बुधवार, 30 अप्रैल 2014

एक -मई अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस -जिंदाबाद !




 

मानव द्वारा मानव के शोषण का इतिहास जितना पुराना है,शक्तिशाली व्यक्तियों ,समाजों और  राष्ट्रों द्वारा -निर्बल व्यक्तियों,शोषित समाजों ओर गुलाम राष्ट्रों के  शोषण -दमन -उत्पीड़न का इतिहास जितना पुराना है -उसके प्रतिकार का  ,बलिदान का इतिहास भी उतना ही पुरातन है। हर किस्म के शोषण  - दमन  - उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाने  के यादगार इतिहास में '१ -मई -१८८६'का दिन दुनिया के मेहनतकशों के लिए सबसे अधिक स्मरणीय है। पूँजीबाद के  भयावह शोषण का तत्कालीन स्वरूप ये था की मजदूर की  मजदूरी  तो  नितांत दयनीय थी ही   उस के काम के घंटे  भी १८ से बीस  तक हुआ करते  थे। अपनी औद्द्योगिक क्रांति के बाद 'संयुक राज्य अमेरिका ' एक  महाशक्ति के रूप में विकसित हो रहा था। पूँजीपतियों  को अपने मुनाफे के लिए  सस्ता श्रम ,सस्ती जमीन और  समर्पित -पक्षधर क़ानून व्यवस्था भी उपलब्ध थी। मजदूरों ,कामगारों  के पास गुलामी की बेड़ियों के सिवा सिर्फ़ अपना'श्रम ' था जो वे अपने मालिकों को सस्ते में बेचने को बाध्य थे। मजदूर संघों के उदय ओर उनकी वर्गीय चेतना ने शोषण के खिलाफ आवाज उठाने  का काम किया। मेहनतकशों की मांग थी की "एक दिन में  काम के घंटे आठ होने चाहिए "शिकागो  शहर के 'हे मार्किट स्कॉयर 'पर अपनी मांग को लेकर - शांतिपूर्ण ढंग से आम सभा कर रहे मजदूरों पर अचानक बर्बर गोलीकांड के बाद कई मजदूर  नेताओं पर झूंठे मुकदमें  भी लाद दिये गए। कई को फांसी दे दी गई।
    अलबर्ट पार्सन्स ,अगस्त स्पाइस ,अडोल्फ़ फिशर जार्ज एन्जेल को फांसी दे दी गई। समूल फील्डन ,मिखाइल इकबाग ,ऑस्कर नीबे ,को आजीबन कारावास ओर लुइस लींग  जैसे बहादुर क्रांतिकारियों की जेल में हत्या करवा दी गई।
    शहीद मजदूरों के बलिदान  की करुण गाथा में  भी एक जोश था । एक शहीद मजदूर की १२ साल की बेटी ने अपने मृतप्राय  पिता को जब  पूंजीपतियों के हत्यारे हुक्मरानों की गोलियों से रक्तरंजित  देखा तो बजाय मातम  मनाने के उस लड़की ने अपने पिता के लहू से रक्तरंजित  शर्ट  को हवा में लहराया और  आसमान में मुक्का तानकर  अपना आक्रोश जताया।  यही सहीद मजदूरों के रक्त से रंगा लाल झंडा तब सारे संसार के क्रांतिकारियों -मजदूरों और  उनके पावन संघर्ष का प्रतीक बन गया।  १-मई के इस बलिदान दिबस को सारे संसार के मजदूर -कर्मचारी ओर किसान अब एक त्योहार  के रूप  में  मिलकर  मनाते हैं।
     दुनिया के मजदूर एक -मई को शिकागो के अमर शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित कर अपनी बिरादराना एकता का इजहार करते हैं। शोषण -दमन उत्पीड़न तथा राज्य सत्ता की विनाशकारी नीतियों का प्रतिरोध करते हुए अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग ने ही न केवल  अमेरिका ,न केवल यूरोप न केवल  भारत , न केवल अफ्रीका बल्कि सारे संसार को   साम्राज्य वादियों के चंगुल से मुक्ति  मुक्ति का मार्ग प्रशश्त  किया है। वर्तमान आर्थिक उदारीकरण  के दौर में भी  दुनिया के मेहनतकश अपने-अपने राष्ट्रों में समता ,न्याय और मानवीयकरण की व्यवस्था के लिए संघर्ष रत हैं। बढ़ती हुई महँगाई ,बेरोजगारी ,निजीकरण ,ठेकाकरण तथा अन्य जन -सरोकारों को लेकर भारत का ट्रेड  यूनियन आन्दोलन  संगठित संघर्ष के लिए निरंतर सक्रिय है।
     वर्तमान चुनावों में लेफ्ट फ्रंट को छोड़ बाकी किसी भी राजनीतिक पार्टी ने मजदूरों की  दुर्दशा के  बारे में एक शब्द नहीं कहा।   एक -मई मजदूर दिवस पर देश के मजदूर संकल्प लेते हैं की वे जाति,धर्म,मजहब या क्षेत्रीयता के नागपाश में नहीं बंधेंगे।  वे घोषणा करते हैं कि 'एक  शोषण विहीन ,न्यायसंगत   बेहतर दुनिया  का  निर्माण जब तक नहीं हो जाता , मेहनतकशों  का शोषण के खिलाफ  संघर्ष जारी रहेगा ! ! शोषण की समाप्ति तक संघर्ष जारी रहेगा !!   

       एक-मई के अमर शहीदों को लाल -सलाम !

      दुनिया के मेहनतकशों -एक हो -एक  हो ! !

     एक -मई अंतरराष्ट्रीय  मजदूर दिवस -जिंदाबाद !
  
                 इंकलाब -जिंदाबाद  ! ! !
        
                    

क्या भारत का प्रधानमंत्री इसी योग्यता से विभूषित होना चाहिये ?

  सोलहवीं संसद के लिए - भारत के आम चुनाव  अब अन्तिम चरण में हैं।  केवल प्रधानमंत्री पद के अभिलाषी  ही  नहीं बल्कि उनके बगलगीर -नेता  स्वामी ,संत-महात्मा  भी  अशालीन बयानबाजी पर उतर आये। कुछ तो  लगभग  अपनी नंगई  पर उतर आये हैं। उदाहरणार्थ -कुछ  बानगी प्रस्तुत  है।    

"मैं  निजी  हमलों से आहत नहीं हूँ ";-प्रियंका गांधी वाड्रा [बड़ी देर कर दी मेहरवाँ - मैदान में आते -आते ,अब तो गनीमत यही  समझो कि माताजी और  भैयाजी  की लाज बचा लो अर्थात अमेठी और रायवरेली  मैँ कांग्रेस जीत गई तो -प्रियंका वाड्रा जिन्दावाद। …।  अन्यथा  मनमोहन की  पूँजीवादी आर्थिक दिवालियापन की नीतियों ने वाड्रा  जी और अडानी  जी को इतना दिया की देश के गरीबों के लिए कुछ खास नहीं छोड़ा ,कि आप कुछ उदाहरण  दे  सकें !]

"हमें भाजपा वाले पीट रहे हैं,इसीलिये हम गंगा घाट  पर साधना कर उनका प्रतिकार  करेंगे "   : - केजरीवाल   [ जब 'आप' अपनों की  हिफाजत नहीं कर पा रहे हैं , उन्हें बलात्कार और व्यभिचार से नहीं रोक पा रहे हैं ,जब 'आप' के ही कार्यकर्ता आकंठ पापपंक  मेन डूबे हैं, तो आप   देश की हिफाजत कैसे करेंगे , देश की जो   वर्तमान  व्यवस्था-  खूनी  क्रांति की राह  पर है, उसमें  'आप'  के  अधकचरे -अनगढ़ ओर नैतिक रूप से स्खलित नेता  -आदमखोरों , उग्र  साम्प्रदायिक उन्मादियों ओर सरमायेदारों से कैसे जीत पाएंगे  ? यदि यही 'आप' का दर्शन है तो 'आप' केंद्र की  सत्ता में  कैसे आ  सकते  हैं !] 

