दैवीय अंधश्रद्धा बनाम तार्किक आस्तिकता का सिंहावलोकन !
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सरसरी तौर पर आस्तिकता और अनीश्वरवाद दोनों ही एक जैसे लगते हैं किन्तु वास्तव में वे विपरीत ध्रुव ही हैं। सभ्य मानव समाज की ऐतिहासिक विकाश यात्रा में इन दोनों ही 'वैचारिक -गुणों'ने सार रूप में इंसान को उसकी दैहिक-दैविक और भौतिक ऊंचाइयों पर स्थापित कराने में समान रूप से महती भूमिका अदा की है।अनीश्वरवाद तो मानव मात्र की रग़ों में उसके आदिम युग से ही विद्द्य्मान रहा है। यह गुण न केवल मनुष्य बल्कि सभी अन्य चैतन्यशील प्राणियों में भी आनुवंशिक रूप से सदैव प्रकृति प्रदत्त रहा है । वेशक 'मानव' मष्तिष्क ने ही अन्य प्राणियों के सापेक्ष वैचारिक और उद्द्यमशीलता के क्रांतिकारी झंडे गाड़े हैं. उसके मूल में भी वैज्ञानिक युग की इसी 'नास्तिक' विचारधारा के महानतम वैज्ञानिकों की तथाकथित 'अनास्था' ही विद्द्य्मान रही है । इस अनीश्वरवादी अर्थात भौतिकतावादी वैज्ञानिक विचारधारा ने ही संसार को अनेकों वैज्ञानिक वरदान दिए हैं। आज का भूमण्डल जैसा भी वह मनुष्य की नास्तिक बुद्धि की प्रकृति पर विजय का जज्वा जाता रहा है। यदि इस भौतिकतावाद का आविर्भाव नहीं हुआ होता और मनुष्य मात्र केवल;-इस भारतीय चिंतन पर कि ;-
"अजगर करे न चाकरी ,पंछी करे न काम "
टिका रहता तो वह भले ही आज बंदरों के साथ भयानक जंगलों में उछल कूंद ही कर रहा होता। तब उसका पाषाणयुग कभी खत्म नहीं होता और गुफाओं में उसका अनंतकाल तक डेरा होता। इसमें कोई शक नहीं कि न केवल धरती का पर्यावरण अपितु सौरमंडल सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी तब और ज्यादा सुरक्षित होता। चूँकि वैज्ञानिक उथ्थान-पतन का कारक तो भौतिकतावाद ही है,अर्थात प्रकांरातर से तो यही आभासित होता है कि भौतिकतावाद से आस्थावाद याने भाववाद ही श्रेष्ठ है। सोचिये कि मध्ययुग की अर्ध गुलाम दुनिया में और यूरोप समेत सारे सभ्य संसार में रैनेसाँ को उभारने वाले ,सामंतवाद पर प्रजातंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष करने वाले तथा पोप या खलीफा जैसे अधिनायकवादी ईश्वरीय ठेकेदारों की प्रभुसत्ता को चुनौती देने वाले- साहित्यकार-कवि,लेखक या नाटककार कौन थे ? जिन्होंने प्रकृति का अध्यन किया ,उसके नियमों का अनुशंधान कर प्राणिमात्र से संबंध उजागर किया वे प्रतिभाशाली वैज्ञानिक जो आज की इस दुनिया के सर्जनहार माने जाते हैं ,वे कौन थे ? दोनों सवालों का एक ही उत्तर है वे 'नास्तिक' थे ! वे अनीश्ववादी याने भौतिकतावादी थे !अब एक सवाल और उठता है कि नास्तिकता या अनीश्वरवाद जब इतना सृजनशील और समाज हितकारी है तो वह 'हेय' क्यों है ?जो आस्तिकता या ईश्वरवाद -तमाम पाखंडों,साम्प्रदायिक -आतंकी खुरपातों के लिए कुख्यात है वह इस महा वैज्ञानिक युग में -अभी भी इस धरती पर 'प्रेय' क्यों है ?
