सम्पादकीय -फॉलो अप -मार्च -२०१४
भारत की सोलहवीं लोक सभा के लिए आसन्न चुनावी जंग का बिगुल बज चूका है। चुनाव आयोग, सत्ता रूढ़ यूपीऐ गठबंधन ,प्रमुख विपक्षी एनडीए गठबंधन,थर्ड फ्रंट,लेफ्ट फ्रंट समेत तमाम राजनैतिक पार्टियां, मीडिया ,पूंजीपति और सत्ता के दलाल सभी अपने -अपने काम पर लग गए हैं। इन सभी पक्षों के आपसी वाद- संवाद और तुमुलनाद से आवाम याने जनता याने मतदाता किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो रहा है। देश की आजादी के बाद से हीअभी तक तो लगातार यही परिलक्षित हो रहा है कि अधिकांश शिक्षित और अशिक्षित जनता खुद ही दिग्भ्रमित है।सम्भवतः उसकी सोच है कि देश को चलाना और उसके भविष्य का निर्धारण करना उसका काम नहीं। यह काम केवल राजनीतिक नेताओं का है।
देश में बहुत सारे ऐसे नर-नारी भी हैं जो सोचते हैं 'कोउ होय नृप हमें का हानि"।कुछ तो ऐंसे भी हैं जो सोचते हैं "होहि है सोई जो राम रचि राखा '' कि हमारे -तुम्हारे करने से कुछ होने वाला नहीं। जो चल रहा है वही प्रभु' की मर्जी है । इसके बरक्स सिस्टम पर काबिज घोर स्वार्थियों -लालचियों के अलग-अलग समूह बड़ी चालाकी से - कभी यूपीए के नाम से ,कभी एनडीए के नाम से और कभी तीसरे मोर्चे के नाम से देश पर शासन करते रहे हैं। इस वर्ग ने अपने निहित स्वार्थ , अपने वर्गीय स्वार्थ और अपने -अपने परिवार स्वार्थ सिद्धि करते हुए अपनी व्यवस्था के सभी क्षेत्रों में अपनी नाकामियों ,अपने नैतिक कदाचरण , अपने आर्थिक घोटालों के झंडे गाड़े हैं। ये शासक लोग व्यवस्था जन्य भृष्टाचार तथा राष्ट्रीय स्तर पर अनुत्तरित अनेक ज्वलंत यक्ष- प्रश्नों की जिम्मेदारी देश की अवाम पर थोपते आ रहे हैं। देश की जनता भी खुद ही जाने-अनजाने , प्रजातंत्र रुपी आम्रवृक्ष को काटने में सत्ता की कुल्हाड़ी का बेंट बन ती चली जा रही है। भारतीय प्रजातंत्र के महान और विराट वृक्ष को अतीत में भी हजारों बार विदेशियों ने भी जी भर कर लूटा खरोचा था। हमें फिर भी गुमान है कि :-
"कुछ बात है ऐंसी कि हस्ती मिटती नहीं हमारी , सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा "
अब भारत के नौनिहाल शासक भी , उसके अपने वतनपरस्त भी , उसी लूटखोरी के काम में जुटे हुए हैं। हर पांच साल बाद लोक सभा चुनाव ,विधान सभा चुनाव याने आम चुनाव में दिग्भ्रमित जनता भी बारी-बारी से उन्ही को चुनती चली आ रही है जो भारतीय प्रजातंत्र के इस दरख्त की कोंपलों को नोंचते रहते हैं। फर्क सिर्फ इतना हर है कि जब कांग्रेस ज्यादा बदनाम हो जाती है तो ऐंटी इन्कम्बेंसी फेक्टर का लाभ उठाकर कहीं -कभी भाजपा, कहीं वसपा , कहीं सपा , कहीं बीजद ,कहीं जदयू , कहीं राजद और अन्य राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल प्रजातंत्र रुपी आम्रकुंज को उजाड़ने का