बुधवार, 27 अगस्त 2014

आइन्दा यह सोचने की बात ये हैं कि पुरानी[!] संसद और पुराना[!] लोकतंत्र कब तक खैर मनाता है ?



  किसी भी  सिस्टम ,संस्थान  या  राष्ट्र- राज्य के संचालकों   द्वारा  समय की मांग के अनुसार उपलब्ध  -  संसाधनों , व्यक्तियों ,संस्थाओं और कार्य संस्कृति में सप्रयास बदलाव से मौजूदा  व्यवस्था में  बदलाव की संभावनाएं अवश्य ही मौजूद रहतीं  हैं । किन्तु यह बदलाव किसके  हित  में होगा? कितना होगा ? कैसे होगा ?  यह साधनों की शुचिता , नीति-नियत और नेतत्व के साहस  पर भी  निर्भर  है ।
        देश पर आंतरिक बाह्य चुनौतियों के बरक्स - वर्तमान में- केंद्र की 'मोदी  सरकार' की तमाम तात्कालिक  सफलताओं के  निहतार्थ समझने के लिए बहुत ज्यादा प-रामदेव ढ़ा -लिखा होना जरुरी नहीं है। राजनीति  शास्त्र  का अद्ध्येता  होना  भी जरुरी नहीं है ।एक बहुत पुरानी कहावत है कि " यदि किसी मनुष्य का चाल-चलन जानना समझना है  या उसकी रीति और नियत समझना है तो उसके इर्द-गिर्द के लोगों को जानो" अब यदि  मोदी जी के सलाहकार अडानी,अम्बानी, सुनील मित्तल  भारती होंगे  या अन्य  मुनाफाखोर -अवसरवादी नव-धनाढ्य  होंगे  जब यही कार्पोरेट सेक्टर के काइयाँ लुटेरे देश के नीति निर्माता होंगे तो  समझा जा सकता है कि  किसके अच्छे दिन आने वाले हैं ?कथनी करनी का फर्क तो इसी से समझा जा सकता  है कि  दागी सांसद और दागी मंत्री तो  मजा मौज कर रहे हैं जबकि  ईमानदार -देशभक्त जनगण  कुशासन और मँहगाई  की मार झेलने को अभिशप्त हैं।  जनता पूंछ रही है कि क्या  कालाधन वापिस लाओ - आंदोलन केवल सत्ता परिवर्तन  का अण्णा -रामदेव अभिनीत पाखण्डप्रेरित नाटक मात्र था ? क्या 'आप'का संघर्ष केवल भाजपा और पूँजीपतियों के हितों का पोषक मात्र था ? क्या संघ परिवार और गैर कांग्रेसी विपक्ष का  संघर्ष  केवल अमीरों के मुनाफों की  अबाध बढ़त के लिए ही समर्पित था ?
       आगामी दिनों में प्रधानमंत्री जी का विदेशों का सैर-सपाटा जिनके साथ होगा- उनकी नीति और नियत जग जाहिर है। उनके साथ इंफ्रास्ट्रक्टचर या वित्तीय प्रयोजनों में रणनीतिक साझेदारी का  जब जाहिराना  तौर पर शंखनाद किया जा  रहा हो तो  समझा जा सकता है कि  नीति  क्या है ? नियत  क्या है ? सवाल सिर्फ योजना आयोग को ध्वस्त करने का ही नहीं है ,नव-धनाढ्यों की टोली को अपना हमराह -हमसफ़र बनानें का  का ही  नहीं है,बल्कि सवाल ये भी है कि  इन तमाम कार्य -निष्पादनों की वैचारिक पृष्ठभूमि क्या है ? जनता के अच्छे दिनों को लाने के लिए  कार्यक्रमों का  रूप  और आकार क्या है ? अभी तो पार्टी स्तर पर और कैविनेट स्तर पर भी'एकचालुकानुवर्तित्व' का ही बोलबाला है। याने की 'नमो नाम केवलम्' !