आम तौर पर आस्तिकता और अनीश्वरवाद दोनों ही एक जैसे लगते हैं किन्तु वास्तव में वे एक दूसरे के पूरका ही हैं। सभ्य मानव समाज की ऐतिहासिक विकाश यात्रा में इन दोनों ही 'वैचारिक -गुणों'ने सार रूप में इंसान को अधुनातन रूप में ढाला है। उसकी दैहिक-दैविक और भौतिक ऊंचाइयों पर स्थापित कराने में समान रूप से महती भूमिका अदा की है।अनीश्वरवाद या नास्तिकता के अस्तित्व से कोई इंकार कर ही नहीं सकता। वह तो मानव मात्र की रग़ों में उसके आदिम युग से ही विद्द्य्मान रहा है। यह गुण न केवल मनुष्य बल्कि सभी अन्य चैतन्यशील प्राणियों में भी आनुवंशिक रूप से सदैव प्रकृति प्रदत्त है । वेशक 'मानव' ने ही अन्य प्राणियों के सापेक्ष आस्तिकता या भाववादी वैचारिक उद्द्यमशीलता के बिजूके गाड़े हैं। आज का वैज्ञानिक युग इसी 'नास्तिक' विचारधारा के महानतम वैज्ञानिकों की खुरापात का परिणाम है । मध्ययुग की अर्ध गुलाम दुनिया में और यूरोप समेत सारे सभ्य संसार में जब यह आस्तिकता 'धर्मोन्माद' में बदल गई तो इन्ही नासिक्तवादियों-वैज्ञानिकों और साहित्यकारों को कुर्वानी देकर मानवता को बचाना पड़ा। धार्मिक और मजहबी पाखंडवाद के खिलाफ -रैनेसाँ को उभारने वाले ,सामंतवाद पर प्रजातंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष करने वाले तथा पोप -खलीफा -मठाधीश जैसे ईश्वरीय ठेकेदारों से जूझने वाले नास्तिक लोग ही वास्तव में 'ईश्वर के असली पुत्र' हैं। महान साहित्यकार जब तत्कालीन निरकुंश शासकों को 'मानवीय मूल्यों' का आइना दिखा रहे थे तब धर्मांध लोग सामंतवाद की चरण वंदना में लगे हुए थे। जो प्रजातंत्र,समाजवाद या साम्यवाद के लिए -बराबरी ,स्वतंत्रता ,समानता और बंधुता के लिए संघर्ष कर रहे थे ,उनमे से अधिकांस नास्तिक या बुद्धिवादी ही थे।
न केवल प्लेटो ,सुकरात ,अरस्तु ,इलियट ,गेटे ,वाल्तेयर ,रूसो, गैरी बाल्डी ,मार्क्स -एंगेल्स ,ओवन या मैक्सिम गोर्की जैसे अनीश्वरवादी , बल्कि आर्कमिडीज ,पाइथागोरस , कोपरनिकस,पियरे ,थॉमस अल्वा एडिसन,जार्ज स्टीवेन्सन ,रदरफोर्ड,फ्लेमिंग,राइट बंधू तथा न्यूटन इत्यादि यूरोपियन यूनानी-अमेरिकी नास्तिकों ने बल्कि भारतीय उपमहादीप में भी कपिल , कणाद , अश्वघोष, ,भवभूति,चरक चार्वाक करहपा जैसे नास्तिक वैज्ञानिकों ने मानव को प्रकृति पर विजय दिलाई है । इन अनीश्वरवादियों ने ही महासागरों का घनत्व - धरती का वजन -लम्बाई-चौड़ाई तथा सूरज का गुरुत्व नाप डाला है। शून्य की खोज करने वाला , धरती को गोलाकर बताने वाला , सूरज को स्थिर और धरती को गतिमान बताने वाला हर शख्स नास्तिक और भौतिवादी था। वराहमिहिर , आर्यभट्ट, नागार्जुन तथा आचार्य चाणक्य जैसे अनीश्वरवादी ही प्रकृति के अन्वेषक हुआ करते थे। आज का अधिकांस उन्नत भौतिक संसार इन्ही तथाकथित 'नास्तिकों' की देंन है। अधिकांश इस नास्तिक विचारधारा में ही मनुष्य का अहोभाव और उसकी महानता का प्रशश्ति गान होता रहा है। इसी ने मनुष्य मात्र के भौतिक सुख संसाधन बढाए हैं और इसी ने इस भूमण्डल को विनाशकारी परमाण्विक विध्वंश के कगार पर ला खड़ा किया है। इसी ने मनुष्य को महायुद्ध सिखाये ,इसी ने धरती को पर्यावरण विनाश के मुँह में धकेलने का दुष्कर्म किया है।