      "मुझे दंगे के सूत्रधार से ज्ञान की जरुरत नहीं ,मोदी सत्ता में  आये तो देश अन्धकार में डूब जायेगा"  या "मोदी की हथेलियों से टपकता है गुजरात वालों का  लहू " :- ममता बनर्जी
                            [ नोट ;-यही ममता बेनर्जी कभी भाजपा और एनडीए की कृपा पात्र हुआ करती थीं अब अल्पसंख्यकों को पटाने  ओर वाम मोर्चे की बढ़त रोकने  के लिए एन चुनाव के वक्त यह बयानबाजी करके ममता बनर्जी - बंगाल के मुसलमानों की आँख में धुल झोंकने की कोशिश कर रही हैं ]

"मोदी को वोट देने वालों को समुद्र में डूब मरना चाहिये;_फ़ारुख़ अब्दुल्ला [नोट :-एनडीए के घाट पर अटल राज में -१९९९-२००४ में -  भाजपा नेताओं के  साथ  बहुत खा -पी चुके हैं,यदि मौका मिला तो एनडीए में घुसने मेन देर नहीं करोगे ! ]

"राहुल गांधी  तो दलितों के घर हनीमून मनाने ओर पर्यटन के लिए जाते हैं '' स्वामी रामदेव [  इस लफंगे,चालु लुटेरे ,दलित विरोधी ओर अश्लील बाबा पर - चार जगहों पर ऍफ़ आइ आर दर्ज हो चुकी है ,पुरी  के शंकराचार्य स्वामी अधोक्षजानंद जी महाराज ने भी  इस   रामदेव को नसीहत दी है इसकी लू उतारने की कोशिश की है ,  कुत्ते की दुम  सीधी करना बड़ा मुश्किल है। लेकिन  वक्त का तकाजा कहता है कि  रामदेव को कभी न कभी जेल तो जाना ही पड़ेगा यदि  दुर्भाग्य से मोदी प्रधानमंत्री बन  भी गए तो वे  रामदेव की  कुछ खास मदद नहीं कर पाएंगे-कर्मदण्ड तो भोगना ही  होगा ! ]

"उन्होंने  मेरी दादी को मारा ,मेरे पिता को मारा ,अब वे मुझे मार देंगे ":-राहुल गांधी [भारत का प्रधानमंत्री बनने के लिए न  यह विमर्श प्रासंगिक  है , न ही यूपीए की वे  नीतियां - जिन पर  आप बात  ही नहीं करना चाहते - राहुल  भैया ?] ]

"कांग्रेस मुक्त भारत ही मेरा सबसे बड़ा  उद्देश्य है  " :-नरेंद्र मोदी [ यह वयान तो हांडी का एक चावल मात्र है  जो यह साबित करता है की आपका मिजाज कुछ -कुछ निरंकुश ओर तानाशाहों जैसा है ,आपके इस विचार में 'लोकतंत्र' कहाँ  है  मोदी जी ? विगत एक साल में मोदी जी ने जितना विषवमन किया  है वह  विगत इतिहास  के ५००० साल में तमाम आक्रान्ताओं  के सामूहिक विषवमन से भी ज्यादा है !क्या भारत का प्रधानमंत्री इसी योग्यता से विभूषित होना चाहिये ?

                    श्रीराम तिवारी 

सोमवार, 28 अप्रैल 2014


    सुबह की सैर  के दौरान  'राजनैतिक वार्तालाप' में एक  बुजुर्ग भूतपूर्व[सेवानिवृत्त] प्रोफ़ेसर  फ़रमा  रहे थे कि   क़ानून को जो करना है जल्दी करे वर्ना १६ मई के बाद वही होगा जो स्वामी रामदेव चाहेंगे।स्वामी रामदेव , प्रज्ञाश्री 'संतश्री' आसाराम ,श्री श्री रविशंकर  ओर तमाम धतकर्मी  किस्म के कपट मुनि -'कालनेमि' इस देश को और 'हिन्दू समाज को आइन्दा - छलने  के लिए स्वतंत्र रहेंगे। वे दलितों ,महिलाओं अल्पसंख्यकों ओर गैर भाजपाई लोगो को अपमानित करने के लिए आजाद रहेंगे। चूँकि 'संघ परिवार ' और मोदी इनके स्वाभाविक शुभचिंतक हैं,'महान धर्मरक्षक ' हैं ,  इसलिए इन  समस्तछद्म अध्यात्म गुरुओं - ठगों को आइन्दा हत्या -बलात्कार और सम्पदा हड़पने की 'विशेष छूट' दी जाएगी।एक अन्य सेवानिवृत्त भूतपूर्व प्रशासनिक अधिकारी ने फ़रमाया -:  कि भारतीय लोकतंत्र चूँकि  अधः पतन की ओर अग्रसर है अतएव बहुत सम्भव है कि कानून को भी १६ मई के बाद 'नमो' -नमो' जाप करना पड़ेगा। 

रविवार, 27 अप्रैल 2014

'नमो-नमो' का जाप करने वालों की बल्ले -बल्ले !



