मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

''अबकी सरकार-मोदी सरकार' "थाली में चाँद उतारने जैसा सावित होगा!

   जाने -माने लेखक - ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार -प्रोफ़ेसर यू आर अनंतमूर्ति  और बहुमुखी  प्रतिभा के  धनी फ़िल्मकार -आर्टिस्ट पद्मभूषण श्री  गिरीश कर्नाड की अगुआई में दक्षिण भारत के तमाम प्रगतिशील लेखकों -बुद्धिजीवियों और कर्नाटक के जनवादी -धर्मनिरपेक्ष साहित्यकारों  ने 'संघ'  के मार्फ़त नरेंद्र मोदी को भारत के प्रधानमन्त्री पद पर आसीन किये जाने के उपक्रमों का शिद्द्त से विरोध किया है.लेकिन देश की आम आवाम तो क्या 'तथाकथित 'खास' लोगों ने भी उनकी उस अपील को सुनने -समझने की कोशिश नहीं की जो भारत में 'निरंकुशतावादी' शासन के खतरे से आगाह करती प्रतीत हो  होती है।
                  वेशक भारत के मौजूदा लोक सभा  चुनावों की  धमक सारी दुनिया में सुनी जा रही है। मोदी फेक्टर के कारण -भारतीय सेंसेक्स ही नहीं बल्कि अब तो सट्टेबाजी भी चरम पर है , बल्कि यों कहा जा सकता है कि यह चुनाव  पूँजीवादी  सट्टेबाजों की गिरफ्त में  ही लड़ा जा रहा है। क्रिकेट  में जो-जो व्यभिचार  हुआ करता है वो-वो कदाचार-लेनदेन  वर्तमान राजनीति  में भी  उमड़ -घुमड़ रहा है। डॉलर के मुकाबले रुपया यों ही फ्री-फ़ोकट में  मजबूत नहीं हो रहा है. देश को इसकी कीमत भी चुकानी होगी। आर्थिक उदारीकरण और घोर कार्पोरेटाइजेसन  के समर्थक केवल अम्बानी या अडानी  ही नहीं रह गए हैं। इस चुनाव के  बरक्स साम्प्रदायिक  धुर्वीकरण भी चरम पर है जो लोकतंत्र की सेहत के लिए  माकूल नहीं है। संघ प्रायोजित दुष्प्रचार -काँग्रेस समेत तमाम धर्मनिरपेक्ष शक्तियों  के खिलाफ माहोल बना रहा है।  इस प्रोपेगण्डा की  घातक  तीव्रता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है किदेहाती  अपढ़ जनता  के समूह  तो उतने  अग्रेसिव नहीं हैं  लेकिन कस्वाई और शहरी युवा वर्ग में, तथाकथित पढ़े लिखे लोगों में ,स्वामियों-बाबाओं के मानसिक दासों में  "मोदीवाद' ने मजबूत पकड़ बना ली है । न केवल एंटी इन्कम्बेंसी मानसिकता के लोग बल्कि वे तमाम  नर-नारी भी 'मोदीमय' हो रहे हैं जो कभी आसाराम  ,निर्मल बाबा ,स्वामी रामदेव और श्री-श्री रविशंकर के चरणों की धूल  फांक चुके हैं।इन पाखंडियों के  लम्पट अनुयायी  एकजुट होकर "नमो नाम केवलम ' भज रहे हैं।  ये भेड़ चाल  की मानसिकता  के शिकार हो रहे हैं। देश के निर्माण ,विकाश और सुशासन की कोई नीति इनके पास नहीं केवल " मोदी-मोदी'चिल्ला रहे हैं।  भारतीय लोकतंत्र के आदर्शों -सिद्धांतों ,मूल्यों  से इनका कोई लेना -देना नहीं।  इन मोदीभक्तों को भारत के श्रेष्ठतम बुद्धिजीवियों -साहित्यकारों  में कोई रूचि नहीं। ये तो हेमा मालिनी ,स्मृति ईरानी  और मिनाक्षी लेखी में  ही भावी भारत का अक्स खोज रहे हैं।  इन्हे यु आर अनंत मूर्ति ,गिरीश कर्नाड  से क्या लेना -देना ?