अवसर पा जाते हैं. आइंदा आगामी पांच वर्ष के लिए राष्ट्र वृक्ष को कुतरने का यह सौभाग्य अब किसे मिलेगा यही देश के वर्तमान विमर्श का प्रश्न है ? इस हेतु आजकल असली -नकली प्रायोजित -विभिन्न मीडिया सर्वे भी बदनाम हो रहे हैं। जो" पी एम् इन वैटिंग" में हैं या उम्मीद से हैं या अभी विपक्ष में हैं वे जन मानस को अपने पक्ष में लाने की हर सम्भव कोशिश में जी जान से लगे हैं। अभी तक उन्होंने २७६ से ज्यादा विशाल आम सभाएं कर डाली हैं। याने जितने सांसद उन्हें प्रधानमंत्री बनाएंगे उतनी सभायें तो अब तक मोदी जी ने कर ही डाली हैं। यह सवाल पूंछ जा सकता है कि यदि एक रैली में कम से कम एक करोड़ भी खर्च हुआ तो ये २७६ करोड़ मोदी को किसने दिए ?क्यों दिए ?क्या केजरीवाल का आरोप सच है कि मोदी और राहुल तो अम्बानी की जेब में हैं।
मोदी जैसे अर्धशिक्षित लोग भी चाय चोपाल से लेकर ,राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय सवालों पर विशेषज्ञता बघार रहे हैं। वे अपने गठबंधन में उन सभी छोटे-बड़े क्षेत्रीय दलों को लुभाने में भी जुटे हैं जो उन्हें २७६ सांसदों का आंकड़ा पार करने के लिए जरूरी हैं. उनके लिए अब नीतीश न सही तो पासवान भी चलेगा ! उनको ससम्मान वापिस बुला रहे हैं जो २००२ में अटलजी के[एनडीए] राज में साम्प्रदायिकता के नाम पर इन्ही नरेंद्र मोदी की भूरि-भूरि निंदा करते हुए यूपीए के चरणांनुगामी हो गए थे।जो मोदी विरोध के नाम पर ,मंत्री पद को भी ठोकर मारकर चले गए थे। वे पासवान ,वे येदुरप्पा अब पाक साफ़ होकर एनडीए की मांद में डुबकी लगा रहे हैं। दलित नेता रामराज उर्फ़ उदितराज जो कभी संघ परिवार को मनुवादी और भाजपा को सवर्ण पार्टी के रूप में देखा करते थे ,जो अम्बेडकरवादी और गोलवलकर वादी कभी एक- दूसरे को फूटी आँखों देखना भी पसंद नहीं करते थे वे अब एक मच पर एक साथ गलबहियाँ डाले खीसें निपोर रहे हैं।जय हो ! जो कभी कहा करते थे "बुद्धम शरणम गच्छामि" वे अब न केवल सत्ता शरणम गच्छामी बल्कि संघम शरणम गच्छामि हो रहे हैं।
सत्ता की की चाह में तीसरा मोर्चा भी दम मारने लगा है। गैर कांग्रेस और गैर भाजपा की विचारधारा वाले छोटे-बड़े १३ दलों को एकजुट कर वामपंथ ने भाजपा की राह में जबरदस्त कांटे बो दिए हैं। थर्ड फ्रंट अब अपने आपको फर्स्ट फ्रंट का नाम देने जा रहा है। भाजपा नीत एंडीऎ और वाम नीत शेष विपक्ष की राह में 'आप' भी प्रकट हो गए हैं। इन सभी ने राजनैतिक ध्रवीकरण की प्रक्रिया तेज कर दी है। यह गठबंधन की मजबूरी है या सत्ता लोलुपता की सामूहिक लाचारी या व्यवस्था परिवर्तन की क्रांतिकारी आकांक्षा यह तो भविष्य ही बता सकेगा ! किन्तु यह परम सत्य है कि वामपंथ को छोड़कर शेष सभी दलों की आर्थिक नीतियाँ वही हैं जो डॉ मनमोहनसिंह की हैं ,जो विश्व बेंक की हैं ,जो देशी -विदेशी पूंजीपतियों के हितों की रक्षा के लिए कायम की गई हैं।