        १६ वीं लोक सभा के चुनाव बाबत मतदान अपने अन्तिम चरण में  है। निःसंदेह ! उत्तर -पश्चिम भारत  में 'मोदी प्रभाव' तो  अवश्य है।  प्रत्यक्ष पूर्वानुमानों और रुझानों से जाहिर है की यूपीए -३ की  सम्भावनाएँ  बहुत कम है. अन्य दलों के सापेक्ष भाजपा और  एनडीए का पलड़ा भारी है। वास्तव में कांग्रेस और यूपीए के अलायन्स  पार्टनर लगभग हारी हुई  बाजी पर केवल चुनावी-लोकतांत्रिक रस्म अदा कर रहे हैं।इसीलिये यूपीए ओर कांग्रेस  की नाव मझधार  में डूबती देख कुछ मौका परस्त  नेता तो पहले ही से दल - बदलकर भाजपा-एनडी या किसी  अन्य डोमिनेंट राजनैतिक गठबंधन  की थान  में मुँह मारने जा  चुके हैं. कांग्रेस के कुछ बफादार समर्थक  भी  यत्किंचित आश्चर्यचकित हैं की इस चुनाव में अधिसंख्य जनता का रुख उनके प्रति  इतना निर्मम और अवहेलनापूर्ण क्यों है ?
                                   यह घोषित कर देना  कि नरेन्द्र मोदी ही प्रधानमंत्री बनेंगे -अभी तक एक चुनावी योजना हि  कही जा सकती थी  किन्तु  अब आसार भी ऐसे  बनते नजर आ रहे हैं।वामपंथ के प्रयासों  को  'आप' ने चकनाचूर कर दिया है। तीसरा मोर्चा  तो तार-तार हो चूका है। ममता ,माया ओर जयललिता  की सत्ता लिप्सा ने न केवल कांग्रेस बल्कि धर्मनिरपेक्ष -जनतांत्रिक दलों और  उनके तीसरे मोर्चे की पीठ में छुरा घोंप दिया है। नीतीश ,मुलायम ,लालू ,नवीन ओर  पवार अब 'अपने-अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे हैं। जो भी एनडीए के साथ नहीं गया वो सदमेंमें  है। कांग्रेस के  क्या कहने ? खुद वर्तमान  प्रधानमंत्री का भाई ही जब विभीषण बनने को तैयार है तो अब  क्या शेष है ? यह परम सत्य है कि १६ मई को कांग्रेस और यूपीए का  केंद्र की सत्ता से हटना सुनिश्चित है। इसके लिए  बहुत संभव है की  वे मीडिया को ,मोदी को , अल्पसंख्यक मतों के धुर्वीकरण को और कार्पोरेट लाबी के 'नमो'जाप को जिम्मेदार ठहराएँगे। वे संघ परिवार  के  निरन्तर दुष्प्रचार  - कुप्रचार  तथा  हिन्दूत्ववादियों के  मीडिया  मैनेजमेंट को  भी कसूरवार ठहरा सकते हैं।
                                              वेशक इन आरोपों में कुछ सच्चाई भी है किन्तु तस्वीर का स्याह पहलु देखना वे कांग्रेसी कभी पसन्द नहीं करेंगे जो कभी आरएसएस का , कभी बीएचपी का,  कभी जनसंघ  का ,कभी भाजपा का  भयदोहन करते रहे हैं।अब नरेंद्र मोदी का भयावह फोटो दिखाकर अल्पसंख्यकों -खास तौर से मुस्लिम   वोटों  के ध्रुवीकरण को कांग्रेस के पक्ष में सत्ता की सीढ़ी समझ रहे हैं।उनका यह भयादोहन  अभियान इस बार कितना कारगर  रहा यह १६ मई के अपरान्ह पता चल जाएगा।
                     कांग्रेसी ओर अन्य धर्मनिरपेक्ष दल  यह मानने को कतई तैयार नहीं कि आर्थिक उदारीकरण के परिणामस्वरूप रोजगारों  के   अवसरों का सत्यानाश होना  , निर्माण -उत्पादन -सेवा क्षेत्र  का निजीकरण होते जाना  ,राष्ट्रीय सम्पदा ओर सम्पत्ति का कुछ खास  हाथों में  ही सीमित होते  जाना,महँगाई तथा  भृष्टाचार का  भयावह होते जाना और सामाजिक सुरक्षा पर अनैतिकता के  जिन्न का  राष्ट्रव्यापी होते जाना  -   इत्यादि  कारणों से इस चुनाव में  'एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर' अपने चरम पर है। इसीलिये  देश के कुछ पत्रकार , राजनैतिक विचारक , बुद्धिजीवी ओर कांग्रेस के   कुछ  जमीनी  नेता भी  यह मानने को बाध्य  हैं  कि  यूपीए की   संभावित पराजय अब  अटल सत्य है।हालाँकि  इस महापराजय के लिए वे अपने आप को  नहीं बल्कि 'संघ परिवार', मोदी और भाजपा को  जिम्मेदार मान रहे  हैं। वे यह कदापि नहीं मानेगे की १० साल में यूपीए  सरकार ने  या कांग्रेस नेतत्व  ने ऐंसा कुछ  खास  नहीं किया  है कि  भारत की जनता उन पर  तीसरी बार  बलिहारी जाये - कुर्बान  हो जाये।उनके भृष्टाचार ओर कदाचरण  पर मंगल गीत गाये।
                                 वेशक !  संघ परिवार,एनडीए ,भाजपा और मोदी पर अनेक संगीन आरोप हैं। उनकी विचारधारा  तो पहले से ही बेहद बदनाम है। व्यक्तिगत रूप से  भाजपा के नामांकित प्रत्यासी अर्थात पी एम इन वेटिंग-   श्री  नरेंद्र मोदी  भी  तमाम विवादों और संदेहास्पद आचरणों के लिए बहुचर्चित रहे हैं ।  उन  पर  कई  प्रकार के वैयक्तिक -सार्वजनिक  सच्चे-झूंठे-मनघडंत  आरोप  भी  लगाए जाते रहे हैं। डॉ मनमोहनसिंह से  नरेन्द्र मोदी कहीं  ज्यादा पूँजीवाद परस्त हैं। मोदी तो  अमीरों  ओर कार्पोरेट जगत के चहेते हैं। वे  निवेशकों -  तेजड़ियों-मंदड़ियों ओर सट्टा बाजरियों के सहोदर हैं। वे  अपने रास्ते में आने वाले हर व्यक्ति या समूह  को निर्ममता से निपटाने में सिद्धहस्त हैं। इन तमाम खूबियों- आरोपों के  वाबजूद  बहरहाल अभी तो  'नमो' अधिसंख्य जनता के 'आइकॉन' जैसे हैं। इस दौर में अधिसंख्य हिन्दु और विशेषतः हिन्दी भाषी  समुदाय  "नमो नाम केवलम" से  ज्यादा कुछ  भी सुनना  - समझना नहीं चाहता।  इसीलिये यह  यह तय है की  १६ मई को  जो चुनाव परिणाम  आएंगे वे एनडीए को केंद्र की सत्ता सौपने के लिए  बहुत माकूल  होंगे। एनडीए के पक्ष में  संभावनाएं इतनी प्रवल  हैं कि नरेंद्र मोदी  के प्रधानमंत्री पद की शपथ  लेने में  किसी शक की गुंजाइश बहुत कम है। वेशक राजनीति अनन्त संम्भावनाओं का  नाम है और किसी पूर्व घोषणा का कोई महत्व नहीं है। फिर भी फिजाओं में लहर न सही  हवा  तो है   जो गुनगुना रही है कि 'अब तो पथ यही है …  '… !  सिंहासन खाली करो कि  भाजपा आती है  .... !   कोई शक नहीं की भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में १६ वीं संसद में प्रवेश  कर रही है ! इस परिणाम का श्रेय नरेन्द्र मोदी को कुछ  ज्यादा  नहीं बल्कि 'आरएसएस ' को अधिक  दिया जाना चाहिए। जिसने आडवाणी ,मुरली मनोहर जोशी  , जशवन्तसिंह जैसों से निपटने में मोदी की राह हर बार आसान की। राजनाथ को संबल प्रदान किया।  इतना ही नहीं  इस चुनाव में बूथ मैनेजमेंट से लेकर टिकिट वितरण तक सारे सूत्र 'संघ' ने अपने हाथों में ले रखे थे। हालांकि सत्ता के मार्ग  के अवरोध कम करने के लिए   मोदी जी ने भी कार्पोरेट लाबी का जमकर  दोहन किया है।  शायद इसीलिये भाजपा के कटट्रर  समर्थक इस विजय को  'मोदी लहर ' का नाम दे रहे हैं। किन्तु सवाल यह है की भाजपा को - एनडीए  को या मोदी को जो  सत्ता  मिलने जा रही है क्या वे इसके हकदार हैं ? क्या वास्तव में उनकी नीति-नियत -चाल-चरित्र  -चेहरा भारत की सासंकृतिक -सामाजिक और राजनैतिक  विरासत के अनुरूप है ?क्या वे यूपीए से -अटलनीत एनडीए  सरकार से  भी बेहतर परफारमैन्स दे सकेंगे ? 
          क्या यह सच नहीं की यह सत्ता उन्हें एंटी इन्कम्बेंसी फेक्टर के कारण  ही मिलने  जा रही है।वर्ना अटल नीत एनडीए सरकार की जिन खूबियों की  दुहाई इन चुनावों में दी गई वे २००४ में कहाँ चलीं गईं थीं ? नरेंद्र मोदी जी जिस गुजरात मॉडल की बात कर रहे हैं उसमें ११ रुपया रोज कमाने वाला ही  यदि गरीब माना जाएगा तो उनके पास कौनसा ऐंसा कुबेर का खजाना है  कि  सम्पूर्ण भारत वासियों को अडानी या अम्बानी बना देंगें ?  जो  लोकायुक्त को -लोकपाल को  कुछ न समझता हो, जिसकी सामूहिक नेतत्व  में  कदापि आस्था न हो  वो भृष्टाचार मुक्त 'गुड गवर्नेंस' कैसे दे सकेगा ? वो लोकतंत्र की हिफाजत कैसे कर सकेगा ?
             'गुड गवर्नेंस'से लेकर  डवलपमेंट तक ,'बाबा सोमनाथ से लेकर  बाबा विश्वनाथ तक, हिन्दुत्ववाद से लेकर 'असली धर्मनिरपेक्षता 'तक, तमाम महावाक्यों के परिणामस्वरूप  भी यदि  भाजपा १६ मई को २७६ सीटें नहीं जुटा पाती  तो ये माना जा सकता है कि 'अभी  नहीं तो कभी नहीं ' . यह भी सम्भव है कि 'नमो' और 'संघ परिवार' पर लगे आरोप सही ठहरा दिये जायें ! कांग्रेस और गैर भाजपा दलों को - मोदी विरोधियों को, बनारस समेत तमाम उत्तर भारत में उमड़ी तथाकथित  मोदी समर्थक  भीड़ को किराए की साबित करना  तब बहुत ही   आसान होगा । किन्तु  यदि भाजपा और एनडीए ने  २७६ सांसदों   का आंकड़ा जुटा  लिय तो राजनीति में   'नमो-नमो' का जाप  करने  वालों की बल्ले -बल्ले !  तब घर-घर मोदी और हर-हर मोदी का असर कितने दिन रहता है यह वक्त ही बता सकता है।    

गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

जाति -धर्म -मजहब हुआ ,प्रजातंत्र का रोग ! [दोहे]



    राष्ट्रीय संप्रभुता  जली  ,जर -जर गया  जमीर।

    साम्प्रदायिकता न जली ,भारत की तकदीर।।


     लोकतंत्र  का यज्ञ है  ,जनादेश का मन्त्र।

     अभिमत आम चुनाव का ,हों निष्पक्ष स्वतंत्र।।


     सत्ता सुंदरी के लिए ,सब दल गये बौराय।

    नट -मर्कट ज्यों धतकरम ,जन गण रहे लुभाय।।


   मुस्लिम वोट की जुगत में ,दल  जब भिड़े तमाम।

    तो क्यों केवल   भाजपा ,   मोदी  हैं बदनाम।।



     बिना नीति उद्देश्य के , जीत गये कुछ लोग।

    जाति -धर्म -मजहब  हुआ ,प्रजातंत्र   का रोग।।

           
               राम तिवारी


   

मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

चुनावी चुनौतियों और अधूरा लोकतंत्र !



