरफा निंदा-आलोचना न केवल 'अधर्म' या  पापकर्म है बल्कि अनैतिक भी है। क्योंकि हरेक धर्म-मजहब के मूल सिद्धांतका आधारही 'क्षमा' है। तदनुसार परनिंदा या आलोचना ईश्वरीय विधान के खिलाफ है। लेकिन किसी  मार्क्सवादी - समाजवादी नास्तिक चिंतक द्वारा जब किसी शोषणकर्ता व्यक्ति,समाज या राष्ट्रकी निर्मम आलोचना की जाती है तब वह क्रांतिकारी कर्तव्य कहलाता है। वेशक भृष्ट शासकों और लम्पट राजनीतिज्ञों की आलोचना या निंदा जायज है किन्तु उस आलोचना में तार्किकता और  वैज्ञानिकता होना अत्यंत आवश्यक है।

आधुनिक डिजिटल एवम फेसबुक जैसे तमाम  सूचना संपर्क माध्यमों पर एकतरफा आलोचना का बोलबाला है। किसीको किसीकी कोई अच्छाई नजर नहीं आ रही है।हालाँकि इस मंजर के लिए भाववादी साम्प्रदायिक तत्वों ने अपने माथे पर हलधर के सींग उगा रखे हैं। किन्तु जो लोग प्रगतिशील हैं ,धर्मनिरपेक्ष हैं ,वे भी केवल सत्ता पक्ष के एक नेता विशेष की ही सतत आलोचना किये जा रहे हैं निसंदेह यह क्रान्तिकारी चरित्र का प्रमाण नहीं है ! अपनी ओर से कोई  विज्ञान सम्मत वैचारिक रीति-नीति पेश करने के बजाय ,समाज और राष्ट्रके समक्ष मौजूद चुनौतियों के लिए  प्रगतिशील विकल्प प्रस्तुत करने के बजाय ,जो लोग किसी खास 'व्यक्ति' या संगठनको  खलनायक सिद्ध  करने में जुटे हैं, वे सिर्फ आलोचक कहे जा सकते हैं क्रांतिकारी कदापि नहीं हैं !

सत्तापक्ष के और नेता विशेष के अंधसमर्थक अज्ञानी हैं। ये कूपमण्डूक ,अधकचरे लोग - लोकतंत्र,धर्मनिरपेक्षता और संविधान से ऊपर अपने किसी नेता विशेष या 'व्यक्तिविशेष' को सर्वोसर्वा मानकर उसके पीछे भेड़चाल से चलते रहते  हैं।  ये 'राष्ट्रवाद'का दम्भ भरने वाले , व्यक्ति पूजा का जाप करने वाले लोग  सामंती दौर के गए-गुजरे अवशेष मात्र हैं ! जो लोग आजादी के 70 साल बाद भी मानसिक रूप से गुलाम हैं ,वे कभो -जेपी-जेपी,कभी अण्णा -अण्णा ,कभी मोदी-मोदी चिल्लाते रहते हैं।

किसी भी धर्म -मजहब के स्वघोषित प्रचारक अथवा धर्मभीरु मतावलम्बी के लिए 'परनिंदा' वर्जित है और धर्म सिद्धांतानुसार वह किसी दूसरे के धर्म-पन्थ -मजहब की या अनीश्वरवादी विचार की निंदा -आलोचना नहीं कर सकता ! क्योंकि यदि वह ऐंसा करता है तो कदाचरण का दोषी माना जाएगा। और वह साधु पथ से पथभृष्ट हो जाएगा। अर्थात आस्तिक विधान से पदच्युत हो जाएगा ! चूँकि अधिकांस धर्म-मजहब के अनुसार 'परनिंदा'अधर्म है !और लोक-परलोक वालों के ये यह अपवित्र कर्म उसके परिणाम में दुखदायी माना गया है। तार्किक आलोचना बनाम भाववादी निंदा के विमर्श पर न्यायिक नजरिये से विश्लेषण जरुरी है ,

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