दुनिया में जब 'डेमोक्रेसी' नहीं थी तब मानव समाज को मजबूरी में 'सामन्तवादी'व्यवस्था के क्रूर प्रहार झेलने पड़ते थे। अन्याय-अत्याचार से लड़नेके बजाय तत्कालीन आवाम 'ईश्वर',धर्म,मजहब की शरणमें जाकर अपने दुःख,कष्ट से मुक्ति की कामना करती रही है। किन्तु आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में अब जनता ही सर्वोच्च है। धर्म-मजहब और साम्प्रदायिकता के प्रभाव से लोकतंत्र रुग्ण होता है। मजहब के आधार पर राज्य सत्ता हासिल करने वाले और लोकतंत्र की चुनावी राजनीति में धर्म का दुरूपयोग करने वाले अनाचारी 'आस्तिक' नहीं कहे जा सकते ! उनसे बेहतर तो तर्कवादी -विज्ञानवादी और घोषित नास्तिक हैं, जो कमसेकम धार्मिक उन्माद,पाखड़ या साम्प्रदायिकता से कोसों दूर हैं ! आस्तिक-नास्तिक के द्वंद से मुक्त होकर ही मानव मात्र सच्चे-ज्ञान का अधिकारी हो सकता है और शाश्वत आनंद को तभी पा सकता है।
भारत ,युनान और अन्य अति विकसित सभ्यताओं का पुरातन अध्यात्म -साहित्य इस निर्णय पर कभी नहीं पहुँच सका कि निरपेक्ष सत्य क्या है ?वास्तविक ज्ञान क्या है ?वास्तविक अज्ञान क्या है ? यह बहस सनातन से चली आ रही है कि 'अंडा पहले हुआ कि मुर्गी '? चेतन पहले हुआ कि जड़ जगत ? सृष्टि विकास, प्रलय ,जीवन-मृत्यु,लोक - परलोक तथा आत्मा-परमात्मा के विषय में वैदिक वाङ्गमय जो कहता है उसमें विज्ञान का अंश भरपूर है किन्तु फिर भी वह सर्वमान्य नहीं है। इसी तरह ज़ेन्दावेस्ता ,बाइबिल ,टेस्टामेंट ,कुरान का ज्ञान भी अनुभवप्रणीत ही है किन्तु पृथक-पृथक है। इस मतभिन्नता के वावजूद सभी धर्म-मजहब के सभ्य मानव एक साथ खुशहाल सकते हैं। जैसेकी एक ही रेलगाड़ी में हिन्दू,मुस्लिम ,ईसाई,पारसी,सिख और जैन सभी एक साथ यात्रा करते हैं ,एक साथ अपने गंतव्य पर पहुँचते हैं, और दुर्घटना होने पर एक साथ मरते भी हैं। जैसे कुदरत फर्क नहीं करती उसे तरह सच्ची लोकतान्त्रिक व्यवस्था वाले राष्ट्र अपने देश की जनता में फर्क नही करते। लोकतान्त्रिक राष्ट्र के जनगण संविधान से ऊपर किसी को नहीं मानते। उनके लिए संविधान और राष्ट्र पहले है, धर्म-मजहब बाद मेंआता है। यदि कोई व्यक्ति 'लोकतंत्र' से घृणा करता है ,चुनाव में धर्म -मजहब -जाति का दुरूपयोग करता है या देश तथा उसके संविधान से ऊपर अपने 'धर्म-मजहब-पन्थ' को मानता है तो उसे 'देशद्रोही' माना जा सकता है।
संसारकी सभी सभ्यताओंकी जीवन शैली और धार्मिक-मजहबी परम्पराएं भी भिन्न हैं। द्वतीय विश्वयुद्ध उपरान्त आधुनिक साइंसयुग के प्रभाव से अधिकांस देशों में सभी धर्म-मजहब और भिन्न जीवन शैली के मनुष्य एक साथ रहना सीख चुके हैं। किन्तु सऊदी अरब ,तुर्की,पाकिस्तान ,ईरान ,इंडोनेशिया ,यमन इत्यादि कुछ देशों में अभी भी 'इस्लाम' को राज्याश्रय प्राप्त है। यही वजह है कि संविधान में 'धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र' घोषित किये जाने के बाद भी भारत जैसे गैर इस्लामिक देश की जनता धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर सशंकित है। जिन देशों में एक धर्म विशेष को राज्याश्रय प्राप्त है वे अन्य धर्म-मजहब के लोगों बेजा अत्याचार करते हैं। चूँकि आधुनिक वैज्ञानिक युग में सबकुछ अन्योंन्याश्रित है इसलिए धर्म सापेक्ष देशों की बीमारियाँ भारत जैसे धर्मनिपेक्ष देश को भी लग जाया करतींहैं।
वस्तुतः धर्म और राजनीति दो विपरीत ध्रुव हैं। लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को खत्म करने के लिए ,राजनीति रुपी दूध में धर्मजनित साम्प्रदायिकता के नीबू की एक बूँद ही काफी है! गोकि 'आवश्यकता आविष्कार की जननी है ' हरयुग की आवश्यकता के अनुरूप आविष्कार हो ही जाते हैं। इस युग की सबसे भयानक बुराई 'मजहबी आतंकवाद और धर्मान्धता है. इनसे बचाव के लिए 'धर्मनिरपेक्ष -समाज' बनाना सबसे जरुरी काम है !इसके लिए सर्वप्रथम धर्म-मजहब को राजनीति से अलग रखने का इंतजाम करना होगा !भारतके माननीय सुप्रीमकोर्ट ने साल-२०१७ के पहले ही दिन तत्सम्बन्धी शानदार निर्णय देकर 'धर्मनिरपेक्ष भारत' को सही राह दिखाई है।
दुनिया में महज ३०० साल पहले आधुनिक 'लोकतंत्र' का जन्म हुआ है.उससे पहले सारे संसार में सनातन से ही 'राजवंशों'का , सामन्तशाही का ,राजशाही का और तानाशाही का ही बोलवाला रहा है। उस दौर की आम जनता अपने राजाओं-सम्राटों के अत्याचारोंको सहने ,उनकी सनक व ऐय्याशियों का इंतजाम करते रहने को अभिशप्त थी। किन्तु ब्रिटेन की पार्लियामेंट से उद्भूत 'लोकतंत्र' ने सारे संसार को क्रूर राजवंशों से मुक्त कर दिया।अब भी यदि सउदी अरब की भाँति कहीं कोई राजवंश शेष है या पाकिस्तान जैसे किसी मुल्क में लोकतंत्र की खामी है या भारत जैसे लोकतान्त्रिक देशमें तानाशाहीकी संभावना बनी रहतीहै ,तो सम्बन्धित देशकी जनताकी सामूहिक यह जिम्मेदारी है कि वह वास्तविक लोकतंत्र के लिए सदैव जागृत रहे ! सामंती दौर के भाववादी दर्शन का दुरूपयोग न होने दे ! दुनियाको जब तक न्याय,कानून ,लोकतंत्र और साम्यवाद का इल्म नहीं था तब धर्म,अध्यात्म,मजहब पर आश्रित रहना उसकी मजबूरी थी। किन्तु आधुनिक साइंस ,आधुनिक संविधान,आधुनिक लोकतंत्र ,आधुनिक-धर्मनिपेक्षता ने मानवीय मूल्योंको बुलन्दियों पर पहुंचा दिया है। फ्रांसीसी क्रांति,अमेरिकी क्रांति ,यूरोपका रेनेसाँ और पाश्चात्य भौतिकविज्ञान जिन मूल्योंका पक्षधर रहाहै उसमें धर्म,अध्यात्म और ईश्वरीय तामझामकी नहीं बल्कि धरती पर जागृत,शिक्षित,सचेतन और बेहतर इंसान गढ़ने की जरुरतहै। यदि इस दौर में भी कोई व्यक्ति ,समाज या राष्ट्र धर्मान्धता और सामंतवादी दल-दल में आकण्ठ डूब रहा है तो वह बाकई दया का पात्र है।
जिस तरह विवेक बुद्धि वाले सजग मानवों ने मानव इतिहासके अलगअलग दौरमें, अलग-अलग कबीलों में और अलग-अलग सभ्यताओ में सामाजिक ,राजनैतिक व्यवस्था संचालन के लिए कहीं सामन्तवाद ,कहीं पूँजीवाद और कहीं साम्यवाद के सिद्धान्त-सूत्र स्थापित किये हैं ,उसी तरह सजग और विवेकशील मानवों ने अध्यात्म,दर्शन,धर्म - मजहब ,ईश्वर ,अल्लाह,गॉड और 'पारलौकिक शक्ति' के सारभौम सिद्धांत सूत्र प्रतिपादित किये हैं। जिस तरह किसी भद्र और नेक नीयत नागरिक के लिए यह उचित है कि वह अपने देश के स्थापित संविधान और कानून के अनुकूल आचरण करे, क्योंकि इसीमें उसका और उसके देशका हित सुरक्षित है। इसी तरह मनुष्य मात्र के लिए यह उचित है कि वह अपने पूर्वजों द्वारा अन्वेषित धर्म -मजहब और आध्यात्मिक दर्शन का भावात्मक अनुशीलन करे। क्योंकि इसीमें उसकी ,उसके परिवार की और समाज की भलाई सुनिश्चित है। हरेक सचेतन और तर्कशील विवेक बुद्धिवाले मनुष्य की यह जिम्मेदारी भी है कि वह धर्म और साम्प्रदायिकता का राजनीतिकरण नहीं होने दे। इसके अलावा धर्म-मजहब में व्याप्त पाखण्ड ,अधर्म ,अन्याय का वह प्रबल प्रतिकार भी करे ! सिद्धान्तः कोई भी मनुष्य 'अंधश्रद्धा' और धर्मान्धता को मानने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
मानवजाति के समक्ष सदा से ही अनेक अगोचर प्रश्न मुँह बाए खड़े रहे। मानवीय शोषण -उत्पीड़न की वजह क्या है ? पृथ्वी पर प्रत्येक मनुष्य का हक क्या है ? भौतिकवाद क्या है ?अध्यात्मवाद और तत्सम्बन्धी दर्शन क्या है ? ये मजहब-रिलिजन और 'धर्म-अधर्म'' क्या हैं? इन सब में अंतरंग सम्बन्ध और फर्क क्या है ? ईश्वर क्या है ? इत्यादि सवालों के हल खोजे बिना न तो भौतिकवादी दर्शन को नकारा जा सकता है,न ही 'ईश्वर' अध्यात्मवाद और धर्म-दर्शन को नकारा जा सकता है। धर्मप्राण जनता को चाहिए कि वह 'भौतिकवादी दर्शन को भी अवश्य पढ़े। जिस आधुनिक साइंस के भौतिक उपादानों मोबाइल -इंटरनेट को वह सीने से लगाए हुए है ,उसी साइंस के तर्कशील क्रांतिकारी अर्थशास्त्र और 'मनोविज्ञान'को ह्र्दयगम्य क्यों नहीं करना चाहिए। इसी तरह सभी धर्म-मजहब और अध्यात्म का उचित अध्यन किये बिना तर्कवादी -अनीश्वरवादी मित्र भी भाववादी दर्शन में अनावश्यक हस्तक्षेप ना करें। वैसे भी असत्य आलोचना का कोई औचित्य नहीं हो सकता। आस्तिक और भाववादी लोगों को भी धर्मान्धता के गटरगंग में डुबकी लगाने के बजाय भृष्ट सिस्टम को दुरुस्त करना चाहिए। यदि दुरुस्ती सम्भव न हो तो बलात उखाड़ फेंकना चाहिए !
