निसंदेह भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में प्रधानमंत्री का पद सर्वाधिक शक्तिशाली होता है। यह सर्वविदित है कि इस पद के लिए भारत में जनता के मार्फ़त कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष चुनाव नहीं होता। फिर भी 'संघ परिवार' के लोग इन दिनों लगातार' 'नमो नाम केवलम " का राग आलाप रहे हैं। उनके नेता बड़ी -बड़ी सभाओं में सवाल करते हैं कि - अबकी बार किसको वोट देना है ? या कि किसको जिताना है? श्रोताओं या समर्थकों का समवेत तुमुलनाद सुनाई देगा -मोदी . . . मोदी . . . मोदी . . . ! आम सभा यदि इंदिरापुरम - गाजियावाद में हो रही हो,मंडला में हो रही हो , या मुजफ्फरनगर में हो रही हो तथा वहाँ का भाजपा उम्मीदवार घुग्गु बना मंच के किसी कोने में भी नजर आ जाए तो गनीमत। हरएक आम सभा में गुजरात से आये २-४ दर्जन छद्म समर्थक तथा चापलूस-स्थानीय कार्यकर्ता- केवल मोदी-मोदी का शोर मचाते रहे,हुल्लड़बाजी करते रहें तो उस भाजपा प्रत्यासी का भगवान् ही मालिक है। जब देश भर में इसी तरह से घोर व्यक्तिवादी - बिकराल काली छाया का ही आह्वान किया जाएगा तो आवाम को लोकतंत्र की प्राण वायु कहाँ से मयस्सर होगी ?
वेशक मोदी बनारस में अपने लिए बोट मांग सकते हैं , देश भर में भाजपा और एनडीए के लिए वोट मांग सकते हैं किन्तु अन्यत्र वे अपने लिए -प्रधानमंत्री पद के लिए सीधे -सीधे वोट कैसे मांग सकते हैं ? उन्हें अपनी पार्टी , स्थानीय केँडीडेट या एनडीए अलायंस को जिताने की यदि रंचमात्र परवाह नहीं तो वे भारत के पी . एम् . कैसे बन पाएंगे ? मोदी यदि संसदीय प्रजातंत्र के आधारभूत कायदों और मूल्यों से वाकिफ नहीं हैं तो इस महान राष्ट्र का नेत्तव कैसे कर सकेंगे ? आम चुनाव के पूर्व ही यदि उन्हें अपने ,अलायंस -ऐनडीए अपनी पार्टी भाजपा ऒर वरिष्ठ नेताओं का मशविरा ही गवारा नहीं तो विवेकवान जन-गण समझ सकते हैं कि नरेद्र मोदी की असलियत क्या है ? उनकी नेत्तव कारी भूमिका क्या हो सकती है ?
इस तरह की आपाधापी और अलोकतांत्रिक हरकतों से \जाहिर है कि चुनाव के बाद भाजपा की हालत फिर -२००४ जैसी हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं ! फिर भी इन दिनों सर्वे-फर्वे का बड़ा शोर है कि "सिंहासन खाली करो कि मोदी आते हैं "। ढपोरशंखी , मिथ्यावादी,साम्प्रदायिकतावादी ,पूँजीवादी और पदलोलुप - भाजपा नेताओं से तो यही उम्मीद है कि वे जनता के सवालों को दरकिनार कर केवल भजन-भंडारे और व्यक्तिपूजा में जुट जाएँ ! मोदी के नारों से और भीड़ में उछाले गए उनके सवालों से 'अधिनायकवाद' की बू आती है तो आती रहे। उनके ठेंगे से ! आम जनता के एक बड़े वर्ग का भेड़ चाल में चलना ,व्यक्तिपूजा में रम जाना भी न केवल दासतापूर्ण बल्कि बेहद असहनीय है। खुद जनता के द्वारा निरंकुश तानाशाही का इस तरह नग्न आह्वान नितांत निंदनीय है। यह देश को मुसीबत में धकेलने का उपक्रम साबित हो सकता है।
