आदरणीय आडवाणी जी ,मुरली मनोहर जोशी जी ,राजनाथ जी,सीपी ठाकुर जी ,सदानंद गौड़ा जी ,रामलाल जी और तमाम उन भाजपा -नेता /नेत्रियों को - जिनके सितारे भाजपा की प्रचंड जीत के वावजूद गर्दिश में हैं -उन सभी को एक दोहा सादर समर्पित ;-
केरा तबहुँ न चेतिया ,जब ढिग जामी बेर।
अब चेते का होत है ,काँटन लीनी घेर। । [अज्ञात]
एक था केला। बड़ा प्यारा सुकुमार। उसके बड़े-बड़े चिकने और साफ़-सुथरे पत्ते। केले के मीठे -मीठे फल उसमे लगते । कालान्तर में उसकी छाँव में किसी ने बेरी की झूंठी गुठली फेंक दी। बेर का पौधा परवान चढ़ने लगा.हवा चलने पर बेर के काँटों से केले के नाजुक पत्ते फटने लगे । केला छत-विक्षत होकर उदास होकर रोने जैसा दिखने लगा। एक कवि वहाँ से गुजरा। केले की मर्मान्तक पीड़ा और बेर के पेड़ का खुंखार रौद्र रूपदेखा। केले के पत्तों पर बेर का निरंतर घातक प्रहार का मार्मिक दृश्य देखकर संभवतः उस कवि ने उक्त दोहे की रचना की होगी। इस दोहे का अर्थ बिलकुल सीधा सा है कि " हे केला तूँ तब क्यों नहीं चेता जब यह बेर तेरी छाँव में ही पनप रहा था। अब तेरे चेतने से या समझदार होने से कुछ नहीं हो सकता क्योंकि अब इस बेर ने भयानक रूप धारण कर लिया है। तूँ अब काँटों से घिर चुका है। "
श्रीराम तिवारी
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