कांग्रेस के नेत्तव में यूपीए गठबंधन याने वर्तमान सत्ता पक्ष भी चुनाव आचार संहिता लागू होने से पहले हड़बड़ी में जनता के गुस्से को शांत करने में जुट गया हैं। राहुल गांधी के मार्फ़त भृष्टाचार - उन्मूलन, लोकपाल और अन्य कई आकर्षक अध्यादेशों की बानगी ,कर्मचारियों के लिए सातवां वेतन आयोग , १००% मंहंगाई भत्ता भुगतान ,पेंसन सुरक्षा विधेयक ,किसानों को फसल बीमा योजना , मनरेगा में सुधार, गाँव -गाँव में पेयजल ,आदिवासियों को जमीन के पट्टे, ग्रामीण स्वास्थ् योजनाओं में सुधार और विस्तार तथा वित्तमंत्री पी चिदम्बरम द्वारा पेश अंतरिम बजट में कई लोक लुभावन योजनाओं का पिटारा खोलकर देश की नाराज जनता का रुझान पुनः अपने पक्ष में करने का जोरदार अभियान चलाया जा रहा है। राहुल गांधी विश्वविद्द्यालय के छात्रों से लेकर देश के ऑटो रिक्सा वालों से भी बतया रहे हैं।
चूँकि विगत विधान सभा चुनावों में कांग्रेस को ५ में से केवल दो छोटे राज्यों - मणिपुर और छ्ग में ही संतोषजनक जनादेश मिल सका था। हालांकि छ्ग में कांग्रेस की सरकार नहीं बन सकी किन्तु पहले से जनाधार तो अवश्य ही बढ़ा है और यह आगामी लोक सभा चुनाव के लिए उत्साहवर्धक था। कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकारों का ख्याल था कि राजस्थान ,मध्यप्रदेश और गुजरात में तो वैसे भी विगत १५ सालों से कांग्रेस की सांसद संख्या निरंतर भाजपा से कम ही रही है, इसके बावजूद केंद्र में सरकार तो कांग्रेस नीत यूपीए गठबंधन की बनती रही है। इसके तीन प्रमुख कारण हैं। पहला कारण - प्रमुख विपक्षी दल भाजपा पर साम्प्रदायिकता का ठप्पा ,दूसराकारण -आर्थिक नीतियां वही जो डॉ मनमोहनसिंह की याने कांग्रेस की याने यूपीए की। तीसरा सबसे बड़ा कारण - दक्षिण भारत के अधिकांस राज्यों से ,पूर्वी भारत के कई राज्यों से उसकी संसद में दयनीय स्थति। इसके बरक्स कांग्रेस के लिए यह सबसे बड़ा धनात्मक बिंदु यह रहा है कि जब जब उसे उत्तर भारत में चुनावी शिकस्त मिली तब -तब दक्षिण भारत ने ही उसे उबारा है। किन्तु पृथक तेलांगना राज्य निर्माण उपरान्त कांग्रेस को अब शेष सीमांध्र में बेहद मुश्किल और जटिल जनाक्रोश का सामना करना पड़ रहा है ।
मनमोहन सरकार द्वारा अलग तेलांगना राज्य की मांग स्वीकार किये जाने के बाद रायल सीमा और आंध्र में तेलांगना विरोधी आंदोलन इतना उग्र हो चूका है कि कांग्रेस का नाम लेने वाला वहाँ अब सुरक्षित नहीं है। मुख्यमंत्री किरणकुमार रेड्डी समेत पूरा मंत्रिमण्डल ही कांग्रेस छोड़ चूका है तो बाकी इक्के-दुक्के का तो अल्ला ही मालिक है। कांग्रेस ने तेलांगना पृथक राज्य गठन विषयक विधेयक संसद मे जिस ढंग से प्रस्तुत किया वह घोर अलोकतांत्रिक था। केवल तेलगु देशम ही