यदि मनुष्य की इस नास्तिक और वैज्ञानिक मानसिक फितरत को नैतिकता या आस्तिकता के अंकुश सेनियंत्रित नहीं किया गया होता तो अब तक धरती भी ब्रह्माण्ड का एक मृत्पिंड बन चुकी होती। यदि मनुष्य की भौतिक लालसा को आस्तिक बुद्धि से शासित किया जाता रहा है तो उस सार्थक 'आस्तिकता' को सम्मानित किया जाना चाहिए। शायद इसी सार्थकता के कारण संसार में वैज्ञानिकों और आविष्कारकों से भी ज्यादा सम्मान 'आस्तिक'जगत के 'अवतारवाद' को मिलता रहा है।मानवीय मूल्यों को सर्वश्रेष्ठ मानने वालों का इसमें सदैव सम्मान होता रहा है।
जहां तक 'आस्तिकता' के पाखंडवाद बन जाने का या शोषण का शस्त्र बन जाने का प्रश्न है तो वेशक यह भी मानव की वैज्ञानिक फितरत ही कही जा सकती है। इस आस्तिकता के 'दर्शन' को मानव मष्तिष्क ने सतत -एकल या संगठित रूप से प्रकृति पर विजय पाने में असमर्थता की स्थति में आविष्कृत किया होगा ! व्यक्तिशः या सामूहिक रूप से जीवन की चुनौतियों का सामना करने में हुई विफलता या संकटापन्न स्थति में 'ईश्वर' तत्व का अनुसंधान किया होगा। कब ,कहाँ और कैसे किया ये तो धरती की सृष्टि की तरह और डायनासोर जैसी प्रजातियों के विनाश की तरह अभी तक अबूझ ही है । अन्य क्रांतिकारी खोजों की तरह इस ओर भी अनुसंधान होना चाहिए कि मानवता के लिए दैवीय अंधश्रद्धा खतरनाक है या कि भयानक वैज्ञानिक भौतिकवादी संहारक अनुसन्धान। दुनिया में मच रही विनाशकारी संहारक हथियारों की होड़ और धर्मान्धता - साम्प्रदायिकता की धधकती ज्वाला को देखकर मुझे यकीन है कि इस धरती को आइन्दा आस्तिकता याने धर्म-मजहब के पाखंडवाद और नास्तिकता याने वैज्ञानिक भौतिकवादी अनुसंधान दोनों से ही समान रूप से खतरा है। क्या कोई और रास्ता है ?
श्रीराम तिवारी
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सरसरी तौर पर आस्तिकता और अनीश्वरवाद दोनों ही एक जैसे लगते हैं किन्तु वास्तव में वे विपरीत ध्रुव ही हैं। सभ्य मानव समाज की ऐतिहासिक विकाश यात्रा में इन दोनों ही 'वैचारिक -गुणों'ने सार रूप में इंसान को उसकी दैहिक-दैविक और भौतिक ऊंचाइयों पर स्थापित कराने में समान रूप से महती भूमिका अदा की है।अनीश्वरवाद तो मानव मात्र की रग़ों में उसके आदिम युग से ही विद्द्य्मान रहा है। यह गुण न केवल मनुष्य बल्कि सभी अन्य चैतन्यशील प्राणियों में भी आनुवंशिक रूप से सदैव प्रकृति प्रदत्त रहा है । वेशक 'मानव' मष्तिष्क ने ही अन्य प्राणियों के सापेक्ष वैचारिक और उद्द्यमशीलता के क्रांतिकारी झंडे गाड़े हैं. उसके मूल में भी वैज्ञानिक युग की इसी 'नास्तिक' विचारधारा के महानतम वैज्ञानिकों की तथाकथित 'अनास्था' ही विद्द्य्मान रही है । इस अनीश्वरवादी अर्थात भौतिकतावादी वैज्ञानिक विचारधारा ने ही संसार को अनेकों वैज्ञानिक वरदान दिए हैं। आज का भूमण्डल जैसा भी वह मनुष्य की नास्तिक बुद्धि की प्रकृति पर विजय का जज्वा जाता रहा है। यदि इस भौतिकतावाद का आविर्भाव नहीं हुआ होता और मनुष्य मात्र केवल;-इस भारतीय चिंतन पर कि ;-
"अजगर करे न चाकरी ,पंछी करे न काम "