             दिल्ली में अमित शाह की  भाजपा अध्यक्ष पद पर ताजपोशी  जिनकी  असीम अनुकम्पा से हुई  उन परमश्रेष्ठ सहित जब  सभी ने  एक  दूसरे  के चारण  गीत गाये  तो 'संघ' भी  दंग रह गया। कुछ ने जो  अमित शाह की तारीफ़ की इसमें कोई बुराई नहीं। किन्तु  उनकी नजर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इतना वेचारा हो गया कि उसका परोक्ष जिक्र तो दूर की बात किसीने -न केवल मंदिर निर्माण , न केवल यूनिफार्म  सिविल कोड, न केवल धारा  ३७०, न केवल  स्वदेशी आंदोलन , बल्कि संघ का  'त्याग-तपस्या - बलिदान'  भी  भुला दिया।सत्ता मद में चूर नेताओं की इस उपेक्षा से  संघ इतना गर्म  हो गया  कि  स्वयं  संघ प्रमुख मोहन राव  भागवत को  भी भोपाल प्रवास के दौरान कहना पड़ा कि  "भाजपा को  यह संसदीय महाविजय न तो किसी नेता की 'महानता' से  मिली और न  ही  पार्टी की रीति-नीति   से यह विजय हासिल हुई।  बदलाव या सुशासन के नारों से  भी विजय नहीं मिली ,बल्कि इस विजय का श्रेय तो देश की  उस जनता को जाता है जिसने 'कांग्रेस के कुशासन से आजिज आकर  मजबूरी में भाजपा को सत्ता में बिठाया है" वेशक यह बयान बेहद तार्किक और सटीक है  उनके इस बयान के मार्फत सन्देश  भी उन्ही के लिए  है  जो   गुजरात मॉडल,सुशासन और पश्चिमी जगत की चकाचौंध से  भिंदरयाये हुए है या रतौंध्याये हुए हैं।
                  विगत १०० दिनों में इस सरकार ने जो भी किया है  उसका थोड़ा सा आकलन  राज्यों में सम्पन्न  अभी हाल के उपचुनावों में  - उसके परिणामों में भी झलक रहा है। विपक्ष को तो मानों संजीविनी ही मिल गई है। भाजपा के नेता अपनी आधी-अधूरी हार-जीत को  हँसी  में उड़ाने का प्रयास कर रहे हैं।  जब देश का मीडिया  इन चुनावों में भाजपा की दयनीय स्थति पर चर्चा कर रहा था,ठीक तभी पार्टी के खुर्राट नेताओं ने जानबूझकर  देश का और मीडिया का ध्यान उधर से  हटाकर अपने संसदीय  बोर्ड  के नवीनीकरण और 'मार्गदर्शक मंडल'जैसे बृद्धाश्रम का निर्माण कर  सभी को  चौंका दिया।   भाजपा नेतत्व ने सफलतापूर्वक न केवल मीडिया में  बल्कि राष्ट्रीय फलक पर अपनी पार्टी को पुनः केंद्र में खड़ा कर दिया। संसदीय बोर्ड में किन- किन - को हटाया गया ? नवगठित बोर्ड में किन-किन को  उपकृत किया गया ? किन-किन  बुजुर्ग नेताओं को 'बृद्धाश्रम ' में  भेजा गया ? यह चर्चा मीडिया में प्रमुखता से जानबूझकर चली गई।  वैसे तो मोदी सरकार  के लिए  इन उपचुनावों से कोई खास लेना देना नहीं था। क्योंकि इन  परिणामों का केंद्र सरकार के  क्रिया -कलापों से या उसकी नीतियों  से कोई खास सावका  नहीं था।  किन्तु केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी केअलावा विपक्ष के  स्थानीय नेताओं की वैयक्तिक '  पकड़'तथा विभिन्न राज्यों में  भाजपा की  राजनैतिक -समाजिक स्थिति का  पता तो चल ही गया।  फिर  यदि इन परिणामों से भाजपाई सबक नहीं लेते तो यह तो वर्तमान विपक्ष की सेहत के लिए  और भी अच्छा है । देश के लिए भी कुछ तो अच्छा  सगुन है।  क्योंकि इन परिणामों से  उत्साहित -भारत का विपक्ष  यदि एकजुट हो जाए तो कोई अचरज की बात नहीं। यदि आगामी ५ साल बाद  केंद्र में किसी और पार्टी या गठबंधन की सरकार बन जाए तो भी कोई अचरज नहीं। यदि  मोदी सरकार इन अद्द्यतन परिणामों  का मंथन कर जनकल्याणकारी नीतियों और  जनहितैषी कार्यक्रमों को तबज्जो देती है तो  ही वह दुबारा सत्ता में आ पाएगी। इस तरह दोनों ही सूरत में ये उपचुनाव देश की जनता को आशा का सन्देश देने के लिए  सराहनीय हैं।