       भारतीय संविधान की तमाम खूबियों और लोकतंत्रात्मक स्थायित्व के वावजूद 'असली लोकतंत्र' अभीभी कोसों दूर है।  दोषपूर्ण चुनाव प्रणाली ,धनबल -बाहुबल-जातबल -लातबल -खापबल और पाखंडी धर्म-मजहब के बल की अमरवेलि ने  भारतीय लोकतंत्र रुपी पावन पीपल  की कोंपलों को ग्रस रखा है।  आजादी के ६७ साल बाद भी चुनावी चुनौतियों को समझने की क्षमता भारत की अधिसंख्य जनता मेंपैदा नहीं हो पाई है। अधिकांस    भारतीय  मतदाताओं में  वास्तविक लोकतांत्रिक  चेतना अभी भी स्थापित नहीं हो पाई है। वेशक   चुनाव आयोग की अनेक  सकारात्मक कोशिशों और मीडिया के जागरूकता अभियान ने वर्तमान  १६ वीं लोक सभा के चुनावों में मतदान का प्रतिशत बढ़ाने में कुछ  सफलता पाई  है।आजादी के बाद से  पिछली  लोक सभा के चुनावों तक  कुछ अपवादों को छोड़कर  सामान्यतःऔसतन मतदान ५०%  के  नीचे ही  रहा है । बाज मर्तबा अनेक  मामलों में संसदीय लोकतंत्र की इस कमजोरी का फायदा  घाघ किस्म के राजनीतिक प्राणी  उठाते रहे हैं। । धर्म-मजहब , सम्प्रदाय, जाति  भाषा  , बाहुबल  तथा  आवारा पूँजी  की प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका के कारण  मतदान में अधिकांस विजेता  'अल्पमतीय' होते हुए भी विजयी घोषित किये जाते रहे हैं।
                       मान लें की  किसी विशेष  'कांसीट्वेंसी'  अर्थात चुनाव क्षेत्र  में  १० लाख मतदाता हैं. A B C D  चार उम्मीदवार मैदान में हैं। उनमें से क्रमशः चार  लाख ,तीन लाख ,दो लाख और एक लाख वोट पाते हैं तो  वर्तमान चुनावी व्यवस्था के अनुसार  ४ लाख वोट पाने वाला A  ही  विजयी घोषित किया जाएगा,  बाकी  तीन उम्मीदवार BCD संयुक रूप से ६ लाख  वोट  [बहुमत] पाने के वावजूद हारे हुए ही  माने जाएंगे !   ऐंसे ही कई  सवाल  हैं जो लोकतंत्र की 'भूल-चूक' के बरक्स जनता से चिंतन की अपेक्षा करते हैं।  लेकिन वर्तमान व्यवस्था जिनके लिए मुफीद है वे इसका प्रतिकार नहीं करते। हालाँकि  चुनाव आयोग की जागरूकता  तथा आंशिक  सक्रियता प्रशंसनीय है  किन्तु भारत की वर्तमान चुनाव पणाली में वांछित और आवश्यक  सुधार किये बिना वास्तविक जनादेश परिभाषित होना असंभव है। दरसल जो  विजयी घोषित होते हैं वे उसके हकदार नहीं और जो पराजित होते हैं वे भी पूरी तरह पराजित नहीं कहे जा सकते ! कुछ सवाल हैं जिन पर मतदाताओं को गौर करना चाहिए !

 प्रश्न एक :-अल्पमत से विजयी होने वाला यह कैसे तय कर सकता है की उसकी नीतियां -कार्यक्रम और विचारधारा  बहुमत जनता  का अभिमत है ?

प्रश्न दो :-पराजित उम्मीदवारों के कुल 'मत' जिस खंडित मानसिकता या सोच  का प्रतिनिधित्व करते हैं  वे  तकनीकी रूप से विजयी [अल्पमत से]  उम्मीदवार से उस की पार्टी से  या  उस गठबंधन  सरकार से  उचित न्याय की आशा कैसे कर सकते हैं ?  चुनाव आयोग की जागरूकता प्रशंसनीय है  किन्तु भारत की वर्तमान चुनाव पणाली में वांछित और आवश्यक  सुधार किये बिना वास्तविक जनादेश परिभाषित होना असंभव है।

प्रश्न तीन :- यदि वर्ग विभाजित समाज  के बीच से  कोई दवंग -बाहुबली ही इस व्यवस्था पर नागपाश की तरह चिपक जाए  या 'दागी' नापाक उम्मीदवारों में  से ही  कोई एक  महाभृष्ट   छल-बल से  जनता को  उल्लू  बनाने  में कामयाब हो जाए  तो क्या वह समस्त राष्ट्र की आकांक्षाओं को उद्भाषित करने का हकदार है ?

प्रश्न चार :-अपने विरोध में बहु-मत  पड़ने के वावजूद , स्वयं अल्पमत में होने के वावजूद  इस तरह तकनीकी कारण से  कोई 'तिकड़मी' व्यक्ति ,दल  या गठबंधन  यदि सत्ता में आ जाता है तो वह यह कैसे कह सकता है की मुझे 'जनता का  जनादेश मिला' है या कहे  कि  मैं जीत गया " १० लाख में ६ लाख पाने वाले तीन व्यक्ति  अलग-अलग रूप सै  भले ही अल्पमत में हों किन्तु उनके संयुक्त मत तो उससे अधिक ही  होंगे जो की जीत कर संसद में जा पहुंचेगा।

 प्रश्न-पांच :-कांग्रेस ,भाजपा  वामपंथ ,आप और अन्य क्षेत्रीय क्षत्रप -अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में  मिलने वाली आंशिक सफलता  के बरक्स -  राष्ट्रव्यापी जनादेश का दावा कैसे कर सकते हैं ?

                    श्रीराम तिवारी 
 

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

'आप' ने अभी तक जो इनपुट दिया है वही अब 'थप्पड़' के रूप में आउट पुट है !

' द  हिन्दू ' अखबार की रिपोर्ट है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के नार्थ केम्पस में जुआलॊजी के प्रोफेसर उमेश राय  की कुछ गुंडों द्वारा महज इसलिए  जमकर पिटाई की गई क्योंकि उन्होंने भाजपा के 'पीएम इन वैटिंग 'श्री नरेंद्र मोदी  के खिलाफ अपना विचार व्यक्त किया था।ये गुंडे अखिल भारतीय विद्द्यार्थी परिषद् के  नेता थे जो कि  आरएसएस का एक अनुषंगी छात्र संघ है।  संघ परिवार  की ओर से असहनशीलता का यह एक  मात्र उदाहरण नहीं है। कहने -लिखने की जरुरत नहीं कि उन हिंसक हमलावरों  का भाजपा में आइंदा  रुतवा और  बढ़ा दिया जाएगा !
           
