भारत में इन दिनों सोशल मीडिया ही नहीं बल्कि डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर भी चारों तरफ से खास तौर से प्रोग्रसिव पक्ष की ओर से - कुछ गैर जरुरी -अनुत्पादक या फ़ालतू मुद्दों पर काफी कुछ कहा- सुना जा रहा है। एक तरफ जबकि शासक वर्ग की ओर से कार्पोरेट जगत को लूट की खुली छूट दी जा रही है, मानसून की अस्थिरता और भृष्टचारी निजाम की बदौलत -आसन्न खाद्द्यान्न संकट ,जीवकोपार्जन की मारामारी की संभावनाएं बढ़ती जा रहीं हैं। धरती के अनाप-शनाप दोहन उसका तटदनुरूप पर्यावरण असंतुलन ,जनसंख्या विस्फोट और भूमंडलीकरण इत्यादि के भयावह दुष्परिणामों की और से आँख मींचकर कुछ तथाकथित वुद्धिजीवी आजकल फ़ोकटिये विमर्श में उलझ रहे हैं। उन्हें किसी संगठित जनांदोलन की चर्चा के बजाय यह चिंता है कि किस शंकराचार्य ने क्या कहा ? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर में जाना चाहिए था या नहीं ? उन्हें भगवा वस्त्र पहनना चाहिए था या नहीं ? वे अयोध्या स्थित - टाट में विराजे 'राम लला ' को थेंक्स कहने क्यों नहीं गए ? उन्हें किस मंदिर में जाना चाहिए ,किसमे नहीं जाना चाहिए ? इस तरह के निम्नस्तरीय विमर्श के अलावा किस जज ने गीता की तारीफ की ,किसने उसे विद्द्यालय के पाठ्क्रम में शामिल करने की वकालत की इन गैरजरूरी मुद्दों पर कुछ स्वयंभू क्रांतिकारियों या दिग्गज प्रगतिशीलों ने इतनी उतावली दिखाई मानों भारत में भी अभी फ़ौरन से पेश्तर कोई 'महान सांस्कृतिक क्रांति' ही असफल होने ही जा रही हो ! कुछ तथाकथित 'धर्मनिरपेक्षों' ने तो इन वैयक्तिक किन्तु संवेदनशील मामलों में बहुत घटिया टिप्पणी तक कर डालीं। अपने आपको प्रगतिशील या जनवादी कहने वाले ऐसे अधकचरे शख्स जिनके पैरोकार हों उन्हें दुश्मनों की क्या जरुरत ?
वेशक धर्म -मजहब के पाखंडी -आडंबरों और उसके दकियानूसी चेहरे से न केवल मार्क्सवाद को बल्कि लोकतांत्रिकता ,धर्मनिरपेक्षता और मानवतावाद को भी परहेज है। दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धर्मनिरपेक्ष देश होते हुए भी भारत एक धर्मप्राण राष्ट्र है। यहाँ न केवल हिन्दू धर्म अर्थात सनातन धर्म मौजूद है बल्कि उसकी अनेक शाखाओं की जड़ें भी मजबूत हैं। इसी तरह तथाकथित - आयातित -ईसाईयत ,इस्लामिक , पारसीक तथा अनीश्वरवादी नास्तिकता याने अज्ञेयवाद को भी यहां शताब्दियों से भरपूर सम्मान मिलता रहा है। ईश्वर में आस्था का पौराणिक तात्पर्य -मानव जीवन की सम्पूर्णता में निहित था। संसार से मुक्ति , दुखों - कष्टों से मुक्ति का लक्ष्य उसकी उत्कर्षता में निहित है। तदुनसार धर्म-मजहब में उसके पावन ग्रंथों में भी "बहुजन हिताय -बहुजन सुखाय " जैसी धारणा की सफलता की गारंटी के गुण सूत्र किसी फ्रांसीसी क्रांति या वोल्शेविक क्रांति के आदर्शों से कमतर नहीं हैं।