जिस तरह आधुनिक साइंस,भौतिक अनुसंधान ,उन्नत तकनीकी मनुष्य का ही सृजन है ,उसी तरह धर्म-मजहब-ईश्वर ,अल्लाह और साम्प्रदायिकता भी मानवकृत है। मनुष्य जाति ने मानवमात्र के हित में जो-जो अन्वेषण किये वे अकारण या निर्रथक नहीं थे। लेकिन जब साइंस नहीं था तब मनुष्य ने ईश्वरकी रचना कीथी और हजारों साल तक उससे अपना काम चलाया। किन्तु अब साइंस का जमाना है ,मनुष्य को ईश्वर की आराधना उस हद तक ठीक है कि वह मनोभावों को स्थिर करे किन्तु उतनी जरूरत नहीं होनी चाहिए जितनी सामंतयुग में या गुलामी के दौर में हुआ करती थी।यदि किसीको अभी भी ईश्वर की सख्त जरुरत महसूस होती है तो इसका मतलब यह है कि उसे अपने आप पर यकीन नहीं है ,उसे संविधान,लोकतंत्र और व्यवस्था पर भरोसा नहीं है। जाहिर है कि वह धर्मभीरु व्यक्ति हर तरह से डरा हुआ है। इसीलिये उसे ''निर्बल के बलराम ''पर निर्भर रहना पड़ रहा है। इसका निष्कर्ष यह भी निकलता है कि शुद्ध आस्तिक मनुष्य निपट अज्ञानी है। जाहिर है कि उसका अज्ञान ही उसके दुखों का कर्ता है।ऐंसे अज्ञानी के लिए ईश्वर होते हुए भी नहीं है। इसलिए मनुष्य मात्र जब तक स्वयम ही शुध्द चैतन्य नहीं हो जाता या जब तक संसार का प्रत्येक मनुष्य अतिमानव और 'अजातशत्रु' नहीं हो जाता,तब तक धरती पर ईश्वर को जिन्दा रखने में ही भलाई है !'नीत्से' के कहने मात्रसे ईश्वर नहीं मर सकता ,जब तक इस धरती पर अन्याय है , अत्याचार है ,असमानता है और शैतान जिन्दा है ,तब तक इस ब्रह्मांड में भगवान्,अल्लाह,गॉड भी जिन्दा रहेंगे !
जब कभी भारतीय उपमहाद्वीप के अतीत पर नजर डालता हूँ ,तो ज्ञात इतिहास के अधिकांस हिस्से में 'गुलाम- भारत' की ही तस्वीर मुँह चिढ़ाती नजर आती है। जब उस भयानक गुलामी के कारणों की खोज करता हूँ तो मुझे सबसे बड़ी वजह 'धर्मान्धता' ही नजर आती है। वेशक गुलामी से पूर्व 'भारत' कोई संगठित 'राष्ट्र' नहीं था और इस भूमि पर सैकड़ों 'जनपद' अथवा पृथक राष्ट्र थे। किन्तु यदि वे आपसमें लड़ते-झगड़ते नहीं और सर्व समाज में धर्म-पन्थ का कोहरा आड़े नहीं आता ,धर्मान्धता परवान नहीं चढ़ती तो निसन्देह भारतीय उपमहाद्वीप का रूप आकार कुछ और ही होता।१५ सौ साल का राजनैतिक इतिहास कुछ और ही होता। तब भारत को तुर्कों,अरबों का गुलाम नहीं होना पड़ता। ईस्ट इण्डिया कंपनी की दाल नहीं गलती। और भारत विभाजन भी नहीं होता और तब पाकिस्तान ,बंगला देश पृथक राष्ट्र ही नहीं होते। नेपाल म्यामार अपनी अलग डुगडुगी नहीं बजाते।गुलामी से पूर्व का भारत निसन्देह सोने की चिड़िया था ,किन्तु धर्म के नामपर प्रमाद,आलस्य, ऐयासी और अलगाव चरम पर था। धर्मान्धता का हमला दोतरफा था । बाहर से बर्बर आक्रमणकारियों की धर्मान्धता थी जो मजहबी विस्तार के बहाने सारे संसार को निगलने पर आमादा थी। अंदर की धर्मान्धता भारतीय उपमहाद्वीप के लिए 'कालरात्रि'से कम नहीं थी। इसीलिये हमलवार बर्बर लुटेरों की धर्मान्धता ने ततकालीन भारत के मूल स्वभाव और स्वरूप को तहस-नहस कर दिया ।
अधिकांस यायावर बाह्य आक्रांताओं ने भारतको गुलाम बनाये रखने के लिए जो बर्बर आचरण किये उन्ही का नाम साम्प्रदायिकता है। गुलाम होने से पूर्व का भारत बाकई समृद्ध था। खुशहाल भारत की आवाम ''परम सत्य की खोज' में जुटीथी। वह अपने पुरातन सांस्कृतिक -दार्शनिक दर्शन- 'अहिंसा परमोधर्म :', 'वसुधैव कुटुम्बकम' और 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' के शांति पाठ में व्यस्त थी । अहिंसा,करुणा, क्षमा उदारता और 'अयोध्य' अवधारणा से ओतप्रोत तत्कालीन भारत के प्रबुद्ध 'गण' विश्व मंगल कामना के लिए पराशक्तियों का आह्वान करने में जुटे थे। उनकी उपासना और प्रार्थना को ईश्वर ने सुना या नही यह तो अभी भी अन्वेषण का विषय है. किन्तु सैन्यसुरक्षा से महरूम भारत पर विदेशी लुटेरों जरूर काबिज होते चले गए । भारतीय विद्वतजन यह तो जानतेथे कि भाषा और व्याकरण क्या है ? वे ईश्वर,ब्रह्म ,जीव और मायाका रहस्य भी जानते होंगे ?किन्तु वे यह नहीं जानते थे कि 'राष्ट्र' की सुरक्षा और उन्नत युद्ध तकनीकि क्या है ? वे केवल यज्ञ ,वेदमन्त्रों, स्मृति सूक्तों और भगवान्के भरोसे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। उन्हें यह नहीं मालूम था कि उनका मानवीय आचरण ही आत्मघात बन चुका है ,जिससे कोई कौम या राष्ट्र तरक्की नहीं कर सकता !बल्कि उस अति आध्यात्मिकता से भारतको सदियों की गुलामी ही हासिल हुई है। बर्बर विदेशी आक्रांताओं की राजनैतिक गुलामी के कारण विगत एक हजार सालसे भारत साम्प्रदायिकता की दावाग्नि में धधकता रहा है। लेकिन ''अब लौं नसानी अब न नसै हों'!
''जननी जन्मभूमष्च स्वर्गादपि गरीयसी''को एक 'राष्ट्र राज्य' में संगठित करने के लिए ततकालीन शासकवर्ग ने कोई तकनीकि विकसित नहीं की थी । केवल अपने -अपने राज्य को सुरक्षित रखने के लिए उन्होंने'प्रजा'पर घोर अत्याचार किये और 'धर्म'के माध्यम से प्रजा को 'त्याग',अपरिग्रह और मर्यादा सीखने -सिखाने का अनुक्रम जारी रखा,किन्तु उन्होंने बर्बर विदेशी हमलावरों से बचाव का कोई खास उपक्रम नहीं किया। कुछ भावुक और कोमल ह्रदय 'राजपुत्रों' ने संसार के दुःख देख 'शांति की खोज ' में अपने घरवार ही त्याग दिये। कुछ ने कपडे ही त्याग दिए। जब 'गणाधिपति' राजपुत्रों का यह आलम था तब निरीह'प्रजा' से क्या उम्मीद की जा सकती है ? 'यथा राजा तथा प्रजा ' को चरितार्थ करते हुए तत्कालीन जनता भी कायरतापूर्ण धर्मान्धता में निमग्न होती रही। युद्धप्रणाली का आधुनिकीकरण और समयानुकूल विकास नहीं किया गया। भारतीय शूरमा बर्बर खूनी हमलावरों के हाथों मारे जाते रहे ,या गुलाम होते चले गए ! रानियाँ जौहर करतीं रहीं या जबरन विदेशियों के हरम में डाल दी गयीं।
अब्दुल्ला उज्वेग के महत्वाकांक्षी पुत्र बाबरकी तोपें जब पानीपत के मैदान में आग उगल रहींथीं तब राणा साँगा, इब्राहीम लोधी अन्य भारतीय राजे-राजवाड़े अपने महलों में रंगरेलियाँ मना रहे थे। कुछ अपनी जंग लगी तलवार की धार तेज कर रहे थे। साधु संत महंत -''होहहिं सोई जो राम रचि राखा '' के भजन गया रहे थे। मानों भगवान् ने ही गुलामी तय करदी अतः लड़ने से क्या फायदा ? इसे भारतीय आवामकी 'सात्विक धर्मान्धता' भी कह सकते हैं। कबीर बाबा ने सच कहा है -'कबीरा आप ठगाइये और न ठगिये कोय ' ! इसीलिये तो मुहम्मद गौरी के रक्तरंजित हाथों ,पृथवीराज चौहान अपनी आँखें फुड़वा बैठे और चन्दवरदाई तथा जयचन्द बेमौत मारे गए ! छोटी-छोटी पराजयों से सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप सदियों के लिए 'ठगा' जाता रहा। आजादी के बाद भी इस भारतीय उप- महाद्वीप को चैन नहीं है। क्योंकि अतीत में जिन्होंने इस भारतभूमि को ठगा था ,उनके ही कुछ बदमाश शैतानी वंशज आतंकवाद का नंगा नाच कर रहे हैं। अतीत का खूँखार और अपवित्र डीएनए आज भी बिगड़ैल साँड की भूमिका अदा कर रहा है ।
आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य से पूर्व के सामन्तों,बौद्ध भिख्सुओं को 'राष्ट्रवाद' से कोई लेना -देना नहीं था।उन्हें तो केवल परलोक की चिंता सताती रहती थी। इसी तरह ब्राह्मण वर्ग को भी सिर्फ वेदांत दर्शन ,यज्ञ कर्म और दान -दक्षिणा की फ़िक्र थी। क्षत्रिय राजकुमारों को बौद्ध-जैन धर्म ने अहिंसक बना दिया। ब्राह्मण और संतों की नकल भी उन्हें रास आ रही थी। जिन्हें मनुष्यमात्र की फ़िक्र थी उन्होंने 'धर्म-अर्थ-काम -मोक्ष' और कर्मयोग का खूबसूरत सिद्धांत पेश कर दिया। यही कारण है कि वेदों ,उपनिषदों ,संहिताओं,श्रुतियों ,जैन-बौद्ध आगम में सम्पूर्ण जगत के लिए प्रेम और करुणा का भाव विद्यमान है। वेदांत ने तो सारी धरती को अपना कुटुंब माना है। उन्होंने सभीके कल्याण की कामना भी की है। किन्तु 'राष्ट्रराज्य' के रूप में 'अखण्ड भारत' अजेय भारत को स्थापित करने की उनकी कोई भौतिक चाहत नहीं थी। लुटेरे जमींदारों ,सामन्तों और विदेशी हमलावरों से जनता की हिफाजत के लिए उनके पास कोई कारगर कार्यनीतिक योजना नहीं थी। वे केवल 'अप्प दीपो भव' या दैवीय मन्त्र शक्तिके बल पर भरोसा करते रहे। आचार्य 'चाणक्य' जैसे बहुत कम ही होंगे जिन्होंने 'राष्ट्र 'की चिंता की होगी।अन्यथा बाकीके सभी तो दधीचि,नचिकेता,जाबालि,और भीष्म -परशुराम, की तरह क़ुरबानी ही देते रहे ।
भौतिक जागतिक उत्थान के बजाय वे मुमुक्षु ऋषिगण 'आत्मकल्याण' -आत्मोद्धार पर जोर देकर 'बैकुंठवासी होते चले गए।इस भारतीय भूभाग के निवासी दस हजार साल से वेद-वेदाङ्ग पढ़ रहे हैं ,सात हजार साल से वेदांत-उपनिषद-आरण्यक पढ़ रहे हैं, पाँच हजार सालसे गीता-रामायण-महाभारत पढ़ रहे हैं ,ढाई हजार सालसे बुद्ध के त्रिपिटक अभिधम्मपिटक, सुत्तपिटक, महांपिटक पढ़ते आ रहे हैं ,महावीर के पदमपुराण और उत्तराध्ययन-सूत्र पढ़ते आ रहे हैं ,दो हजार साल से बाइबिल और 'टेस्टामेंट'पढ़ रहे हैं,चौदह सौ साल से हदीस और कुरआन पढ़ रहे हैं, और पांच- छः सौ साल से रामचरितमानस ,रामचन्द जशचन्द्रिका गुरुग्रन्थ साहब को पढ़ रहे हैं। धरम -करम,अध्यात्म-दर्शनका जितना बोलवाला भारतमें ही रहा है,उतना दुनिया में कहीं और नहीं रहा। पश्चिम के भौतिकवादी और भारत के अध्यात्मवादी दोनों ही इस मामले में एकमत रहे हैं कि 'भारतीय उपमहाद्वीप में धर्म-अध्यात्म पर ज्यादा जोर दिया जाता रहा है। संस्कृत सुभाषित कहता है 'अति सर्वत्र वर्जते'। धर्मान्धता की 'अति' ने इस विशाल भारतीय उपमहाद्वीप को सदियों तक विदेशी हमलावरों का गुलाम बनाये रखा। स्वाभाविक है कि गुलाम राष्ट्र और कौम केवल अपने मालिक की सेवा कर सकती है।जब गुलामों का कोई मुल्क ही नहीं होता तो किसका विकास और कैसा विकास ?