    पौराणिक  [सामन्तकालीन] सूक्ति है कि 

                                             "स्वदेशे पूजयते राजा विद्वान सर्वत्र पूज्यते "


  वर्तमान समय के अनुसार इसका भावार्थ यह हो सकता है कि

                               " समाज के भृष्ट और दवंग लोग [ नेता या मंत्री ] तो  केवल अपने -अपने  प्रदेश में ही  सम्मानित किये जाते हैं किन्तु साहित्यकार -बुद्धिजीवी  न केवल  भारत  बल्कि सारे विश्व में  में सम्मान पाते हैं"   चुनाव के दौरान इन दिनों  अब सब कुछ उक्त  सूक्ति के उलट   हो रहा है। क्या ही  विचित्र  बिडंबना  है कि नरेंद्र मोदी , राहुल गांधी  , सोनिया  गांधी ,नीतीश ,लालू ,अमित शाह , आडवाणी ,नवीन  पटनायक  , बादल   मुलायमसिंह  , मायावती  , जयलिता ,ममता ,केजरीवाल  जैसे बदनाम -विवादास्पद नेताओं को मीडिया में पर्याप्त प्रतिशाद  मिल रहा है। स्वामी  रामदेव  श्री-श्री या अन्ना हजारे  जैसे  महास्वार्थी- कपटी समाज सुधारकों   के आह्वान पर  बहुत से नर-नारी साम्प्रदायिक, फिरकापरस्त,जातीयतावादी और भृष्ट  नेताओं  को  केवल सुनते ही नहीं  बल्कि उन्हें  वोट देकर पुनः  चुनने को  बेताब  भी हैं। हर जगह हर नेता की क्षमतानुसार समर्थकों  की भीड़ उमड़ रही है  किन्तु  यु आर अनंतमूर्ति ,गिरीश कर्नाड जैसे  प्रख्यात साहित्यकार  की बात सुनने की किसी को फुरसत नहीं है।  दुनिया का इतिहास साक्षी है कि यहै गलती कभी यूरोप में जर्मनों -इट्ली वालों ने और एशिया में जापनियों ने की थी।क्या भारत की जनता को यह इतिहास नहीं मालूम ?
          श्री   नरेद्र मोदी  इन दिनों अपने -प्रदेश गुजरात  में या देश  भारत में ही नहीं बल्कि   दुनिया भर  में प्रसिद्धि प्राप्त कर रहे हैं। भृष्ट कांग्रेसी ही नहीं बल्कि दुनिया भर के ठग-उठाईगीरे भी दल-बदलकर मोदी के साथ मंच साझा कर रहे हैं।  इसीलिये ख्यातनाम  साहित्यकार ,पद्म विभूषण सर्व श्री यु आर अनंत मूर्ति  और  महानतम आर्टिस्ट गिरीश कर्नाड  को अब 'सर्वत्र पूज्यते 'तो क्या कर्नाटक या बंगलूरू में भी कोई सुनने को तैयार नहीं है।  न केवल  भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार बल्कि अनेक राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय सम्मान - प्राप्त देश के  अन्य सर्वोच्च विद्वानों का  भी आकलन  यही है  कि नरेंद्र मोदी  में भारत का नेत्तव करने की कूबत  नहीं है ।  वेशक वे   विवादास्पद -व्यक्तित्व ,अतिक्रमणवादी- नेत्तव  और दम्भपूर्ण- वाग्मिता  के लिए  सारे विश्व में प्रसिद्ध हो रहे हैं.  बहुत सम्भव  है कि जोड़-तोड़ की राजनीती में माहिर 'संघो'  नेताओं ,ममता,माया,जया जैसी चिर-कुंआरियों और नवीन पटनायक जैसे कुँआरे की  असीम अनुकम्पा से नरेंद्र  मोदी  जैसे 'तथाकथित'कुआँरे  भी  भारत गणराज्य के प्रधानमन्त्री भी बन जाएँ !नरेंद्र भाई मोदी  ने भारत की जनता  को इतने सब्ज बाग़ दिखाए हैं कि उनका वर्णन  करना -सर के बाल गिनना जैसा है।  वे अपने  ही दल के धुर विरोधियों ,उज्जड कांग्रेसी दलबदलुओं ,संगीन अपराधियों और क्षेत्रीय क्षत्रपों को'नाथ'  चुके हैं। २ ७२ का आंकड़ा पाने की खातिर हर किसी को गले लगा रहे हैं. सत्ता प्राप्ति की सम्भावनाएं बलवती हो रही हैं। यदि सत्ता मिल  भी गई  तो क्या वे इन सभी को  संतुष्ट कर पाएंगे ?  मेरा दावा है कि भाजपा का मेनिफेस्टो या संघ परिवार का एजेंडा भी वे कभी पूरा नहीं कर  पायंगे। गुजरात मॉडल तो  छोड़िये वे अपने मुखारविंद  से बोले गए उद्गारों में से ही १० % भी नहीं कर पाएंगे।  बिना राग द्वेष के सरकार चला पाने की उम्मीद  उनसे करना वैसे ही होगा जैसे कि आदमखोर खुँखार जंगली जानवर से ये उम्मीद करना कि  वो बकरियों को नहीं खायेगा ! ' अब की सरकार मोदी सरकार' थाली  में चाँद उतारने जैसा ही सावित होगा।
      
                      श्रीराम तिवारी 

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