भारतीय संसद में बहुमत दल के नेता को या किसी 'गठबंधन' याने अलायंस के सर्वमान्य नेता को भारत का राष्ट्रपति संवैधानिक शपथ दिलाकर सरकार बनाने का अधिकार देता है। वेशक इस पद पर विराजित व्यक्ति न केवल भारत बल्कि दुनिया भर में सबसे बड़े लोकतंत्र का प्रहरी माना जाता है। १६ वीं लोक सभा के चुनाव आगामी अप्रेल-मई में सम्पन्न होने जा रहे हैं। इन चुनावों में जिस दल या गठबंधन को संसद में २७२ सीटों का समर्थन प्राप्त होगा उसे महामहिम राष्ट्रपति महोदय केंद्र की सरकार बनाने का आमंत्रण देंगे। याने आम चुनावों से पहले ही ,नई संसद के गठन से पहले ही किसी खास व्यक्ति या नेता को प्रधानमन्त्री प्रोजेक्ट करना एक शातिराना और अलोकतांत्रिक कार्यवाही है। जिन दलों -गठबंधनों ने अपनी वैकल्पिक नीतियां और कार्यक्रम प्रस्तुत किये हैं वे लोकतंत्र के सही रहनुमा हैं। जबकि संघ परिवार के लोग केवल "मोदी भजामिहम " में व्यस्त हैं। देश में दो तरह के कांग्रेस विरोधी हैं। एक -वे जो पैदायशी 'संघी' हैं। दूसरे -वे जो कांग्रेस बनाम यूपीए के १० वर्षीय कुशासन से,भृष्टाचार से ,मॅंहगाई से तंग आकर या तो किसी अन्य वैकल्पिक पार्टी की ओर खिचे चले जा रहे हैं या 'संघम शरणम गच्छामि" हो गए है। चिकने -चुपड़े फ़िल्मी चेहरों के बहाने ,दल बदलुओं के बहाने एन-केन प्रकरेण सत्ता हथियाने के भाजपाई हथकंडों से प्रभावित लोग अब "हर-हर मोदी - घर -घर मोदी "तक बकने लगे हैं।
इन दिनों प्रधानमंत्री पद के लिए मीडिया के मार्फ़त -रोज-रोज नए-नए दावेदार सामने आ रहे हैं। संघ परिवार और भाजपा तो जनसंघ के जमाने से ही व्यक्तिवाद तथा 'अधिनायकवाद' का समर्थक रहा है। उसका -१९६० से सन १९९९ तक एक ही नारा लगता रहा है -"बारी -बारी सबकी बारी -अबकी बारी अटलबिहारी " २००४ में भाजपा ने अवश्य आडवाणी जी को प्रोजेक्ट किया था । किन्तु वे तत्कालीन लोह पुरुष होते हुए भी -फील गुड और इंडिया शाइनिंग के चक्कर में भाजपा का पटिया उलाल कर -बड़े बेआबरू होकर अधोगति को प्राप्त हुए। संघ के फुरसतियों ने अब नरेंद्र मोदी पर दाँव लगाया गया है।चूँकि वे अमीरों - अम्बानियों अडानियों के दम पर ज़रा ज्यादा ही हवा में उड़ रहे हैं। उनके घोर पूँजीवादी निरंकुशतावादी तेवरों को समझते हुए तमाम जनवादी -प्रगतिशील लोग मोदी के इस तरह के निर्मम "क्रोनी कैपिटलिज्म " को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।
भले ही इन दिनों विभिन्न सर्वे में मोदी को निरंतर जीत की ओर अग्र्सर दिखाया जा रहा है। आवारा पूँजी के मार्फ़त उन्हें इस तरह से प्रस्तुत किया जा रहा है माँनों प्रधानमन्त्री का चुनाव सीधे - सीधे अब जनता ही करने जा रही है । मोदी समर्थक तो बिना चुनाव जीते ही इतने फूले-फूले इतरा रहे हैं। यदि दुर्भाग्य से भाजपा और एनडीए को २७२ सीटें मिल भी गईं तो चुनाव जीतने के बाद देश का क्या होगा कालिया ? मानलो चुनाव में भाजपा ,एनडीए को २७२ सीटें मिल भी जाती हैं और वे प्रधानमंत्री बन भी जाते हैं तो भी इस देश की जनता के सहयोग के बिना वे कुछ भी नहीं कर पाएंगे। मानलो कि कांग्रेस को ,यूपीए को,तीसरे -चौथे मोर्चे को या वाम मोर्चे को उतना जनादेश नहीं मिल पाता कि केंद्र में एक लोकतांत्रिक सरकार बना सकें तो भी समूचे धर्मनिपेक्ष भारत के सामने मोदी को झुकना ही होगा। वरना जनता को हमेशा अवसर की प्रतीक्षा ही रहेगी कि इस मोदी गुब्बारे की हवा कब कैसे निकाली जाए ?
