भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार और लोक सभा अध्यक्ष श्रीमती सुमित्रा महाजन से पूंछा है कि जब कोई विपक्ष का नेता ही नहीं है तो लोकपाल कैसे चुना जाएगा।क्योंकि लोकपाल के चयन की प्रक्रिया में तो 'नेता विपक्ष' एक अति आवश्यक फेक्टर है। वास्तव में सुप्रीम कोर्ट को तो पूंछना चाहिए था कि न केवल लोकपाल अपितु -न्यायिक कॉलेजियम पार्लियामेंट्री स्टेंडिंग कमिटी,लोक लेखा समिति,तथा तीनों सेनाओं के प्रमुखों के अलावा अन्य अतिमहत्वपूर्ण संवैधानिक पदों की स्थापनाओं के चयन की प्रक्रिया में जहाँ- जहाँ नेता विपक्ष की राय बहुत जरुरी है वहां का निर्णय कैसे होगा ? चूँकिअब तो परम्परा और सिद्धांत दोनों ही इसके पक्षधर हैं कि सत्ता पक्ष और विपक्ष की सहमति [मार्फत विपक्ष नेता ] से ही सर्वश्रेष्ठ फैसले लिए जाने चाहिए । लेकिन जब विपक्ष का नेता ही नहीं होगा तो राय किसकी ली जाएगी ? ऐंसा लगता है कि सत्तारूढ़ पार्टी को मिले प्रचंड बहुमत के वावजूद उसे अपनी संसदीय रणकौशल पर भरोसा अभी भी नहीं है। वरना भाजपा के इस नए नेतत्व को मात्र एक 'नेता विपक्ष' से इतना भय क्यों है? कहीं उनका इरादा यह तो नहीं कि वे इस पद को किसी भी तरह से ज़िंदा ही नहीं रखना चाहते ? यदि वे वास्तव में सच्चे राष्ट्रवादी हैं और भारत के लोकतंत्र को बुलंदियों पर देखना चाहते हैं तो उन्हें चाहिए कि फ़ौरन से पेश्तर सुप्रीम कोर्ट के समक्ष -अटार्नी जनरल की नकारात्मक राय नहीं बल्कि भारत के सम्पूर्ण विपक्ष की [लगभग ६९% की ] राय को तत्काल पेश करें।
भाजपा नेतत्व को नहीं भूलना चाहिए कि उनकी पार्टी को १६ वीं संसद में ३३२ सीटें तो अवश्य मिली हैं किन्तु वोट तो ३१ % ही मिले हैं। इस स्पष्ट किन्तु आभासी जनादेश का तात्पर्य यह नहीं कि विपक्ष के रूप में देश की ६९ % जनता की आवाज को नजर अंदाज कर दिया जाए ? यह न तो मौजूदा सरकार के लिए उचित होगा और संसदीय लोकतंत्र के हित में तो कदापि नहीं होगा।
वैसे तो किसी पार्टी विशेष के एक खास व्यक्ति को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा मिल जाने से उसकी संसदीय क्षमता पर या उसके जनतांत्रिक जनाधार पर कोई खास असर नहीं पड़ता किन्तु फिर भी नेता प्रतिपक्ष के होने से सत्ता पक्ष के लिए भी गाहे-बगाहे , शासन-प्रशासन चलाने में काफी सहूलियतें हुआ करतीं हैं । इससे भी अधिक सकारात्मक और सार्थक तथ्य यह भी है कि देश को एक बेहतर लोकतांत्रिक राष्ट्र होने का गौरव भी प्राप्त होगा । नेता प्रतिपक्ष के बहाने संसद में बिखरे हुए विपक्ष को महत्व मिलने से फासिज्म और तानशाही की संभावनायें भी नहीं रहेगी । भारत में अभी तक चली आ रही परम्परा के अनुसार कुछ अपवादों को छोड़कर लोक सभा में नेता प्रतिपक्ष - विभिन्न महत्वपूर्ण सांविधानिक पदों के चयन-मनोनयन वाली -अधिकांस महत्वपूर्ण समितियों का सम्मानित सदस्य होता है । वर्तमान सत्ताधारी नेतत्व ने अपने निहित स्वार्थों की पूर्ती के लिए यदि नेता प्रतिपक्ष के पद को विलोपित करने का दुस्साहस किया तो यह वास्तव में 'बनाना लोकतंत्र' बनकर रह जाएगा। यदि सत्ता पक्ष ने -लोक सभा अध्यक्ष श्रीमती सुमित्रा महाजन के कंधे