मंगलवार, 26 जनवरी 2016

दलित विमर्श में घृणा की स्वार्थी विचारधारा ही रोहित वेमुला की मौत का कारण है।

इक्कीसवें शताब्दी के शुरुआती  दौर में तो  मध्यप्रदेश  विदर्भ -मराठवाड़ा  और  देश के अन्य कई  क्षेत्रों में सूखा,बाढ़ , अकाल ,गरीबी,बेरोजगारी और लाइलाज बीमारी से पीड़ित लोगों द्वारा आत्महत्या किये जाने की खबरें आम होतीं रहीं  हैं। इन आत्महत्याओं को पूर्णतः कायरता या मनोरोग की समस्या नहीं कहा जा सकता ! आत्महन्ता की  आर्थिक , सामाजिक और मानसिक अवस्था को जाने बिना  वस्तुस्थिति जाने  बिना या शासन तंत्र और उसका वर्ग चरित्र जाने बिना  उसे कायर या मनोरोगी नहीं कहा जा सकता। और सरकार या प्रशासन  पर इस गंभीर समस्या  की जिम्मेदारी डालकर आधुनिक सम्पन्न वर्ग आत्महत्याओं  के सवाल पर मौन कैसे रह सकता  है ? भेड़िया धसान  पूँजीवादी  समाज और उसका  शासनतंत्र आत्महत्या करने पर  ही संज्ञान क्यों लेता है ?

वेशक इस चुनौती से राष्ट्र का मुख  नहीं मोड़ा जा सकता। वैसे यह बीमारी पूँजीवादी मुल्कों में  ही ज्यादा है। भारत चूँकि उन्ही के नक़्शे कदम पर  ही चल रहा है ,इसलिए कुछ उसका असर भारत के युवा वर्ग पर भी है। किन्तु  यूरोप और अमेरिका का  पूंजीपति वर्ग अपनी  कमाई का बहुत  बड़ा हिस्सा जनकल्याण कोष में खर्च कर्ता है वेशक इसमें भी उनका राजनैतिक स्वार्थ हो सकता है कि उनके पूँजीवादी सिस्टम और  समाज में किसी भी तरह के वर्ग संघर्ष को पनपने ही न दिया जाए ! किन्तु भारतीय नवधनाढ्य वर्ग और भूस्वामी जमींदार वर्ग  केवल अंधाधुंध लूट  ,ऐय्याशी ,भृष्टाचार और देशद्रोह में जुटा है। यह वर्ग  अपनी  काली कमाई स्विश बैंकों में , हवाला कारोबार में या भृष्ट नेताओं को चुनाव जीतने में  तो खर्च कर देगा किन्तु  देश की पीड़ित -दमित और  दलित  जनता के शिक्षा,स्वास्थ्य एवं रोजगार निर्माण में एक  फूटी कौड़ी भी नहीं देगा। चूँकि भारत के समस्त सर्वहारा वर्ग का बड़ा हिस्सा दलित समाज  ही है। और इस समाज को बजाय पूंजीवाद से संघर्ष के लिए प्रेरित करने के दलित तमाम नेताओं ने पूँजीवाद से  ही पवित्र गठजोड़ कर लिया।  दलित-शोषित समाज को आरक्षण के नाम पर पूँजीवादी व्यवस्था की चाकरी के लिए उन्मादी बनाने वाले दलित नेताओं ने भारत के दलित-पिछड़े - गरीब वर्ग को नंगे-भूंखे  'ब्राह्मण या सवर्ण सर्वहारा वर्ग से ही भिड़ा दिया। दलित विमर्श में घृणा की स्वार्थी विचारधारा ही रोहित वेमुला की मौत का कारण है। आजादी के बाद देश  भर में  जारी जातीय संघर्ष भी इसी का परिणाम है!
 रोहित वेमुला ने आत्महत्या क्यों कि  इसका खुलासा करना या तीर में तुक्का भिड़ाना  देश के बुद्धिजीवियों का मकसद नहीं होना चाहिए ! उन्हें इस तरह की मौतों के कारण और उसके निदान की तार्किक परिणीति तक हर  कीमत पर  पहुंचना  चाहिए।  हर किस्म की आत्महत्या के आलोचकों और वेमुला  जैसे युवाओं की  मौत पर मगरमच्छ के आंसू बहाने वालों को  यह भी याद रखना  चाहिए  कि दुनिया के किसी भी सभ्य समाज में आत्म हत्या करने वाले  सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता।आमतौर पर आत्महंता  व्यक्ति किंचित अपराधबोध या नैराश्य से  जैसे मनोविकारों पीड़ित हुआ करता है । फिर भी उसे  पूर्णतः दोषी या कायर नहीं कहा जा सकता।

