सोमवार, 18 जनवरी 2016

भारत तो दुनिया का सबसे सहिष्णु राष्ट्र है। कोई शक !


मानव सभ्यता के प्रारंभिक दिनों से ही मनुष्य को 'संवाद' याने 'बोली-बानी' की ताकत का एहसास हो चला था। भारतीय वांग्मय में खास तौर  से संस्कृत साहित्य में  'सुभाषित' को निंविवाद मान्यता प्राप्त रही है। जिस देश  के संस्कृत वाङ्ग्मय के आदि कवि बाल्मीकि की प्रथम रचना की प्रथम पंक्ति ही करुणामयी हो,जिस धरती के  कवि कुल गुरु कालिदास की ललित - लावण्यमयी कोमलकांत पदावली की काव्य  मंजरी पर मानवता के भ्रमर  निरंतर गुंजायमान होते रहे हों  ,जिस देश में विद्यापति से लेकर मतिराम बिहारी तक की रूप - रस- गंध-की  छंदमयी शब्द यात्रा की कोमल काव्य लहरी सतत  प्रवाहमान  रही हो ,जिस देश  में  नबाबों  के दौर में आगरा दिल्ली -लखनऊ -भोपाल -हैदराबाद वालों को उर्दू की नफासत का  गुमान हुआ करता हो ,उस देश की विराट  - नरमेदिनी में  साम्प्रदायिकता का देवासुर संग्राम बहुत दुखदायी है। किन्तु  भारतीय कौम के डीएनए में हिंसक आक्रामकता नहीं है। उतनी तो कदापि नहीं जितनी  आईएसआईएस जैसे लड़ाकों में उफ़न रही है।

 भारत की साहित्यिक  सांस्कृतिक  विरासत में धर्मनिरपेक्षता और  सर्वधर्म समभाव का दर्प सदा विद्यमान रहा है और सदा बना  रहेगा।  जिस तरह पुरातन संस्कृत ,पाली,अपभृंश और द्रविड़ साहित्य के अध्येताओं को , व्याकरणवेत्ताओं  को, सुसंस्कृत -सभ्य जनों को , अपनी  वाग्मिता एवं कथोपकथन  पर हजारों साल से बड़ा  अभिमान  रहा है उसी  तरह भारत  के  स्वाधीनता संगाम  के दौर में क्रांतिकारियों को  भी अपनी  कौमी एकता पर बहुत गर्व या  अभिमान रहा है। यह स्वयंसिद्ध है कि  भारतीय संस्कृति की इन दो मुख्य धाराओं ने  ही भारत की गंगा जमुनी तहजीव को परवान  चढ़ाया है। निसंदेह अंगेर्जो ने भारत में साइंस,टेक्नॉलॉजी और लोकतंत्र का बीजारोपण किया है। लेकिन यह सब अपने ब्रिटिश साम्राज्य को अक्षुण रखने के लिए ही किया होगा। आजादी के बाद कांग्रेस ने  देश को तो कुछ हद तक आगे बढ़ाया किन्तु अधिकांस जनता पीछे रह  गयी। जन जनाकांक्षा ने गैरकांग्रेस वाद को भी  कई बार आजमाया। किन्तु  बात कुछ नहीं बनी। इस जन -गफलत में उलटे जब-कभी दक्षिणपंथी स्वयंभू राष्ट्रवादियों को सत्ता मिली  तो वे  यह सिद्ध करने में ही जुटे रहे  कि चाँद-तारे और सूरज उन्ही के इशारों पर चल रहे हैं।उनकी नजर में  वे खुद तो  भारत के सहज सहिष्णु हैं लेकिन जो धर्मनिरपेक्ष हैं, वे असहिष्णु हैं। उनकी  जिद है कि जो कोई भी 'संघ परिवार' की हाँ में हाँ नहीं मिलायेगा और धर्मनिपेक्षता या  असहिष्णुता की शिकायत  करेगा उसे पूर्णतः देशद्रोही माना जाएगा । उनके कुल में  केवल  अकूत अंधश्रद्धा का बोलवाला है। कोई प्रतिप्रश्न नहीं ,कोई  वैज्ञानिक निषेध नहीं। कोई सार्थक विमर्श या तर्क नहीं। और मानसिक  गुलामी उधर अभी तक  बरक़रार है।  स्वर्णिम अतीत में खोये रहने वाले 'संघी 'नास्ट्रेलजिया के मरीज  हैं। 