नहीं बल्कि खुद कांग्रेसी सांसदों और मंत्रियों ने भी मिर्ची काण्ड कर डाला। अलोकतांत्रिक हिंसक हंगामा खड़ा किया गया क्यों ? क्या यह कांग्रेस को रायल -सीमांध्र से बाहर का रास्ता दिखाने का जीवंत प्रमाण नहीं है ? भले ही टीआरएस और उसके अनुयायी पृथक तेलंगना में कांग्रेस का ,सोनिया गांधी का गुणगान करते रहें, उनके मंदिर बनाते रहें ,उनकी मूर्तियां बनाकर उन्हें भगवान् बनाकर पूजने लगें किन्तु छोटे राज्य रूपी बर्र के छत्ते में हाथ डालकर कांग्रेस ने राहुल गांधी की सम्भावनाएं कम कर दी हैं। न केवल सीमांध्र में बल्कि उन तमाम क्षेत्रों में शून्य कर दी है जहां छोट-राज्यों की मांग वर्षों से की जा रही है। असम में बोडोलैंड व कर्वी आंगलांग ,पश्चिम बंगाल में गोरखालेंड ,महराष्ट्र में विदर्भ ,यूपी एवं एमपी में बुंदेलखंड और पश्चिमी यूपी में हरित प्रदेश की आकांक्षा पूरी नहीं होने के लिए कांग्रेस को खामियाजा भुगतना पडेगा। हालांकि छोटे राज्यों का निर्माण न केवल देश के संसाधनों की बर्बादी है , न केवल शासक वगों के संख्या में बृद्धि का कारक है ,न केवल अफसरशाही में बृद्धि अपितु भृष्ट शासकों की नयी पौध को पैदा करने का उपक्रम भी है। दरशल छोटे राज्यों की स्थापना की मांग और फिर ततसम्बन्धी आंदोलन न केवल सत्ता प्राप्ति का एक घटिया राजनैतिक साधन है अपितु मजबूत भारत के खिलाफ भी है।
भारत की सोलहवीं लोक सभा के लिए आसन्न चुनावी जंग का बिगुल बज चूका है। चुनाव आयोग, सत्ता रूढ़ यूपीऐ गठबंधन ,प्रमुख विपक्षी एनडीए गठबंधन,थर्ड फ्रंट,लेफ्ट फ्रंट समेत तमाम राजनैतिक पार्टियां, मीडिया ,पूंजीपति और सत्ता के दलाल सभी अपने -अपने काम पर लग गए हैं। इन सभी पक्षों के आपसी वाद- संवाद और तुमुलनाद से आवाम याने जनता याने मतदाता किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो रहा है। देश की आजादी के बाद से हीअभी तक तो लगातार यही परिलक्षित हो रहा है कि अधिकांश शिक्षित और अशिक्षित जनता खुद ही दिग्भ्रमित है।सम्भवतः उसकी सोच है कि देश को चलाना और उसके भविष्य का निर्धारण करना उसका काम नहीं। यह काम केवल राजनीतिक नेताओं का है।
देश में बहुत सारे ऐसे नर-नारी भी हैं जो सोचते हैं 'कोउ होय नृप हमें का हानि"।कुछ तो ऐंसे भी हैं जो सोचते हैं "होहि है सोई जो राम रचि राखा '' कि हमारे -तुम्हारे करने से कुछ होने वाला नहीं। जो चल रहा है वही प्रभु' की मर्जी है । इसके बरक्स सिस्टम पर काबिज घोर स्वार्थियों -लालचियों के अलग-अलग समूह बड़ी चालाकी से - कभी यूपीए के नाम से ,कभी एनडीए के नाम से और कभी तीसरे मोर्चे के नाम से देश पर शासन करते रहे हैं। इस वर्ग ने अपने निहित स्वार्थ , अपने वर्गीय स्वार्थ और अपने -अपने परिवार स्वार्थ सिद्धि करते हुए अपनी व्यवस्था के सभी क्षेत्रों में अपनी