दरसल सारा झगड़ा शोषक शासक वर्ग द्वारा आध्यात्मिक दर्शन -धर्म-मजहब के दुरूपयोग से शुरू हुआ है। धर्म-दर्शन -मजहब -पूजा पाठ और कर्मकांड का जितना दुरूपयोग भारत में किया जाता रहा है उसकी मिसाल दुनिया में अन्यत्र कहीं भी देखने -सुनने में नहीं आती। अब तो भारत के आम चुनाव और संसदीय प्रजातंत्र में यह सत्ता प्राप्ति का अमोघ अश्त्र ही बन चूका है। यही वजह है कि कुछ प्रगतिशील विद्वान भारतीय इस विमर्श से सशंकित होकर, धार्मिक ग्रंथों या उनके सिद्धांतों पर ही आक्रामक हो जाया करते हैं। चूँकि वे जानते हैं कि आत्मा,परमात्मा या ब्रह्म-जीव-माया के परस्पर सम्बन्ध और धर्मान्धता में डूबे हुए भारत को विदेशी यायावर आतताइयों के सामने बार-बार घुटने टेकने पड़े हैं। जो लोग भारतीय गुलामी का इतिहास जानते-समझते हैं ,जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम में शहीद हुए बलिदानियों का इतिहास पढ़ा है वे शायद आजाद भारत को आइन्दा धर्मान्धता या साम्प्रदायिकता की अंधी सुरंग में धकेले जाने के खिलाफ हैं। इसीलिये अपनी राष्ट्रीय चिंताओं के बरक्स वर्तमान दौर में कुछ प्रगतिशील और देशभक्त चिंतकों को राज्यसत्ता में विराजे नेताओं का राजनैतिक रूप से धर्म सापेक्ष होते जाना मंजूर यहीं है। मध्य एशिया और मध्यपूर्व में उन्हें जो खतरे की घंटी सुनाई दे रही है, वही भारतीय प्रायद्वीप को भी आप्लावित करने को काफी है। न केवल एथनिक बहुसंख्यकवाद के संदर्भ में अपितु आक्रामक अल्पसंख्यकवाद और फासिज्म विषयक उनकी यह आशंका निर्मूल भी नहीं है। प्रगतिशील और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि धर्म -मजहब -आस्तिकता इत्यादि शोषण -उत्पीड़न के साधन नहीं बनाये जा रहे हैं । उनपर पाखंड तथा वितंडावाद का मुलम्मा चढ़ाया जा रहा है । वे यह भी जानते हैं कि गीता,कुरान जैसे कुछ धर्म ग्रंथों के निर्देश मानवता के लिए अमोघ अश्त्र भी सावित हो सकते हैं। कुछ पुरातन दार्शनिक सिद्धांत इंसानियत के लिए अभी भी अभय वरदान साबित हो सकते हैं। धर्म-मजहब -दर्शन तथा ततसम्बन्धी - पवित्र ग्रन्थ - गीता -कुरान -बाइबिल ,गुरु ग्रन्थ साहिब तथा जेंदा -अवेस्ता जैसे पवित्र ग्रन्थ -मानवीय मूल्यों के संवाहक भी हो सकते हैं। किन्तु यह भी सही है कि कोई भी वास्तविक प्रगतिशील और वामपंथी चिंतक अच्छी तरह से जानता है कि किसी भी धार्मिक ग्रन्थ की अवैज्ञानिक आलोचना करने से न तो कभी कोई क्रांति संभव हुई है और न ही कोई क्रांतिकारी बन पाया है। उसे मालूम है कि यह वक्त किन्ही धर्म ग्रंथों की आलोचना का नहीं बल्कि शासक वर्गों के द्वारा की जा रही राष्ट्रीय सम्पदा की लूट के खिलाफ आवाज बुलंद किये जाने का है। इतिहास साक्षी है कि धर्म ग्रंथों को पढ़कर ही देश और दुनिया में क्रांतिकारी - महानायकों का आविर्भाव हुआ है। भारत के तिलक, गांधी , श्रीपाद अमृत डांगे , नम्बूदरीपाद , अरविन्द , राधाकृष्णनन , लाजपतराय,अबुल कलाम ,डॉ बाबा साहिब भीमराव आंबेडकर तथा दक्षिण अफ्रीका के आर्च विशप डेसमंड टूटू जैसे अनेक राजनेता या विचारक - क्रांतिकारी बाद में बने। 'धर्मयोद्धा' पहले बने। 'धर्म -मजहब एक अफीम है ' मार्क्स के इस शाश्वत सूत्र का तात्पर्य पूँजीवादी साम्प्रदायिक तत्व अच्छी तरह जानते हैं। वे इसका दोतरफा दुरूपयोग कर रहे हैं। एक तरफ वे इसे साम्यवाद को धर्म विरोधी सावित करके बदनाम करने में कर रहे हैं . दूसरी तरफ ये पाखंडी साम्प्रदायिक तत्व -पूँजीवादी -सामंती शासक वर्ग - और बाजार की शक्तियों के मार्फ़त मेहनतकश आवाम को धर्म-मजहब की अफीम चटा रहे हैं । यही वजह है कि पश्चिम बंगाल में सर्वहारा की लड़ाई लड़ने वालीं धर्मनिरपेक्ष वामपंथी पार्टियों को ठुकराकर , 'मजहबी उन्माद में डूबकर' कुछ अलसंख्यक लोग तृणमूल को जिता देते हैं। इसी तरह हिंदुत्व