शहीद चंद्रशेखर आजाद को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क [अब शहीद  आजाद पार्क] में  जब अंग्रेजों की घुड़सवार पलटन ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया तब अंग्रेजों का मकसद था कि चंद्रशेखर आजाद जीवित पकडे जाएँ। जबकि  आजाद  का संकल्प  था कि 'मैं आजाद ही मरूँगा'' इसलिए उन्होंने अपनी  ही माउजर पिस्तौल से खुद की  'इहलीला' समाप्त कर ली! उनकी शहादत  के बाद भी अंग्रेजों को अंदेशा था की आजाद  संभवतः जीवित हैं अतः उन्होंने आजाद की मृत देह पर काफी देर तक अँधाधुंध गोलियाँ बरसाई ! उन्हें डर था कि महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद  यदि जीवित हैं तो वे अकेले  ही उस अंग्रेज सेना का भी काम तमाम कर सकते थे ।अब सवाल उठ सकता है कि  क्या आजाद ने आत्म हत्या की ? क्या आजाद  कायर थे ? क्या उनकी मौत पर किसी ने कभी वैसी राजनीति की जैसी कुछ स्वार्थी लोगों ने  रोहित वेमुला की आत्महत्या पर की  है? इस सवाल का जबाब हर देशभक्त भारतीय का एक ही  होगा - नहीं  ! नहीं ! नहीं !  बल्कि आजाद ने  तो  देश के लिए सर्वश्रेष्ठ बलिदान दिया !इसी तरह  भगतसिंह और अन्य शहीदों ने भी समझबूझकर कुर्बानियाँ  दीं हैं। कोई विकृत मनोरोगी ही उन्हें आत्महंता  कह सकता है।

 मुगलों के  रक्तरंजित दौर में अकबर के दूध भाई आदमख़ाँ ने जब  माण्डू [मालवा]के सुलतान बाजबहादुर को मारकर उनकी रानी रूपमती  के साथ दुष्कर्म करने का प्रयास किया तो रानी ने जहर खाकर अपने प्राण त्याग दिए ! क्या रानी  रूपमती ने आत्महत्या की ? नहीं ! अकबर के एक  अन्य सेनापति  आसफखां की आदमखोर  सेना ने  गढ़ा -मंडला  के राजा दलपति शाह को धोखे से मार दिया। राजा की मौत के बाद गौंड़  रानी दुर्गावती ने मोर्चा संभाला। युद्ध में जब रानी के सभी सैनिक मारे गए तो आसफखां ने रानी को  जीवित पकड़ने की कोशिश की। ताकी  उसे अपने हरम में  डाल सके। लेकिन  उसे रानी की मृत देह ही मिली। क्योंकि तब युद्ध के मैदान में  घायल  रानी ने महावत के हाथ से कटार छीनकर अपनी 'इहलीला' समाप्त कर ली ! क्या उस वीरांगना दुर्गावती ने 'आत्महत्य' की ? नहीं ! बिलकुल नहीं !

वप्पा रावल से लेकर राणा सांगा तक और गोरा -बादल से लेकर राणा प्रताप तक,तमाम सिख गुरुजनों से लेकर सरदार ऊधमसिंह तक  देश और कौम के लिए जितने भी बलिदान हुए हैं वे सभी क्या आत्महत्याएं हैं ?नहीं !