वैसे भी सामंतयुग में  गुलाम भारत की जनता को  बोलने का अधिकार ही नहीं था। हालाँकि उस कठिन दौर में भी प्रतिरोध की शक्तियाँ निरंतर  संघर्षरत रहीं हैं । जब यूरोप के  बुर्जुवा वर्ग ने उधर  सामंतवाद को उखाड़ फेंका और पूँजीवादी लोकतंत्र कायम किया तो गुलाम  भारत के सचेत योद्धाओं और अमर शहीदों ने भी इधर भारत में आजादी का बिगुल  बजाया। मजूर-किसानों ने अनगिनत कुर्बानियाँ दीं। कोई  भी साम्प्रदायिक नेता  व्यापारी,भृष्ट अफसर या जातीय नेता जेल नहीं गया।देशी राजाओं ने सिर्फ अपनी जागीरों की चिंता की।आम जनता ने  बड़ी ही मशक्क़त और कुर्बानी के बाद ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति पायी। लोकतंत्र की जननी  ब्रिटिश पार्लियामेंट्री डेमोक्रसी  ने  गुलाम  भारत में  भी 'कानून के राज' की स्थापना की। सिर्फ उतनी  ही आजादी दी जिससे  'किंग एंड क्वीन 'के ताज पर कोई आँच न आये। जबकि भारत  के  मजहबी - साम्प्रदायिक एवं जाति  -वादी नेता और तत्कालीन  राजे-रजवाड़ों अपने  विशेषाधिकारों के लिए अंग्रेजों की जय-जैकार करते रहे। वही  अंग्रेजों की जैकार करने वाली विचारधारा के लोग कांग्रेस और कम्युनिस्टों को  गालियाँ  देते हुए अब स्वयंभू राष्ट्रवादी बन गए.और  कांग्रेस तो फिर भी  सत्ता में रही  है और उसके धत -कर्मों की बदौलत सियासत रुपी  नाई का उस्तरा अब साम्प्रदायिक बंदरों के  हाथ लग चुका  है। इसीलिये देश के चेहरे पर कुछ -कुछ  खरोंचें सी   दिखने लगीं हैं। लेकिन देश के गरीबों-किसानों और उनकी राजनैतिक पार्टियों के रूप में भारतीय वामपंथ ने हमेशा  क़ुर्बानियाँ  ही दीं हैं।

वामपंथ ने  हमेशा यह  ध्यान रखा कि  हर किस्म की साम्प्रदायिकता व  मजहबी पाखंड की आलोचना तो की जाए और  उससे संघर्ष भी किया जाए  किन्तु  लोकतान्त्रिक जनादेश का सम्मान  भी किया जाये । लेकिन अन्य क्षेत्रीय दलों और दक्षिणपंथी एनडीए को यह सिद्धांत कतई पसंद नहीं। वे केवल झूंठ दर झूंठ बोले जारहे हैं और अपनी असफलताओं का दोष विपक्ष पर मढ़ते रहते  हैं। जबसे एनडीए -दो की मोदी सरकार सत्ता में आई है ,तबसे'संघ परिवार' लगातार यह जताने में  ही जुटा हुआ है कि आजादी के आंदोलन का इतिहास या उससे पहले वाले सामन्तकालीन  भारत का इतिहास- अब तक जो पढ़ाया जाता रहा है ,वह दोषपूर्ण ही लिखा गया है। गुलामी के शर्मनाक खंडहरों के ढेर में  वे अतीत का स्वर्णिम भारत  खोज रहे हैं। हिन्दुत्ववादी भाजपाईं  और   'संघ परिवार' वाले अन्य  धर्मनिरपेक्षतावादी और लोकतंत्रवादी दलों  की लकीर पोंछने में जुटे हैं।

