सोमवार, 11 जनवरी 2016

स्वामी विवेकानंद ने मंदिर-मस्जिद का फंडा कभी खड़ा नहीं किया।

 आज सारा भारतवर्ष  स्वामी विवेकानंद की जयंती पर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहा है। उन्हें विनम्रता पूर्वक  सर्वश्रेष्ठ शब्दांजलि यही हो सकती है कि स्वामीजी की कालजयी  शिक्षाओं और उनके  वैचारिक  अभिमत   का   वर्तमान युवा पीढ़ी द्वारा अनुशीलन ,आत्मार्पण और मानवीयकरण किया जाए।

प्रत्येक दौर की भारतीय युवा पीढ़ी को स्वाधीनता संग्राम और भारतीय राजनीति के दिशा निर्देशों के लिए जो दिग्दर्शन 'शहीद भगत सिंह के  विचारों से   प्राप्त  हो सकता  है , विश्व धर्म-दर्शन अध्यात्म और हिन्दू धर्म  मीमांसा के लिए भारत के समस्त धर्मनिपेक्ष जनों को वही दिशानिर्देश  स्वामी विवेकानंद  के विचारों से प्राप्त हो सकता  है।

  स्वामी विवेकानंद जब उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में भारत से शिकागो 'विश्व धर्म सम्मेलन ' पहुँचे  तब तक वे केवल  विशुद्ध भारतीय आध्यार्मिक हिन्दू परिव्राजक मात्र  थे। किन्तु जब उन्होंने 'जल जहाज' द्वारा समुद्री मार्गों से  न केवल अमेरिका बल्कि फ़्रांस, इंग्लैंड एवं  यूरोप की  भी यात्राएँ कीं और जब  वे भारत लौटे तो वे एक विज्ञानवादी चिंतक , महान युगप्रवर्तक तथा  सर्वहारा एवं  शोषित समाज के उद्धारक के रूप में विश्व विख्यात हो चुके थे। वे जब तक विश्व धर्म  महा सम्मेलन के मंच पर थे तब तक वे  केवल एक आध्यात्मिक  शिशुक्षु  मात्र थे। वे वहाँ रामकृष्ण के एक मामूली शिष्य  की हैसियत से गए थे और 'हिन्दू 'धर्म के प्रवक्ता एवं  वेदान्त के भाष्यकार  मात्र थे। किन्तु जब उन्होंने  अमेरिका ,यूरोप देखा ,उनकी भौतिक समृद्धि के साथ-साथ वैचारिक क्रांति के अमरगीत पढ़े तो उनका व्यक्तित्व  और ज्यादा निखर गया। वे पूर्व और पश्चिम के नवीन  महानतम समन्वयक बनकर  जग प्रसिद्ध हो गए।  उन्ही  के शब्दों  में ]  ;-
 
''मैंने पाश्चात्य की शक्ति ,साहस,प्रतिभा,वैलेट की राजनीति और  डेमोक्रेसी को देखा।वैज्ञानिक आविष्कारों  को देखकर चकित हुआ। किन्तु जब  बनियों के धन लोभ को देखा, साम्राज्य्वादियों की बिकट साम्राज्य लिप्सा को  देखा तो मुझे किंचित क्षोभ और सम्भ्र्म  हुआ '',,,,,,,,,,

''संसारसमुद्र के सर्वविजयी वैश्य शक्ति के अभ्युत्थान रुपी महातरंग के शीर्ष पर शुभ्र फेन -राशि के बीच इंग्लैंड के सिंहासन को स्थापित देखा '',,,,,,,''

 "इंग्लैंड में मैंने ईसा मसीह ,बाइबिल ,राजप्रसाद और सैनिक शक्तिको देखा , प्रलयंकर के  पदाघात ,तूर्य-भेरी का निनाद ,राज सिंहासन का ऐश्वर्य आडंबर  देखा ,इन भौतिक भव्यताओं  के पीछे खड़े अनुशासंबद्द  वास्तविक इंग्लैंड को देखा ,,,,,,धुआँ  उगलती चिमनियां ,मटमैले मज़दूरों की असंख्य सेना और उनके निस्तेज चेहरों को देखा,,,,,,पण्यवाही जहाज़ों और युद्धक्षेत्र की नयी -नयी आधुनिकतम मशीनों ,तोपों ,टैंकों  के साथ -साथ 'जगत के बाजार'की जननी और उसकी  साम्राज्ञी को  भी देखा ,,,,,''