रैदास ,मलूकदास,कबीरदास ,कुम्भनदास,सूरदास,नरहरिदास,तुलसीदास ,रामदास,अमुकदास,धिमुकदास ने छंद, भजन,सवैये,अभंग ,दोहे,चौपाई या महाकाव्य का जो भी सृजन किया ,उसमें केवल गुलामी की झंकार ही सुनाई देती है। उसमें आतताइयों के अत्याचार का वर्णन नहीं है।उनके सृजन की दैवीय ताकत केवल उनकी जीवन मुक्ति' के लिए थी।उनके चिंतन -लेखन में ईश्वर की असीमकृपा ,अटूट आस्था का काव्यात्मक उल्लेख अवश्य है। किन्तु उसमें खेत,खलिहान,हल बैल, जल-जंगल-जमीन बाबत कोई चिंतन नहीं है। क्रूर शासकों द्वारा महिलाओं पर किये गए अत्याचारों की और मजूर-किसानों की बदहाली की उस मध्ययुग का कोई भी कवि बात नहीं करता।
चैतन्य महाप्रभु मीरा,नानक,सबको अपने 'हरि ' से प्रेम था किन्तु राष्ट्र की सुरक्षा या यायावर लुटेरों से आजादी या समस्त जनता के भौतिक विकास की बात किसी ने नहीं की। आसन्न गुलामी के उस दौर में जब सृजनशील विद्वत जनों की यह हालत थी ,तब आम आदमी की क्या बिसात की 'राष्ट्र' और कौम के बारे में कुछ सोचे ? शायद यही वजह रही कि न केवल राजनैतिक,आर्थिक बल्कि मानसिक गुलामी भी उस दौर में बढ़ती गयी। भारतीय संत कवियों के नाम में 'दास' शब्द ऐंसे नहीं जुड़ गया। उनके नाम का 'दास' वाला हिस्सा केवल ईश्वरीय नाम का पदबन्ध नहीं है और यह कोई ब्रिटिश क्राउन प्रदत्त उपाधि भी नहीं है ,यह इस्लामिकजगत के खलीफा द्वारा प्रदत्त तमगा भी हैं था ! धार्मिक अंधश्रद्धा और कायराना कर्मकांड ने ही अखण्ड भारत' को खंड -खंड किया है । भारत की पीढ़ियों को जो सैकड़ों साल की गुलामी भोगनी पड़ी उसकी वजह यह 'दास' शब्द ही है।
अतीत का दासत्व भाव ही है जो इस दौर में 'व्यक्तिपूजा' के रूप में झलक रहा है। कहीं माया,कहीं ममता ,कहीं जया कहीं 'मोदी' और कहीं लालू-मुलायम के रूप में उबल रहा है। दासत्वबोध से पीड़ित आधुनिक मीडिया और दिशाविहीन नई पीढी के श्रीमुख से जो नेता विशेष का गुणगान प्रतिध्वनित हो रहा है,वह भी मानसिक गुलामी का सूचक है। यह शर्मनाक ' दासत्वभाव' ही वतन की गुलामी का और उसके राजनीतिक ,आर्थिक ,सामाजिक पतन का वास्तविक कारण है ! धर्म -मजहबके गोरखधंधे को राजनीतिमें इस्तेमाल करने से वास्तविक लोकतंत्र पिछड़ गया। आधुनिक पीढी को साइंस का ज्ञान है ,किन्तु वे यह नहीं जानते कि इस सांइस का ९५% तथाकथित विदेशी ही है। जो लोग संविधान को टाक पर रखकर जाति -धर्म का भेद करते हैं या चुनाव में उसका दुरूपयोग करते हैं वे सत्ता में आकर 'देशभक्त'बन बैठे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने आजादी के ७० साल बाद फैसला दिया है कि धर्म वोट न मांगे जाएँ अर्थात धर्मको राजनीति से दूर रखा जाए। राजनीतिक धर्मनिरपेक्षता का निर्णय देकर भारतके माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अपने उत्तरदायित्व का सही निर्वहन किया है। उन्हें धन्यवाद !
भारतकी राजनैतिक गुलामीका कारण अक्सर सामंतकालीन भारतके रजवाड़ों की आपसी फूटको बताया जाता रहा है। यह अर्ध सत्य है लेकिन पूरा सच नहीं है। पूरा सच जानने के लिए हमें यूरोप,अरब और चीन का इतिहास जान लेना चाहिए। भारत के अलावा तमाम सभ्य दुनिया के इतिहासकारों ने धर्म,राजनीति और राजवंशोंके युद्धक इतिहास के साथ-साथ जनता का भी इतिहास लिखा है ,किन्तु भारतके अधिकांस पढ़े -लिखे लोग ऋषि मुनि और सन्यासी होकर धर्म -अध्यात्म पर लिखते चले गए। आदिनाथ ऋषभदेव ,कपिल,कणाद,चरक,आर्यभट्ट जैसे कुछ थोडे से ही महान विद्वान हुए नहीं जिन्होंने 'आम जनता' के लिए कुछ लिखा है। भारत में राजाओं का इतिहास ही ईश्वरीय महिमा का गान हुआ करता था। बाद में यही काम चारण भाट भी करते रहे। राजे राजवाड़े अपने आपको चक्रवर्ती और दिग्विजयी सम्राट मानते रहे जबकि बर्बर कबीले आ-आकर इस भारत को चरते रहे। जनता ओ डबल गुलामी भोगनी पडी। कार्ल मार्क्स की तरह भारत में किसी ने भी 'जनता का इतिहास' नहीं लिखा !
किसी गाँव में एक किसान का कच्चा मकान रास्ते के किनारे कुछ इस तरह बना था कि गली से आने जाने वालों को असुविधा होती थी।इसमें किसान की कोई गलती नहीं थी ,क्योंकि मकान खुद उसने नहीं बल्कि उसके पूर्वजों ने बनाया था। जब यह मकान बनाया गया होगा तब उसके बाजू से कोई सड़क या आम रास्ता नहीं गुजरता था। केवल सकरी सी पगडंडी अर्थात 'गैल 'हुआ करती थी। बाद में जब गाँवकी आबादी बढ़ीऔर तरक्की हुई तथा किसान लोग बैलगाड़ी ,हल बख्खर की जगह टेक्टर ट्राली लेकर वहाँ से गुजरने लगे, तब उस कच्चे मकान की बाहरी दीवाल बार-बार गिरने लगी। गली की तरफ का छप्पर रोज-रोज छतिग्रस्त होने लगा। उस कच्चे मकान का मालिक- गरीब किसान दुखी होकर कभी दीवाल ठीक करता, कभी टूटा छप्पर सुधरता। और कभी गुस्से में गालियाँ देता रहता। जब उसकी परेशानी बहुत बढ़ गयी, तब किसी बुजुर्ग की सलाह पर उस मकान मालिक ने एक रात अपने मकान के छतिग्रस्त हिस्से से सटाकर गली के किनारे एक पत्थर गाड़ दिया।
सयाने बुजुर्ग की सलाह पर किसान ने उस पत्थर पर सिन्दूर भी पोत दिया, वहीं सुबह एक अगरबत्ती जलाकर लगादी ,और एक नीबू भी उस पत्थर पर रख दिया। सुबह गाँव के लोग जब उधर से निकले तो यह दृश्य देखकर आश्था और कौतूहल से उस पत्थर को शीश नवाया। अब जो भी उधरसे गुजरता वह दीवालसे दूरी बनाकर अपने वाहन सावधानी से निकालते हुए आगे बढ़ता । इस तरह अब उस किसान का मकान सुरक्षित था,क्योंकि उसके रक्षक अब सिन्दूर संपृक्त रुपी पत्थर के रूप में साक्षात् 'भेरू बाबा' अवतरित हो चुके थे। अब सवाल यह है कि किसान ने जिस तरह धार्मिक पाखण्ड और भयादोहन द्वारा अपने मकान रक्षा की ,क्या वह धर्मानुकूल या नैतिक आचरण कहा जा सकता है ? क्या उस किसान को और उसके द्वारा रखे गए सिन्दूरी पत्थर को नमन करने वाले पढ़ देहातियों को 'आस्तिक' कहा जा सकता है ? वेशक तमाम धर्म-मजहब और पंथ अपनी-अपनी जगह सही हो सकते हैं ,लेकिन पाखण्ड अंधश्रद्धा और ढोंग के आगे झुकना क्या बाकई 'आस्तिकता' है ?
