वर्तमान लोकसभा चुनाव के प्रचार में अति व्यस्त नेताओं के बयानों और उनकी 'बाड़ी लेंग्वेज' का सूक्ष्म परीक्षण किया जाए तो उनके व्यक्तित्व ,विचारधारा और नेतत्व क्षमता का आकलन आसानी से किया जा सकता है। मसलन 'आप' के नेता केजरीवाल -शुरू में वे आक्रामक होते हैं ,फिर खाँसते हुए मोदी -राहुल और अन्य दागी नेताओं का कच्चा चिठ्ठा पेश करते हैं। इसके बाद वे अडानी ,अम्बानी और अन्य लुटेरों के स्विस बेंक खातों का जिक्र करते हैं। उनकी नुक्कड़ सभाओं में ,रोड शो में और प्रेस ब्रीफिंग में कुछ अति आशावादी फुरसतिए लोग उनके प्रभाव में आ जाते हैं। इतनी मेहनत मशक्कत बेकार नहीं जाती 'आप' के खाते में कुछ चन्दा तो आ ही जाता है। केजरीवाल कोई विचारक या सिद्धांत वेत्ता तो है नहीं ! योगेन्द्र यादव ,प्रशांत भूषण, मनीष सीसोदिया,कुमार विश्वाश एवं आशुतोष जैसे 'आप' के उच्च शिक्षित साथी भी किसी वैकल्पिक आर्थिक -सामाजिक और राजनैतिक 'दर्शन' या नीति के चितेरे नहीं हैं। वे केवल भृष्टाचार उन्मूलन तथा स्थापित पूंजीवादी दलों के 'साफ़-सुथरे' विकल्प बनने की काल्पनिक एवं अराजक कोशिशों में जूट हुए हैं। वे व्यवस्था परिवर्तन का हो -हल्ला तो खूब मचाते हैं, किन्तु व्यवस्था परिवर्तन का अवसर दिए जाने पर उन्हें चुनौतियों से निपटने का उपाय नहीं सूझता तो वे परोसी हुई थाली छोड़कर पलायन कर जाते हैं। ये जब दिल्ली जैसे नगरनिगम नुमा राज्य का सञ्चालन भी ठीक से नहीं कर सके तो देश का क्या ' भेला' का लेंगे ? इसीलिये अधिकांस बुद्धिजीवी , विचारक एवं प्रगतिशील चिंतक 'आप' को गम्भीरता से नहीं ले रहे हैं क्योंकि उनकी काबिलियत संदिग्ध है। विगत दिल्ली विधान सभा चुनाव में मिली आंशिक सफलता से 'आप' के अविकसित नेता -कम एनजीओ संचालक इस गलतफहमी में जा पहुंचे कि सारे देश में जमानत जब्त करने निकल पड़े हैं।
राहुल गांधी से देश को और खास तौर से कांग्रेसिओं को बहुत उम्मीदें थीं किन्तु विगत महीनों सम्पन्न ५ -राज्यों के विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की जो करारी हार हुई है,लगता है उसकी वजह से उनका आत्म विश्वाश ही डगमगा गया है। केंद्र की यूपीए सरकार ने जो कुछ भी न्यूनाधिक काम किये होंगे उनको भृष्टाचार की आंधी और और मॅंहगाई के तूफ़ान ने चपेट में ले लिया है। लगातार १० साल तक सेट ता में रहने से कांग्रेस में जड़ता आ चुकी है,इसीलिये इन दिनों देश भर में कांग्रेस के खिलाफ जनाक्रोश चरम पर है। विपक्षी राजनैतिक दलों ने देश कि आवाम के गुस्से की आग में निरंतर घी डालने का काम जारी रखा है। उन्मुक्त मुनाफाखोरी की अलम्बरदार - आवारा पूँजी के तरफदार -कार्पोरेट लाबी से संचालित मीडिया और सोशल साइट्स का बड़ा हिस्सा भी कांग्रेस के खिलाफ जहर उगल रहा है। व्यवस्थाजन्य जनाक्रोश को परिवर्तन की लहर के रूप में पेश किया जा रहा है। बेशक २०१४ के लोक सभा चुनावों में कांग्रेस और राहुल गांधी की सम्भावनाएँ बहुत क्षीण हैं ।