                             मोदी के खिलाफ बोलने मात्र से वेचारे प्रोफेसर की न केवल पिटाई की गई बल्कि मुँह पर कालिख  भी पोती गई। तात्पर्य यह है कि भले ही मोदी का सीना '५६' इंच का न भी हो लेकिन 'संघ' परिवार के  हाथों में  तो   सैकड़ों  हिटलर का बल है। व्यक्ति आधारित अलोकतात्रिक राजनीति  में असहिष्णुता और  हिंसा की खुजली इतनी बढ़ चुकी है कि विरोधियों की जुवान पर भी  ताले  लगाए जाने का अंदेशा है। शायद यही फासीवाद  के सिम्टम्स हैं। सम्भवतः इसे ही  'निरंकुश तानाशाही'कहते हैं।अभी तो "हनोज दिल्ली दूरस्थ " लेकिन  अभी से  फासिस्ट सांडों के सिरों पर  साम्प्रदायिकता  के  घातक -नुकीले सींग  उंग आये  हैं। कहने का तात्पर्य ये है कि 'नमो' का जाप करने वाले  अब अतिसुरक्षित  कंगूरे पर आसीन  हो  चुके हैं। जहाँ  किसी का हाथ तो क्या किसी की  हवा या आवाज भी नहीं पहुँच सकती।इसी को कहते हैं "समर्थ को नहीं दोष गुसाईं "!
             
                      दूसरी ओर  देश  के  तमाम अखबारों  के फ्रंट पेज पर 'आप' के  अधिकांस नेता  लात-जूते-थपपड़  खाने को सहज उपलब्ध हैं। "गरीब की लुगाई सारे  गाँव की भौजाई "! 'आप' के  संयोजक  अरविन्द  केजरीवाल  कभी 'काला' मुँह  करवाते दिखते  हैं।  कभी पिटते  हुए दिखते हैं, कभी थप्पड़ खाते हुए दिखाए जा रहे हैं। लोग जानते हैं कि 'आप' की इस दुरावस्था के लिए  वे स्वयं ही जिम्मेदार  हैं ! मुँह पर  स्याही पोतने वाला तो  वेशक आम आदमी ही  हो सकता है ! क्योंकि उसे लगता है कि 'आप' के नेताओं  ने  उसे जमकर  उल्लू  बनाया है। जनता सोचने पर मजबूर है कि  'आप  ' के नेता जब अपनी ही रक्षा नहीं कर सकते तो'आम आदमी'और  देश  की रक्षा क्या खाक करेंगे ? वे भृष्टाचार  मिटाने का फार्मूला ही अब तक  पेश नहीं कर सके तो उसे नेस्तनाबूद कैसे कर सकेंगे ?आप' के नेताओं को पीटने वाले भाजपा समर्थक  भी  हो सकते हैं ! क्योंकि उन्हें लगता है कि  'आप'के नेता दाल-भात की सनातन  पूँजीवादी राजनीति  में जबरन  मूसरचंद बन  बैठे  हैं। वेशक  मोदी की राह में अड़चन डालने का  कुछ काम  तो 'आप' के नेता कर ही रहे हैं।थप्पड़  मारने वालों में  कांग्रेस का 'हाँथ' भी हो सकता है ! क्योंकि उनका तो 'पंजा" निशान है ही। यूपीए सरकार के भृष्ट कुशासन  को  'आप' ने ज़रा ज्यादा ही मारक और असरदार तरीके से उधेड़ डाला है , वेशक !'आप' ने कांग्रेस को रुसवा ही  किया है. इसलिए उसके कार्यकर्ताओं को अभी कुछ सूझ नहीं रहा है ! कोई अचरज नहीं कि वे भी 'हाथ' साफ़ करने लगे हों! चूँकि वे "नमो"  जैसे दवंग  फासिस्टों का तो  कुछ बिगाड़ नहीं  सकते ! क्योंकि उधर एसपीजी + ब्लैक केट कमांडो का तगड़ा  पहरा  भी  है। संघ के स्वयंसेवकों का अपना 'ताना-बाना' भी है।  इसलिए कमजोर-निहथ्ते , रोगग्र्स्त , शुद्ध- शाकाहारी  - असुरक्षित  केजरीवाल को थप्पड़  मारना  सबके लिए आसान है। हो सकता है कि उदिग्न कांग्रेसी भी अपने  'पंजे ' की खुजाल मिटा रहे  हों ! क्योंकि वे  अब सत्ता से फुर्सत पाने की ओर अग्रसर हैं।
                        
                       बहरहाल यह महत्वपूर्ण  नहीं कि 'आप' पर स्याही कौन फेंक रहा है ?पिटाई कौन कर रहा है ? थप्पड़ कौन मार रहा है ? दरसल  महत्वपूर्ण यह है कि इन घटनाओं के निहतार्थ क्या हैं ?जब -जब केजरीवाल या आप के  साथियों  पर स्याही फेंकी जाती है ,मुँह काला  किया जाता है या थप्पड़ लगाये जाते हैं तब -तब  वे  उसमें  कभी कांग्रेस का 'हाथ'  कभी  भाजपा का हमला बताकर अपनी झेंप मिटाते रहते हैं। यदि उनका आरोप मान भी लें तो उस सिद्धांत का  क्या होगा  जो उन्होंने'आप' के गठन के समय लिया था ? जो लाख  टके का सवाल  भी है कि 'आप' भृष्ट नेताओं ,पूँजीपतियों और उनकी दलाल पार्टियों को सत्ता से बाहर  कर देंगे। जब भृष्ट और  शक्तिशाली वर्ग को चुनौती देने की  बात  करोगे तो वे क्या 'आप' को तश्तरी में 'कमल 'का फूल या  हाथ में  खादी  का अंग वस्त्र भेंट करेंगे ?'आप' के पास न तो'संघ'  की टक्कर का कोई बेसिक केडर  है, न ही कांग्रेस की टककर  का 'सरमायेदार परस्त 'एजेंडा। दरशल  आप के पास कोई राजनैतिक दर्शन  या सिद्धांत तो है नहीं। संगठन भी नहीं है । आप के पास कोई   वैकल्पिक आर्थिक नीति  भी नहीं है । 'आप' के पास  ईमानदारी  और भृष्टाचार निरोध का जो  तमगा था  वो भी  'दिल्ली राज्य' की ४९ दिन वाली मर्कटलीला  में  खर्च हो चूका है। अब ' आप ' का नतीजा "ठन -ठन  गोपाल "!'आप' तेजी से  जनता की नजर में अप्रसांगिक  होते जा रहे हैं।

                    अराजक -दिग्भ्रमित  'आप' का कोई भविष्य नहीं है!'आप' अब  केवल धर्मनिरपेक्ष मतदाताओं को दिग्भ्रमित कर ,फूट डालने और साम्प्रदायिक कटटरवादियों को सुअवसर प्रदान कराने के  काम आ रहे हैं। 'आप'  कुल्हाड़ी  के बेंट  बन गए  है जो उसी डगाल को काट रही है जिस पर 'आप' बैठे हैं। आप केवल कांग्रेस की बर्बादी  का ही कारण नही हैं।  बल्कि 'आप' ने ही अन्ना जैसे महामूर्ख को भी पहले तो बड़ा अवतार  बना डाला  फिर   'महात्मा ' बाद में उस के अनगढ़  मंसूबों पर पानी  भी फेर दिया। यदि  'आप' की यह हरकत अण्णा- समर्थकों को नागबार  गुजरी हो  तो  कोई बेजा बात नहीं। तब  वे थप्पड़ क्यों नहीं मारेंगे ?फिर  उनसे  कैसी शिकायत ? इसीलिये शायद हर बार पिटने  के बाद 'आप' लोग उन्हें 'माफ़' करने की मुद्रा में आ जाते  हो !क्योंकि 'आप' किसी का कुछ कर पाने लायक नहीं रह गए हैं।पीटने वालों को माफ़ करना ,लात-जूते खाना -यह आपका बड़प्पन  नहीं बल्कि अधः पतन है। अब  'आप' केवल बरसाती गोबर जैसे हैं जो लीपने का न पाथने का।  यदि 'आप' के ही समर्थक 'आप' को थप्पड़ मार रहे हैं ,काला मुँह  कर रहे हैं तो ये आपकी नियति है। ' आप'  ने अभी तक जो इनपुट  दिया है वही अब 'थप्पड़'  के रूप में आउट पुट है ! जो बोया है  वही तो फलेगा -फूलेगा की नहीं ?
           