और हिन्दुराष्ट्रवाद की अफीम घोंटकर -उन्मादी बहुसंख्यक वर्ग को पिलाई गई ताकि भाजपा जैसी साम्प्रदायिक पार्टी निरंतर सत्ता में बनी रहे। मार्क्स के उद्धरणों से वामपंथ ने कितना सीखा ये तो नहीं मालूम किन्तु मेहनतकशों को लूटने वाले जरूर मार्क्सवाद के कायल हैं। इसीलिये वे मार्क्सवाद का नहीं मार्क्सवादियों का विरोध करते हैं। इसमें उन्हें सफलता भी मिल रही है। दूसरी ओर वामपंथ के कुछ अनुयाई -शिक्षक , समर्थक , विचारक और नेता न केवल वैचारिक संकीर्णतावाद के शिकार हो रहे हैं , बल्कि धर्म-मजहब रुपी सर्प की पूंछ पर आघात करके आत्महंता भी हो रहे हैं । कुछ इतने कूप मंडूक हैं कि अपने कमजोर कन्धों पर सिद्धांतों की सलीब ढोने के लिए आजीवन अभिशप्त हैं ।
सैद्धांतिक रूप से रूप या आकार में आस्तिकता और नास्तिकता में कोई भेद नहीं। ये दोनों ही एक जैसे लगते हैं किन्तु प्रयोग में वे विपरीत ध्रुव हैं। पूँजीवादी समाज की ऐतिहासिक विकाश यात्रा में जब जैसी जरुरत पड़ी इन दोनों ही 'वैचारिक -गुणों'ने सार रूप में इंसान को उसकी दैहिक-दैविक और भौतिक ऊंचाइयों पर स्थापित कराने में समान रूप से महती भूमिका अदा की है।अनीश्वरवाद तो मानव मात्र की रग़ों में उसके आदिम युग से ही विद्द्य्मान रहा ही है। यह गुण न केवल मनुष्य बल्कि सभी अन्य चैतन्यशील प्राणियों में भी आनुवंशिक रूप से विद्द्मान है । वेशक 'मानव' ने अन्य प्राणियों के सापेक्ष वैचारिक और उद्द्यमशीलता के क्रांतिकारी झंडे गाड़े हैं. आज का वैज्ञानिक युग इसी 'नास्तिक' विचारधारा के महानतम वैज्ञानिकों की 'तपस्या'का परिणाम है । कार्ल मार्क्स ने ही सबसे पहले इसे सम्मान से नवाजा था। उनकी इस वैज्ञानिक और क्रान्तिकारी विचारधारा ने ही संसार को अनेकों वैज्ञानिक दिए हैं। मनुष्य को प्रकृति पर विजय पाने का जज्वा दिया है। मध्ययुग की अर्ध गुलाम दुनिया में और यूरोप समेत सारे सामंती संसार में रैनेसाँ को उभारने वाले ,सामंतवाद पर प्रजातंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष करने वाले ,पूँजीवाद को खाद-बीज देने वाले तथा पोप -खलीफा -मठाधीश जैसे ईश्वरीय ठेकेदारों की प्रभुसत्ता को चुनौती देने वाले-केवल साहित्यकार-कवि,लेखक या नाटककार ही नहीं थे बल्कि जिन्होंने प्रकृति का अध्यन कर उसके नियमों का अनुशंधान कर प्राणिमात्र से संबंध उजागर किया, वे महान अनीश्वरवादी वैज्ञानिक भी सरसरी तौर पर आस्तिकता और अनीश्वरवाद के अर्धनारीश्वर जैसे ही तो थे। मानव समाज की ऐतिहासिक विकाश यात्रा में इन दोनों ही 'वैचारिक -गुणों'ने सार रूप में इंसान को उसकी दैहिक-दैविक और भौतिक ऊंचाइयों पर स्थापित कराने में समान रूप से महती भूमिका अदा की है । अनीश्वरवाद तो मानव मात्र की रग़ों में उसके आदिम युग से ही विद्द्य्मान रहा है। यह गुण न केवल मनुष्य बल्कि सभी अन्य चैतन्यशील प्राणियों में भी आनुवंशिक रूप से सदैव प्रकृति प्रदत्त है । वेशक 'मानव' ने अन्य प्राणियों के सापेक्ष वैचारिक और उद्द्यमशीलता के क्रांतिकारी झंडे गाड़े हैं. आज का वैज्ञानिक युग इसी 'नास्तिक' विचारधारा के महानतम वैज्ञानिकों की खुरापात का परिणाम है । इस वैज्ञानिक विचारधारा ने संसार को अनेकों वैज्ञानिक दिए हैं। मनुष्य को प्रकृति परविजय पाने का जज्वा दिया है। मध्ययुग कीअर्ध गुलाम दुनिया में और