जिस तरह कोई किसान कागभगोड़े याने 'बिजूके' का आश्रय लेकर अपने खेतमें खड़ी फसल की रक्षा करता है, उसी तरह मानव सभ्यताओं के दीर्घ इतिहास में पहले 'सामन्तवाद' ने और कालांतर में आधुनिकउद्दाम पूँजीवाद ने भी अपनी 'सत्ता' कायम रखने के लिए धर्म-मजहब' का सहारा लिया है। इतिहास के हर दौर के शासकवर्ग ने धर्म-मजहब , पंथ के 'बिजूके' का बखूबी इस्तेमाल किया गया और धर्म-मजहब की आड़ में धर्मभीरु आवाम को लगातार मूर्ख बनाया जाता रहा है। अंधश्रद्धा में आकण्ठ डूबी शोषित- पीड़ित मेहनतकश जनताको धर्म-मजहब के नामपर बरगलाया जाता रहा है। संक्रांतिकाल में जब कभी किसी क्रांतिकारी व्यक्ति या किसी संगठित समूहने शोषण -अन्याय,अत्याचार के खिलाफ संघर्ष किया ,तब शोषक शासकवर्ग ने धर्मान्धता का 'बिजूका' दिखाकर ही जनाक्रोश को दबाया। शासकवर्ग ने बड़ी चालाकी और धूर्तता से जनान्दोलन का नेतत्व करने वालों को अराजक, अधर्मी ,नास्तिक और काफिर करार दिया। जब इतने से काम नहीं चलातो 'देशद्रोह' का फतवा जारी करनेका भी हथकंडा अजमाया गया। यदि फिरभी किसी तथाकथित 'विद्रोही' को जनताका भरपूर प्यार मिला तो उसे बुद्धकी तरह साक्षात् ईश्वर 'अवतार' ही घोषित कर दिया।'प्रभुता पाय कहा मद नाहिं !'
यदि शहीद भगतसिंह की तरह किसी क्रांतिकारी ने छाती ठोककर कह दिया कि 'मैं तो नास्तिक हूँ ''! तब लुटेरे विदेशी शासकों से ज्यादा देशज शासकों ने इन शहीदों के क्रांतिकारी सिद्धांतों की जानबूझकर अनदेखी की। वे इन शहीदों को 'अवतार' घोषित नहीं कर सकते थे ,क्योंकि इन शहीदों ने फांसी के तख्ते से 'हे राम' का उच्चारण नहीं किया। अपितु उन्होंने 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा लगाया। चूँकि धर्मांध -मजहबी और साम्प्रदायिक बीमारी से ग्रस्त कौम के लिए अकेला 'नास्तिक' शब्द परमाणु बम से कम नहीं है। इसीलिये आजादी के बाद से ही देशज शासकों के चारण भाट 'धर्मध्वजों' ने जात -पांत ,धर्म-मजहब और फिरकापरस्ती की 'वोट कबाड़ू' राजनीति को निरंतर लने-फूलने दिया। धंधेबाज ढोंगी -भोगी,स्वामियों-बाबाओं ने, धर्मान्धता -अंधश्रद्धा और साम्प्रदायिकता को 'आस्तिक दर्शन' सिद्ध करने की ठान रखी है। जबकि शोषण-उत्पीड़न और सरमायेदारी से लड़ने का वैज्ञानिक और कालजयी सिद्धांत यदि कार्ल मार्क्स ने पेश किया है तो आध्यात्मिक अमर सन्देश भगवद्गीता में भी विद्यमान है। वह यह है कि ''तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृत निश्चयः''[गीता अध्याय -२ श्लोक -३७] 'स्वधर्म'अनुपालन के लिए किसी किस्म की धर्मान्धता या अंधश्रद्धा जरुरी नहीं है।
वर्षों पहले जब नीत्से ने कहा था कि ''ईश्वर मर चुका है '' तब फेसबुक ,ट्विटर और वॉट्सअप जैसे उन्नत संचार साधन नहीं थे,वरना भारत के तमाम स्वयम्भू देशभक्त 'गुंडे' उस नीत्से को भी दाभोलकर ,पानसरे,कलिबुर्गी की तरह मार डालते ! स्टीफन हॉन्किंग्स ,अल्बर्ट आंइस्टीन और डार्विन को जानने वाले शिक्षित युवा वर्ग को मालूम हो कि अधिकांस वैज्ञानिक आविष्कार और अन्वेषण करने वाले वैज्ञानिक आस्तिक नहीं थे। यह अकाट्य सत्य है कि तमाम विदेशी आक्रमणों से पूर्व का 'भारत' ज्ञान-विज्ञान'और अध्यात्म सभी क्षेत्रों में सर्वश्रेष्ठ था। आधुनिक आजाद भारत के तमाम हिन्दुत्वादियों -आस्तिकों -विज्ञानवादी नास्तिकों और अन्य धर्म-मजहब के कट्टरपंथियों को मालूम हो क़ि इस उपमहाद्वीप की धरती पर ज्ञान-विज्ञान का एक तार्किक और मानवीय दौर भी रहा है। ऋषभदेव,मय ,कणाद,कपिल,कात्यायन ,श्रृंगी ,नागार्जुन,आर्यभट्ट ,श्वेतकेतु,पातंजलि,धनवंतरी,चरक अश्वघोष और चाणक्य की काल्पनिक फोटो बनाकर उन पर माल्यार्पण करने वाले 'आस्तिकों'को और धर्म-मजहब के पांखड से दूर रहकर जनता के हित में संघर्षरत साथियों को मालूम हो कि ये सब अनीश्वरवादी भारतीय वैज्ञानिक थे। वे 'अवैदिक' अर्थात नास्तिक थे किन्तु उन्हें प्राणिमात्र में आस्था थी ,वे वेदमत और यज्ञ कर्म से सहमत नहीं थे किन्तु
अध्यात्म से कोई नफरत नहीं थी। बल्कि उन्होंने अध्यात्म का भौतिक विज्ञानमें बखूबी रूपांतरण किया। इसीलिये प्राचीन भारतीय मनीषियों ने अपने समस्त वैज्ञानिक अनुसन्धान को पश्चिम के आण्विक विध्वंसक हथियारों की तरह अमानवीय' और संहारक नहीं बनाया।
विगत कुछ वर्षों के दरम्यान आईएसआईएस आतंकवादियों ने सीरिया और इराक के पुरातन धार्मिक प्रतीकों को और तालिबानियों ने अफगानिस्तान के वामियान बुद्ध के बुत ध्वस्त किए हैं। पुरातन अवशेषों के विध्वंशक अपने आपको जिस किसी मजहबका अलंबरदार मानतेहों किन्तु यह सोचका विषय है कि वे 'आस्तिक' थे या नास्तिक ?यदि वे आस्तिक हैं तो उन्होंने चुन-चुनकर जिन्हें मारा है क्या वे 'नास्तिक' थे ?उनके आचरण से यह जनश्रुति सत्य प्रतीत होती है कि मध्ययुग में बर्बर आक्रमणकारियों ने अफगानिस्तान के बामियान या सीरिया -ईराक के तरह ही भारत की सभ्यता -संस्कृति को भी बुरी तरह रौंदा होगा ! उन्होंने लाखों मंदिर नष्ट किये करोड़ों हिन्दू मारे उसका गम नहीं किन्तु तक्षशिला ,नांलंदा विश्वविद्यालय और उनके विशाल पुस्तकालय जलाये ,यह अक्षम्य अपराध है। इस अपराध के लिए वे देशी शासक भी जिम्मेदार हैं जो या तो 'रासलीला',रासरंग, संयोगिताहरण और अहंकार में लीन थे और वे धर्मगुरु एवम पंडितजन भी दोषी थे जो तब केवल 'चारण भाट' की भूमिका में थे,जैसे कि इस दौर में भी हैं !
भारतीय गुलामी का इंतजाम तभी शुरूं हो चुका था जब कर्मकांडी द्विज -ब्राह्मणों की तरह क्षत्रिय राजपुत्रों ने भी 'सन्यास' धारण करना शुरूं कर दिया। जब भारतीय उपमहाद्वीप पर बाहर के नए-नए खूंखार कबीले दनादन आक्रमण की तैयारी कर रहे थे तब इस धरती के शासक जीवनमुक्ति, मोक्ष,'अहिंसा परमोधर्म:' का नारा लगा रहे थे। कुछ युवराज तो 'भिक्षुक होकर 'अंतेवासी भी हो गए। परिणामस्वरूप पहलेसे ही खंड-खण्ड खण्डित भारत एक लंबी राजनैतिक गुलामी के शिकंजे में फँस गया।न केवल सतत गुलामी में जा फंसा , बल्कि अपने उस सहज विकास पथ से भी विचलित हो गया,जिसके कारण इसे 'सोने की चिड़िया' कहा गया था। आयुर्वेद,धनुर्वेद,सामवेद, में कोई कर्मकाण्ड नहीं है, अपितु उस दौर के सामाजिक ,आर्थिक,और राजनैतिक विकास का भारतीय मॉडल एवम तत्सम्बन्धी सूत्र मौजूद थे । बाहरी आक्रमणकारी जब भारत पर काबिज हो गए तो उन्होंने इस उपमहाद्वीप के शिक्षा,स्वास्थ्य ,विज्ञान ,सुरक्षा ,भौतिक विकास और विज्ञान -अन्वेषण को अवरुद्ध कर दिया। विजित संस्कृति के बर्बर स्वभाव से भारत का परंपरागत स्वभाव और विकास पिछड़ता चला गया। यही वजह है कि दोहजार साल पूर्व के भारतीय संस्कृत वाङ्गमय में ,कला - साहित्य में वो सब है ,जिसपर मध्ययुग के यूरोप को अब नाज है और जो उन्हें २०-२१वीं सदी में नसीब हो पाया ।वेशक उन्हें यह धर्म-मजहब से नहीं बल्कि विज्ञान की बदौलत मयस्सर हुआ है । पश्चिमी विकसित राष्ट्र १७वीं सदी से अब तक इस दुनिया को जो कुछ दे रहे हैं ,वह सारा तामझाम भारत भी कर सकता था ,यदि तत्कालीन भारत धर्म-मजहबके चक्कर में न उलझता, विज्ञानका वरण करता तो यकीनन बर्बर -गुलामी की नौबत ही नही आती ! जो धर्म-गुलामी की ओर ले जाता हो उसे त्यागने में ही कल्याण है !वेशक भारतीय धर्म-दर्शन - चिंतन और उसके 'अहिंसा' करुणा, क्षमा और विश्वबंधुता जैसे मूल्य सारे संसार में बेजोड़ हैं, लेकिन प्रत्येक दौर के बर्बर विदेशी आक्रान्ताओं ने उन मूल्यों का महत्व ही नहीं समझा ,उल्टा उपहास ही किया है !इसलिए आइंदा देश की आजादी अक्षुण रखना है तो धर्म -मजहब को राजनीति से दूर रखना होगा !