                    यदि 'आप' वाकई इस वर्तमान सड़ी-गली पतनशील पूँजीवादी  व्यवस्था को बदलना चाहते हैं तो देश के  विशाल जन समूह -मेहनतकशों ,किसानों ,कर्मचारियों ,खुदरा व्यापारियों ,साहित्यकारों ,वुद्धिजीवियों और खास तौर  से इन सभी के हितों की रक्षा के लिए निरंतर संघर्ष रत -देश के श्रम  संगठनों के साथ , सर्वहारा वर्ग के हरावल दस्तों के साथ जुड़ने की कोशिश क्यों नहीं करते ? न केवल भृष्टाचार ,न केवल महँगाई बल्कि  जनता के सवालों को लेकर  इण्टक ,एटक ,सीटू ,एचएमएस ,बीएमएस इत्यादि  अधिकांस श्रम  संगठनों ने वामपंथ की अगुआई  में  विगत कई महीनों से निरंतर आंदोलन और संघर्ष चला रखा है। 'आप' के नेताओं की  इस संघर्ष की महानता और क्रांतिकारी सोच के बारे में  क्या राय है ?'आप' ने  जिन मुद्दों - समस्याओं को लेकर   अपने हाथों में झाड़ू उठारखी  है उनमें से अधिकांस मुद्दे  वामपंथ के  इस संयुक्त अभियान  संघर्ष में  पहले से ही  शामिल हैं।  'आप' के सामने  दो विकल्प हैं। एक -'आप' राजनीति  में ज़िंदा रहने  के लिए इस क्रांतिकारी  -  धारा  से जुड़ जाएँ  जहाँ 'जय-जैकार भले ही न हो किन्तु किसी माई के लाल  की ओकात नहीं की 'आप' पर   हाथ उठा सके ।  दूसरा रास्ता राजनैतिक हराकिरी की ओर  जाता है जहाँ कई  दत्ता सामंत ,लेक बालेछा,जेपी, काशीराम ,उदितराज और अन्ना हजारे बिलबिला रहे होंगे।तीसरा  कोई रास्ता नहीं  कि 'आप' देश  और दुनिया को बदल सकें !

                  श्रीराम तिवारी       

मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

''अबकी सरकार-मोदी सरकार' "थाली में चाँद उतारने जैसा सावित होगा!

   जाने -माने लेखक - ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार -प्रोफ़ेसर यू आर अनंतमूर्ति  और बहुमुखी  प्रतिभा के  धनी फ़िल्मकार -आर्टिस्ट पद्मभूषण श्री  गिरीश कर्नाड की अगुआई में दक्षिण भारत के तमाम प्रगतिशील लेखकों -बुद्धिजीवियों और कर्नाटक के जनवादी -धर्मनिरपेक्ष साहित्यकारों  ने 'संघ'  के मार्फ़त नरेंद्र मोदी को भारत के प्रधानमन्त्री पद पर आसीन किये जाने के उपक्रमों का शिद्द्त से विरोध किया है.लेकिन देश की आम आवाम तो क्या 'तथाकथित 'खास' लोगों ने भी उनकी उस अपील को सुनने -समझने की कोशिश नहीं की जो भारत में 'निरंकुशतावादी' शासन के खतरे से आगाह करती प्रतीत हो  होती है।
                  वेशक भारत के मौजूदा लोक सभा  चुनावों की  धमक सारी दुनिया में सुनी जा रही है। मोदी फेक्टर के कारण -भारतीय सेंसेक्स ही नहीं बल्कि अब तो सट्टेबाजी भी चरम पर है , बल्कि यों कहा जा सकता है कि यह चुनाव  पूँजीवादी  सट्टेबाजों की गिरफ्त में  ही लड़ा जा रहा है। क्रिकेट  में जो-जो व्यभिचार  हुआ करता है वो-वो कदाचार-लेनदेन  वर्तमान राजनीति  में भी  उमड़ -घुमड़ रहा है। डॉलर के मुकाबले रुपया यों ही फ्री-फ़ोकट में  मजबूत नहीं हो रहा है. देश को इसकी कीमत भी चुकानी होगी। आर्थिक उदारीकरण और घोर कार्पोरेटाइजेसन  के समर्थक केवल अम्बानी या अडानी  ही नहीं रह गए हैं। इस चुनाव के  बरक्स साम्प्रदायिक  धुर्वीकरण भी चरम पर है जो लोकतंत्र की सेहत के लिए  माकूल नहीं है। संघ प्रायोजित दुष्प्रचार -काँग्रेस समेत तमाम धर्मनिरपेक्ष शक्तियों  के खिलाफ माहोल बना रहा है।  इस प्रोपेगण्डा की  घातक  तीव्रता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है किदेहाती  अपढ़ जनता  के समूह  तो उतने  अग्रेसिव नहीं हैं  लेकिन कस्वाई और शहरी युवा वर्ग में, तथाकथित पढ़े लिखे लोगों में ,स्वामियों-बाबाओं के मानसिक दासों में  "मोदीवाद' ने मजबूत पकड़ बना ली है । न केवल एंटी इन्कम्बेंसी मानसिकता के लोग बल्कि वे तमाम  नर-नारी भी 'मोदीमय' हो रहे हैं जो कभी आसाराम  ,निर्मल बाबा ,स्वामी रामदेव और श्री-श्री रविशंकर के चरणों की धूल  फांक चुके हैं।इन पाखंडियों के  लम्पट अनुयायी  एकजुट होकर "नमो नाम केवलम ' भज रहे हैं।  ये भेड़ चाल  की मानसिकता  के शिकार हो रहे हैं। देश के निर्माण ,विकाश और सुशासन की कोई नीति इनके पास नहीं केवल " मोदी-मोदी'चिल्ला रहे हैं।  भारतीय लोकतंत्र के आदर्शों -सिद्धांतों ,मूल्यों  से इनका कोई लेना -देना नहीं।  इन मोदीभक्तों को भारत के श्रेष्ठतम बुद्धिजीवियों -साहित्यकारों  में कोई रूचि नहीं। ये तो हेमा मालिनी ,स्मृति ईरानी  और मिनाक्षी लेखी में  ही भावी भारत का अक्स खोज रहे हैं।  इन्हे यु आर अनंत मूर्ति ,गिरीश कर्नाड  से क्या लेना -देना ?

    पौराणिक  [सामन्तकालीन] सूक्ति है कि 

                                             "स्वदेशे पूजयते राजा विद्वान सर्वत्र पूज्यते "


