शुक्रवार, 28 मार्च 2014

भारत में यदि लोकशाही खतरे में है तो इसके लिए डॉ मनमोहनसिंह जिम्मेदार है !



    निसंदेह 'संघ परिवार' ,भाजपा ,स्वामी रामदेव और 'नरेंद्र मोदी की विचारधारा लोकतंत्र के बरक्स  'फासिज्म' की ओर ले जाती है।इस विचारधारा के नेता,उनके वित्तपोषक- कार्पोरेट संरक्षक लोकतांत्रिक बाध्यताओं के चलते   ऐन  चुनाव के दौरान ही नहीं अपितु हर समय - भारत के  अर्धशिक्षित एवं अविकसित मानसिकता  के जनगण को बरगलाने की कोशिश करते रहते  हैं । कुछ पढ़े-लिखे और सुशिक्षित जनगण भी किसी खास नेता ,महाबली,अवतार या पैगम्बर की आराधना में लीन  हो जाते हैं। वे  मानसिक रूप से सिर्फ  भृष्ट नेताओं या स्वामियों तक ही सीमित नहीं रहते, वे आसाराम ,निर्मल बाबा और उनके जैसे अधिकांस बदमाशों के चंगुल में भी हरदम फंसने को उतावले रहते हैं ।  जैसे कि अभी इन दिनों  ज्यादातर  मीडिया वाले और पैसे वाले  मोदी के तथाकथित  सुशासन ,विकाश, निर्बाध आर्थिक- उदारीकरण,बहुलतावाद  तथा अंध राष्ट्रवाद  के मुरीद हैं। कुछ ' सफेदपोश'तो  मोदी द्वारा परोसे गए आवाम के आम  सरोकारों का लालीपाप लपकने की कोशिश  में ही   फुदक  रहे  हैं।
                      उनका यह बहुदुष्प्रचारित एजेंडा  सभ्रांत वर्ग  के साथ -साथ   यूपीए और कांग्रेस  से नाराज लोगों को  भी खूब लुभा रहा है।  इन्ही कारणों से वर्तमान केंद्र सरकार  के खिलाफ  चल रही  एंटी इन्कम्बेंसी लहर को  मीडिया के मार्फ़त  'नमो लहर' बताया जा रहा है। हर प्रकार के प्रायोजित सर्वे में  तथा बहस मुसाहिबों में "हर-हर मोदी  - घर-घर मोदी "अव्वल बताये जा रहे हैं। हालाँकि  जो असल तस्वीर है वो अभी भी धुंधली है। आइंदा  राजनीति  का ऊंट किस करवट बैठेगा यह आंकना  अभी तो बड़ा मुश्किल काम है । यह  राजनैतिक तस्वीर  -  सुशासन ,विकाश , बहुलतावाद,राष्ट्रवाद  और सर्वजन सरोकारों का केनवास -लोक लुभावन नारों के रंगों से तैयार  किया गया है।यह  केवल एलीट क्लास  को  ही लुभा  पा रहा है। इस प्रायोजित  तस्वीर का रंग न केवल बदरंग है बल्कि नित्य परिवर्तनशील भी है। हालाँकि  इस तस्वीर में यूपीए, एनडीए या 'आप' के  अलावा भी बहुत कुछ  रचे जाने की गुंजायश है । अधिसंख्य क्षेत्रीय  दलों समेत तीसरे मोर्चे बनाम 'फर्स्ट फ्रंट ' एवं  तीन-चौथाई  भारत  की  राजनीतिक ताकत को अनदेखा कर मीडिया के माध्यम से केवल  मोदी ,राहुल तथा नवेले   नेता  -केजरीवाल को ही महिमा मंडित  किया जा रहा है।   इन्ही की आपस में व्यक्तिवादी तुलना भी की जा रही है? भारत के स्थाई शासक वर्ग  ने  यूपीए की लुटिया डूबते देख - यह वैकल्पिक  तस्वीर  याने छवि  केवल अपने क्षणिक 'नयन सुख'  के लिए नहीं अपितु सर्वशक्तिमान शाश्वत  सत्ता सुख के वास्ते निर्मित की है। इस बदरंग और अधूरी तस्वीर में  भविष्य के संकट का ऐंसा बहुत कुछ है जिसे छिपाया जा रहा है।  देश के कर्णधारों को   फासिज्म ' की  यह अनदेखी बहुत  महँगी  साबित हो सकती है।