 अपने  सगे काका जलालुद्दीन ख़िलजी की धोखे से हत्या करने वाले  दिल्ली के सुलतान अलाउदीन ख़िलजी ने हाड़ोती के राजा रतनसेन को दोस्ती की मीठी -मीठी बातों में उलझाकर,पहले तो रानी पद्मिनी का मुँह आईने में देख लिया।  बाद में राजा को धोखे से मरवा दिया। और पद्मिनी को पाने के लिए उसने जो कत्लेआम किया उस कलंकित इतिहास को कौन नहीं जनता ? रानी पद्मिनी और अन्य महिलाओं ने भी उस दुष्ट अय्यास सुलतान से अपनी अस्मत की रक्षा के लिए अग्निकुंड में कूँदकर  इहलीला  समाप्त कर ली।  जिसे इतिहासकार सम्मान से जौहर  भी कहते हैं ।  क्या यह उन मजबूर  बच्चों और महिलाओं की आत्म हत्या थी ? नहीं ! कदापि नहीं  !

इक्कीसवें शताब्दी के शुरुआती  दौर में तो  मध्यप्रदेश  विदर्भ -मराठवाड़ा  और  देश के अन्य कई  क्षेत्रों में सूखा,बाढ़ , अकाल ,गरीबी,बेरोजगारी और लाइलाज बीमारी से पीड़ित लोगों द्वारा आत्महत्या किये जाने की खबरें आम होतीं रहीं  हैं। इन आत्महत्याओं को पूर्णतः कायरता या मनोरोग की समस्या नहीं कहा जा सकता ! आत्महन्ता की  आर्थिक , सामाजिक और मानसिक अवस्था को जाने बिना  वस्तुस्थिति जाने  बिना या शासन तंत्र और उसका वर्ग चरित्र जाने बिना  उसे कायर या मनोरोगी नहीं कहा जा सकता। और सरकार या प्रशासन  पर इस गंभीर समस्या  की जिम्मेदारी डालकर आधुनिक सम्पन्न वर्ग आत्महत्याओं  के सवाल पर मौन कैसे रह सकता  है ?

 भेड़िया धसान  पूँजीवादी  समाज और उसका  शासनतंत्र आत्महत्या करने पर ही संज्ञान क्यों लेता है ? इस थेरेपी  से राष्ट्र का इस आत्महंता बीमारी का  इलाज  नहीं किया जा सकता। वैसे यह बीमारी पूँजीवादी मुल्कों में ही ज्यादा है। भारत चूँकि उन्ही के नक़्शे कदम पर चल रहा है ,इसलिए कुछ उसका असर भारत के युवा वर्ग पर भी है। किन्तु  यूरोपियन और अमेरिकी पूंजीपति वर्ग अपनी  कमाई का बहुत  बड़ा  हिस्सा जनकल्याण कोष में खर्च कर्ता है । वेशक इसमें भी उनका राजनैतिक स्वार्थ हो सकता है. कि उनके पूँजीवादी  बुर्जुवा समाज में किसी भी तरह के वर्ग संघर्ष को पनपने ही न दिया जाए ! किन्तु भारतीय धनाढ्य वर्ग तो केवल अंधाधुंध भृष्टाचार अय्याशी ,मुनाफाखोरी,कालाबाजारी और देशद्रोह में जुटा है। यह वर्ग  अपनी  काली कमाई स्विश बैंकों,हवाला कारोबार या भृष्ट नेताओं को चुनाव जीतने में खर्च कर देगा किन्तु  देश की पीड़ित -दमित -दलित जनता के शिक्षा,स्वास्थ्य और रोजगार निर्माण में  एक  फूटी कौड़ी भी नहीं देगा। यदि कोई व्यक्ति आत्महत्या कर ले तो उसके लिए मुफ्त के राजनैतिक आंसू उपलब्ध है।  चूँकि भारतीय सर्वहारा वर्ग का बड़ा हिस्सा दलित समाज  ही है और इस समाज को देश के अन्य सर्वहारा के साथ एकजुट होकर इस लूट की व्यवस्था से संघर्ष करना चाहिए। यह दुर्भाग्य ही है कि भारत की  डॉमिनेंट  राजनीतिक लॉबियों  ने चालाकी से  अपने-अपने खाँचे के दलित नेता गढ़ लेते हैं।  और वे दलित नेता ही इस दलित -शोषित-पिछड़े समाज  के स्वयंभू ठेकेदार बनकर समाज को बांटते रहते हैं। वे  दलितों को गरीब ब्राह्मणों या  मेहनतकश सवर्णों से भिड़ाते रहते हैं। पूँजीवादी  शोषण से नहीं लड़ने देते। परिणाम सामने है कि रोहित बेमुला  को आत्महत्या करनी पड़ती है।