विरोध की रौ में आकर धर्मनिरपेक्ष और जनवादी  विद्वान भी भूल गए कि वे न केवल भैंस  के आगे बीन बजा रहे हैं। बल्कि जाने-अनजाने 'राष्ट्रवाद 'की सारी ठेकेदारी 'संघ परिवार' को ही  सौंपने में जुटे हुए हैं। वेशक कुछ लोग सोच सकते हैं कि यह एनडीए-दो की मोदी सरकार  तो उस बामी  की तरह है जिसमें साम्प्रदायिक घृणा  और असहिष्णुता के साँप पल रहे हैं ! और  इसीलिये समूचा  लोकतांत्रिक -वामपंथी विपक्ष अब अपने असहमति के सब्बलों से उस राजनैतिक बामी को ध्वस्त करने की असफल चेष्टा किये जा रहा है । किंतू यह अकाट्य सत्य है कि यह बामी  भले ही ध्वस्त हो जाए किन्तु साम्प्रदायिकता रुपी नाग कभी  खत्म नहीं होगा। क्योंकि बामी कूटने वालों के आस्तीन में भी तो कुछ भृष्टाचार और शोषण के वासुकि  -तक्षक नाग छिप्र हुए हैं। लोकतांत्रिक सिंधु मंथन की  मशक्क़त में  अलगाववाद और सामाजिक दुराव का महाविष उतपन्न हो रहा है। इसे पीने के लिए किस 'नीलकंठ' के अवतार  की प्रत्याशा है ?

 स्वाधीनता संग्राम के दौर में  शहीदों की अनगिनत कुरबानियों ने और सोवियत वोल्शेविक क्रांति के सर्वव्यापी असर ने ब्रटिश साम्राज्य और यूरोप  समेत दुनिया के तमाम उपनिवेशवादियों की नींद हराम कर रखी थी, काला  इतिहास  गवाह है कि खंड-खंड  में मिला टूटा-फूटा  स्वतंत्र  भारत' हमारे राजनैतिक अतीत की गफलतों-भूलों और राजवंशों की कायरता का दुखद  परिणाम है। हमारे स्वाधीनता संग्राम के  महान नेताओं ने एक बेहतर संविधान बनाये जाने की पुरजोर कोशिश की , जिसमें सभी को  हर किस्म  की सम्वैधानिक आजादी प्राप्त है। जीवन के हर क्षेत्र में उन्नति के लिए समान अवसर और सभी भारतीयों को अपने तरीके से जीवन यापन तथा लिखने -पढ़ने बोलने की  पूरी आजादी है। हाल की घटनाओं से ऐंसा लगता है कि यह संविधान  उन्ही लोगों को रास नहीं आ रहा है। जो कि आरक्षण  के नामपर  जातीयता की रोटी खा रहे  हैं। दलित अस्मिता के बहाने कुछ स्वार्थी लोग हिन्दू समाज में वैमनस्य फैला रहे हैं। इसी तरह कुछ लोग अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के दवंद   में साम्प्रदायिक राजनीति की रोटी सेंक रहे हैं। दलित बनाम सवर्ण ,पिछड़ा बनाम दलित ,हिन्दू बनाम मुस्लिम और बहुसंख्यक बनाम  अल्पसंख्यक  के अलगाव का गरल चारों ओर उफ़न रहा है।इसके वावजूद उन्हें बहुत  खुशफहमी है कि अच्छे दिन आये हैं।

