मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

चुनावी चुनौतियों और अधूरा लोकतंत्र !



       भारतीय संविधान की तमाम खूबियों और लोकतंत्रात्मक स्थायित्व के वावजूद 'असली लोकतंत्र' अभीभी कोसों दूर है।  दोषपूर्ण चुनाव प्रणाली ,धनबल -बाहुबल-जातबल -लातबल -खापबल और पाखंडी धर्म-मजहब के बल की अमरवेलि ने  भारतीय लोकतंत्र रुपी पावन पीपल  की कोंपलों को ग्रस रखा है।  आजादी के ६७ साल बाद भी चुनावी चुनौतियों को समझने की क्षमता भारत की अधिसंख्य जनता मेंपैदा नहीं हो पाई है। अधिकांस    भारतीय  मतदाताओं में  वास्तविक लोकतांत्रिक  चेतना अभी भी स्थापित नहीं हो पाई है। वेशक   चुनाव आयोग की अनेक  सकारात्मक कोशिशों और मीडिया के जागरूकता अभियान ने वर्तमान  १६ वीं लोक सभा के चुनावों में मतदान का प्रतिशत बढ़ाने में कुछ  सफलता पाई  है।आजादी के बाद से  पिछली  लोक सभा के चुनावों तक  कुछ अपवादों को छोड़कर  सामान्यतःऔसतन मतदान ५०%  के  नीचे ही  रहा है । बाज मर्तबा अनेक  मामलों में संसदीय लोकतंत्र की इस कमजोरी का फायदा  घाघ किस्म के राजनीतिक प्राणी  उठाते रहे हैं। । धर्म-मजहब , सम्प्रदाय, जाति  भाषा  , बाहुबल  तथा  आवारा पूँजी  की प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका के कारण  मतदान में अधिकांस विजेता  'अल्पमतीय' होते हुए भी विजयी घोषित किये जाते रहे हैं।
                       मान लें की  किसी विशेष  'कांसीट्वेंसी'  अर्थात चुनाव क्षेत्र  में  १० लाख मतदाता हैं. A B C D  चार उम्मीदवार मैदान में हैं। उनमें से क्रमशः चार  लाख ,तीन लाख ,दो लाख और एक लाख वोट पाते हैं तो  वर्तमान चुनावी व्यवस्था के अनुसार  ४ लाख वोट पाने वाला A  ही  विजयी घोषित किया जाएगा,  बाकी  तीन उम्मीदवार BCD संयुक रूप से ६ लाख  वोट  [बहुमत] पाने के वावजूद हारे हुए ही  माने जाएंगे !   ऐंसे ही कई  सवाल  हैं जो लोकतंत्र की 'भूल-चूक' के बरक्स जनता से चिंतन की अपेक्षा करते हैं।  लेकिन वर्तमान व्यवस्था जिनके लिए मुफीद है वे इसका प्रतिकार नहीं करते। हालाँकि  चुनाव आयोग की जागरूकता  तथा आंशिक  सक्रियता प्रशंसनीय है  किन्तु भारत की वर्तमान चुनाव पणाली में वांछित और आवश्यक  सुधार किये बिना वास्तविक जनादेश परिभाषित होना असंभव है। दरसल जो  विजयी घोषित होते हैं वे उसके हकदार नहीं और जो पराजित होते हैं वे भी पूरी तरह पराजित नहीं कहे जा सकते ! कुछ सवाल हैं जिन पर मतदाताओं को गौर करना चाहिए !

 प्रश्न एक :-अल्पमत से विजयी होने वाला यह कैसे तय कर सकता है की उसकी नीतियां -कार्यक्रम और विचारधारा  बहुमत जनता  का अभिमत है ?

प्रश्न दो :-पराजित उम्मीदवारों के कुल 'मत' जिस खंडित मानसिकता या सोच  का प्रतिनिधित्व करते हैं  वे  तकनीकी रूप से विजयी [अल्पमत से]  उम्मीदवार से उस की पार्टी से  या  उस गठबंधन  सरकार से  उचित न्याय की आशा कैसे कर सकते हैं ?  चुनाव आयोग की जागरूकता प्रशंसनीय है  किन्तु भारत की वर्तमान चुनाव पणाली में वांछित और आवश्यक  सुधार किये बिना वास्तविक जनादेश परिभाषित होना असंभव है।

प्रश्न तीन :- यदि वर्ग विभाजित समाज  के बीच से  कोई दवंग -बाहुबली ही इस व्यवस्था पर नागपाश की तरह चिपक जाए  या 'दागी' नापाक उम्मीदवारों में  से ही  कोई एक  महाभृष्ट   छल-बल से  जनता को  उल्लू  बनाने  में कामयाब हो जाए  तो क्या वह समस्त राष्ट्र की आकांक्षाओं को उद्भाषित करने का हकदार है ?

प्रश्न चार :-अपने विरोध में बहु-मत  पड़ने के वावजूद , स्वयं अल्पमत में होने के वावजूद  इस तरह तकनीकी कारण से  कोई 'तिकड़मी' व्यक्ति ,दल  या गठबंधन  यदि सत्ता में आ जाता है तो वह यह कैसे कह सकता है की मुझे 'जनता का  जनादेश मिला' है या कहे  कि  मैं जीत गया " १० लाख में ६ लाख पाने वाले तीन व्यक्ति  अलग-अलग रूप सै  भले ही अल्पमत में हों किन्तु उनके संयुक्त मत तो उससे अधिक ही  होंगे जो की जीत कर संसद में जा पहुंचेगा।

 प्रश्न-पांच :-कांग्रेस ,भाजपा  वामपंथ ,आप और अन्य क्षेत्रीय क्षत्रप -अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में  मिलने वाली आंशिक सफलता  के बरक्स -  राष्ट्रव्यापी जनादेश का दावा कैसे कर सकते हैं ?

                    श्रीराम तिवारी 
 

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