[सन्दर्भ ;-अब भारत ही केंद्र है - पृष्ठ -३१५ ,लेखक -स्वामी विवेकानंद ]

''यदि वंश परम्परा से भावसंक्रमण के नियमानुसार ब्राह्मण विद्या सीखने के लिए स्वतः योग्य है तो ब्राह्मणों की शिक्षा पर धन व्यय न करके 'अस्पृश्य'जाति की शिक्षा के लिए सारा धन लगा दो '',,,,,,दुर्बल की सहायता करो ,,,ब्राह्मण यदि बुद्धिमान  होकर ही पैदा हुए हैं तो वे दूसरों की सहायता के बिना ही शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु जो लोग बुद्धिमान होकर जन्म नहीं लेते शिक्षा  की जरुरत  उन्हें है '',,,,,,,,

''किसी महान आदर्श पुरुष में विशेष अनुरागी बनकर उनके झंडे के नीचे खड़े हुए ,एकजुट संघर्ष के बिना कोई भी राष्ट्र उठ नहीं सकता '',,,,,,,

''आत्मनो मोक्षार्थ जगद्धिताय च ,,,उत्तिष्ठत ,जागृत,प्राप्य  वरान्निवोधत'' [सन्दर्भ : उपरोक्त वही ]

वैसे तो स्वामी विवेकानंद ने जो कुछ भी कहा है और जो कुछ भी लिखा है उसकी इस सन्सार में कोई सानी  नहीं। किन्तु उपरोक्त  उद्धरित पुनरावृत्ति में सिर्फ अंतिम कथन-आत्मनो मोक्षार्थ ,,,,,, ही ऐंसा है जो विशुद्ध  आध्यात्मिक  किस्म का है। यह श्लोक भी स्वामी जी का स्वरचित नहीं बल्कि वेदप्रणीत है। बाकी सभी कथन स्वामी जी  के हैं जो बताते हैं कि स्वामी  विवेकानंद ने आज के हिन्दुत्ववादियों की तरह मंदिर-मस्जिद का फंडा खड़ा नहीं किया।

१८९१ के शिकागो विश्व धर्म महा सभा अथवा महा सम्मेलन में वैसे तो 'अखंड गुलाम भारत' से सभी धर्मो-मजहबों के प्रतिनिधि गए थे और वे  ततकालीन अंग्रेज सरकार से आज्ञा लेकर ही गए थे ,अर्थात वे सब उस सम्मेलन में ब्रिटिश सरकार के मान्यताप्राप्त  नुमाइंदे  थे । किन्तु स्वामी विवेकानंद ही एकमात्र भारतीय - जनप्रतिनिधि थे।  उस सर्व धर्म सम्मेलन में उन्होंने न केवल हिन्दू धर्म  बल्कि विश्व के तमाम प्रचलित धर्म-मजहब के पाखंडवाद पर प्रहार किया और उनकी  मूल शिक्षाओं और उद्घोषणाओं की याद दिलाई। स्वामी विवेकानंद ही एकमात्र ऐंसे  धर्म -प्रतिनिधि थे जिन्होंने भाववादी आध्यात्मिक विचार यात्रा को पश्चिम की मानवीय ,युगांतकारी और  वैज्ञानिकवादी  भौतिकवादी चेतना से समन्वय का शंखनाद किया। 

स्वामी विवेकानद न केवल गुलाम भारत की अस्मिता को वापिस लाने में समर्थ रहे। बल्कि राष्ट्रीय चेतना  स्वाधीनता और पश्चिम  की  सर्वहारा  क्रांतियों से  भारतीय दरिद्रनारायण की मुक्ति का क्रांतिकारी सन्देश भी सर्वप्रथम स्वामी  विवेकानंद ही भारत में लाये थे।  उन्होंने अध्यात्म  और वैज्ञानिक भौतिकवाद के  आधुनिक  विशिष्टाद्वैत को वेदांत और अद्वैत वेदान्त के सामने खड़ा कर  दिया।  भारत की प्रबुद्ध जनता सदैव उनकी शिक्षाओं का आदर  करेगी। स्वामीजी के आह्वान का अनुशीलन करते हुए अपने अभीष्ट को प्राप्त करेगी।  श्रीराम तिवारी

 

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