               लकिन  नमो अभी तक [१०० दिनों] में जो करते आये हैं यदि आइन्दा भी  वही करने जा रहे हैं  तो 'संघ' या  भागवत जी भले ही  उन्हें माँफ कर दें ,किन्तु  'राम लला ' के नाम पर जिनको ठगा जा रहा  है वे  करोड़ों मतदाता  तो कदापि बख्सने वाले नहीं हैं।अभी तक कार्यान्वन में प्रयुक्त ,मोदी सरकार की कोई भी तजबीज ,योजना कार्यक्रम या नीति भारत  के'आम आदमी' के अनुकूल  तो कदापि प्रदर्शित नहीं  हुई है। जिस कार्पोरेट लाबी को वे सर-आँखों पर बिठाये जा रहे हैं ,जिस तेजी से वे देश की सम्पदा को विदेशी हाथों में सौंपने को बैचेन हैं वो  मोदी सरकार की अवैज्ञानिक चेष्टाओं का नग्न प्रदर्शन ही कहा  जा सकता है।  इसी तरह  मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और अभी-अभी भाजपा संसदीय बोर्ड के सदस्य बने श्री  शिवराजसिंह  चौहान ने  भीं दुबई  तथा यूएई में  जो एजेंडा प्रस्तुत किया  है।  निकट भविष्य में जापान -कोरिया की यात्राओं में पीएम महोदय भी वही करने जा रहे हैं। इस प्रयोजन का  महँगाई की मार से पीड़ित असहाय  गरीब जनता के विकाश से  कोई लेना-देना नहीं है। सर्वविदित है कि  पूँजीपतियों  के दवाव में तमाम श्रम  क़ानून आनन-फानन  भोंथरे किये जा रहे  हैं। सार्वजनिक उपक्रमों को आईसीयू में भर्ती किया जा रहा है । लाख टके  का सवाल है कि  मोदी जी और उनकी सरकार  किसके  पक्ष में खड़े हैं ? 
                      जब सरकार  का मतलब -नमो-नमो ! भाजपा का मतलब-नमो-नमो ! संसदीय बोर्ड का मतलब नमो-नमो !नीतियों का मतलब -नमो-नमो ! सिद्धांतों का मतलब - नमो -नमो और विकाश -सुशासन का  मतलब 'नमो-नमो'  है तो फिर चुनाव में जीत-हार का मतलब  'नमो-नमो' क्यों नहीं होना चाहिए ?जब कभी  मोदी जी को इल्हाम  हुआ  होगा कि 'पुराना सब कुछ बदल  देने से नया अपने आप आ जाएगा तब शायद उनके जेहन में  निजी तौर पर  पुराने पितृगण  ,पुराना स्वाधीनता संग्राम ,पुराने महापुरुष और पुराना त्याग-बलिदान, पुराना  हिमालय ,पुरानी गंगा और पुरातन भारतवर्ष तो अवश्य  ही रहा होगा।  तभी तो उन्होंने पुराना संसदीय बोर्ड ,पुराना  योजना आयोग,पुराने  राज्यपाल ,पुराना अध्यक्ष [राजनाथसिंह] और पुराने नेता [आडवाणी-जोशी -अटल और सभी]  ही नहीं बल्कि१९२५ से  संघ का , १९५२ से जनसंघ का और  १९८० से भाजपा का वह एजंडा भी कूड़ेदान में फेंक दिया गया है  जो  राष्ट्रवाद ,हिंदुत्व और स्वदेशी पर आधारित था।  चूँकि वह भी   बहुत पुराना हो गया था इसलिए उसे भी वरिष्ठ नेताओं की मानिंद हासिये पर हाँक दिया गया।  अब नया तो बस  'नमो नाम केवलम' है।  इसलिए आइन्दा देखने की बात ये हैं कि  पुरानी संसद और पुराना लोकतंत्र कब तक खैर मनाता  है ?की मनसा है कि न केवल  कांग्रेस,कम्युनिस्ट  और अन्य धर्मनिरपेक्ष दल बल्कि  देश को भी ठिकाने लगाना है क्योंकि वो भी बहुत पुराना हो  चुका है।  यह सब करने के लिए सत्ता में रहना जरुरी है  ,सत्ता में रहने के लिए चुनाव जीतना जरुरी है ,चुनाव जीतने के लिए पैसा जरुरी है ,पैसे के लिए भृष्ट बेईमान  पूँजीपतियों  का सानिध्य जरुरी है। इसीलिए  तोअब  नीतियों और सिद्धांतों में कट्टर 'पूंजीवाद  नाम केवलम ' का जाप चल  रहा है।


                      - ; श्रीराम तिवारी ;-
       

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