मानव सभ्यता के इतिहास में बेहतरीन मनुष्यों द्वारा आहूत उच्चतर मानवीय मूल्यों को धारण करने की कला का नाम 'धर्म' है !मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ कल्पना का नाम 'ईश्वर' है। भारतीय वांग्मय के 'धर्म' शब्द का अर्थ 'मर्यादा को धारण करना' माना गया है। जबकि दुनिया की अन्य भाषाओं में 'मर्यादा को धारण करना'याने 'धर्म' शब्द का कोई वैकल्पिक शब्द नहीं है। जिस तरह मजहब ,रिलिजन इत्यादि शब्दों का वास्तविक अर्थ या अनुवाद 'धर्म' नहीं है। उसी तरह वैदिक 'ब्रह्मतत्व' या 'परमात्मा अथवा ईश्वर जैसे सार्थक शब्दों का वास्तविक अभिप्राय भी 'अल्लाह' या 'गॉड' कदापि नहीं है। कुरान के अनुसार सिर्फ 'अल्लाह' महान है, मुहम्मद साहब उसके रसूल हैं.अल्लाह ही कयामत के रोज सभी मृतकों को उनकी नेकी-बदी के अनुसार सलूक करता है। बाईबिल का 'गॉड ' भी अलग किस्म की थ्योरी के अनुसार पूरी दुनिया का निर्माण महज ६ दिनों में करता है , अपने 'पुत्र' ईसा को दिव्य शक्ति प्रदान करता है कि धरती के लोगों का उद्धार करे। जबकि वेदांत दर्शन के अनुसार 'तत्त्वमसि' 'वह तुम खुद हो'! वेदांत का 'अहंब्रह्मास्मि' ही बुद्ध का 'अप्पदीपो भव' हो जाता है। 'गीता ,वेद और उपनिषद सभी का कहना है कि 'आत्मा ही परमात्मा है' !''तत स्वयं योग संसिद्धि कालेन आत्मनि विन्दति'' !
वेदांत दर्शन के अनुसार प्रत्येक जीवात्मा का अंतिम लक्ष्य अपनी पूर्णता को प्राप्त करना है ,अर्थात परमात्मा में समाहित हो जाना है। इस उच्चतर भारतीय दर्शन के श्रेष्ठतम मानवीय सूत्रों की साम्यवाद के सामाजिक मूल्यों से संगति बिठाकर शानदार जीवन पद्धति बनाई जा सकती है। अभी जिसे हिन्दू या 'सनातन धर्म' कहते हैं,उसमें जातीय टकराव और पूजा -उपासना का बदतर भेद भाव है। इसी महारोग के कारण अतीत में स्वार्थी राजाओं , लोभी बनियों और पाखण्डी पुरोहितों ने धर्म को शोषण-उत्पीड़न का साधन बनाये रखा है । उन्होंने इस पवित्र धर्म को जात -पांत ,ऊंच -नीच घृणा ,अहंकार और अनीति का भयानक कॉकटेल बना डाला है। इसीलिये अब तो आस्तिक भी कहते पाए जाते हैं किधरती पर पाप अर्थात 'अधर्म' बढ़ गया है। इस अधर्म में जब 'अंधराष्ट्रवाद' और धर्मान्धता का बोलवाला हो तो राष्ट्र का विकास कैसे होगा ? इसे तरह की स्थिति १९वीं शताब्दी के यूरोप की थी इसीलिये कार्ल मार्क्स को कहना पड़ा कि ' शोषित -पीड़ित जनता के लिए रिलिजन सिर्फ अफीम है '! वैसे धर्म-मजहब की यह अफीम इन दिनों पाकिस्तान,सीरिया,सूडान,यमन और तुर्की में इफरात से मुफ्त में मिल रही है।
आजाद भारतके संविधान निर्माताओं को कार्ल मार्क्स की शिक्षाओं का ज्ञान था,उन्हें मालूम था कि 'धर्म'-मजहब' के नाम पर सामन्त युगीन इतिहास में किस कदर अमानवीय और क्रूर उदाहरण भरे पड़े हैं। वे इतने वीभत्स हैं कि उनका वर्णन करना भी सम्भव नहीं ! धार्मिक -मजहबी उन्माद प्रेरित अन्याय जनित रक्तरंजित धरा के चिन्ह विश्व के अनेक हिस्सों में अब भी मौजूद हैं । अपने राज्य सुख वैभव की रक्षा के लिए न केवल अपने बंधु -बांधवों को बल्कि निरीह मेहनतकश जनता को भी 'काल का ग्रास' बनाया जाता रहा है । कहीं 'दींन की रक्षा के नाम पर, कहीं 'धर्म रक्षा' के नाम पर, कहीं गौ,ब्राह्मण और धरती की रक्षा के नाम पर 'अंधश्रद्धा' का पाखण्डपूर्ण प्रदर्शन किया जाता रहा है। यह नग्न सत्य है कि यह सारा धतकरम जनता के मन में 'आस्तिकता' का भय पैदा करके ही किया जाता रहा है।क्रूर इतिहास से सबक सीखकर भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा भारत को एक धर्मनिरपेक्ष -सर्वप्रभुत्वसम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य घोषित किया गया । यह भारत के लिए सर्वश्रेष्ठ स्थिति है। हमें हमेशा ही बाबा साहिब अम्बेडकर और ततकालीन भारतीय नेतत्व का अवदान याद रखना चाहिए और उन्हें शुक्रिया अदा करना चाहिए। भारत के राजनैतिक स्वरूप में धर्मनिपेक्ष लोकतंत्र ही श्रेष्ठतम विकल्प है।
दुनिया में यह आम धारणा है कि धर्म-मजहब में आस्था रखने वालों को 'आस्तिक' कहा जाता है।और जो इस धर्म-मजहब की अंधश्रद्धा पर वैज्ञानिक तर्क प्रस्तुत करता है,सत्य की कसौटी पर परखता है उसे 'नास्तिक' कहते हैं। कुछ ऐंसे भी तत्व हैं जो न तो किसी धर्म को मानते हैं, जो न किसी संविधान में यकीन रखते हैं ,इन्हें 'अराजक' और देशद्रोही' कह सकते हैं। चूँकि आस्तिक-नास्तिक की विवेचना और बहस अनादिकाल से चल रही है। अभी तक यह तय नहीं हुआ है कि ईश्वर ने मनुष्य की रचना की है या मनुष्य ने ईश्वर की कल्पना को साकार किया है ?यह सच है कि 'परहित सरिस धर्म नहीं भाई। पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।।' या 'वैष्णवजन तो तेने कहिये जे जाने पीर पराई रे ' का सन्देश दने वाले लोग गलत नहीं थे। लेकिन इस सिद्धान्त से सामाजिक समरसता तो हो सकती है, किन्तु शोषण-उत्पीड़न नहीं रुक सकता। सामाजिक ,आर्थिक और राजनैतिक भेद भाव खत्म करने के लिए तो 'सर्वहारा'का एकजुट संघर्ष ही अंतिम विकल्प है।
आस्तिक दो प्रकार के होते हैं।
जिस तरह भारतीय वेदांत दर्शन में सगुण -निर्गुण की मतभिन्नता- सिर्फ अज्ञानता का विमर्श है,उसी तरह सभ्य संसारमें आस्तिक-नास्तिक का भेद भी अज्ञान तक सीमित है। वस्तुतः यदि आप आस्तिक हैं तो यह आपके लिए शुभ है ,आपकी सेहत के लिए इस जगत में यह अच्छी स्थिति है। लेकिन यदि आप अंधश्रद्धा,साम्प्रदायिकता और धार्मिक पाखण्डमें आकण्ठ डूबे हैं तो यह 'आस्तिकता' आपके लिए अभिशाप है। यदि आप नास्तिक हैं तो बहुत गर्व की बात है, किन्तु यह अत्यावश्यक है कि आप - सत्य,नैतिकता,संविधान,मानवीय अनुशासन और न्याय के पक्ष का मजबूती से अनुपालन करें ! चूँकि आपको यकीन है कि आप अपनी मानवीय विवेकशक्ति और वैज्ञानिक सोचके बलबूते पर,बिना किसी ईश्वरीय सत्ता के,तमाम सांसारिक चुनौतियों का मुकाबला कर सकते हैं ,इसलिए आप महान हैं ! लेकिन याद रहे कि आपको जो कुछ करना -धरना है, सब अपने मानवीय बुद्धिबल के बूते पर ही करना है। आप किसी भी लौकिक -अलौकिक शक्ति से सहयोग की उम्मीद कतई न करें। क्योंकि जीव जगत के अधिकांस लोग आप जैसे ही हैं।
आस्तिक बनाम नास्तिक का द्वंद और उसकी चर्चा सदियों पुरानी है। पाषाण युग का मुनष्य जब गिरी कन्दराओं में रहता था, तब मूलतः वह न तो नास्तिकथा और न ही वह आस्तिकथा। तब वह अन्य देहधारियों की भाँति सिर्फ थलचर था। जहाँ-जहाँ धरती की जैविक तासीर मनुष्य की जिजीविषा के अनुकूल मिलती गयी ,मानव सभ्यता का वहाँ -वहाँ झंडा लहराने लगा। मनुष्य ने ज्यों ही पैरों पर चलना सीखा और आग का उपयोग सीखा और पहिये का आविष्कार किया त्यों ही उसकी मेधा शक्ति को पंख लग गए। जल्दी ही मनुष्य ने पत्थर के नुकीले हथियार और अन्य प्राणियों को काबू में करने के साधन खोज लिये। आग, पानी,हवा,पेड़-पौधे और पालतू पशुओं की खोज ने मनुष्य को 'नदी-घाटी'सभ्यताओं कीओर गतिशील बना दिया। जहाँ मनुष्य ने कबीलाई समाज में जीना प्रारम्भ किया। यों तो दुनिया भर के समाजों की भाषा,संस्कृति सभ्यता और व्यवस्था के क्रमिक विकास का इतिहास जुदा -जुदा है किन्तु आस्था-अनास्था का द्वंद सभी में एक समान रहा है। भारतीय उपमहाद्वीप में उत्तर वैदिक काल से ही 'वेदमत' और 'लोकमत' का सतत संघर्ष चलता आ रहा है।
ज्ञान क्या है ? अज्ञान क्या है ? ईश्वर क्या है ? ब्रह्म क्या है ? जीव क्या है ? माया क्या है ? दुःख-सुख का कारण क्या है ? सृष्टि कर्ता कौन है ? मनुष्य को किसकी आराधना करनी चाहिए ? वेद को मानने और तदनुसार यज्ञ उपासना करने वाले को आस्तिक क्यों कहा गया ?और वेदविरुद्ध लोकमतावलम्बी को नास्तिकक्यों कहा गया ?इन प्रश्नों के उत्तर और विपरीत मतों के द्वंदका यह सिलसिला हजारों साल पुराना । आस्तिक मतावलंबियों का धृढ़ विश्वाश है कि अच्छा और सुखी जीवन जीनेके लिए 'आस्तिक'होना जरूरी है। नास्तिक मत का विश्वाश है कि मनुष्य भी धरती के अन्य प्राणियों जैसा ही कुदरती सृजन है। जिस तरह पेड़-पौधों,पशुओं,थलचरों,जलचरों,नभचरों और मानव शिशुओं को आस्तिक-नास्तिक से कोई सरोकार नहीं ,उसी तरह 'मनुष्य योनि'को भी इस बात से कोई मतलब नहीं कि आस्तिक क्या है और नास्तिक क्या है ?