कुछ साल पहले भारत के 'विदर्भ'क्षेत्र में लगातार सूखा पड़ा। सरकार की अनदेखी और प्रशासनिक मक्कारी के कारण सूखा पीड़ित किसानों को कहीं से कोई मदद नहीं मिली। कम रकवा वाले सूखा पीड़ित किसान गाँव -घर  छोड़कर शहरों में मजूरी करने लगे। लेकिन  एक किसान ने उस पुरानी कहावत को चरितार्थ किया कि' भले ही  मर जाऊंगा पर चाकरी नहीं करूंगा'।उसने अपने ही  खेत की मेड पर खड़े पेड़ की शाख पर फाँसी लगाकर आत्म हत्या  कर ली। और सुसाइट नोट छोड़ गया।  जिसमें उसने लिखा:-

 '' मेरे बृद्ध माता-पिता बीमार हैं ,मैं उनका भरण - पोषण और इलाज नहीं करवा सकता। कोऑपरेटिव बैंक से लिया खाद-बीज का कर्ज मय व्याज के बाकी है. जिसे में नहीं चुका सकता। शादी के लिए दो जवान बहिनें घर में कुंआरी बैठी हैं। पढाई खर्च नहीं जुटा पाने  के कारण बच्चों का स्कूल छूट गया है। पत्नी गर्भवती है ,डिलेवरी का इंतजाम नहीं हो पा रहा है । घर में खाने को अन्न का दाना नहीं है। चारे के अभाव में गाय -बैल -ढोर मरने लगे  हैं।  यह बदहाली तीन साल से लगातार चल रही है। भगवान -ईश्वर से निराश हो चुका हूँ। सरकार नाम की कोई चीज नहीं है । रिस्तेदार  और दोस्त खुद गऱीब और परेशान हैं। साहूकार के यहाँ  घर-जमीन सब  गिरवी  रखा है. अब जिन्दा रहना मुश्किल है ,अतः में आत्महत्या कर रहा हूँ '' !  इस सुसाइड नोट को  मीडिया ने भी अपने-अपने तरीके से प्रकाशित किया।  किसानों ने उसकी मौत पर जमकर हंगामा किया। और तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार ने आनन-फानन उस दिवंगत  किसान के सपरिजनों को आर्थिक सहायता पहुंचायी। नेता ,अफसर मंत्री  और एनजीओ वाले भी उसके घर की परिक्रमा कर आये।

उस आत्महंता किसान के सपरिजनों के वारे-न्यारे देख विदर्भ ,मराठवाड़ा और मध्यप्रदेश के किसानों की मानसिकता में पतनोन्मुखी बदलाव आने लगा। रोज-रोज आत्महत्याओं की खबरें आने लगीं। सरकार  और अधिकारी  मरने वालों के घर तो चेक लेकर पहुंचे ,किन्तु जो जिन्दा रहना चाहते थे या भूंख से लड़ते हुए मरे उनकी ओर सरकार का दिन ही नहीं गया। मीडिया और विपक्षी नेता आत्महत्या करने वालो के घर तो तुरंत  पहुंचते हैं किन्तु जो इस दुरवस्था में भी भय-भूंख ,भृष्टाचार से लड़ते हुए ,गरीबी -बेकारी से लड़ते हुए जिन्दा रहना चाहता है उसके घर कोई नहीं पहुँचता।  जब यह समाज और शासनतंत्र आत्महत्या करने पर ही संज्ञान  लेता है , तो कौन  वंचित ,दमित और शोषित होगा जो आत्महत्या के लिए तैयार  नहीं होगा  ?