नाकामियों ,अपने नैतिक कदाचरण , अपने आर्थिक घोटालों के झंडे गाड़े हैं। ये शासक लोग व्यवस्था जन्य भृष्टाचार तथा राष्ट्रीय स्तर पर अनुत्तरित अनेक ज्वलंत यक्ष- प्रश्नों की जिम्मेदारी देश की अवाम पर थोपते आ रहे हैं। देश की जनता भी खुद ही जाने-अनजाने , प्रजातंत्र रुपी आम्रवृक्ष को काटने में सत्ता की कुल्हाड़ी का बेंट बन ती चली जा रही है। भारतीय प्रजातंत्र के महान और विराट वृक्ष को अतीत में भी हजारों बार विदेशियों ने भी जी भर कर लूटा खरोचा था। हमें फिर भी गुमान है कि :-
"कुछ बात है ऐंसी कि हस्ती मिटती नहीं हमारी , सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा "
अब भारत के नौनिहाल शासक भी , उसके अपने वतनपरस्त भी , उसी लूटखोरी के काम में जुटे हुए हैं। हर पांच साल बाद लोक सभा चुनाव ,विधान सभा चुनाव याने आम चुनाव में दिग्भ्रमित जनता भी बारी-बारी से उन्ही को चुनती चली आ रही है जो भारतीय प्रजातंत्र के इस दरख्त की कोंपलों को नोंचते रहते हैं। फर्क सिर्फ इतना हर है कि जब कांग्रेस ज्यादा बदनाम हो जाती है तो ऐंटी इन्कम्बेंसी फेक्टर का लाभ उठाकर कहीं -कभी भाजपा, कहीं वसपा , कहीं सपा , कहीं बीजद ,कहीं जदयू , कहीं राजद और अन्य राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल प्रजातंत्र रुपी आम्रकुंज को उजाड़ने का अवसर पा जाते हैं. आइंदा आगामी पांच वर्ष के लिए राष्ट्र वृक्ष को कुतरने का यह सौभाग्य अब किसे मिलेगा यही देश के वर्तमान विमर्श का प्रश्न है ? इस हेतु आजकल असली -नकली प्रायोजित -विभिन्न मीडिया सर्वे भी बदनाम हो रहे हैं। जो" पी एम् इन वैटिंग" में हैं या उम्मीद से हैं या अभी विपक्ष में हैं वे जन मानस को अपने पक्ष में लाने की हर सम्भव कोशिश में जी जान से लगे हैं। अभी तक उन्होंने २७६ से ज्यादा विशाल आम सभाएं कर डाली हैं। याने जितने सांसद उन्हें प्रधानमंत्री बनाएंगे उतनी सभायें तो अब तक मोदी जी ने कर ही डाली हैं। यह सवाल पूंछ जा सकता है कि यदि एक रैली में कम से कम एक करोड़ भी खर्च हुआ तो ये २७६ करोड़ मोदी को किसने दिए ?क्यों दिए ?क्या केजरीवाल का आरोप सच है कि मोदी और राहुल तो अम्बानी की जेब में हैं।
मोदी जैसे अर्धशिक्षित लोग भी चाय चोपाल से लेकर ,राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय सवालों पर विशेषज्ञता बघार रहे हैं। वे अपने गठबंधन में उन सभी छोटे-बड़े क्षेत्रीय दलों को लुभाने में भी जुटे हैं जो उन्हें २७६ सांसदों का आंकड़ा पार करने के लिए जरूरी हैं. उनके लिए अब नीतीश न सही तो पासवान भी चलेगा ! उनको ससम्मान वापिस बुला रहे हैं जो २००२ में अटलजी के[एनडीए] राज में साम्प्रदायिकता के नाम पर इन्ही नरेंद्र मोदी की भूरि-भूरि निंदा करते हुए यूपीए के चरणांनुगामी हो गए थे।