पर बन्दूक रखकर विपक्ष पर निशाना साधा तो इससे मृतप्राय कांग्रेस और गैर कांग्रेसी विपक्ष को पुनः संजीवनी मिलने की पूरी संभावनाएं हैं। पराजित कांग्रेस तो अपना दामन बचाने के लिए ठीक ऐंसे ही मौकों की तलाश में है। वैसे भी लगता है कि राहुल गांधी को तो 'नेता विपक्ष' जैसे पद की कोई तमन्ना नहीं है। जहाँ तक सोनिया गांधी का सवाल है ,वे तो प्रधानमंत्री भी नहीं बनना चाहतीं तो नेता विपक्ष का उन्हें कोई मोह होगा इसमें संदेह है ! रही बात मल्लिकार्जुन खड़गे या कांग्रेस पार्टी की तो यह केवल उनकी एक संवैधनिक विवशता मात्र है कि 'नेता विपक्ष' की मांग करें ।उन्हें सुप्रीम कोर्ट का यह फरमान एक अवसर बनकर आया है कि -सत्ता पक्ष को सुप्रीम कोर्ट से जारी सम्मन का जबाब दो हफ़्तों में देना है। यदि भाजपा नेतत्व ने -नेता विपक्ष पर अड़ियल रुख अपनाया तो उन्हें याद रखना चाहिए कि भविष्य में सत्ता पक्ष को भी संसद में और खास तौर से राज्य सभा में कोई भी कामकाज या विधेयक पास करवाना मुश्किल हो जाएगा। वैसे भी भारतीय संसद में होती रहतीं अप्रिय कार्यवाहियों पर देश की आवाम को कई वजहों से नाराजी है। नेता विपक्ष के अभाव में कई काम पेंचीदे हो जाएंगे।
नियमानुसार भारत की संसदीय परम्परा में 'नेता विपक्ष' की हैसियत पाने के लिए लोक सभा चुनाव में संसदीय संख्या के अनुसार दूसरे नंबर पर आने वाली किसी भी पार्टी के कम -से-कम १०% सांसद अथवा न्यनतम ५५ [कुल संसदीय संख्या ५४३ का दशमांश] होने चाहिए। १६ वीं लोक सभा में कांग्रेस दूसरे नंबर पर तो है किन्तु उसकी सीट संख्या मात्र ४४ है। वेशक अतीत में जब कांग्रेस सत्ता में रही तब उसने भी विपक्ष को कोई खास तबज्जो नहीं दी। लेकिन १९७७ में जनता पार्टी की सरकार आने के बाद लोक सभा ने यह सुनिश्चित किया कि बहुमत दल की सरकार कोई भी हो ,किन्तु लोक सभा की सर्वोच्चता और वास्तविक डेमोक्रेसी के बरक्स विपक्ष की शक्ति को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए ।उसके बाद नेता विपक्ष के मनोनयन का सिलसिला चला पड़ा। बाद में फिर ऐंसे कई मौके आये जब किसी भी विपक्षी पार्टी को उचित या वांछित संसदीय बल प्राप्त नहीं हो सका और किसी को भी नेता विपक्ष का पद नहीं मिल पाया । १९८४ में कांग्रेस को ४१२ और भाजपा को मात्र दो सीट मिली थी तब माकपा के नेतत्व में वाम मोर्चा[सदस्य संख्या[ ४९] दूसरे नंबर पर थी। किन्तु उनकी अलग-अलग संसदीय गणना के कारण नेता विपक्ष का पद उन्हें भी नहीं दिया गया। इसी तरह तत्कालीन तेलगु देशम [सदस्य संख्य -२९]को भी 'नेता विपक्ष' का पद नहीं दिया गया। लेकिन इसका तातपर्य यह नहीं की जो गलती अतीत में की जाती रही हो ,उसे फिर से वापिस दुहराया जाए ! यदि भारत को मजबूत बनाना है तो भारतीय संसद को तथा भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाना होगा। इसके लिए सतत सकारात्मक और क्रांतिकारी कीर्तिमान स्थापित करने होंगे। ऐंसा नहीं कि जो सकारात्मक अवयव हैं उन्हें ही नष्ट कर दिया जाए। जब संसद में विपक्ष है तो नेता विपक्ष क्यों नहीं होना चाहिए ? क्या यह उस महानतम जनादेश का अपमान नहीं होगा जो कि लोकशाही का मूल आधार है?