  वर्तमान समय के अनुसार इसका भावार्थ यह हो सकता है कि

                               " समाज के भृष्ट और दवंग लोग [ नेता या मंत्री ] तो  केवल अपने -अपने  प्रदेश में ही  सम्मानित किये जाते हैं किन्तु साहित्यकार -बुद्धिजीवी  न केवल  भारत  बल्कि सारे विश्व में  में सम्मान पाते हैं"   चुनाव के दौरान इन दिनों  अब सब कुछ उक्त  सूक्ति के उलट   हो रहा है। क्या ही  विचित्र  बिडंबना  है कि नरेंद्र मोदी , राहुल गांधी  , सोनिया  गांधी ,नीतीश ,लालू ,अमित शाह , आडवाणी ,नवीन  पटनायक  , बादल   मुलायमसिंह  , मायावती  , जयलिता ,ममता ,केजरीवाल  जैसे बदनाम -विवादास्पद नेताओं को मीडिया में पर्याप्त प्रतिशाद  मिल रहा है। स्वामी  रामदेव  श्री-श्री या अन्ना हजारे  जैसे  महास्वार्थी- कपटी समाज सुधारकों   के आह्वान पर  बहुत से नर-नारी साम्प्रदायिक, फिरकापरस्त,जातीयतावादी और भृष्ट  नेताओं  को  केवल सुनते ही नहीं  बल्कि उन्हें  वोट देकर पुनः  चुनने को  बेताब  भी हैं। हर जगह हर नेता की क्षमतानुसार समर्थकों  की भीड़ उमड़ रही है  किन्तु  यु आर अनंतमूर्ति ,गिरीश कर्नाड जैसे  प्रख्यात साहित्यकार  की बात सुनने की किसी को फुरसत नहीं है।  दुनिया का इतिहास साक्षी है कि यहै गलती कभी यूरोप में जर्मनों -इट्ली वालों ने और एशिया में जापनियों ने की थी।क्या भारत की जनता को यह इतिहास नहीं मालूम ?
          श्री   नरेद्र मोदी  इन दिनों अपने -प्रदेश गुजरात  में या देश  भारत में ही नहीं बल्कि   दुनिया भर  में प्रसिद्धि प्राप्त कर रहे हैं। भृष्ट कांग्रेसी ही नहीं बल्कि दुनिया भर के ठग-उठाईगीरे भी दल-बदलकर मोदी के साथ मंच साझा कर रहे हैं।  इसीलिये ख्यातनाम  साहित्यकार ,पद्म विभूषण सर्व श्री यु आर अनंत मूर्ति  और  महानतम आर्टिस्ट गिरीश कर्नाड  को अब 'सर्वत्र पूज्यते 'तो क्या कर्नाटक या बंगलूरू में भी कोई सुनने को तैयार नहीं है।  न केवल  भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार बल्कि अनेक राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय सम्मान - प्राप्त देश के  अन्य सर्वोच्च विद्वानों का  भी आकलन  यही है  कि नरेंद्र मोदी  में भारत का नेत्तव करने की कूबत  नहीं है ।  वेशक वे   विवादास्पद -व्यक्तित्व ,अतिक्रमणवादी- नेत्तव  और दम्भपूर्ण- वाग्मिता  के लिए  सारे विश्व में प्रसिद्ध हो रहे हैं.  बहुत सम्भव  है कि जोड़-तोड़ की राजनीती में माहिर 'संघो'  नेताओं ,ममता,माया,जया जैसी चिर-कुंआरियों और नवीन पटनायक जैसे कुँआरे की  असीम अनुकम्पा से नरेंद्र  मोदी  जैसे 'तथाकथित'कुआँरे  भी  भारत गणराज्य के प्रधानमन्त्री भी बन जाएँ !नरेंद्र भाई मोदी  ने भारत की जनता  को इतने सब्ज बाग़ दिखाए हैं कि उनका वर्णन  करना -सर के बाल गिनना जैसा है।  वे अपने  ही दल के धुर विरोधियों ,उज्जड कांग्रेसी दलबदलुओं ,संगीन अपराधियों और क्षेत्रीय क्षत्रपों को'नाथ'  चुके हैं। २ ७२ का आंकड़ा पाने की खातिर हर किसी को गले लगा रहे हैं. सत्ता प्राप्ति की सम्भावनाएं बलवती हो रही हैं। यदि सत्ता मिल  भी गई  तो क्या वे इन सभी को  संतुष्ट कर पाएंगे ?  मेरा दावा है कि भाजपा का मेनिफेस्टो या संघ परिवार का एजेंडा भी वे कभी पूरा नहीं कर  पायंगे। गुजरात मॉडल तो  छोड़िये वे अपने मुखारविंद  से बोले गए उद्गारों में से ही १० % भी नहीं कर पाएंगे।  बिना राग द्वेष के सरकार चला पाने की उम्मीद  उनसे करना वैसे ही होगा जैसे कि आदमखोर खुँखार जंगली जानवर से ये उम्मीद करना कि  वो बकरियों को नहीं खायेगा ! ' अब की सरकार मोदी सरकार' थाली  में चाँद उतारने जैसा ही सावित होगा।
      
                      श्रीराम तिवारी 

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

केंद्रीय सत्ता की खातिर आप-'विकाश पुरुष' क्या खाक हो गए ?



      जो  कल तक थे उन्मादियों के -

      श्रीमान 'हिन्दू युवा ह्रदय सम्राट' .

       केंद्रीय सत्ता की खातिर आज-

       'विकाश पुरुष'  क्या खाक  हो गए ?

       जिनके इर्द-गिर्द किया करतें थे -

      कभी  विनम्र गणेश परिक्रमा ,

     उन आडवाणी-जोशी -जशवंत  जैसे  ,

     वरिष्ठों के आप-  क्यों  जबरन  'बॉस' हो गए ?

     जिन बीमार -वयोबृद्ध की तबियत -

      पूँछने  तक  कभी  नहीं गए  निकट ,

     मोदी जीआप - क्यों  इस चुनाव के मौसम में
  
   उन अटलजी के  पोस्टर खास हो गए ?

         
        श्रीराम तिवारी
   

    

     

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

लोकतंत्र -समाजवाद -धर्मनिरपेक्षता और जन-क्रांति ही भारत की अभीष्ट अभिलाषा है!