जो मोदी विरोध के नाम पर ,मंत्री पद को भी ठोकर मारकर चले गए थे। वे पासवान ,वे येदुरप्पा अब पाक साफ़ होकर एनडीए की मांद में डुबकी लगा रहे हैं। दलित नेता रामराज उर्फ़ उदितराज जो कभी संघ परिवार को मनुवादी और भाजपा को सवर्ण पार्टी के रूप में देखा करते थे ,जो अम्बेडकरवादी और गोलवलकर वादी कभी एक- दूसरे को फूटी आँखों देखना भी पसंद नहीं करते थे वे अब एक मच पर एक साथ गलबहियाँ डाले खीसें निपोर रहे हैं।जय हो ! जो कभी कहा करते थे "बुद्धम शरणम गच्छामि" वे अब न केवल सत्ता शरणम गच्छामी बल्कि संघम शरणम गच्छामि हो रहे हैं।
सत्ता की की चाह में तीसरा मोर्चा भी दम मारने लगा है। गैर कांग्रेस और गैर भाजपा की विचारधारा वाले छोटे-बड़े १३ दलों को एकजुट कर वामपंथ ने भाजपा की राह में जबरदस्त कांटे बो दिए हैं। थर्ड फ्रंट अब अपने आपको फर्स्ट फ्रंट का नाम देने जा रहा है। भाजपा नीत एंडीऎ और वाम नीत शेष विपक्ष की राह में 'आप' भी प्रकट हो गए हैं। इन सभी ने राजनैतिक ध्रवीकरण की प्रक्रिया तेज कर दी है। यह गठबंधन की मजबूरी है या सत्ता लोलुपता की सामूहिक लाचारी या व्यवस्था परिवर्तन की क्रांतिकारी आकांक्षा यह तो भविष्य ही बता सकेगा ! किन्तु यह परम सत्य है कि वामपंथ को छोड़कर शेष सभी दलों की आर्थिक नीतियाँ वही हैं जो डॉ मनमोहनसिंह की हैं ,जो विश्व बेंक की हैं ,जो देशी -विदेशी पूंजीपतियों के हितों की रक्षा के लिए कायम की गई हैं।
कांग्रेस के नेत्तव में यूपीए गठबंधन याने वर्तमान सत्ता पक्ष भी चुनाव आचार संहिता लागू होने से पहले हड़बड़ी में जनता के गुस्से को शांत करने में जुट गया हैं। राहुल गांधी के मार्फ़त भृष्टाचार - उन्मूलन, लोकपाल और अन्य कई आकर्षक अध्यादेशों की बानगी ,कर्मचारियों के लिए सातवां वेतन आयोग , १००% मंहंगाई भत्ता भुगतान ,पेंसन सुरक्षा विधेयक ,किसानों को फसल बीमा योजना , मनरेगा में सुधार, गाँव -गाँव में पेयजल ,आदिवासियों को जमीन के पट्टे, ग्रामीण स्वास्थ् योजनाओं में सुधार और विस्तार तथा वित्तमंत्री पी चिदम्बरम द्वारा पेश अंतरिम बजट में कई लोक लुभावन योजनाओं का पिटारा खोलकर देश की नाराज जनता का रुझान पुनः अपने पक्ष में करने का जोरदार अभियान चलाया जा रहा है। राहुल गांधी विश्वविद्द्यालय के छात्रों से लेकर देश के ऑटो रिक्सा वालों से भी बतया रहे हैं।
चूँकि विगत विधान सभा चुनावों में कांग्रेस को ५ में से केवल दो छोटे राज्यों - मणिपुर और छ्ग में ही संतोषजनक जनादेश मिल सका था। हालांकि छ्ग में कांग्रेस की सरकार नहीं बन सकी किन्तु पहले से जनाधार तो अवश्य ही बढ़ा है और यह आगामी लोक सभा चुनाव के लिए उत्साहवर्धक था। कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकारों का ख्याल था कि राजस्थान ,मध्यप्रदेश और गुजरात में तो वैसे भी विगत १५ सालों से कांग्रेस