वेशक नरेंद्र मोदी आज न केवल भाजपा बल्कि एनडीए का भी 'चेहरा'हैं। लोक सभा चुनाव के दरम्यान उन्हें प्रधानमंत्री पद पर चने जाने का नहीं अपितु एनडीए को जिताने का और स्वयं को सांसद चुने जाने का जनता से अनुरोध करने का पूरा हक है। प्रधानमंत्री जैसे सर्वाधिक संवैधानिक एवं कार्यकारी उत्तरदायित्व पूर्ण पद पर प्रतिष्ठित होने की मोदी की अभी तक की राजनैतिक यात्रा और वांछित योग्यता संदिग्ध है.यह भी अकाट्य सत्य है कि सोनिया गांधी , शरद पंवार , चिदम्बरम डॉ मनमोहनसिंह , सुषमा स्वराज ,मोदी ,मुलायम ,नीतीश ,जयललिता ,आडवाणी -ये सभी केवल विवादस्पद व्यक्तियों के नाम ही तो हैं । जबकि कांग्रेस,भाजपा ,माकपा ,भाकपा ,सपा ,वसपा ,शिवसेना ,अकाली ,जदयू ,राजद ,डीएमके ,एआईडीएमके -विचारधाराओं के प्रतीक हैं। इन सभी के अपने-अपने अच्छे-बुरे कार्यक्रम और नीतियाँ सम्भव हैं। इनके अधिकांस नेता मोदी से बेहतर तो हैं ही वे लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष भी हैं । किन्तु देश का दुर्भाग्य है कि आजादी के ६७ साल बाद भी देश की अवाम को लोकतंत्र की नहीं बल्कि 'अधिनायकवाद' की दरकार है। खासतौर से तथाकथित पढ़े लिखे युवाओं को नहीं मालूम कि लोकतंत्र का आधार नेता नहीं नीतियां और कार्यक्रम हुआ करते हैं। मोदी यदि प्रधानमंत्री बन भी जाए तो भी वे इस विशाल देश का विकाश तो क्या इस भृष्ट व्यवस्था की चूल भी नहीं हिला सकेंगे। वे लोकतंत्र को अक्षुण रख सकेंगे इसमें भी संदेह है। सारे देश को गुजरात बना देंगे यह आश्वाशन भी केवल चुनावी लालीपाप है। गुजरात का विकाश यदि कुछ हुआ भी है तो वह सारे गुजरातियों की मेहनत का ,उसकी ऐतिहासिक एवं भौगोलिक अवस्था का परिणाम है। कांग्रेस के और जनता के अतीत के जन -संघर्षों का भी परिणाम है , केवल मोदी -मोदी चिल्लाने से गुजरात का भला नहीं हुआ और न ही भारत का भला होगा। लोकतंत्र -समाजवाद -धर्मनिरपेक्षता और जन-क्रांति ही भारत की अभीष्ट अभिलाषा है। मोदी और संघ परिवार इसमें फिट नहीं हैं।
श्रीराम तिवारी
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