 निसंदेह  भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में प्रधानमंत्री का पद सर्वाधिक शक्तिशाली होता है। यह सर्वविदित है कि  इस पद के लिए भारत में जनता के मार्फ़त कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष  चुनाव नहीं होता। फिर भी 'संघ परिवार' के लोग  इन दिनों लगातार' 'नमो नाम केवलम "  का राग आलाप रहे हैं। उनके नेता बड़ी -बड़ी सभाओं में सवाल करते हैं कि  - अबकी बार किसको वोट देना है ? या कि किसको जिताना  है? श्रोताओं या समर्थकों का समवेत तुमुलनाद सुनाई देगा -मोदी  . . . मोदी  . . . मोदी  . . . !  आम सभा यदि इंदिरापुरम - गाजियावाद में हो रही हो,मंडला में हो रही हो , या  मुजफ्फरनगर में हो रही हो तथा  वहाँ का भाजपा उम्मीदवार घुग्गु बना मंच के किसी  कोने में  भी नजर  आ जाए तो गनीमत। हरएक  आम सभा में गुजरात से आये २-४ दर्जन छद्म समर्थक  तथा  चापलूस-स्थानीय कार्यकर्ता- केवल मोदी-मोदी  का शोर मचाते रहे,हुल्लड़बाजी करते रहें  तो उस भाजपा  प्रत्यासी का भगवान् ही मालिक है। जब देश भर में इसी तरह से  घोर व्यक्तिवादी - बिकराल काली छाया का ही  आह्वान किया जाएगा तो आवाम को  लोकतंत्र की  प्राण  वायु कहाँ से मयस्सर होगी ?
             वेशक मोदी बनारस में अपने लिए  बोट  मांग सकते हैं , देश भर में भाजपा और एनडीए के लिए वोट मांग सकते हैं किन्तु अन्यत्र वे अपने लिए  -प्रधानमंत्री पद के लिए सीधे -सीधे वोट कैसे मांग सकते हैं ? उन्हें अपनी  पार्टी , स्थानीय केँडीडेट या एनडीए अलायंस को जिताने की यदि रंचमात्र परवाह नहीं तो वे  भारत के पी  . एम्  .  कैसे बन पाएंगे ? मोदी यदि संसदीय  प्रजातंत्र के आधारभूत कायदों और मूल्यों से वाकिफ नहीं हैं तो इस महान राष्ट्र का नेत्तव कैसे कर सकेंगे ? आम चुनाव  के पूर्व ही यदि  उन्हें अपने ,अलायंस -ऐनडीए  अपनी  पार्टी भाजपा ऒर वरिष्ठ नेताओं का मशविरा ही  गवारा नहीं तो  विवेकवान जन-गण  समझ सकते हैं कि नरेद्र मोदी की असलियत क्या है ? उनकी नेत्तव कारी भूमिका क्या हो सकती है ?
                                   इस तरह की आपाधापी और अलोकतांत्रिक हरकतों से \जाहिर है  कि   चुनाव के बाद भाजपा  की हालत फिर -२००४ जैसी हो जाए  तो कोई आश्चर्य नहीं ! फिर भी इन दिनों सर्वे-फर्वे का बड़ा शोर है कि  "सिंहासन  खाली करो कि मोदी आते हैं "। ढपोरशंखी , मिथ्यावादी,साम्प्रदायिकतावादी  ,पूँजीवादी  और पदलोलुप - भाजपा नेताओं  से तो यही उम्मीद है कि वे जनता के सवालों को दरकिनार कर केवल भजन-भंडारे और व्यक्तिपूजा में जुट जाएँ ! मोदी के नारों से और भीड़ में उछाले गए उनके सवालों से  'अधिनायकवाद' की बू आती है तो आती रहे। उनके ठेंगे से ! आम जनता के एक बड़े वर्ग का भेड़  चाल में चलना ,व्यक्तिपूजा में रम जाना भी न केवल  दासतापूर्ण बल्कि बेहद  असहनीय है।  खुद जनता के द्वारा  निरंकुश तानाशाही का इस तरह नग्न आह्वान नितांत निंदनीय है। यह देश को मुसीबत में धकेलने का उपक्रम साबित हो सकता है।
              भारतीय संसद में बहुमत दल के नेता को  या किसी   'गठबंधन'  याने अलायंस के सर्वमान्य नेता को भारत का राष्ट्रपति संवैधानिक शपथ दिलाकर सरकार बनाने का अधिकार देता है। वेशक  इस पद पर विराजित व्यक्ति न केवल भारत बल्कि  दुनिया  भर में  सबसे बड़े लोकतंत्र का प्रहरी माना  जाता है। १६ वीं लोक सभा के चुनाव आगामी अप्रेल-मई में सम्पन्न होने जा रहे हैं। इन चुनावों में जिस दल या गठबंधन को  संसद में २७२ सीटों का  समर्थन प्राप्त होगा  उसे  महामहिम राष्ट्रपति महोदय  केंद्र की सरकार बनाने का आमंत्रण देंगे। याने आम चुनावों से पहले ही ,नई  संसद के गठन से पहले ही किसी खास व्यक्ति या नेता  को प्रधानमन्त्री  प्रोजेक्ट करना एक शातिराना और अलोकतांत्रिक कार्यवाही है।  जिन दलों  -गठबंधनों ने  अपनी वैकल्पिक नीतियां और कार्यक्रम प्रस्तुत किये हैं वे लोकतंत्र के सही रहनुमा हैं। जबकि  संघ परिवार के लोग केवल "मोदी भजामिहम " में  व्यस्त हैं।  देश में दो तरह के कांग्रेस विरोधी हैं। एक -वे जो पैदायशी 'संघी' हैं। दूसरे -वे जो कांग्रेस  बनाम यूपीए के १०  वर्षीय कुशासन से,भृष्टाचार से ,मॅंहगाई  से तंग आकर या तो किसी अन्य वैकल्पिक पार्टी की ओर  खिचे चले जा रहे हैं या  'संघम शरणम गच्छामि" हो गए है। चिकने -चुपड़े फ़िल्मी चेहरों के बहाने ,दल बदलुओं के बहाने एन-केन प्रकरेण सत्ता हथियाने के भाजपाई हथकंडों से प्रभावित लोग  अब "हर-हर मोदी - घर -घर मोदी "तक बकने लगे  हैं।
                                                                 इन दिनों  प्रधानमंत्री पद के लिए  मीडिया के मार्फ़त -रोज-रोज नए-नए दावेदार सामने आ रहे हैं। संघ परिवार और भाजपा तो जनसंघ के जमाने से ही व्यक्तिवाद तथा  'अधिनायकवाद'  का समर्थक रहा है।  उसका -१९६० से सन १९९९ तक एक ही नारा लगता रहा है -"बारी -बारी सबकी बारी -अबकी बारी अटलबिहारी  "  २००४ में  भाजपा ने अवश्य आडवाणी जी को प्रोजेक्ट किया था ।  किन्तु वे  तत्कालीन लोह पुरुष होते हुए भी -फील गुड और इंडिया शाइनिंग  के चक्कर में भाजपा का पटिया उलाल कर -बड़े बेआबरू होकर अधोगति को प्राप्त हुए।  संघ के फुरसतियों ने अब नरेंद्र मोदी पर दाँव  लगाया गया है।चूँकि वे  अमीरों - अम्बानियों अडानियों  के दम पर ज़रा ज्यादा  ही हवा में उड़ रहे हैं। उनके घोर पूँजीवादी  निरंकुशतावादी तेवरों को समझते हुए तमाम जनवादी -प्रगतिशील लोग मोदी के  इस तरह के निर्मम "क्रोनी कैपिटलिज्म  " को  स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। 
                              भले ही इन दिनों विभिन्न सर्वे में मोदी को निरंतर जीत की ओर अग्र्सर  दिखाया जा रहा है।  आवारा पूँजी के मार्फ़त उन्हें इस तरह से प्रस्तुत किया जा रहा है माँनों प्रधानमन्त्री का चुनाव  सीधे - सीधे अब जनता  ही करने जा रही  है ।  मोदी समर्थक तो  बिना चुनाव जीते ही इतने  फूले-फूले  इतरा रहे हैं।  यदि दुर्भाग्य से भाजपा और एनडीए को २७२ सीटें मिल  भी गईं तो  चुनाव जीतने के बाद  देश का क्या होगा कालिया ?  मानलो चुनाव में भाजपा ,एनडीए को २७२  सीटें मिल भी जाती  हैं और वे प्रधानमंत्री बन  भी  जाते हैं तो  भी इस देश  की जनता के सहयोग के बिना  वे कुछ भी नहीं कर पाएंगे।  मानलो कि कांग्रेस को ,यूपीए को,तीसरे -चौथे मोर्चे को  या  वाम मोर्चे को उतना जनादेश नहीं मिल पाता कि केंद्र में एक लोकतांत्रिक सरकार बना सकें  तो भी   समूचे धर्मनिपेक्ष भारत के सामने मोदी को झुकना ही होगा।  वरना जनता को हमेशा अवसर की प्रतीक्षा  ही रहेगी कि इस मोदी गुब्बारे की हवा कब  कैसे निकाली जाए ?
              वेशक नरेंद्र  मोदी आज न केवल भाजपा बल्कि एनडीए का भी 'चेहरा'हैं। लोक सभा चुनाव के  दरम्यान  उन्हें प्रधानमंत्री  पद पर चने जाने  का  नहीं अपितु एनडीए को जिताने का और स्वयं को सांसद चुने जाने का जनता से अनुरोध  करने का पूरा हक है।  प्रधानमंत्री जैसे सर्वाधिक संवैधानिक एवं  कार्यकारी उत्तरदायित्व पूर्ण पद पर प्रतिष्ठित होने  की मोदी की अभी तक की राजनैतिक यात्रा और वांछित  योग्यता संदिग्ध है.यह भी अकाट्य सत्य है कि सोनिया गांधी  , शरद पंवार  , चिदम्बरम  डॉ मनमोहनसिंह , सुषमा स्वराज  ,मोदी ,मुलायम ,नीतीश ,जयललिता ,आडवाणी   -ये सभी  केवल विवादस्पद व्यक्तियों के नाम ही तो  हैं । जबकि कांग्रेस,भाजपा ,माकपा ,भाकपा ,सपा ,वसपा ,शिवसेना ,अकाली ,जदयू ,राजद ,डीएमके ,एआईडीएमके  -विचारधाराओं के प्रतीक हैं।  इन सभी के अपने-अपने अच्छे-बुरे कार्यक्रम  और नीतियाँ  सम्भव हैं। इनके अधिकांस नेता  मोदी से बेहतर तो हैं ही वे लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष भी हैं । किन्तु  देश का दुर्भाग्य  है कि आजादी के ६७ साल बाद भी देश की अवाम को लोकतंत्र की नहीं बल्कि 'अधिनायकवाद' की दरकार है।  खासतौर  से तथाकथित पढ़े लिखे युवाओं को नहीं मालूम कि लोकतंत्र  का आधार नेता नहीं नीतियां और कार्यक्रम हुआ  करते हैं। मोदी यदि प्रधानमंत्री बन भी जाए तो भी  वे इस  विशाल देश का विकाश तो क्या  इस भृष्ट व्यवस्था की चूल भी नहीं हिला सकेंगे। वे लोकतंत्र को अक्षुण रख सकेंगे इसमें  भी संदेह है। सारे देश को  गुजरात बना देंगे यह आश्वाशन भी केवल चुनावी लालीपाप है। गुजरात का विकाश  यदि कुछ हुआ भी है तो वह सारे गुजरातियों की मेहनत  का ,उसकी ऐतिहासिक एवं भौगोलिक अवस्था का परिणाम है। कांग्रेस के और जनता के अतीत के  जन -संघर्षों का  भी परिणाम है , केवल मोदी -मोदी  चिल्लाने से गुजरात  का  भला नहीं हुआ और न ही भारत का भला  होगा। लोकतंत्र -समाजवाद -धर्मनिरपेक्षता  और जन-क्रांति ही भारत की अभीष्ट अभिलाषा  है। मोदी और संघ परिवार इसमें फिट नहीं हैं।

                         श्रीराम तिवारी