यूरोप समेत सारे सभ्य संसार में रैनेसाँ को उभारने वाले ,सामंतवाद पर प्रजातंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष करने वाले तथा पोप -खलीफा -मठाधीश जैसे ईश्वरीय ठेकेदारों को , तत्कालीन निरकुंश शासकों को 'मानवीय मूल्यों' का आइना दिखाने वाले वे कोई कोरे नास्तिक ही नहीं थे। बल्कि इनमे से अधिकांस नास्तिक या बुद्धिवादी भी थे। केवल वाल्तेयर ,रूसो, गैरी बाल्डी या मार्क्स -एंगेल्स जैसे अनीश्वरवादी ही नहीं बल्कि थॉमस अल्वा एडिसन,जार्ज स्टीवेन्सन ,रदरफोर्ड,फ्लेमिंग, न्यूटन ,आर्कमिडीज ,पैथागोरस इत्यादि से लेकर कपिल , कणाद , ,अश्वघोष, ,भवभूति,चरक चार्वाक, करहपा तथा नागार्जुन जैसे नास्तिक वैज्ञानिकों ने महासागरों का घनत्व - धरती का वजन -लम्बाई-चौड़ाई तक नापी है । शून्य की खोज करना वाले ,धरती को गोलाकर बताने वाले , सूरज को स्थिर और धरती को गतिमान बताने वाले आर्यभट्ट जैसे भारतीय मनीषी भी प्रारम्भ में अनीश्वरवादी ही हुआ करते थे। आज का अधिकांस उन्नत भौतिक संसार इन्ही तथाकथित 'नास्तिकों' की महानतम देंन है। वेशक इस अनीश्वरवादी विचारधारा के कारण ही मनुष्य मात्र में अहोभाव और उसकी महानता का प्रशश्ति गान होता रहा है। मनुष्य या मनुष्य की 'विवेक शक्ति' और उसके गौरव को ही इस संसार में सर्वश्रेष्ठ मानने वालों का इसमें सदैव सम्मान होता रहा है।
जहां तक 'आस्तिकता' का प्रश्न है तो वेशक यह मानव मात्र की एक महान क्रांतिकारी वैज्ञानिक 'रचना' कही जा सकती है। इस आस्तिकता के 'दर्शन' के आविष्कार को मष्तिष्क ने सतत -एकल या संगठित रूप से प्रकृति पर विजय पाने के आदिम संघर्ष में,असहाय ,निरुपाय और असमर्थता की स्थति में ,व्यक्तिशः या सामूहिक रूप से जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए ईश्वरत्व का संधान किया होगा। मनुष्य ने संकटापन्न स्थति में 'ईश्वर' तत्व का अनुसंधान किया होगा। कब -कहाँ और कैसे किया ये तो अभी तक अबूझ ही है ? किन्तु कालांतर में पाखंडी शासकों ने इसे 'आध्यात्मिक दर्शन ' का बाना पहनाया। बाद में उसे शोषण का साधन बना डाला। सामंतों और शक्तिशाली पर्भु वर्ग ने , उनके चाटुकारों ने ,चारणों -भाटों ने इसे धार्मिक उन्माद और अंधश्रद्धा में बदल डाला। इसीलिये विज्ञानिक चेतना ने सदैव ही इस ईश्वरीय - आस्तिकता को -धर्म -मजहब और आध्यत्मिक दर्शन को , क्रांतिकारी खोज मानते हुए भी संदेह और पाखंड का जन्मदाता माना है।
शायद इन्ही वजहों से तथा यूरोप स्थित तत्कालीन पोप और अरब स्थित खलीफाओं की प्रभुसत्ता से आक्रान्त जनता की आवाज बनकर - कार्ल मार्क्स को भी कहना पड़ा कि 'धर्म - मजहब एक अफीम है "! हालाँकि भारतीय दर्शन या गीता के संदर्भ में किसी भी मार्क्सवादी विचारक ने कोई विरोध नहीं किया। केवल गांधी जी ही नहीं बल्कि तिलक ,विवेकानंद , स्वर्गीय रामविलास शर्मा ,निराला ,ईएमएस और डांगे ने तो गीता और अन्य भारतीय दार्शनिक ग्रंथों के मूल्यों और सिद्धांतों को 'साम्यवाद' का पोषक ही सिद्ध किया है। आजकल के वामपंथियों से निवेदन है कि साम्प्रदायिकता का विरोध तो करें किन्तु किसी की व्यक्तिगत धार्मिक आस्था या गीता जैसे धर्मग्रंथों पर अनावश्यक टिप्पणी करने से कोई प्रगतिशील नहीं हो जाता।
श्रीराम तिवारी
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