ज्यों-ज्यों  बक्त गुजर रहा है ,जाने-अनजाने  कुछ लोग राष्ट्र -कृतघ्नता की ओर अग्रसर हो रहे हैं। हो सकता है कि देश तो  तरक्की कर रहा हो किन्तु अधिकांस लोगों को उसका लाभ न मिल पा रहां हो। और असमानता भी तेजी से  बढ़  रही हो। और हर र्किस्म की  असहिष्णुता का  भी कुछ-कुछ असर बढ़ रहा है। न केवल सत्ता पक्ष  की तरफ , बल्कि विपक्ष सहित ,सभी वर्ग,जाति ,धर्म,मजहब और विचारधारा के नर-नारी भी बोल -बचन की हदें तोड़ने पर आमादा हैं। जिसको जो नहीं मालूम उस पर भी बोले जा रहा है। इतना ही नहीं  'सूप  बोले सो बोले  चलनियाँ  इस दौर में कुछ ज्यादा ही बोल रहीं हैं। विचारों से गूंगे बहरे भी बोलने को आतुर हैं। वे यह भूल जाते हैं कि उनकी इन  नादानियों ,असहमतियों, असहिष्णुताओं से  दुनिया में बाकई  गलत संदेश जा रहा है। जबकि  भारत तो  दुनिया  का सबसे सहिष्णु राष्ट्र है। वेशक  कुछ लोग अवश्य असहिष्णु हो सकते  हैं। खास तौर से मजहबी कटटरतावादी , साम्प्रदायिक प्रतिक्रियावादी एवं जातीयता की राजनीति करने वाले। परजीवी लोग  इन  दिनों कुछ ज्यादा ही असहनशील हो रहे हैं। इसके लिए  निहित स्वार्थ की विचारधारा पर आधारित  मजहबी,साम्प्रदायिक और जातीय संगठन पूर्णतः जिम्मेदार हैं।  भारत से बाहर  की दुनिया में फ़ैल रहा मजहबी आतंकवाद और पास -पड़ोस में छिपे -बैठे भारत के दुश्मन  भी  कदाचित इस उस असहिष्णुता के लिए कुछ हद तक  जिम्मेदार हैं।

साइंस- टेक्नॉलॉजी की दुहिता नव संचार क्रांति की असीम अनुकम्पा से न केवल 'जन नेता ' बल्कि अब तो  जन साधारण के जी में जो आता है सो बके जा  रहा है। वास्तव में  भारत एक सनातन सहिष्णु राष्ट्र है,  हो सकता है की इन दिनों कुछ लोग सत्ता पाकर असहिष्णु  हो गए हों !लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि यह क्रिया है।  बल्कि यह तो  विलम्बित प्रतिक्रिया मात्र है। इसे टाला  भी नहीं जा सकता। क्योंकि प्राकृतिक  न्याय के सिद्धांत अनुसार प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। लकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि  हरेक  प्रतिक्रिया के विरोध में भी अन्योन्य प्रतिक्रिया का श्रीगणेश होना स्वाभाविक  है। जब द्वन्द मुखरित होने लगता है  तो  कुछ लोग असहिष्णुता की शिकायत करने लगते हैं। लेकिन वे सिर्फ एक पक्षीय ,एक ध्रुवीय और एकमंचीय दबदबा चाहते हैं। यह कैसे संभव  है?

दरअसल जब किसी को अपनी बात ठीक से कहना नहीं आती तो उसके अनेक  नकारात्मक नतीजे हो सकते हैं।कभी-कभी बात का बतंगड़  भी बन जाया करता  है। कभी अर्थ का अनर्थ भी हो जाता है। कभी -कभी उनके  कथोप -कथन की कठोरता से 'महाभारत' भी हो जाते हैं।जिन लोगों को कहना चाहिए था कि 'वर्तमान सरकार के शासन में असहिष्णुता बढ़ रही है ',वे कह देते हैं कि 'यह देश [भारत] रहने लायक ही नहीं। याने  उनकी नजर में असहिष्णुता है। अब यह  बोल बचन बोल कर साम्प्रदायिकता के साँप  को उकसाकर -डसने के लिए उकसाना कौनसी प्रगतिश्लीता है ? इससे  तो सत्ता पक्ष को अपनी गलती  छुपाने का  भरपूर अवसर मिल जाया करता है।  अपनी अनुदार छवि  के नीबू को राष्ट्रवाद के  दूध  में  निचोड़ते हुए यदि  बहुसंख्यक दक्षिणपंथी सत्ता पक्ष ने  तमाम विरोधियों को 'राष्ट्र विरोधी' लाइन में जबरन खड़ा कर दिया तो इससे देश को क्या लाभ होगा ?