की सांसद संख्या निरंतर भाजपा से कम ही रही है, इसके बावजूद केंद्र में सरकार तो कांग्रेस नीत यूपीए गठबंधन की बनती रही है। इसके तीन प्रमुख कारण हैं। पहला कारण - प्रमुख विपक्षी दल भाजपा पर साम्प्रदायिकता का ठप्पा ,दूसराकारण -आर्थिक नीतियां वही जो डॉ मनमोहनसिंह की याने कांग्रेस की याने यूपीए की। तीसरा सबसे बड़ा कारण - दक्षिण भारत के अधिकांस राज्यों से ,पूर्वी भारत के कई राज्यों से उसकी संसद में दयनीय स्थति। इसके बरक्स कांग्रेस के लिए यह सबसे बड़ा धनात्मक बिंदु यह रहा है कि जब जब उसे उत्तर भारत में चुनावी शिकस्त मिली तब -तब दक्षिण भारत ने ही उसे उबारा है। किन्तु पृथक तेलांगना राज्य निर्माण उपरान्त कांग्रेस को अब शेष सीमांध्र में बेहद मुश्किल और जटिल जनाक्रोश का सामना करना पड़ रहा है ।
मनमोहन सरकार द्वारा अलग तेलांगना राज्य की मांग स्वीकार किये जाने के बाद रायल सीमा और आंध्र में तेलांगना विरोधी आंदोलन इतना उग्र हो चूका है कि कांग्रेस का नाम लेने वाला वहाँ अब सुरक्षित नहीं है। मुख्यमंत्री किरणकुमार रेड्डी समेत पूरा मंत्रिमण्डल ही कांग्रेस छोड़ चूका है तो बाकी इक्के-दुक्के का तो अल्ला ही मालिक है। कांग्रेस ने तेलांगना पृथक राज्य गठन विषयक विधेयक संसद मे जिस ढंग से प्रस्तुत किया वह घोर अलोकतांत्रिक था। केवल तेलगु देशम ही नहीं बल्कि खुद कांग्रेसी सांसदों और मंत्रियों ने भी मिर्ची काण्ड कर डाला। अलोकतांत्रिक हिंसक हंगामा खड़ा किया गया क्यों ? क्या यह कांग्रेस को रायल -सीमांध्र से बाहर का रास्ता दिखाने का जीवंत प्रमाण नहीं है ? भले ही टीआरएस और उसके अनुयायी पृथक तेलंगना में कांग्रेस का ,सोनिया गांधी का गुणगान करते रहें, उनके मंदिर बनाते रहें ,उनकी मूर्तियां बनाकर उन्हें भगवान् बनाकर पूजने लगें किन्तु छोटे राज्य रूपी बर्र के छत्ते में हाथ डालकर कांग्रेस ने राहुल गांधी की सम्भावनाएं कम कर दी हैं। न केवल सीमांध्र में बल्कि उन तमाम क्षेत्रों में शून्य कर दी है जहां छोट-राज्यों की मांग वर्षों से की जा रही है। असम में बोडोलैंड व कर्वी आंगलांग ,पश्चिम बंगाल में गोरखालेंड ,महराष्ट्र में विदर्भ ,यूपी एवं एमपी में बुंदेलखंड और पश्चिमी यूपी में हरित प्रदेश की आकांक्षा पूरी नहीं होने के लिए कांग्रेस को खामियाजा भुगतना पडेगा। हालांकि छोटे राज्यों का निर्माण न केवल देश के संसाधनों की बर्बादी है , न केवल शासक वगों के संख्या में बृद्धि का कारक है ,न केवल अफसरशाही में बृद्धि अपितु भृष्ट शासकों की नयी पौध को पैदा करने का उपक्रम भी है। दरशल छोटे राज्यों की स्थापना की मांग और फिर ततसम्बन्धी आंदोलन न केवल सत्ता प्राप्ति का एक घटिया राजनैतिक साधन है अपितु मजबूत भारत के खिलाफ भी है।
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