किन्तु इतिहास साक्षी है कि आजादी के बाद देश की जनता ने प्रयोग तो किये हैं किन्तु हर बार , घूम-फिरकर वापिस कांग्रेस पर ही भरोसा करना पड़ा है। यही वजह है कि राहुल गांधी ने अभी तो प्रतिपक्षियों को लगभग 'वाक् ओव'र ही दे रखा है । वे शायद २०१९ के अनुसार एजेंडे पर काम कर रहे हैं। वैसे भी कांग्रेस के पक्ष में सब कुछ उतना ही बुरा या नकारात्मक नहीं है ,जितना कि नरेंद्र मोदी ,केजरीवाल जैसे कुछ व्यक्तिवादी नेताओं और सत्ता के दलालों के बरक्स दुष्प्रचारित किया जा रहा है। वेशक कांग्रेस कभी भी अप्रासंगिक नहीं रही और न भविष्य में वह हासिये पर होगी। इसकी प्रवल सम्भावना है कि २०१४ के आम चुनावों में एनडीए को शायद यूपीए से ज्यादा सीटें मिल जाएँ। यह भी सम्भव है कि नरेंद्र मोदी ही एन-केन -प्रकारेण प्रधानमन्त्री बन ही जाएँ। किन्तु स्पष्ट बहुमत अभी किसी को भी नहीं मिलने वाला है । क्योंकि ये गठबंधन का दौर अभी २० साल तक और जारी रहेगा। वेशक राहुल गांधी अब बिलकुल तनावमुक्त होकर अपने भविष्य की राजनीतिक साधना में तल्लीन रहते हैं तो उनका भविष्य उज्जवल है ? उन्हें यह कदापि उचित नहीं कि बार-बार महात्मा गाँधी , अपने पिताश्री राजीव गाँधी ,दादी श्रीमती इंदिरा गाँधी और अन्य सपरिजनों या कांग्रेसियों कि कुर्वानियों की दुहाई देते फिरें। उन्हें आरएसएस या साम्प्रदायिक ताकतों पर हत्या का आरोप लगाने की भी जरुरत नहीं है। वे सिर्फ इतना ही करें कि शालीनता से ५ साल विपक्ष में बैठकर अपनी बारी का इंतज़ार करें। वे चाहें तो आइंदा महँगाई ,एफडीआई या भ्रष्टाचार पर देश में जन-जागरण अभियान जारी रख सकते हैं। वे चाहें तो २००४ से १०१३ तक के कार्यकाल में डॉ मनमोहनसिंह सरकार की कुछ सकारात्मक उपलब्धियों को भी देश की आवाम के सामने रख सकते हैं, किन्तु उन्हें अभी ५ साल विपक्ष की भूमिका के लिए ही तैयार रहना चाहिए। १९९९ से २००४ तक एनडीए की अटल सरकार को भी बेहद फील गुड था किन्तु कांग्रेस को २००४ में फ्री कोकट में ही सत्ता मिल गई थी। ठीक उसी तरह यदि २०१९ में भी राहुल और कांग्रेस को बिना कुछ किये - धरे ही देश की जनता -केंद्र की सत्ता सौंप दे तो इस सम्भावना से किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए !
नरेद्र मोदी का नारा है "कांग्रेस मुक्त भारत " यह बिलकुल पक्की नाजीवादी सोच है। याने "राज करेंगे मोदी और बाकी बचे न कोय " उनकी ही अगुआई में संघ परिवार ने देश भर में जो झूँठ -कपट -पाखंड का जाल फैलाया है उससे पूरा देश तो नहीं किन्तु पश्चिमी और मध्य भारत जरूर बजबजाने लगा है। भाजपा शाषित राज्यों की फिजाओं में मोदी के उन्मादी तेवरों का तीव्रतम असर है। उत्तर भारत के अधिकांस शहरों में मोदी की लफ्फाजी हिलोरें ले रही है। परजीवी चाटुकार ,सत्ता के बिचोलिये और कांग्रेस के दल-बदलू भी अब भाजपा की चोखट पर इन दिनों नाक रगड़ने को बेताब हैं। मध्यम वर्गीय अराजनैतिक किस्म के अर्धशिक्षित - युवाओं के संघ प्रशिक्षित समूह बिना इस बात को जाने कि भारत में प्रधान मंत्री का चुनाव जनता नहीं करती बल्कि जनता द्वारा चुने गए सांसद ही सदन का नेता याने देश का प्रधान मंत्री चुनते हैं। किन्तु ताज्जुब है कि न तो मोदी ने न संघ परिवार ने यह विमर्श जनता के समक्ष छेड़ा और न ही केजरीवाल या अण्णा जैसे अराजकतावादी इस पर कोई बात करते हैं। अण्णा हजारे तो केवल व्यक्तियों के विरोध और समर्थन के लिए कुख्यात है। उसे प्रजातंत्र का अर्थ भी नहीं मालूम फिर भी कुछ मूर्ख लोग उसे बड़ा गांधीवादी कहते हैं। उसने पहले मोदी को ईमानदार बताया ,फिर ममता को ईमानदार बताने लगा अब उसे खुद केसिवा कोई ईमानदार नहीं दीखता। इसी तरह भारत के अधिकांस व्यक्तिवादी लोग -अन्ना समर्थक ,रामदेव समर्थक , ममता समर्थक या मोदी समर्थक - सभी लोकतंत्र के दुश्मन हैं।
जो केवल 'हर-हर मोदी -घर -घर मोदी ' चिल्ला रहे हैं वे लोकतंत्र के शत्रु हैं । संघ पर जो आरोप है कि उसकी भारत के वर्तमान संविधान में कोई आस्था नहीं है ,उसका एजेंडा कुछ और है !तो यह आरोप गलत नहीं है। क्योंकि मोदी और संघ परिवार कांग्रेस के खिलाफ पनप रहे जनाक्रोश को अपने पक्ष में भुनाने की जी जान से जो कोशिश कर रहे हैं उसमें आंतरिक लोकतान्त्रिक का दिखावा मात्र है। भले ही राजनाथ ने मोदी के उकसावे में आकर एनडीए का कुनवा बढ़ाने की भी पर्याप्त जुगत भिड़ा ली है। तमाम बदनाम दल-बदलुओं और सरगनाओं को ऊँचे आसन पर बिठाकर पाँव पखारे जा रहे है। आडवाणी , जशवंतसिंह ,नवजोत सिद्धू ,लालमुनि चौबे और अन्य वरिष्ठ भाजपाई नीम से कड़वे लगने लगे हैं। चूँकि देश के पूँजीपति जानते है कि अभी कांग्रेस का या यूपीए का समय ठीक नहीं है. इसीलिये वे भी फासिज्म के तरफदार हो गए हैं। उन्हें डर है कि कहीं खुदा -न-खास्ता जनता कांग्रेस को उखाड़कर किसी ऐंसे को सत्ता में न बिठा दे जो अमीरों के आराम में खलल पैदा करे , उनकी मुनाफाखोरी और लूट में खलल पैदा कर दे। कहीं कांग्रेस केस्थान पर लेफ्ट ,तीसरा मोर्चा या कोई अन्य जनतांत्रिक ताकतों का गठजोड़ सत्ता में न आ जाएँ। इसीलिये देश के सारे लुटेरे -अमीर और सत्ता के दलाल आज कल "नमो नाम केवलम" का जाप कर रहे है। जो केवल तानाशाही और निरंकुश शासन का आह्वान सिद्ध होगा। गनीमत है कि दक्षिण भारत ,पूर्वी भारत में तथाकथित मोदी लहर का असर नहीं है! इसलिए मोदी और उन के शुभचिंतक वैचैन हैं। याने लोकतंत्र को ज़िंदा रखने वालों की अभी भी भारत में कोई कमी नहीं है !
श्रीराम तिवारी
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