पाश्चात्य नास्तिकों और भारतीय चार्वाक दर्शन के अनुयायियों का सवाल जायज है कि जब मनुष्य के अलावा
हाथी ,कंगारू,ऊंट ,घोडा गधा, गाय बैल भैंस कुत्ता ,बिल्ली ,शेर ,साँप ,नेवला ,मयूर ,कोयल ,कौआ,तीतर, तोता , गिद्ध -बाज मगरमच्छ,कछुआ और मछली आस्तिक-नास्तिक नहीं होते तो मनुष्य को आस्तिक-नास्तिक के फेर में क्यों पड़ना चाहिए ? चूँकि आस्तिक-नास्तिक का वर्गीकरण मनुष्य के सिद्धांतों-नियमों से संचालित है अतः यह 'ईश्वर' कृत व्यवस्था नहीं है । यदि यह ईश्वरकृत व्यवस्था होती तो,ईश्वर ऐंसा अन्याय नहीं कदापि नहीं करता कि यह सौगात सिर्फ मनुष्य योनि के हवाले कर देता। अति उन्नत सूचना संचार क्रांति से युक्त २१वीं शताब्दी में भी अधिकांस दुनिया स्वाभाविक रूप से नास्तिक ही है। दक्षिण अफ्रीकी कबीलों में और भारत के सुदूरवर्ती क्षेत्रों के आदिवासियों को इससे कोई मतलब नहीं कि आप आस्तिक हैं या नास्तिक !चार्वाक से भी पहले भारतीय प्राच्य दर्शन श्रंखला में 'नास्तिक दर्शन' का उल्लेख बालमीकि रामायण में मिलता है।चित्रकूट में जब अनुज भरत की याचना को न मानकर श्रीराम ने ,गुरु वशिष्ठ और माताओं को वापिस विदा किया तब ऋषि 'जाबालि ने श्रीराम को 'नास्तिक'दर्शन सिखाया था !
आमतौर पर अर्धशिक्षित भारतीय युवावर्ग और खासतौर से धर्म-मजहब का घृणास्पद गटर साहित्य पढ़ने वाले साम्प्रदायिक तत्व और अंधराष्ट्रवादी नेताओं की दूषित भाषणबाजी का नित्य प्रातः सेवन करने वाले कूड़ मगज - मंदमति लोग यह मानते हैं कि कम्युनिस्ट अर्थात वामपंथी तो नास्तिक होते हैं। उनके मतानुसार जिस किसी ने अपने हाथोंमें 'हँसिया हथौड़ा' वाला ' लाल झंडा' उठा लिया समझो वह 'नास्तिक'है। उनकी नजर में यदि किसी ने गलतीसे भी 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा लगा दिया तो समझो वह 'देशद्रोही' है ! 'ब्रिटिश नेशनल अस्मेबली' में 'बम' और पर्चे फेंकते हुए और बादमें फाँसीके तख्तेसे भी शहीद भगतसिंह एवम उनके साथियों ने नारा लगाया था - 'इंकलाब जिंदाबाद'!मुकद्दमेंबाजी के दौरान जब 'धर्म बनाम आस्था का सवाल उठा तो शहीद भगतसिंह ने बार-बार कहा 'हमारा मकसद मुल्क की आजादी और उसके पश्चात् सर्वहारा वोल्शेविक क्रांति है,धर्म मजहब के नजरिये से मैं नास्तिक हूँ '! नास्तिक शब्द को इतना सम्मान दुनिया में कभी कहीं नही मिला।
आजादी के बाद भारत के दक्षिणपंथी धर्मभीरु 'हिंदुत्ववादी' लोग यह स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि भगतसिंह और उनके साथी वामपंथी' विचारधारा के थे और अपने आपको 'बोल्शेविक' कहते थे ! उन्होंने पूरी शिद्दत से अपने आपको नास्तिक घोषित कियाथा। आजादी के बाद जिनकी रगों में अंगेजों के डीएनए का असर बाकी है, वे लोग 'इंकलाब जिंदाबाद' के नारेको ही पसन्द नहीं करते। वे भगतसिंह की प्रतिमा पर एक आस्तिक की तरह माल्यार्पण तो करेंगे, किन्तु वे यह स्वीकार नहीं करेंगे कि भगतसिंह 'नास्तिक' थे और वामपंथी कम्युनिस्ट भी थे ! चूँकि इन अमर शहीदों की आराध्य 'भारत माता' थी और उसकी आजादीके लिए उनका त्याग- बलिदान तपस्या थी ,इसलिए वे 'नास्तिक' होते हुए भी राष्ट्रके आराध्य हो गए ! इसी तरह आधुनिक कम्युनिस्टों और वामपंथियों का 'इष्ट' है -सर्वहारा वर्ग को शोषण -उत्पीड़न मुक्त करके एक बेहतर समाज व्यवस्था कायम करना। इसके निमित्त वे जो -जो जन संघर्ष या जनांदोलन करते हैं वह उनकी साधना या तपस्या है। इस महान उद्देश्यमें अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वालों के समक्ष तो ईश्वर भी नतमस्तक होगा ,यदि वाकई में उसका अस्तित्व है तो !
भारत ही नहीं बल्कि सारी दुनिया में पतित व्यक्तियों और 'दवंग' समाजों द्वारा यह कुप्रचारित किया जाता रहा है कि कम्युनिस्ट तो नास्तिक होते हैं। पूँजीपतियों के दलाल सत्ता में बने रहने के लिए बुर्जुवा धर्मभीरुता का स्वांग रचते रहते हैं। वे लोकतंत्र में चुनावी जीत के लिए, राजनीति में धर्म-मजहबका इस्तेमाल करते रहते हैं ! बुर्जुवा वर्ग की इस कारस्तानी में सहयोग के लिए कुछ हद तक वे भी जिम्मेदार हैं जो अपने आपको वामपंथी कहते हैं। वे धर्म-दर्शन और अध्यात्म का ककहरा भी नहीं जानते और तर्कवादी -भौतिकवादी प्रगतिशील बुद्धिजीवी बन बैठे हैं। तार्किकता,वैज्ञानिकता और मार्क्सवादी द्वंदात्मक भौतिकवाद तो मानवता के लिए बेहतरीन वरदान है। किन्तु कुछ 'प्रगतिशील' लोग अपनी विद्वत्ता प्रदर्शन के बहाने धर्म-मजहब -अध्यात्म के मसलों में नाहक अपनी डेढ़ टाँग घुसेड़ते रहते हैं। वे धर्म-मजहब का अनावश्यक मजाक उड़ाते रहते हैं। उनकी इस नादानी से दुष्ट - साम्प्रदायिक तत्वों को ताकत मिलती है। और 'धर्मभीरु' जनता 'नास्तिक' क्रांतिकारियों की बनिस्पत पाखण्डी 'आस्तिक' साम्प्रदायिक तत्वों को भरपूर समर्थन तथा वोट देती रहती है।
'नास्तिकता' के नाम पर कम्युनिज्म को बदनाम करने वालों को राजनीति में इसलिए बढ़त हासिल है, क्योंकि भारतकी अधिकांस गरीब जनता अशिक्षित है। आम आदमीको 'धर्म' की 'अफीम' पसन्द है। जनता इस मजहबी अफीम को दुखोंका निवारणकर्ता मानती है। धर्मभीरु जनता को आसानी से 'हिंदुत्व' ईसाइयत अथवा इस्लाम के नाम पर आसानी से ध्रुवीकृत किया जा सकता है। धर्म-मजहब के ठेकेदार-स्वामियों,बाबाओं , पूँजीपतियों और उनके दलालों ने गठजोड़ करके न केवल कांग्रेस को बल्कि सम्पूर्ण वामपंथी बिरादरी को हासिये पर धकेल दिया है। जिस देशके घर-घरमें नित्य शंख -घण्टानाद होता हो ,नमाज -ताजियोंके बहाने सड़कों पर क्रूर शक्ति प्रदर्शन होता हो ,उसदेश की धर्मभीरु जनताको क्या गरज पडी कि किसी बाबा -स्वामी ,मुल्ला -मौलवी और सरकार से पन्गा ले ? इस मानसिकता की वजह से ही न केवल बंगाल में बल्कि सम्पूर्ण भारतमें संघर्षशील सर्वहारा का मेयार सिकुड़ता ही जा रहा है।इसके लिए वामपंथ द्वारा और खास तौर से प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का धर्म-मजहब पर अतार्किक कटाक्ष और 'नास्तिकता' का ढोंग जिम्मेदार है !
देश के मेहनतकशों-किसानों,कर्मचारियों और छात्रों के संघर्षों ,जनआन्दोलनों से वामपंथ की ज्यों ही कुछ ताकत बढ़ती है, त्योंही कुछ स्वयमभू वामपंथी नेता , प्रगतिशील बुद्धिजीवी उस धर्मनिपेक्ष ताकत रुपी शुद्ध दूधमें 'नास्तिकता' का नीबू निचोड़ देते हैं। उनके प्रमाद से- भृष्ट ,बेईमान शोषणकारी जातिवादी,सम्प्रदायवादी, पूँजीवादी और क्षेत्रीय दलों को विजयश्री मिल जाया करती है। इस तरह धर्म -मजहब के नाम पर जनता बार-बार ठगी जाती है। संकीर्णतावादी -कठमुल्लावादी लोग सिर्फ धर्म-मजहब की कतारों में ही नहीं हैं बल्कि वे वामपंथ और 'कम्युनिस्ज्म' की कतारोंमें भी हैं। ऐंसे लोग जनताके सवालों और आर्थिक-सामाजिक मुद्दों पर अच्छी पकड़ रखते हैं ,किन्तु धर्म -मजहब के मामलों में वे अतीत के'नास्तिकवादी ' खूँटे से बंधे हुए हैं। इस २१वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भी वे १८वीं सदी के पाश्चात्य सिद्धांतों से चिपके हुए हैं।
जो प्रगतिशील विचारक या अध्येता, अरब-यूरोप के मजहब-रिलिजन शब्द का अनुवाद संस्कृत के 'धर्म' में देखते हैं, वे फ़्रांस,जर्मनी,चीन ,क्यूबा , लातिनी अमेरिकी- सुशिक्षित मेहनतकश आवाम और भारतकी अशिक्षित अपढ़ 'धर्मप्राण'जनता के फर्क को नहीं समझते। सर्वहारा क्रांति की केवल एक ही ओषधि है।वोल्शेविक या माओवादी चिंतन। इस चिंतन और सोच से की ताकत से ही एक यूनिफार्म समाज में बदलाव या क्रांति को स्वीकृत किया जा सकता है। किन्तु जाति -धर्म के नाम पर बिखरे समाज और सदियों तक गुलाम रहे धर्मभीरु भारत के सर्वहारावर्ग से जब कोई कहता है कि कम्युनिस्ट तो 'नास्तिक' होते हैं ,तो हरावल दस्तोंका केडर भी उनका साथ छोड़ देता है। विगत १० सालों में पश्चिम बंगाल में यही हुआ है। इसके लिए वे विचारक ,बुद्धिजीवी और चिंतक जिम्मेदार हैं जो अपने आपको बड़े से बड़ा कम्युनिस्ट मानते रहे हैं !