                  कुछ चिंतकों और प्रगतिशील विचारकों को  यह  गलत फहमी है कि भाजपा की जरुरत ,आरएसएस के सरोकार , मोदी की आकांक्षा  और यूपीए की बदनामी के कारण ही  वर्तमान  दौर का विमर्श व्यक्ति केंद्रित हो गया है। शायद अनायास ही देश के कर्णधारों  ने नीतियां  , कार्यक्रम  एवं राष्ट्रीय  चुनौतियों  के विमर्श को हासिये पर धकेल दिया गया हो. यह सच है कि संघ परिवार हमेशा अपने एजेंडे-एक्चालुकनुवर्तित्व  का मुरीद रहा है, किन्तु इतिहास के पन्नो पर बिखरे सबूतों ने सावित कर दिया है कि  इसका तात्पर्य व्यक्ति नहीं बल्कि विचारधारा ही   है। अब यदि इन दिनों  भारत में 'राग मोदी' की धूम है तो इससे देश की सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला। वैसे भी  इसमें  सारा  कसूर मोदी या संघ परिवार का ही  नहीं माना जा सकता। मान लो   यदि यूपीए -प्रथम की तरह ही यूपीए -२  को  भी  वामपंथ का समर्थन होता और कुछ 'जनकल्याणकारी काम हुए होते तो कांग्रेस  और यूपीए की नैया  इस तरह भवर में हिचकोले नहीं खाती।  इसके अलावा "नमो नाम केवलम' के लिए   देश की आवाम का एक बहुत बड़ा वर्ग भी  जिम्मेदार है। जो हंसी-मजाक में अभी "नमो-नमो' या "हर-हर मोदी -घर-घर मोदी " का जाप करने में मशगूल है।  वो  नहीं जानता कि देशी-विदेशी आवारा पूँजी ने सारे विमर्श को जान बूझकर  'नमो' केंद्रित कर रखा है। जो कि  पूँजीवाद  और फासिज्म दोनों  का उपासक है.                            वर्तमान प्रधान मंत्री डॉ मनमोहनसिंह  की नीतियां  भी इसी पूँजीपति   वर्ग के  हितों की ही पोषक रही  हैं । चूँकि  वे साम्प्रदायिकता, निर्बाध पूँजीवाद  और 'निरंकुश' शासन के पक्षधर नहीं रहे इसलिए  वे न केवल मोदी से बल्कि एनडीए की अटल सरकार से   भी बेहतर माने जांयेंगे । क्योंकि उनके नेत्तव में  न तो सरकार  फील गुड में है और न ही कांग्रेस।  अब यदि वे १० साल बाद पदमुक्त हो रहे हैं और कांग्रेस भी कुछ सालों   के लिय  यदि सत्ता सुख से वंचित हो भी जाती है तो भी उनका यह एहसान तो अवश्य है कि वे फासिस्ट नहीं हैं या कि लोकतंत्र को  डंडे से  नहीं हांका। हालाकि उनकी नीतियों के कारण ही देश के अमीर और ज्यादा अमीर हुए और निर्धन और ज्यादा निर्धन। डॉ मनमोहनसिंह की नीतियों को ही १९९९ -२००४  तक तत्कालीन एनडीए की अटल सरकार ने भी अपनाया था। अमेरिका प्रणीत  और मनमोहन सिंह द्वारा स्थापित नीतियों  को एनडीए ने   इतना अमली जमा पहनाया  कि तब उन्हें "इण्डिया शाइनिंग' और राजनीतिक फील गुड होने लगा था। यूपीए और कांग्रेस को या डॉ मनमोहनसिंह को वैसा घमंड या फीलगुड नहीं हो रहा जैसा भाजपाइयों को २००४ में सत्ता में रहते हो रहा था। आज भले ही  मॅंहगाई ,बेरोजगारी और भृष्टाचार  के के लिए डॉ मनमोहनसिंह की नीतियों को और यूपीए सरकार को गालियां दीं जा रही हैं किन्तु देश को  यह याद रखना  चाहिए  कि मोदी और भाजपा की नीतियाँ   भी वही हैं जो डॉ मनमोहनसिंघ की हैं। चूँकि डॉ मनमोहनसिंह  , सोनिया गांधी और कांग्रेस  के नेत्तव में भारत में लोकशाही  ज़िंदा रही इसलिए उन्हें धन्यवाद दिया जा सकता है । किन्तु उनकी विनाशकारी आर्थिक  नीतियों के कारण  जब जनाक्रोश चरम पर है और जबकि  देश पर  फासिज्म  के सत्ता में आने  की प्रवल  सम्भावनाएं  हैं तो  डॉ मनमोहन सिंह ,सोनिया गांधी ,राहुल और कांग्रेस  पर यह आरोप सदा लगाया जाता रहेगा कि वे भारत में 'फासिज्म' को मौका  देने के लिए उतने ही  जिम्मेदार हैं जितने  कि व्यक्तिपूजक -साम्प्रदायिक और दिग्भ्रमित  जनगण।

                          श्रीराम तिवारी   



 

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