पूर्व वर्ती परम्पराओं और अटार्नी जनरल की राय के आधार पर वर्तमान स्पीकर महोदया ने भले ही कांग्रेस द्वारा की जा रही नेता प्रतिपक्ष की माँग को ठुकरा दिया हो , किन्तु यहां कांग्रेस या भाजपा के चाहने या नहीं चाहने का प्रश्न नहीं है। स्पीकर का यह कहना है कि वे नियमों और परमपराओं से बंधी हुईं हैं ,यह एक चलताऊ सा जबाब है। जबकि उनके समक्ष तो अपने संसदीय जीवन का श्रेष्ठतम कीर्तिमान बनाने का सुअवसर मौजूद है । इस संबंध में वे दलीय प्रतिबद्धता से ऊपर उठकर न केवल विपक्ष को बल्कि वर्तमान सत्ता पक्ष की भूमिका को भी राष्ट्रहित कारी बना सकती हैं। दलगत प्रतिबद्धताओं के कारण कुछ इस तरह मंसा जाहिर हो रही है किमानों सर्वोच्च नेताओं के अपने निजी हित या उनकी अपनी पार्टी भाजपा के हित ही , उनकी तात्कालिक प्राथमिकता में हैं। यह आभाषित होता है कि राष्ट्रहित तो केवल भाषणबाजी में या नारों में ही उद्घोषित होते रहते हैं। पार्टी प्रतिबद्धता को इससे कोई सरोकार नहीं कि भारतीय संसदीय प्रजातंत्र के हित में क्या है ?भारतीय संसद की प्राथमिकता में क्या है?भारत के लिए उसकी बहुलवादी -बहुभाषी-बहुसंस्कृतिवादी तथा बहुधर्मी अनेकता में एकता के लिए उचित क्या है ? यदि इन सवालों के मद्देनजर वर्तमान शासक वर्ग खुद आगे होकर नेता विपक्ष की वकालत करता है तो न केवल यह भारतीय लोकतंत्र के लिए महानतम होगा बल्कि भाजपा के लिए भी आशातीत वरदान बन सकता है । आशा की जा सकती है कि न्याय पालिका और जनता के हस्तक्षेप से 'नेता विपक्ष' का पद कायम रहेगा और भारतीय लोकतंत्र और अधिक समृद्ध होगा। कांग्रेस और सम्पूर्ण विपक्ष को चाहिए कि लोकतंत्र के हित में संसद के अंदर व्यापक एकता कायम करें। संसद में एक मत होकर सत्ता पक्ष को बाध्य करें कि संसद में कभी भी 'एकचालुकानुवर्तित्व' नहीं चलेगा। 'नेता विपक्ष ' तो होना ही चाहिए ! यह लोकतंत्र के हित में है।
१५ अगस्त को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने अपने प्रथम भाषण में एक बहुत सार्थक और सटीक बात कही है की" हम अपने प्रचंड बहुमत के मद में चूर होकर नहीं बल्कि 'सबको साथ लेकर 'चलेंगे ! हम 'सबका साथ -सबका विकाश 'के साथ देश को समृद्ध बनायेंगे" सभी को मालूम है कि श्री नरेंद्र मोदी जी इस समय जब अपने ही सांसदों और मंत्रियों पर पैनी निगाह रख सकते हैं , वे जब आडवाणी , मुरली मनोहर जोशी ,यशवंत सिन्हा और जशवन्तसिंह को घर बिठा सकते हैं,वे जब अमित शाह को शिखर पर बिठा सकते हैं ,वे जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एजेंडे को -धारा ३७०,राम-लला मंदिर निर्माण तथा एक समान क़ानून सहित सभी पुरोगामी आकांक्षाओं को तिलांजलि दे सकते हैं , वे जब सुशासन और विकाश के बलबूते इतना प्रचंड बहुमत हासिल कर सकते हैं तो फिर एक अदने से 'नेता विपक्ष' के पद से उन्हें इतना डर क्यों है ? विपक्ष की कम सीटों का बहाना क्यों बनाया जा रहा है ?वास्तविक जनादेश का सम्मान क्यों नहीं किया जा रहा है ?
- ; श्रीराम तिवारी ;-
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