कुछ प्रगतिशील बुद्धिजीवी लेखक -विचारक -धरना आंदोलन और सड़कों का संघर्ष छोड़कर धर्म -मजहब के संवेदनशील विमर्श में अपनी टेडी टांग घुसेड़ते रहते हैं। आमतौर पर आर्थिक- सामाजिक -राजनैतिक मसलों पर एक कम्युनिस्ट का अध्यन किसी पूँजीवादी अथवा साम्प्रदायिक नेता से बेहतर होता है।क्योंकि उसकी सोच का वैज्ञानिक आधार होता है। किन्तु जब कभी धर्म-मजहबकी चर्चा होती है, और यदि वह घोर नास्तिक बनने का ढोंग करता है तो जनता वह भी समझ जाती है। दूसरी ओर भाववादी भृष्ट लोग भी प्रचारित करते रहते हैं कि कम्युनिस्ट एवम प्रगतिशील खेमेंमें तो सब नास्तिक ही भरे पड़े हैं।जबकि तथाकथित आस्तिक लोगभी 'नास्तिक' के बारे में कुछ नहीं जानते। कुछ मूर्खोंने तो 'नास्तिक' चार्वाक दर्शन को मार्क्सवाद से नथ्थी कर डाला है!
वस्तुतः वेदों को नहीं मानने वाला नास्तिक कहा जाता था वास्तव में 'नास्तिक' वह नहीं जो अनीश्वरवादी है, बल्कि नास्तिक तो वह है जो बाप को बाप और माँ को माँ नहीं समझता। जो कृतघ्न- एहसान फरामोश और परजीवी है जो समाज में घृणा फैलाता है ,जो जातिवाद की राजनीति करता है ,जो बेईमान है और अनैतिक कर्म करता हैमैं उसे नास्तिक कहता हूं । अपने विवेक ,साहस और परिश्रम से जीवन यापन करता है उसे किसी ईश्वर की वैसे ही जरूरत नहीं जैसे कि दहकते सूरज को किसी अन्य ऊर्जा स्त्रोत से तपन हासिल करने की आवश्यकता नहीं !
कौन आस्तिक है कौन नास्तिक है यह व्यक्तिगत सोच और आचरण का विषय है। कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति ,समाज ,राष्ट्र या विचारधारा के बारे में यह निर्णय नहीं कर सकता कि 'अमुक' व्यक्ति या अमुक विचारधारा वाले लोग नास्तिक हैं या अमुक व्यक्ति और अमुक विचाधारा के लोग आस्तिक हैं।
इस संदर्भ में संस्कृत सुभाषित बहुत प्रसिद्ध है :-
काक : कृष्ण पिक : कृष्ण , कोभेद पिक काकयो :!
वसन्त समय शब्दै : , काक: काक: पिक: पिक: ! !
इसका सुंदर अनुवाद स्वयम बिहारी कवि ने किया है :-
भले-बुरे सब एक से ,जब लों बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक -पिक ,ऋतु वसन्त के माँहिं ।।
अर्थ :- अच्छा-बुरा ,आस्तिक -नास्तिक सब बराबर होते हैं ,जब तक वे अपने बचन और कर्म का प्रदर्शन नहीं करते। वसन्त के आगमन पर ही मालूम पड़ता है कि कोयल और कौआ में क्या फर्क है ?
यदि कोई कहे कि मैं 'नास्तिक' हूँ तो मान लो कि वो है,इसमें अपना क्या जाता है ? और यदि कोई कहे कि मैं तो 'आस्तिक' हूँ तो मान लो कि वो है,इससे तुम्हे क्या फर्क पड़ता है ? वैसे भी जो अपने आपको आस्तिक मानते हैं वे आसाराम,नित्यानंद और तमाम बाबा-बाबियां किस तरह के आस्तिक हैं यह सारा जगत जानता है। जबकि गैरी बाल्डी ,सिकंदर,जूलियस सीजर ,गेलिलियो ,अल्फ़्रेड नोबल ,आइजक न्यूटन डार्विन , रूसो,बाल्टेयर एडिसन,नेल्सन मंडेला ,मार्टिन लूथर किंग ,पेरियार, न्याम्चोमस्की जैसे लाखों नाम हैं जो अपने आपको नास्तिक मानते थे।
भारतीय हिन्दू दर्शन के अनुसार इस जीव जगत में ऐंसा कोई चेतन प्राणी नहीं जिसमें ईश्वर न हो !यह स्वयम भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है !
ईश्वरः सर्वभूतानाम ह्रदयेशे अर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन सर्वभूतानि ,यन्त्रारूढानि मायया।। ,,[गीता-अध्याय १८ -श्लोक ६१ ]
अर्थ :-हे अर्जुन ! शरीररूप यन्त्रमें आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी मायासे उनके कर्मानुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों में स्थित है। अर्थात ईश्वर सब में है। जो यह मान लेताहै वह आस्तिक है,जो न माने वो नास्तिक है। लेकिन नहीं मानने वाला जरुरी नहीं कि बुरा आदमी हो और मान लेने वाला जरुरी नहीं कि वह अच्छा आदमी ही होगा !वह रिश्वतखोर भी हो सकता है ,वह बदमाश -आसाराम जैसा लुच्चा भी हो सकता है !
जब कोई व्यक्ति कहे कि ''मैं नास्तिक हूँ '' तो उसे यह श्लोक पढ़ना होगा, यदि वह कुतर्क करे और कहे कि मुझे गीता और श्रीकृष्ण पर ही विश्वाश नहीं ,तो उसे याद रखना होगा कि श्रीकृष्ण ही दुनिया के सर्वप्रथम नास्तिक थे। उन्होंने ही 'वेद'विरुद्ध यज्ञ ठुकराकर सर्वप्रथम इंद्र की ऐंसी -तैसी की थी। गोवर्धन पर्वत उठाने की कथा भले ही रूपक हो ,किन्तु उसी रूपक का कथन यह है कि श्रीकृष्ण ने ही सबसे पहले धर्म के आडम्बर-पाखण्ड को त्यागकर -गायों ,नदियों और पर्वतों को इज्जत दी थी। यदि कोई कम्युनिस्ट भी श्रीकृष्ण की तरह का 'नास्तिक ' है तो क्या बुराई है ?
मैं स्वयम न तो नास्तिक हूँ और न आस्तिक ,मुझे श्रीकृष्ण का गीता सन्देश कहीं से भी अवैज्ञानिक और असत्य नहीं लगा। लेकिन बुद्ध का वह बचन जल्दी समझ में गयाकि 'अप्प दीपो भव'' । बुद्ध कहा करते थे ईश्वर है या नहीं इस झमेले में मत पड़ो ''! कार्ल मार्क्स ने भी सिर्फ 'रिलिजन' को अफीम कहा है ,उन्होंने भी बुद्ध की तरह ईश्वर और आत्मा के बारे में कुछ नहीं कहा। मार्क्सने भारतीय दर्शन के खिलाफ भी कभी कुछ नहीं लिखा। बल्कि मार्क्सने वेदों की जमकर तारीफ की है। उन्होंने ऋग्वेद में आदिम साम्यवाद का दर्शन की खोज की है । उन्होंने ही सर्वप्रथम दुनिए को बताया था कि 'वैदिककाल में आदिम साम्यवादी व्यवस्था थी और उसमें वर्णभेद,आर्थिक असमानता नहीं थी '' तथाकथित आस्तिक हिन्दू [ब्राम्हण पुत्र भी ] वेदों के दो चार सूत्र और मन्त्र पढ़कर साम्प्रदायिकता की राजनीति करने लगते हैं। वे यदि आस्तिक वेदपाठी प्रकांड पण्डित न भी हो किन्तु इस श्लोक को तो याद कर ही ले।
''अन्यनयाश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषाम नित्याभियुक्तानां योगक्षेम वहाम्यहम।। '' [गीता अध्याय ९ श्लोक-२२]
श्रीराम तिवारी
काक : कृष्ण पिक : कृष्ण , कोभेद पिक काकयो :!
वसन्त समय शब्दै : , काक: काक: पिक: पिक: ! !
इसका सुंदर अनुवाद स्वयम बिहारी कवि ने किया है :-
भले-बुरे सब एक से ,जब लों बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक -पिक ,ऋतु वसन्त के माँहिं ।।
अर्थ :- अच्छा-बुरा ,आस्तिक -नास्तिक सब बराबर होते हैं ,जब तक वे अपने बचन और कर्म का प्रदर्शन नहीं करते। वसन्त के आगमन पर ही मालूम पड़ता है कि कोयल और कौआ में क्या फर्क है ?
यदि कोई कहे कि मैं 'नास्तिक' हूँ तो मान लो कि वो है,इसमें अपना क्या जाता है ? और यदि कोई कहे कि मैं तो 'आस्तिक' हूँ तो मान लो कि वो है,इससे तुम्हे क्या फर्क पड़ता है ? वैसे भी जो अपने आपको आस्तिक मानते हैं वे आसाराम,नित्यानंद और तमाम बाबा-बाबियां किस तरह के आस्तिक हैं यह सारा जगत जानता है। जबकि गैरी बाल्डी ,सिकंदर,जूलियस सीजर ,गेलिलियो ,अल्फ़्रेड नोबल ,आइजक न्यूटन डार्विन , रूसो,बाल्टेयर एडिसन,नेल्सन मंडेला ,मार्टिन लूथर किंग ,पेरियार, न्याम्चोमस्की जैसे लाखों नाम हैं जो अपने आपको नास्तिक मानते थे।
भारतीय हिन्दू दर्शन के अनुसार इस जीव जगत में ऐंसा कोई चेतन प्राणी नहीं जिसमें ईश्वर न हो !यह स्वयम भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है !
ईश्वरः सर्वभूतानाम ह्रदयेशे अर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन सर्वभूतानि ,यन्त्रारूढानि मायया।। ,,[गीता-अध्याय १८ -श्लोक ६१ ]
अर्थ :-हे अर्जुन ! शरीररूप यन्त्रमें आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी मायासे उनके कर्मानुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों में स्थित है। अर्थात ईश्वर सब में है। जो यह मान लेताहै वह आस्तिक है,जो न माने वो नास्तिक है। लेकिन नहीं मानने वाला जरुरी नहीं कि बुरा आदमी हो और मान लेने वाला जरुरी नहीं कि वह अच्छा आदमी ही होगा !वह रिश्वतखोर भी हो सकता है ,वह बदमाश -आसाराम जैसा लुच्चा भी हो सकता है !