इन हालात में भी अधिकांस  गरीब किसान ,दलित या शोषित -पीड़ित व्यक्ति आत्महत्या नहीं करते हुए जिजीविषा के लिए संघर्ष करना उचित समझते हैं । उनकी इस वीरता और साहस को सम्मान देने के बजाय उसके परिवार वाले और रिस्तेदार ताने देने लगते हैं कि  तुम नामर्द हो ! तुम्हारे जीने से तो मर जाना बेहतर है ,कम से कम  मरने पर सरकार कुछ तो देगी। और कुछ  परेशान लोग नाह्काबे में आकर आत्महत्या कर लेते हैं।

किसी भी सभ्य समाज में आत्महत्या करने वाले को महिमामंडित कया जाना उचित नहीं माना गया ।बल्कि उसे सामाजिक शर्मिंदगी और लाचारगी का सबब माना गया है। आत्महत्या करने वाला कितना ही महान क्यों न हो  किसी सभ्य समाज द्वारा उसे 'आइकॉन ' कभी नहीं बनाया गया । ब्रम्हाण्ड का प्रत्येक कण और प्रत्येक पिंड एवं  प्रत्येक चेतन प्राणी अन्योन्याश्रित है। स्वतंत्र रूप से न तो कोई प्राणी जीवित रह सकता है और न ही कोई प्राणी अपने आप को नष्ट कर सकता है। किसी भी प्राणी को  जिन्दा रहने के लिए धरती, आकाश , जल ,वायु, अग्नि  इत्यादि पंच महाभूत  तो जरुरी हैं ही ,साथ ही  देश-काल ,समाज,-राष्ट्र और प्रकृति की अनुकूलता भी जरुरी है। इसी तरह कार्य-कारण के सिद्धांतनुसार बिना ओरों की वजह से कोई स्वेच्छा से मर भी नहीं सकता। अर्थात उपलब्ध बाह्य कारण ही आत्महन्ता  के मनोविकारों के लिए उत्तरदायी हैं। हालाँकि वैश्विक परिदृश्य   पर इस विषय में  विभिन्न मनोविज्ञानियों की अनेक स्थापनाएं हो सकतीं  हैं । किन्तु भारतीय संदर्भ में यह विषय बहुत जटिल और अकथनीय वैसे तो किसी भी सभ्य समाज में आत्महत्या करने वाले को महिमामंडित किया जाना उचित नहीं माना जाता । बल्कि उसे सामाजिक शर्मिंदगी और लाचारगी का सबब  ही माना गया है। आत्महत्या करने वाला कितना ही महान क्यों न हो  किसी सभ्य समाज द्वारा उसे 'आइकॉन ' कभी नहीं बनाया गया । लेकिन आत्महत्या करने की परिस्थति को जाने बिना किसी भी दिवंगत का अपमान भी नहीं करना चाहिए

कुछ लोग अम्बेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय  हैदरावाद के शोध छात्र रोहित वेमूला की आत्म हत्या के उपरान्त उसे न केवल आइकॉन  बंनाने पर तुले हैं, बल्कि उसे शहीद जैसा सम्मानित किये जा रहे हैं। हो सकता है कि रोहित के साथ बाकई  अन्याय अत्याचार हुआ हो। किन्तु वह तथ्य और तर्क समाज और राष्ट्र को दिखना भी चाहिए। केवल अन्दाजी घोड़े दौड़ाने या धुएँ में लट्ठ घुमाकर धुंध को नष्ट नहीं किया जा सकता। दलित वोटों की राजनीति के लिए भी इस बलिदान को जाया नहीं किया जा सकता। वर्ण संघर्ष को हर हाल में रोकना ही होगा। तभी नए  क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष की  कोई उम्मीद की जा सकती है। -:श्रीराम  तिवारी :-

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