हालाँकि इसके लिए  देश का इतिहास भी जिम्मेदार है। इस बाकयुद्ध में  दोनों पक्ष  भूल जाते हैं कि  वे सीसे के मकानों में रहते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि  इस देश पर हजार साल तक 'असहिष्णु' लोगों ने  ही राज किया है। उस भयानक सामन्तकालीन निरंकुशता का कुछ तो असर रहेगा।  वैसे भी इस  दुनिया में ऐंसा कौनसा राष्ट्र  है जो भारत जैसा  सांस्कृतिक बहुलतावादी है ? दुनिया का कौन सा राष्ट्र भारत से ज्यादा सहिष्णु है ?  वेशक इस देश में कुछ गुमराह लोग कभी -कभार असहिष्णु हो जाया करते हैं।खास  तौर से सत्ता में आने के बाद  तो : ''जो रहीम ओछो बढे, तो अति ही इतराय। प्यादे से फर्जी भयो ,टेढ़ो-टेढ़ो जाय। ''

जब से सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता का विमर्श प्रकट हुआ है ,तबसे प्रिंट मीडिया ,इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और  सोशल मीडिया का सार्थक उपयोग बहुत कम और दुरूपयोग  कुछ ज्यादा ही होने लगा है। तमाम नव संचार - तकनीकी संसाधनों से लेस  युवा पीढ़ी  इसके संचालन में तो दक्ष है, विभिन्न एंगल से अपने-अपने फोटो पोस्ट करने या फूहड़ किस्म की अनुपयोगी अगम्भीर सामग्री  फेसबुक ,वाट्सएप इत्यादि पर पेलने में खूब माहिर है।  इसी तरह  अन्य वे  लोग जो अन्तरजाल [Internet]  से संबद्ध हैं ,वे संचार क्रांति के दो दशक बीत जाने के बाद भी साइंस की इस खोज  का  उचित सामाजिक ,आर्थिक और राजनैतिक  सरोकार नहीं शोध पाये हैं। देश में चल रहे सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता के  कुकरहाव से दुनिया में  भारत की छवि खराब हुई है। सार्थक विमर्श अभी भी अपेक्षित है। देश तो सहिष्णुता से लबरेज है किन्तु शासक वर्ग की कतारों में असहिष्णुता की फसल लहलहा रही है। हालाँकि  कुछ लोगों का दावा है कि  हम  सनातनी तो अनादिकाल से सहिष्णु हैं ,ये तो विदेशी'हमलावरों ने हमारे  भारत में 'असहिष्णुता'फैलाई है।  ऐंसे लोग  महा भारत  युद्ध और आदिशंकराचार्य का 'भारत विजय' अभियान क्यों भूल जाते हैं ? अतीत में महापद्मनंद जैसे घटिया पियक्क्ड़ बौद्ध राजाओं  ने हिन्दुओं का सफाया किया तो चाणक्य जैसे सदाचारी किन्तु बदले की भावना से प्रेरित  हिन्दू ब्राह्मण ने नन्द वंश का नाश ही कर दिया। भारत का  रक्त  रंजित इतिहास  तो असहिष्णुता का महासागर ही  है।