जब कोई व्यक्ति कहे कि ''मैं नास्तिक हूँ '' तो उसे यह श्लोक पढ़ना होगा, यदि वह कुतर्क करे और कहे कि मुझे गीता और श्रीकृष्ण पर ही विश्वाश नहीं ,तो उसे याद रखना होगा कि श्रीकृष्ण ही दुनिया के सर्वप्रथम नास्तिक थे। उन्होंने ही 'वेद'विरुद्ध यज्ञ ठुकराकर सर्वप्रथम इंद्र की ऐंसी -तैसी की थी। गोवर्धन पर्वत उठाने की कथा भले ही रूपक हो ,किन्तु उसी रूपक का कथन यह है कि श्रीकृष्ण ने ही सबसे पहले धर्म के आडम्बर-पाखण्ड को त्यागकर -गायों ,नदियों और पर्वतों को इज्जत दी थी। यदि कोई कम्युनिस्ट भी श्रीकृष्ण की तरह का 'नास्तिक ' है तो क्या बुराई है ?
मैं स्वयम न तो नास्तिक हूँ और न आस्तिक ,मुझे श्रीकृष्ण का गीता सन्देश कहीं से भी अवैज्ञानिक और असत्य नहीं लगा। लेकिन बुद्ध का वह बचन जल्दी समझ में गयाकि 'अप्प दीपो भव'' । बुद्ध कहा करते थे ईश्वर है या नहीं इस झमेले में मत पड़ो ''! कार्ल मार्क्स ने भी सिर्फ 'रिलिजन' को अफीम कहा है ,उन्होंने भी बुद्ध की तरह ईश्वर और आत्मा के बारे में कुछ नहीं कहा। मार्क्सने भारतीय दर्शन के खिलाफ भी कभी कुछ नहीं लिखा। बल्कि मार्क्सने वेदों की जमकर तारीफ की है। उन्होंने ऋग्वेद में आदिम साम्यवाद का दर्शन की खोज की है । उन्होंने ही सर्वप्रथम दुनिए को बताया था कि 'वैदिककाल में आदिम साम्यवादी व्यवस्था थी और उसमें वर्णभेद,आर्थिक असमानता नहीं थी '' तथाकथित आस्तिक हिन्दू [ब्राम्हण पुत्र भी ] वेदों के दो चार सूत्र और मन्त्र पढ़कर साम्प्रदायिकता की राजनीति करने लगते हैं। वे यदि आस्तिक वेदपाठी प्रकांड पण्डित न भी हो किन्तु इस श्लोक को तो याद कर ही ले।
''अन्यनयाश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषाम नित्याभियुक्तानां योगक्षेम वहाम्यहम।। '' [गीता अध्याय ९ श्लोक-२२]
श्रीराम तिवारी
भारत के अधिकान्स हिंदी भाषी लोग उर्दू के 'खिलाफत'शब्द का बेहद दुरूपयोग करते रहते हैं। दरसल इस 'खिलाफत' शब्द का वास्तविक अर्थ है 'इस्लामिक संसार के प्रमुख की सत्ता'! सार्वजानिक तौर पर भारतीय जन मानस द्वारा इस 'खिलाफत' शब्द का सबसे पहले प्रयोग १९१९ के खिलाफत आंदोलन के दौरान किया गया था। तब इस शब्द को उसके सही अर्थ में प्रयोग किया गया था। किन्तु वर्तमान दौर में 'इस्लामिक दुनिया' का कोईभी व्यक्ति सत्ता के केंद्र में नहीं है अर्थात इस्लामिक'खलीफा' कोई नहीं है ,इसलिए दुनिया में 'खिलाफत' का भी कोई अस्तित्व ही नहीं है। फिर भी भाई लोग इस 'खिलाफत' शब्द की आये दिन ऐंसी -तैसी करते रहते हैं।अधिकांस जब पढ़े-लिख लोग इस शब्द को 'राजनैतिक विरोध ' या 'आलोचना' के पर्यायबाची रूप में इस्तेमाल करते हैं तो बड़ी कोफ़्त होती है। विरोध का वास्तविक उर्दू शब्द है 'मुखालफत' किन्तु इस शब्द को केवल वही इस्तेमाल करते हैं जो उर्दू जानते हैं।
जिस तरह अनाड़ियों नई खिलाफत शब्द की दुर्गति की है ,उसी तरह कुछ 'काम पढ़े लिखे 'लोगों ने संस्कृत के धर्म,अधर्म,आस्तिक,नास्तिक इत्यादि शब्दोंका कबाड़ा कर डाला है। विद्वान् लोग जानते हैं कि संस्कृत के 'धर्म' शब्द का वास्तविक अर्थ रिलिजन या मजहब नहीं है। उसी तरह नास्तिक का सटीक अर्थ 'काफ़िर' अथवा यथेस्ट [Atheist] नहीं है। इसलिए इस्लाम ,यहूदी या ईसाई मजहबों में 'संस्कृत के 'धर्म' अथवा 'नास्तिक' शब्द का कोई विकल्प नहीं है। यदि कोई शब्द पाया गया तो उसका अर्थ 'वेद विरुद्ध' वाली अवधारणा से बिलकुल पृथक होगा। भारतीय 'वैदिक वांग्मय' के अनुसार जो वेदविरुद्ध है वही नास्तिक है। इस सिद्धान्त के अनुसार सिर्फ भारतीय साँख्य ,न्याय,वैशेषिक इत्यादि दर्शन और जैन, बौद्ध ,सिख ,चार्वाक मतावलंबी को नास्तिक ही होना चाहिए। इस्लाम ईसाई अथवा अन्य सेमेटिक मजहबों का इस शब से कोई सरोकार नहीं। भारत में चार्वाक मतावलम्बियों और अर्वाचीन साम्यवादियों ,समाजवादियों या रेशनलिस्टों के अलावा कोई भी अपने आपको नास्तिक नहीं मानता।
साम्यवादी दलों मेंभी सिर्फ उच्च शिक्षित नेतत्वकारी लोग ही दावा करते हैं कि वे 'नास्तिक' हैं। किन्तु वे नास्तिक शब्दको 'मार्क्सवाद' की वैज्ञानिक भौतिकवादी व्याख्या के 'अवैदिक' संदर्भ में देखते हैं। वास्तविक नास्तिक वेभी नहीं हैं। उनके नेतत्व में संगठित सर्वहारावर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा न तो आस्तिक है और न ही नास्तिक है। जो शख्स दो वक्त की रोटी की जुगाड़ में रात-दिन खेतों-कारखानों में पिस रहा हो ,जिसे किसी बाबा गुरु घण्टाल के क़दमों में शीश नवाने का अवसर ही न मिलता हो ,जो मंदिर -मस्जिद के अंदर ही न जा पाता हो ,उसे नास्तिक कहो या आस्तिक कोई फर्क नहीं पड़ता।
जो जेब कतरे,लुच्चे -लफंगे गली मोहल्ले में मटकी फोड़ या होली की हुल्लड़ करते हैं ,भगवा - हरा दुपट्टा गले में बांधकर कोई गणेशोत्सव ,कोई करबला वाली छाती कूट रस्म ऐडा करता हो और बाद में रातको चेन स्नेचिंग और सट्टाखोरी ,जुआखोरी करते हों वे सिर्फ इसलिए आस्तिक नहीं हो जाते कि वे आसाराम जैसे बलातकारी की पैरवी करते हैं, मजहब के नाम पर 'जेहाद'की आग में जलते हैं। देश और दुनियाका मेहनतकश मजदूर -किसान सिर्फ और सिर्फ 'सर्वहारा' है। उसे नास्तिक-आस्तिक शब्दों की जरूरत ही नहीं है। हालांकि इस धरती पर ईश्वर की आवश्यकता हमेशा बनी रहेगी !
ऋगवेद के अस्ति -नास्ति प्रत्यय से उतपन्न आस्तिक एवम नास्तिक शब्दों का विस्तृत विमर्श संस्कृत वांगमय में और भारतीय प्राच्य 'दर्शन' में भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। उपनिष्दकाल में यह सिद्धांत प्रचलन में आया कि जो 'वेद' विरुद्ध है वह नास्तिक है। ! नास्तिक -आस्तिक एक ही सिक्के के दो पहलु !
जब कोई व्यक्ति धर्म-मजहब ,आत्मा-परमात्मा सम्बन्धी कपोलकल्पित साहित्य और 'ईश्वर'के अस्तित्व परआस्था -अंधश्रद्धा रखे,कोई सवाल नहीं करे- बल्कि धर्मगुरु और शास्त्र जो कहे उसे सत्य मानकर चले तो यह 'आस्तिक' का लक्षण है।जब कोई व्यक्ति कहे कि 'मैं जो कह रहा हूँ वही सत्य है' तो यह अभिमानी का लक्षण है !जब कोई व्यक्ति कहे कि 'दूसरों का अनिष्ट किये बिना ,किसी को हानि पहुंचाए बिना,तर्क की कसौटी पर जो सापेक्ष सत्य सिद्ध होगा- मैं उसे ही स्वीकार करूँगा' तो यह वैज्ञानिक का लक्षण है ! किसी को हानि पहुंचाए बिना,पाखण्ड और चमत्कार के झांसे में आये बिना जो व्यक्ति कहे कि 'मैं हमेशा न्याय का पक्षधर रहूँगा' तो यह 'स्वाभिमानी'का लक्षण है ! जो शख्श तर्कवादी, स्वाभिमानी ,विज्ञानवादी तथा मानवतावादी होता है उसे ही 'नास्तिक' कहते हैं। जिस तरह यह सच है कि संसारके अधिकांस वैज्ञानिक अनुसन्धानकर्ता नास्तिक थे। उसी तरह यह भी सच है कि संसार में सत्य ,अहिंसा,क्षमा ,नैतिकता, इंसानियत और तमाम मानवीय मूल्यों की स्थापना 'आस्तिक' मनुष्यों द्वारा की गई है।
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब सीआईए और उसके रूसी एजेंटोंके मार्फ़त 'सोवियत क्रांति' पराभूत करदी गयी। सारी दुनियाने विश्वबैंक आईएमएफ के निर्देशानुसार आर्थिक सुधारोंका दामन थाम लिया। विकासके नाम पर आधुनिक उद्दाम पूँजीवाद का महाजाप शुरूं हो गया ,तब महान राजनैतिक विचारक देंग शियाओ पिंग ने कहा -''बिल्ली काली हो या सफ़ेद यदि वह चूहे मारे तो कामकी है''। देंग शियाओ पिंग तो दुनिया में अब नहीं रहे किन्तु उनका यह कथन आर्थिक सुधारोंके साथ-साथ आस्तिक-नास्तिक,ईश्वर ,धर्म-मजहब -अध्यात्म के संदर्भ में भी सटीक बैठ रहा है।
श्रीराम तिवारी