टिका रहता तो वह भले ही आज बंदरों के साथ भयानक जंगलों में उछल कूंद ही कर रहा होता। तब उसका पाषाणयुग कभी खत्म नहीं होता और गुफाओं में उसका अनंतकाल तक डेरा होता। इसमें कोई शक नहीं कि न केवल धरती का पर्यावरण अपितु सौरमंडल सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी तब और ज्यादा सुरक्षित होता। चूँकि वैज्ञानिक उथ्थान-पतन का कारक तो भौतिकतावाद ही है,अर्थात प्रकांरातर से तो यही आभासित होता है कि भौतिकतावाद से आस्थावाद याने भाववाद ही श्रेष्ठ है। सोचिये कि मध्ययुग की अर्ध गुलाम दुनिया में और यूरोप समेत सारे सभ्य संसार में रैनेसाँ को उभारने वाले ,सामंतवाद पर प्रजातंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष करने वाले तथा पोप या खलीफा जैसे अधिनायकवादी ईश्वरीय ठेकेदारों की प्रभुसत्ता को चुनौती देने वाले- साहित्यकार-कवि,लेखक या नाटककार कौन थे ? जिन्होंने प्रकृति का अध्यन किया ,उसके नियमों का अनुशंधान कर प्राणिमात्र से संबंध उजागर किया वे प्रतिभाशाली वैज्ञानिक जो आज की इस दुनिया के सर्जनहार माने जाते हैं ,वे कौन थे ? दोनों सवालों का एक ही उत्तर है वे 'नास्तिक' थे ! वे अनीश्ववादी याने भौतिकतावादी थे !अब एक सवाल और उठता है कि नास्तिकता या अनीश्वरवाद जब इतना सृजनशील और समाज हितकारी है तो वह 'हेय' क्यों है ?जो आस्तिकता या ईश्वरवाद -तमाम पाखंडों,साम्प्रदायिक -आतंकी खुरपातों के लिए कुख्यात है वह इस महा वैज्ञानिक युग में -अभी भी इस धरती पर 'प्रेय' क्यों है ?
आम तौर पर आस्तिकता और अनीश्वरवाद दोनों ही एक जैसे लगते हैं किन्तु वास्तव में वे एक दूसरे के पूरका ही हैं। सभ्य मानव समाज की ऐतिहासिक विकाश यात्रा में इन दोनों ही 'वैचारिक -गुणों'ने सार रूप में इंसान को अधुनातन रूप में ढाला है। उसकी दैहिक-दैविक और भौतिक ऊंचाइयों पर स्थापित कराने में समान रूप से महती भूमिका अदा की है।अनीश्वरवाद या नास्तिकता के अस्तित्व से कोई इंकार कर ही नहीं सकता। वह तो मानव मात्र की रग़ों में उसके आदिम युग से ही विद्द्य्मान रहा है। यह गुण न केवल मनुष्य बल्कि सभी अन्य चैतन्यशील प्राणियों में भी आनुवंशिक रूप से सदैव प्रकृति प्रदत्त है । वेशक 'मानव' ने ही अन्य प्राणियों के सापेक्ष आस्तिकता या भाववादी वैचारिक उद्द्यमशीलता के बिजूके गाड़े हैं। आज का वैज्ञानिक युग इसी 'नास्तिक' विचारधारा के महानतम वैज्ञानिकों की खुरापात का परिणाम है । मध्ययुग की अर्ध गुलाम दुनिया में और यूरोप समेत सारे सभ्य संसार में जब यह आस्तिकता 'धर्मोन्माद' में बदल गई तो इन्ही नासिक्तवादियों-वैज्ञानिकों और साहित्यकारों को कुर्वानी देकर मानवता को बचाना पड़ा। धार्मिक और मजहबी पाखंडवाद के खिलाफ -रैनेसाँ को उभारने वाले ,सामंतवाद पर प्रजातंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष करने वाले तथा पोप -खलीफा -मठाधीश जैसे ईश्वरीय ठेकेदारों से जूझने वाले नास्तिक लोग ही वास्तव में 'ईश्वर के असली पुत्र' हैं। महान साहित्यकार जब तत्कालीन निरकुंश शासकों को 'मानवीय मूल्यों' का आइना दिखा रहे थे तब धर्मांध लोग सामंतवाद की चरण वंदना में लगे हुए थे। जो प्रजातंत्र,समाजवाद या साम्यवाद के लिए -बराबरी ,स्वतंत्रता ,समानता और बंधुता के लिए संघर्ष कर रहे थे ,उनमे से अधिकांस नास्तिक या बुद्धिवादी ही थे।
न केवल प्लेटो ,सुकरात ,अरस्तु ,इलियट ,गेटे ,वाल्तेयर ,रूसो, गैरी बाल्डी ,मार्क्स -एंगेल्स ,ओवन या मैक्सिम गोर्की जैसे अनीश्वरवादी , बल्कि आर्कमिडीज ,पाइथागोरस , कोपरनिकस,पियरे ,थॉमस अल्वा एडिसन,जार्ज स्टीवेन्सन ,रदरफोर्ड,फ्लेमिंग,राइट बंधू तथा न्यूटन इत्यादि यूरोपियन यूनानी-अमेरिकी नास्तिकों ने बल्कि भारतीय उपमहादीप में भी कपिल , कणाद , अश्वघोष, ,भवभूति,चरक चार्वाक करहपा जैसे नास्तिक वैज्ञानिकों ने मानव को प्रकृति पर विजय दिलाई है । इन अनीश्वरवादियों ने ही महासागरों का घनत्व - धरती का वजन -लम्बाई-चौड़ाई तथा सूरज का गुरुत्व नाप डाला है। शून्य की खोज करने वाला , धरती को गोलाकर बताने वाला , सूरज को स्थिर और धरती को गतिमान बताने वाला हर शख्स नास्तिक और भौतिवादी था। वराहमिहिर , आर्यभट्ट, नागार्जुन तथा आचार्य चाणक्य जैसे अनीश्वरवादी ही प्रकृति के अन्वेषक हुआ करते थे। आज का अधिकांस उन्नत भौतिक संसार इन्ही तथाकथित 'नास्तिकों' की देंन है। अधिकांश इस नास्तिक विचारधारा में ही मनुष्य का अहोभाव और उसकी महानता का प्रशश्ति गान होता रहा है। इसी ने मनुष्य मात्र के भौतिक सुख संसाधन बढाए हैं और इसी ने इस भूमण्डल को विनाशकारी परमाण्विक विध्वंश के कगार पर ला खड़ा किया है। इसी ने मनुष्य को महायुद्ध सिखाये ,इसी ने धरती को पर्यावरण विनाश के मुँह में धकेलने का दुष्कर्म किया है।यदि मनुष्य की इस नास्तिक और वैज्ञानिक मानसिक फितरत को नैतिकता या आस्तिकता के अंकुश सेनियंत्रित नहीं किया गया होता तो अब तक धरती भी ब्रह्माण्ड का एक मृत्पिंड बन चुकी होती। यदि मनुष्य की भौतिक लालसा को आस्तिक बुद्धि से शासित किया जाता रहा है तो उस सार्थक 'आस्तिकता' को सम्मानित किया जाना चाहिए। शायद इसी सार्थकता के कारण संसार में वैज्ञानिकों और आविष्कारकों से भी ज्यादा सम्मान 'आस्तिक'जगत के 'अवतारवाद' को मिलता रहा है।मानवीय मूल्यों को सर्वश्रेष्ठ मानने वालों का इसमें सदैव सम्मान होता रहा है।
जहां तक 'आस्तिकता' के पाखंडवाद बन जाने का या शोषण का शस्त्र बन जाने का प्रश्न है तो वेशक यह भी मानव की वैज्ञानिक फितरत ही कही जा सकती है। इस आस्तिकता के 'दर्शन' को मानव मष्तिष्क ने सतत -एकल या संगठित रूप से प्रकृति पर विजय पाने में असमर्थता की स्थति में आविष्कृत किया होगा ! व्यक्तिशः या सामूहिक रूप से जीवन की चुनौतियों का सामना करने में हुई विफलता या संकटापन्न स्थति में 'ईश्वर' तत्व का अनुसंधान किया होगा। कब ,कहाँ और कैसे किया ये तो धरती की सृष्टि की तरह और डायनासोर जैसी प्रजातियों के विनाश की तरह अभी तक अबूझ ही है । अन्य क्रांतिकारी खोजों की तरह इस ओर भी अनुसंधान होना चाहिए कि मानवता के लिए दैवीय अंधश्रद्धा खतरनाक है या कि भयानक वैज्ञानिक भौतिकवादी संहारक अनुसन्धान। दुनिया में मच रही विनाशकारी संहारक हथियारों की होड़ और धर्मान्धता - साम्प्रदायिकता की धधकती ज्वाला को देखकर मुझे यकीन है कि इस धरती को आइन्दा आस्तिकता याने धर्म-मजहब के पाखंडवाद और नास्तिकता याने वैज्ञानिक भौतिकवादी अनुसंधान दोनों से ही समान रूप से खतरा है। क्या कोई और रास्ता है ?
श्रीराम तिवारी
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