 कुछ लोगों का कहना है कि गाय को मारकर खाना ,चार-चार शादियां करना , देश के दुश्मनों से  सहानुभूति रखना उनका   जायज हक  है ! यदि सरकार उस पर रोक-टॉक करती  है तो यह उसकी 'असहिष्णुता' है। इस तरह की सोच के लोगों  का साथ देने वाले सच का सामना नहीं कर सकेंगे। रात को दिन और काले को सफेद कह दो तो  फिर भी चलेगा किन्तु दोगलेपन को राष्ट्रप्रेम नहीं कहा जा सकता। देश में दोनों तरह के लाभ लेने वालों  को  सही नहीं कहा जा सकता। एक तरफ तो वे भारतीय लोकतंत्र की  उस प्रदत्त  आजादी का मजा लूट रहे हैं जो इस्लामिक राष्ट्रों की गुलाम  जनता को मयस्सर नहीं है। दूसरी तरफ भारत जैसे  लोकतान्त्रिक देश में अपने  लिए मजहब  के नाम पर  'पर्सनल लॉ ' वाली  स्थिति का बेजा  फायदा उठा रहे हैं. और इस पर कोई एतराज करे तो अराजकता  फ़ैलाने  ,पत्थर फैंकने और मारकाट के लिए तैयार रहते हैं। यदि एक वर्ग विशेष के लोग  मजहब  के बहाने डबल लाभ लेंगे तो बाकी जनता सिर्फ -टुकुर -टुकुर देखने के लिए कब तक बैठी रहेगी ?

इस मजहबी विमर्श में  दुनिया  के समक्ष मौजूद आतंकवाद की तात्कालिक  चुनौतियों को भी  बखूबी समझा जा सकता है कि कैसे हर किस्म के साइंस का 'दुरूपयोग' बढ़ता ही जा रहा है। बनिस्पत मानव कल्याण -सृजन और निर्माण के। दूरगामी नीतियों के संदर्भ में ,वैज्ञानिक विचार सम्प्रेषण,तार्किक -बौद्धिक अनुसन्धान के संदर्भ में और हर किस्म के क्रांतिकारी मानवीय विमर्श के संदर्भ में अभी तक बहुत कम लोग शामिल हो पाये हैं। जिन मजहबी -उन्मादियों को मानवतावाद ,समाजवाद और लोकतांत्रिक मूल्यों में रत्ती भर विश्वास नहीं है। वे साइंस का उपयोग बम बारूद और बिनाशक हथियारों के संग्रह में लगाते रहते हैं। जो शान्तिकामी हैं वे असहिष्णुयता के विमर्श में  गोते  लगा रहे हैं।
 
विगत कुछ महीनों से  भारत में 'असहिष्णुता' को लेकर काफी-कुछ कहा सुना गया। देश मानों दो पक्षों में नहीं दो विपरीत ध्रुवों में  बट  चुका है। लेकिन किसी भी बहस का नतीजा  कुछ भी नहीं निकला। यह कैसी अराजकता है कि जनता,मीडिया और विपक्ष तो फिर भी परस्पर नियंत्रित हैं ,किन्तु सत्ताधारी नेतत्व के मन में जो भी आता है वही उगल देता है। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से मानों आयं -बायं -शायं  बकने की होड़ मची है। जिम्मेदार पदों पर बैठे नेताओं और प्रवक्ताओं  की  ऐंसी गैरजिम्मेदार बयानबाजी सुनने को संभवतः विगत ५० सालों में  कभी नहीं मिली। मोदी  सरकार का मानना है की जो उनके खिलाफ है वो देश के खिलाफ है ! यह कैसी रीति चल पडी है कि सरकार की रीति-नीति या असफलता पर  किसी ने कुछ खिलाफ कह दिया तो देश के खिलाफ मान लिया जाता है। क्या  भूंख, गरीबी ,शोषण,हिंसा , लूट पर सवाल उठाना गुनाह है ?क्या व्यवस्था  पर सवाल उठाना  देशद्रोह है ? यदि शासकों  द्वारा इस प्रश्न का जबाब  हाँ में होगा तो फासिज्म- असहिष्णुता की बहस  सही मान ली जायेगे । और तब उसके खिलाफर  लड़ाई  भी तेज होगी। -:श्रीराम  तिवारी :-
 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें